आध्यात्मिक
ज्ञान आपको ईश्वर से जोड़ता है
आध्यात्मिकता आखिर है क्या?
विश्व
में जिस रफ्तार से मानव की इच्छाएं बढ़ती जा रही है, उसी तेजी मानव में हिंसा, क्रुरता, लालच और क्रोध जैसी बीमारियों से घिर
चुकी है। इससे छुटकारा के लिए मानव को अच्छा मार्ग और विचारों को आत्मसात करना
होग। तभी मानव का जीवन सुख्मय हो सकता है।
मानव
की इच्छाओं की पूर्ति कभी होती है। इच्छा पूर्ति के बाद भी इच्छाएं बढ़ती जाती है।
समस्याएं खत्म नही होती। यही दुख का कारण बनता है। जो बंधता गया वहीं संसार में
फंसता गया और यही मोह माया का संचार है। वही कार्य करो जिसे आपकी आत्मा स्वीकार
करे। जीवन में यह नियम ले लों कि जिस कार्य के लिए तुम्हारी आत्मा गवाही देती हो
उसे प्राथमिकता देंगे।
काम, क्रोध, लोभ, मोह अहंकार इन्सान के सबसे बड़े दुश्मन
हैं। अज्ञानता के कारण इन्सान इनके चक्कर में फंसकर परमात्मा को ही भूल गया है।
उन्होंने कहा कि परमात्मा सब में निवास रखने वाला है, हर एक के शरीर में बसने वाला है।
मनुष्य को सदैव परमात्मा का नाम जपते हुए अपना जीवन व्यतीत करना चाहिए और मनुष्य
सांसारिक मोह माया त्याग कर परमात्मा की भक्ति करनी चाहिए। धन आने पर इंसान को
अहंकार नहीं करना चाहिए।
आध्यात्मिकता
का किसी धर्म, संप्रदाय या मत से कोई संबंध नहीं है।
आप अपने अंदर से कैसे हैं,
आध्यात्मिकता इसके बारे में है।
आध्यात्मिक होने का मतलब है, भौतिकता
से परे जीवन का अनुभव कर पाना। अगर आप सृष्टि के सभी प्राणियों में भी उसी
परम-सत्ता के अंश को देखते हैं, जो
आपमें है, तो आप आध्यात्मिक हैं। अगर आपको बोध है
कि आपके दुख, आपके क्रोध, आपके क्लेश के लिए कोई और जिम्मेदार
नहीं है, बल्कि आप खुद इनके निर्माता हैं, तो आप आध्यात्मिक मार्ग पर हैं। आप जो
भी कार्य करते हैं, अगर उसमें सभी की भलाई निहित है, तो आप आध्यात्मिक हैं। अगर आप अपने
अहंकार, क्रोध, नाराजगी, लालच, ईष्र्या और पूर्वाग्रहों को गला चुके हैं, तो आप आध्यात्मिक हैं। बाहरी
परिस्थितियां चाहे जैसी हों, उनके
बावजूद भी अगर आप अपने अंदर से हमेशा प्रसन्न और आनंद में रहते हैं, तो आप आध्यात्मिक हैं। अगर आपको इस
सृष्टि की विशालता के सामने खुद की स्थिति का एहसास बना रहता है तो आप आध्यात्मिक हैं।
आपके अंदर अगर सृष्टि के सभी प्राणियों के लिए करुणा फूट रही है, तो आप आध्यात्मिक हैं।
आध्यात्मिक
होने का अर्थ है कि आप अपने अनुभव के धरातल पर जानते हैं कि मैं स्वयं ही अपने
आनंद का स्रोत हूं। आध्यात्मिकता मंदिर, मस्जिद
या चर्च में नहीं, बल्कि आपके अंदर ही घटित हो सकती है।
यह अपने अंदर तलाशने के बारे में है। यह तो खुद के रूपांतरण के लिए है। यह उनके
लिए है, जो जीवन के हर आयाम को पूरी जीवंतता के
साथ जीना चाहते हैं। अस्तित्व में एकात्मकता व एकरूपता है और हर इंसान अपने आप में
अनूठा है। इसे पहचानना और इसका आनंद लेना आध्यात्मिकता का सार है।
जन्म, जरा और मृत्यु भौतिक शरीर को सताते हैं, आध्यात्मिक शरीर को नहीं। आध्यात्मिक
शरीर के लिए जन्म, जरा और मृत्यु एक प्राकृतिक क्रिया है, जो ब्रह्मांड के लिए या विश्व के लिए
नियति है। आध्यात्मिक शक्ति प्राप्त व्यक्ति ईश्वरीय शक्ति संपन्न बन जाता है।
शास्त्र में उल्लेख है, 'अहं ब्रह्मास्मि' अर्थात् मैं ही ब्रह्म हूं। जीवन का
ब्रह्म बोध ही भक्ति है। भक्त ब्रह्मपद पर आसीन होते हैं। वे दिव्य कर्मो के विषय
में सब कुछ जानने का प्रयत्न करते रहते हैं। इस प्रकार भी समझा जाना चाहिए कि अगर
एक घड़ा नदी में डूबा हुआ हो, उसमें
पानी भर गया हो तो एक वाक्य में कहना मुश्किल है कि पानी में घड़ा है या घड़े में
पानी है।
आध्यात्मिक
जीवन एक ऐसी नाव है जो ईश्वरीय ज्ञान से भरी होती है। यह नाव जीवन के उत्थान एवं
पतन के थपेड़ों से हिलेगी-डोलेगी, पर
डूबेगी नहीं। यह मझधार को जरूर पार कराएगी। उसकी पतवार उस माझी के हाथ में रहती है
जो जगत का पालनहार है। वस्तुत: मनुष्य को समझने का प्रयत्न करना चाहिए कि उसका कुछ
भी नहीं है। सारी दृश्य और अदृश्य वस्तुएं प्रभु की ही हैं। वही उसका स्वामी है।
हम सिर्फ अपने कर्म फल के आधार पर उपयोग कर रहे है। जिस समय प्रभु यह समझ लेंगे कि
हमारी उपयोगिता समाप्त हो गई है उसी समय हमें विमुक्त कर देंगे। संसार के स्वामी
प्रभु जीवों से सेवा तब तक लेते रहते हैं जब तक जीव उनके अनुरूप कार्य करता रहता
है। तत्पश्चात उसके पूर्व कर्म के अनुरूप दूसरी जीवात्मा में रखा जाता है, नहीं तो दर-दर भटकता रहता है।
पुनर्जन्म का सिद्धांत इसी आधार पर वर्णित है। जीवात्मा के उच्च स्तर पर मनुष्य को
कार्य करना होगा। बिना कर्मो के जीवों की आत्मा शुद्ध नहीं होती है। जब तक आत्मा
शुद्ध नहीं होती है तब तक सकाम कर्म करते रहना होगा। मनुष्य को कोई शक नहीं होना
चाहिए कि प्रभु पूर्ण हैं और वह स्वयं अंश मात्र है। अंश अंशी के तुल्य नहीं हो
सकता है। मनुष्य अपने आपको पूर्ण समझे, जब
कोई वस्तु की न आकांक्षा रहे न शोक
अगर
तुम इस संसार के किसी भी काम को अपने हाथ में लेकर कर सकते हो, फिर तुम्हारे आध्यात्मिक होने की एक
संभावना पैदा हो सकती है,
अन्यथा नहीं। अगर तुम्हारे पास इस
संसार के किसी भी काम को लेकर और अच्छी तरह से करने की शक्ति और साहस है, तब तुम संभवतः आध्यात्मिक हो सकते हो।
यह
उन लोगों के लिए नहीं है,
जो कुछ भी नहीं कर सकते। अभी, पूरे देश के मन में यही बैठा हुआ है, संभवतः पूरे संसार के मन में, कि वे निकम्मे और नालायक लोग, आध्यात्मिक लोग होते हैं, क्योंकि वे तथाकथित आध्यात्मिक लोग
वैसे ही हो गए हैं। वे लोग जो किसी भी चीज को करने के लायक नहीं हैं, वे बस यही करते हैं कि एक गेरुआ वस्त्र
पहन कर और किसी मंदिर के सामने बैठ जाते हैं; उनका
जीवन सँवर जाता है। यह अध्यात्म नहीं है, यह
वर्दी पहनकर बस भीख माँगना है। अगर तुम्हें अपनी चेतना पर विजय प्राप्त करनी है, अगर तुम्हें अपनी चेतना के शिखर पर
पहुँचना है, वहाँ एक भिखारी कभी नहीं पहुँच सकता।
दो
तरह के भिखारी होते हैं। गौतम बुद्ध तथा उस स्तर के लोग उच्चतम श्रेणी के भिखारी
हैं। दूसरे सभी निपट भिखारी हैं। मैं तो कहूँगा कि एक सड़क का भिखारी तथा राजगद्दी
पर बैठा हुआ एक राजा, दोनों ही भिखारी हैं। वे निरन्तर बाहर
से कुछ माँग रहे होते हैं। सड़क का भिखारी हो सकता है कि पैसा, भोजन या आय माँग रहा हो। राजा हो सकता
है कि किसी दूसरे राज्य पर विजय, खुशी
या कुछ इस तरह की अनर्गल चीजें माँग रहा हो।
आजकल
लोग आध्यात्मिकता का मतलब निकालते हैं कि स्वयं को यातना देना और अभावग्रस्त जीवन
बिताना। इसको लोग भूखे रहने और सड़क के किनारे बैठ कर भीख मांगने से जोड़ने लगे हैं, और सबसे मुख्य यह है कि आध्यात्मिकता
को जीवन-विरोधी या जीवन से पलायन समझा जाता है। लोग यह मानते हैं कि आध्यात्मिक लोगों
को जीवन का आनन्द लेना वर्जित है और हर तरीके से कष्ट झेलना जरूरी है। जबकि सचाई
यह है कि आध्यात्मिक होने का आपके बाहरी जीवन से कोई लेना-देना नहीं है।
एक
बार किसी ने मुझसे पूछा - एक आध्यात्मिक और संसारी मनुष्य में क्या अंतर है? मेरा सहज जबाब था- एक संसारी मनुष्य
केवल अपना भोजन कमाता है,
बाकी सब कुछ-जैसे प्रसन्न्ता, शांति और प्रेम-स्नेह के लिए उसे
दूसरों की भीख पर निर्भर रहना पड़ता है।
इसके
विपरीत एक आध्यात्मिक व्यक्ति अपनी शांति, प्रेम
और प्रसन्न्ता सब कुछ स्वयं कमाता है, और
केवल भोजन के लिए दूसरों पर निर्भर रहता है। लेकिन अगर वह चाहे, तो अपना भोजन भी कमा सकता है। इन कुछ
लक्षणों से आप समझ जाएंगे कि आध्यात्मिकता आखिर है क्या?
आध्यात्मिकता
का किसी धर्म, संप्रदाय, फिलॉसफी, या मत से कोई लेना-देना नहीं है। आप अपने अंदर से कैसे हैं, आध्यात्मिकता इसके बारे में है।
आध्यात्मिकता का मतलब है,
भौतिक से परे जीवन को अनुभव कर पाना।
आप सृष्टि के सभी प्राणियों में भी उसी परम-सत्ता के अंश को देखते हैं, जो आपमें है, तो आप आध्यात्मिक हैं।
अगर
आपको बोध है कि आपके दुख,
आपके क्रोध, आपके क्लेश के लिए कोई और जिम्मेदार
नहीं है, बल्कि आप खुद इनके निर्माता हैं, तो आप आध्यात्मिक मार्ग पर हैं। आप जो
भी कार्य करते हैं, अगर उसमें केवल आपका हित न हो कर, सभी की भलाई निहित है, तो आप आध्यात्मिक हैं। अगर आप अपने
अहंकार, क्रोध, नाराजगी, लालच, ईर्ष्या, और पूर्वाग्रहों को गला चुके हैं, तो आप आध्यात्मिक हैं।
बाहरी
परिस्थितियां चाहे जैसी हों, उनके
बावजूद भी अगर आप अपने अंदर से हमेशा प्रसन्न् और आनन्द में रहते हैं, तो आप आध्यात्मिक हैं। अगर आपको इस
सृष्टि की विशालता के सामने खुद के नगण्य और क्षुद्र होने का एहसास बना रहता है तो
आप आध्यात्मिक बन रहे हैं। आपके पास अभी जो कुछ भी है, उसके लिए अगर आप सृष्टि या किसी परम
सत्ता के प्रति कृतज्ञता महसूस करते हैं तो आप आध्यात्मिकता की ओर बढ़ रहे हैं।
अगर
आपमें केवल स्वजनों के प्रति ही नहीं, बल्कि
सभी लोगों के लिए प्रेम उमड़ता है, तो
आप आध्यात्मिक हैं। आपके अंदर अगर सृष्टि के सभी प्राणियों के लिए करुणा फूट रही
है, तो आप आध्यात्मिक हैं।
आध्यात्मिक
होने का अर्थ है कि आप अपने अनुभव के धरातल पर जानते हैं कि मैं स्वयं अपने आनन्द
का स्रोत हूं। आध्यात्मिकता कोई ऐसी चीज नहीं है जो आप मंदिर, मस्जिद, या चर्च में करते हैं। यह केवल आपके अंदर ही घटित हो सकती है।
आध्यात्मिक प्रक्रिया ऊपर या नीचे देखने के बारे में नहीं है।
यह
अपने अंदर तलाशने के बारे में है। आध्यात्मिकता की बातें करना या उसका दिखावा करने
से कोई फायदा नहीं है। यह तो खुद के रूपांतरण के लिए है। आध्यात्मिक प्रक्रिया मरे
हुए या मर रहे लोगों के लिए नहीं है। यह उनके लिए है जो जीवन के हर आयाम को पूरी
जीवंतता में जीना चाहते हैं। आध्यात्मिक प्रक्रिया एक यात्रा की तरह है - निरंतर
परिवर्तन। हम राह की हर चीज से प्रेम करना और उसका आनंद लेना सीखते हैं, पर उसे उठाते नहीं।
आध्यामिकता
मूल रूप से मनुष्य की मुक्ति के लिए है, अपनी
चरम क्षमता में खिलने के लिए। यह किसी मत या अवधारणा से अपनी पहचान बनाने के लिए
नहीं है। आध्यात्मिकता का अर्थ है कि अपने विकास की प्रक्रिया को खूब तेज करना।
आध्यात्मिक
मार्ग पर चलने का अर्थ है कि आप मुक्ति की ओर बढ़ रहे हैं, चाहे आपकी पुरानी प्रवृत्तियां, आपका शरीर, और आपके जीन्स कैसे भी हों। अस्तित्व
में एकात्मता व एकरूपता है और हर इंसान अपने आप में अनूठा है। इसे पहचानना और इसका
आनन्द लेना ही आध्यात्मिकता का सार है।
एक
आध्यात्मिक व्यक्ति और एक संसारी व्यक्ति, दोनों
ही उसी अनन्त-असीम को चाह रहे हैं। एक उसे जागरूक हो कर खोज रहा है जबकि दूसरा
अनजाने में। अगर आप अपना व्यक्तित्व मिटा देते हैं तो आपकी मौजूदगी बहुत प्रबल हो
जाती है - यही आध्यात्मिक साधना का सार है। जब आप अपनी नश्वरता के बारे में हरदम
जागरूक रहने लगते हैं, तब आप अपनी आध्यात्मिक खोज में कभी
विचलित नहीं होते। सोच-विचार दिमाग की उपज है, यह कोई
ज्ञान नहीं है।
आध्यात्मिक
होने का अर्थ है औसत से ऊपर उठना - यह जीने का सबसे विवेकपूर्ण तरीका है।
आध्यात्मिकता के लिए कई जन्मों तक साधना करनी पड़ती है - ऐसी सोच अधिकतर लोगों में
प्रतिबद्धता और एकाग्रता की कमी के कारण बनती है। साधना एक ऐसी विधि है, जिससे पूरी जागरूकता में आध्यात्मिक
विकास की गति को तेज किया जा सकता है।
आध्यात्मिकता
न तो मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया है और न ही सामाजिक- यह शत-प्रतिशत अस्तित्वगत है।
अगर आप किसी भी काम में पूरी तन्मयता से डूब जाते हैं, तो आध्यात्मिक प्रक्रिया वहीं शुरू हो
जाती है, चाहे वो काम झाड़ू लगाना ही क्यों न हो।
किसी चीज को सतही तौर पर जानना सांसारिकता है, और
उसे ही गहराई तक जानना आध्यात्मिकता है।
आध्यात्मिक ज्ञान
मन
की प्रकृति हमेशा ही संग्रह करने की होती है। जब यह स्थूलरूप में होता है तो
च़ीजों का संग्रह करना चाहता है, जब
यह थोड़ा-सा विकसित होता है तो ज्ञान का संग्रह करना चाहता है।
वे
सारी बातें जिन्हें आप सोचते और महसूस करते हैं तथा स्वयं के बीच जब एक दूरी बनाने
लगते हैं तो इसे ही हम चेतना कहते हैं।जब इसमें भावना प्रबल होती है तो यह लोगों
का संग्रह करना चाहता है,
इसकी मूल प्रकृति बस यही है कि यह
संग्रह करना चाहता है। मन एक संग्रहकर्ता है, हमेशा
कुछ न कुछ एकत्रित करना, बटोरना चाहता है। जब कोई व्यक्ति यह
सोचने और विश्वास करने लगता है कि वह आध्यात्मिक मार्ग पर है तो उसका मन तथाकथित
आध्यात्मिक ज्ञान का संग्रह करने लगता है।
जब तक कोई व्यक्ति संग्रह करने की ज़रूरत से उपर नहीं उठ जाता, तब तक कोई फर्क नहीं पड़ता – चाहे वह भोजन हो, कोई चीज़ हो, सांसारिक ज्ञान हो,– यह कोई मायने नहीं रखता कि आप क्या इकट्ठा कर रहे हैं। संग्रह करने की ज़रूरत का अर्थ है कि अभी भी एक अधूरापन रह गया है। यह अधूरापन, अधूरा होने का भाव, इस असीमित प्राणी में घर कर गया है, इसका एकमात्र कारण यह है कि कहीं न कहीं आप अपनी पहचान उन सीमित च़ीजों के साथ बना लेते हैं जो कि आप हैं ही नहीं। आपकी परम प्रकृति बहुत दूर नहीं है।यहीं पर उसका अनुभव करना है, यहीं पर उसका साक्षात्कार करना है। अस्तित्व के सभी आयामों से पार जाने पर हम परमानन्द अवस्था में प्रवेश करते हैं। यह आने वाले कल या किसी अन्य जन्म की बात नहीं है। यह एक जीवंत वास्तविकता है।आप चेतना और साधना के मार्ग पर लगे रहिए। अगर आप सहजतापूर्वक इस रेखा को पार करते हैं। यह कोई ऐसा काम़ नहीं है जिसे आप कर न सकें। आपको तो बस यह स्वीकृति देनी है ताकि यह स्वतः घटित हो सके। लेकिन चेतना और साधना की प्रक्रिया से आप ऐसी स्थिति की रचना कर सकते हैं जहाँ यह निश्चित रूप से घटित हो सकती है।
आध्यात्मिक ज्ञान आपको ईश्वर से जोड़ता है
ज्ञान
आपको वस्तुओं का ज्ञान कराता है जो पृथ्वी पर मानव द्वारा निर्मित हैं जैसे मकान
का कंस्ट्रक्शन है और सामान आदि का बनना है कल कारखानों में मशीनों के द्वारा
उत्पादन है यह सब भौतिक ज्ञान है आध्यात्मिक ज्ञान अंदर का ज्ञान होता है आत्मा
परमात्मा के बारे में कि मानव नहीं क्यों जन्म लिया है मानव का उद्देश्य क्या है
आखिर मानव क्या करना चाहिए जिससे उसका जन्म सफल हो सबको आध्यात्मिक ज्ञान कहते हैं
आत्मा परमात्मा के ज्ञान को आध्यात्मिक ज्ञान कहते हैं इनमें आध्यात्मिक ज्ञान
ज्यादा से लेकिन यह संसार भौतिक ज्ञान का इस समय पीछे पड़ा हुआ है क्योंकि संसार
को धन सुविधाएं लाभ पैसा चाहिए वह सब भौतिक ज्ञान से प्राप्त होता है
भौतिक ज्ञान और आध्यात्मिक ज्ञान में क्या अंतर है और दोनों में कौन
श्रेष्ठ है?
शिक्षा
दो प्रकार की होती है, भौतिक तथा आध्यात्मिक। भौतिक शिक्षा
जड़-विद्या कहलाती है। जड़ का अर्थ है “जो
चल-फिर न सके” अर्थात पदार्थ। आत्मा तो चल-फिर सकती
है। हमारा शरीर पदार्थ तथा आत्मा का सम्मेल है। जब तक आत्मा वहाँ रहती है, शरीर हिलता-डुलता है। उदाहरणार्थ
मनुष्य के कोट तथा पैंट तब तक हिलते-डुलते हैं, जब
तक मनुष्य उन्हें पहने रहता है। एसा लगता है की कोट तथा पैंट ही हिल डुल रहे हैं, किंतु वास्तव मेँ यह तो शरीर है, जो हिलाता-डुलाता है। इसी तरह ये शरीर
चलता फिरता है क्यूंकि आत्मा इसे चला फिर रही है। दूसरा उदाहरण मोटरकार का है। मोटरकार
चलती है, क्यूंकि चालक उसे चला आ रहा है। जो
मुर्ख होगा वह यहीँ सोचेगा की मोटर कार अपने आप चल रही है| अद्भुत यांत्रिक व्यवस्था के बावजूद भी
मोटरकार स्वतः नहीँ चल सकती।
चूंकि
लोगोँ को केवल जड़-विद्या अर्थ भौतिकतावादी शिक्षा दी जाती है, इसलिए वे सोचते हैं कि यह भौतिक
प्रकृति अपने आप कार्य करती है, चलती
फिरती है, और अनेक अद्भुत वस्तुएँ प्रदर्शित करती
है। जब हम समुद्र तट पर होते हैं तो हम लहरोँ को चलते देखते हैं, लेकिन वे स्वतः नहीँ चलती। हवा उन्हें चलाती है, और हवा को कोई और ही चलाता है। इस तरह
यदि आप चरम कारण तक पहुंचे,
तो आप को समस्त कारणोँ के कारण
मिलेंगे। परम कारण की खोज करना ही असली शिक्षा है।
आधुनिक
सभ्यता मेँ प्रौद्योगिकी को समझने के लिए की किस तरह मोटरकार या हवाई जहाज चलता है
बडे बडे संस्थान हैं। वे इसका अध्ययन कर रहे हैं कि इतनी सारी मशीनरी कैसे बनाई
जाए किंतु ऐसा कोई शैक्षिक संस्थान नहीँ है, जो
इस की खोज करे कि आत्मा किस तरह गतिशील है। वास्तविक गति देने वाले का अध्यन नहीँ
किया जा रहा; उल्टे पदार्थ की बाह्य गति का अध्ययन
किया जा रहा है।
मेसाचुसेट्स
इंस्टिट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी मेँ भाषण देते हुए श्रील प्रभुपाद ने छात्रोँ से पूछा, “शरीर को चलाने वाले आत्मा का अध्ययन
करने के लिए टेक्नोलॉजी कहाँ है?” उनके
पास एसी कोई टेक्नोलॉजी नहीँ थी। वे ठीक से उत्तर न दे पाए, क्योंकि उनकी शिक्षा केवल जड़-विद्या
थी। ईशोपनिषद् कहती है कि जो लोग एसी भौतिकतावादी शिक्षा की उन्नति मेँ लगे हुए
हैं वे संसार के गहनतम भागोँ मेँ जाएंगे। वर्तमान सभ्यता बहुत ही खतरे मेँ है, क्यूंकि प्रामाणिक आध्यात्मिक शिक्षा
के लिए संसार मेँ कहीँ कोई व्यवस्था नहीँ है। इस तरह मानव समाज को जगत के गहन
अंधकार क्षेत्र मेँ धकेला जा रहा है।
भौतिकतावादी
शिक्षा केवल माया का विस्तार है। इस भौतिकतावादी शिक्षा मेँ जितना आगे बढ़ेंगे, उतनी ही अधिक ईश्वर को समझने की हमारी
क्षमता अवरुद्ध होगी और अंत मे घोषित करना पड़ जाएगा कि, “ईश्वर मृत है।” यह सब अज्ञान तथा अंधकार है। अतः भौतिकतावादी लोग निश्चय ही अंधकार
मेँ धकेले जा रहे हैँ। किंतु एक अन्य वर्ग भी है – तथाकथित दार्शनिकोँ, मनोधर्मियों, धर्मविदों तथा योगियों का – जो उससे भी अधिक गहन अंधकार मेँ जा रहे
हैं, क्यूंकि वे ईश्वर की अनदेखी कर रहे
हैं। वे अध्यात्मिक ज्ञान का अनुशीलन करने का दिखावा करते हैं, किंतु उन्हें ईश्वर का कोई ज्ञान नहीँ
रहता। अतः उनकी शिक्षाएँ पक्के भौतिकतावादीयों की शिक्षाओं की अपेक्षा कहीँ और
घातक हैं। क्यों? क्यूंकि वे लोगोँ को यह सोचने के लिए
दिग्भ्रमित करते हैं कि वे असली ज्ञान प्रदान कर रहे हैं। वे जिस तथाकथित योग
प्रणाली की शिक्षा देते हैं-“केवल
ध्यान करो और तुम समझ जाओगे कि तुम ईश्वर हो” – वह
लोगोँ को दिगभ्रमित करती है। तथाकथित व्यर्थ के योगी शिक्षा देते हैं, “तुम स्थिर तथा मौन बन जाओ, और तुम ईश्वर हो जाओगे। हम मौन कैसे हो
सकता हैं? क्या मौन बनने की कोई संभावना है? नहीँ एसी कोई संभावना नहीँ है। “इच्छारहित हो जाओ और तुम ईश्वर बन
जाओगे।” भला हम इच्छारहित कैसे हो सकते हैं ? ये सब बहकावे हैं। हम इच्छारहित हो
नहीँ सकते, हम मौन नहीँ हो सकते। लेकिन हमारी
इच्छाएं तथा हमारे कार्यकलाप शुद्ध बनाए जा सकते हैं। यही असली ज्ञान है। हमारी
एकमात्र इच्छा ईश्वर की सेवा करने की होनी चाहिए।
इच्छा की शुद्धि है। स्थिर तथा मौन होने के बजाए हमेँ अपने कार्योँ को ईश्वर
की सेवा से जोड़ देना चाहिए।
हम
यह नहीँ कहते की आप भौतिक शिक्षा मेँ आगे न बढ़ेँ। आप आगे बढ़ेँ, किंतु साथ ही कृष्णभावनाभावित बनें।
यही हमारा संदेश है। हम यह नहीँ कहते की आपको मोटरकारें नहीँ बनानी चाहिए। अतः
शिक्षा आवश्यक है, किंतु यदि यह निरी भौतिकतावादी है – यदि यह कृष्णभावना से विहीन है – तो यह अत्यंत घातक है। विद्वानों ने
कहा है- 'आध्यात्मिकता का ही दूसरा नाम
प्रसन्नता है। जो प्रफुल्लता से जितना दूर है, वह
ईश्वर से भी उतना ही दूर है। वह न आत्मा को जानता है, न परमात्मा की सत्ता को। सदैव झल्लाने, खीजने, आवेशग्रस्त होने वालों को मनीषियों ने नास्तिक बताया है।
आध्यात्मिक ज्ञान ( spiritual science) व भौतिक ज्ञान पर एक नजर ….
आज
का युग भौतिकवादी है । भौतिकता की तुलना मे आध्यात्मिकता ( spirituality) के प्रति जागरूकता बहुत ही कम है ।
क्योंकि लोगों मे अभी इसके प्रति पूरी तरह से श्रद्धा नहीं बैठी है , दृढ़ विश्वास नहीं है । होगी भी तो
कैसे ? स्कूल कॉलेजों मे इतिहास ,भूगोल,गणित, विज्ञान, समाजवाद, साम्यवाद …..आदि अनेकों बातों की जानकारी से अवगत
कराया जाता है क्योंकि इनके द्वारा जिन्दगी गुजारने के लिये रोटी रोजी मिलती है , जो जरूरी भी है और गलत भी नहीं है ।
लेकिन साथ मे यदि आध्यात्मिकता के बारे मे भी रूचि लाने के लिये भी पाठ पढ़ाया
जाये ,प्रयास किया जाये तो सोने पर सुहागा
वाली बात होगी । मगर आध्यात्मवाद, जो
जीवन का तत्व है , उसे हेय दृष्टि से देखा जाता है ।जो कि
अनुचित है । यही बात आध्यात्मिक क्षैत्र मे बाधक बन रही है ।
इसके
अलावा ये भी एक कारण है कि धर्म का वास्तविक रूप जनता के आगे नहीं आ रहा है ।
धार्मिक स्थानों मे पैसों से प्रतिष्ठा हो रही है । आये दिन बाबाओं के कांड होते
रहते है ….. अनेकों और भी बातें है जिनकी वजह से
अंदर की श्रद्धा तो कम होती जा रही है ऊपरी दिखावा व आडम्बर बढ़ता जा रहा है ।अगर
इस अभाव को पूरा किया जाये तो निश्चय ही पैसों के स्थान पर धर्म की प्रतिष्ठा होगी
। धर्म का सही रूप सामने आयेगा जिसकी वजह से आध्यात्मिक क्षैत्र मे लोगों का झुकाव
बढ़ेगा व ज्ञान का प्रकाश फैलेगा ।
जीवन में आध्यात्मिक खुशबू
यह
तो हम सभी जानते हैं कि जब दो सत्ताएं, आध्यात्मिक
सत्ता जिसका प्रतिनिधित्व आत्मा करती है और भौतिक सत्ता जिसका प्रतिनिधित्व शरीर
करता है, मिल जाती हैं तो मानव बनता है।
अनेक
समस्याओं से जूझता हुआ आज का मनुष्य जब किसी आध्यात्मिकता प्रिय व्यक्ति से यह
सुनता है कि सभी समस्याओं का हल जीवन में आध्यात्मिक खुशबू भरने से हो सकता है तो
वह प्रश्न कर उठता है कि आध्यात्मिकता ही क्यों? क्या मानव और मानव का बौद्धिक ज्ञान इन समस्याओं को हल करने में
पूर्णत: असमर्थ है? इस प्रश्न के उत्तर में हमें यह
विश्लेषण करना होगा कि मानव कौन है? मानव
के अंदर कौन-कौन सी शक्तियां कार्यरत हैं?
अब
प्रश्न उठता है कि यह आध्यात्मिकता क्या है? कैसे
मिलती है? आध्यात्मिकता शब्द लोगों के मन में
बड़ी जिज्ञासा और रहस्य की भावना उत्पन्न करता है क्योंकि धर्म की भेंट में
आध्यात्मिकता की कोई एकल या व्यापक रूप से स्वीकृत परिभाषा उपलब्ध नहीं है जिसका
लोग अनुसरण करें। सरल भाषा में परिभाषित करना हो तो आध्यात्मिकता माने आत्मा और
परमात्मा का संबंध जुटना ताकि उसमें शक्तियों और गुणों का प्रवाह हो सके।
अब
यह सुनकर कई लोगों के मन में यह प्रश्न उठेगा कि प्यार, शांति, आनंद मनुष्यों से भी तो मिल सकते हैं, इसके लिए परमात्मा ही क्यों आवश्यकता है? इसमें कोई संदेह नहीं कि मनुष्य प्यार, स्नेह देने में समर्थ है परंतु यह
प्राप्ति अल्पकाल के लिए होती है और यथाशक्ति होती है, क्योंकि कोई भी मनुष्य संपूर्ण सुखी, संपूर्ण आनंद और गुण स्वरूप नहीं है।
जब वह स्वयं ही संपूर्ण नहीं तो दूसरों को क्या बनाएगा। जैसे सूखी नहर का संबंध
आपने किसी छोटी सी नदी से जोड़ दिया तो उसमें पानी तो अवश्य आ जाएगा पर ज्योंही
उसका साधन खत्म होगा, उसकी भी समाप्ति हो जाएगी। परंतु यदि
उसका संबंध सागर से जोड़ दिया जाए तो वह कभी भी सूखेगी नहीं। ठीक इसी प्रकार आत्मा
को भी सही रूप में लाने के लिए उसको अविनाशी गुणों के भंडार परमात्मा से जोड़ना
होगा और जब वह अपने में पूर्ण आध्यात्मिकता भर लेगी और शरीर को साधन मानकर इसे
चलाएगी तो जीवन जीने की क्रिया सही अर्थों में शुरू हो जाएगी।
स्मरण
रहे! आध्यात्मिकता के अभाव में प्रेम, सुख, शांति, आनंद से रहित जीवन सारहीन हो जाता है। अत: सुखी व शांतिमय जीवन के
लिए आध्यात्मिकता को जोड़ना अत्यंत आवश्यक है। अमूमन लोगों की यह मान्यता होती है
कि घर-बार छोड़े बिना आत्मज्ञान प्राप्त करना संभव नहीं है परंतु आध्यात्मिक तत्वज्ञान
के अनुसार मन की शांति या आत्मबोध की प्राप्ति के लिए घर-बार छोड़कर कहीं दूर जंगल
में जाने की आवश्यकता ही नहीं है,
बल्कि
अपने ही घर-संसार में रहते हुए अपनी समस्त मानसिक कमजोरियों का त्याग कर स्वयं को
आंतरिक स्तर पर स्थिर करके भीतर से जो आदेश मिले उसका पालन करके हम अपनी आत्मा को
प्रबुद्ध कर सकते हैं।
समाज
के अंदर आज आध्यात्मवाद की चर्चा तो बहुत बड़े पैमाने पर होती है, परंतु उसकी वास्तविकता का लोप हो रहा
है, यह भी हमें मानना होगा। हमें यह किंचित
भी भूलना नहीं चाहिए कि हमारा व्यक्तिगत और सामूहिक कल्याण सच्चे आध्यात्मवाद पर
ही निर्भर है। अत: हमें सच्चे आध्यात्मवाद की तलाश करनी चाहिए और उसे ही अपनाना
चाहिए।
आत्मबल
आध्यात्मिक ज्ञान (adhyatmik gyan), वह ज्ञान है जिसके अंतर्गत मनुष्य अपने मस्तिष्क (mind) में छिपे हुए आत्मबल को जगह करके एक माध्यम (link) को विकसित कर सकता है| यह लिंक धीरे-धीरे विकसित होकर अंतरिक्ष की ऊंचाइयों पर पहुंचकर आध्यात्मिक उर्जा के मुख्य स्रोत (main source) से मिल जाता है| आत्मबल द्वारा विकसित यह लिंक जैसे ही इस उर्जा के मुख्य स्रोत से मिलता है, वैसे ही इस लिंक के माध्यम से आध्यात्मिक ऊर्जा, करंट के रूप में मानव मस्तिष्क तक आना प्रारंभ कर देती है| प्रतिदिन प्रयास करते रहने से मानव मस्तिष्क द्वारा विकसित यह link और भी शक्तिशाली हो जाता है|यह link एक प्रकार की आध्यात्मिक चुंबकीय तरंग (Spiritual magnetic wave) होती है जो मानव मस्तिष्क में ईश्वरीय शक्ति के मध्य आध्यात्मिक चुंबकीय आकर्षण (Spiritual Magnetic Attraction) के फलस्वरूप विकसित होती है|
जैसे-जैसे
मनुष्य का आत्मबल बढ़ता जाता है, वैसे-वैसे
इस तरंग(wave) की क्षमता भी बढ़ती जाती है जो
अंतरिक्ष से आवश्यकतानुसार आध्यात्मिक ऊर्जा(Spiritual energy) को प्राप्त करके मानव मस्तिष्क तक
पहुंचाती रहती है| इसके एक बार विकसित होने के बाद, बार बार प्रयास नहीं करना पड़ता है| जितनी भी ऊर्जा की आवश्यकता होती है इस
link के माध्यम से वह आसानी से उपलब्ध हो
जाती है|
आध्यात्मिक
ऊर्जा के संपर्क में आने से मनुष्य का मस्तिष्क कंप्यूटर के समान हो जाता है| यह कंप्यूटर केवल आध्यात्मिक ऊर्जा
द्वारा ही क्रियाशील होता है| मस्तिष्क
कंप्यूटर के क्रियाशील होने से नई-नई फाइलें मस्तिष्क की स्क्रीन पर दिखाई देने
लगती है, जिससे प्रकृति के नए-नए रहस्यों का ज्ञान होता है|
भौतिक
शिक्षा के साथ-साथ आध्यात्मिक शिक्षा का होना बहुत जरूरी है। भौतिक शिक्षा से मानव
अपनी तरक्की तो हो सकती है,
परंतु वास्तविक जीवन की नहीं। वैसे
हमें तो यह भी पता नहीं है कि ईश्वर निरंकार ने हमें कब तक के लिए इस नश्वर रूप
में धरती पर भेजा है और हमें जीवन भी किस प्रकार चलाना है। सत्य क्या है, मिथ्या क्या है। यह जानने के लिए
आध्यात्मिक शिक्षा भी जरूरी है।
God is god
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