विज्ञान के अनुसार मानव की
उत्पत्ति कैसे हुई
विज्ञानं तथा वैज्ञानिकों
के इतने प्रयासों के बाद भी पृथ्वी पर मनुष्य जीवन की उत्पत्ति कैसे हुई इसका अभी
तक कोई सटीक प्रमाण नहीं दे पाया है। यह अभी तक एक रहस्यमय पहेली ही रही है। लेकिन
सदियों से पृथ्वी पर 2 मत
चलते आ रहे है. पहला- धार्मिक और दूसरा- वैज्ञानिक। लेकिन दोनों के मतों द्वारे
अभी तक इस अनसुलझी पहेली कोई सटीक प्रमाण नहीं मिला है।
धार्मिक मान्यताओ के
अनुसार बताया गया है कि, भगवान
ही इस पूरी सृष्टि का रचयिता है। भगवान ने ही मनुष्य की उत्पत्ति की है,
लेकिन विज्ञान इसे बिल्कुल भी
नहीं मानता है। विज्ञानं का कहना है पृथ्वी के सभी प्राणी विकास की प्राकृतिक
प्रक्रिया है। उदहारण के तौर पर, मनुष्य वानर से लेकर मनुष्य होने तक विभिन्न अवस्थाओं से गुजरते
हुए, अनगिनत बदलाव के साथ
मनुष्य रूप में विकसित हुवा है। दिनों दिन मनुष्य में बदलाव होते जा रहा है,
मनुष्य विकशित हो रहा है,
यह सब एक प्राकृतिक प्रक्रिया है
मानव की उत्पत्ति ईश्वर ने
क़ी या विकास क़ी प्राकृतिक प्रक्रिया से
मनुष्य की उत्पत्ति कब और
कैसे हुई ? यह एक
अनसुलझी पहेली है।
धार्मिक मान्यताओं के
अनुसार सारे ब्रह्माण्ड का रचयिता भगवान है। वह सर्वव्यापी एवं सर्वशक्तिमान है।
उसी ने चांद, तारे,
ग्रह,
उपग्रह,
जल-थल,
पेड़ एवं समस्त जीवों की रचना की
है। मानव का पृथ्वी पर आगमन भी उसकी इच्छा और कृपा से हुआ है।
वैज्ञानिक विचारधारा इसके
बिल्कुल विपरीत है। विभिन्न क्षेत्रों में किए गए अनुसंधानों से वैज्ञानिक इस
निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि पृथ्वी का प्रत्येक प्राणी विकास की एक प्राकृतिक
प्रक्रिया की उपज है। इस प्रक्रिया के अनुसार भिन्न भिन्न जीवों की उत्पत्ति
भिन्न-भिन्न समय पर तथा भिन्न-भिन्न प्रकार के भौगोलिक परिवेश में होती है। आदिकाल
से लेकर आजतक पृथ्वी के प्राकृतिक वातावरण में अनगिनत बदलाव आये हैं। इस बदलते
पर्यावरणके अनुकूल बनाने के लिए प्रत्येक जीव अपने अंदर अनेकों परिवर्तन करता है
तथा विकास की विभिन्न अवस्थाओं से गुजरता है। चिंपैंजी और गोरिल्ला से लेकर आजतक
मनुष्य ने भी विकास की विभिन्न अवस्थाओं से गुजरते हुये आधुनिक स्वरूप धारण किया
है।
धार्मिक ग्रन्थों के
अनुसार भगवान ही जीवन देता है तथा एक दिन वही इसका अन्त कर देता है।वैज्ञानिकों का
मत है कि जीव एक निर्धारित मात्रा में ईधन लेकर स्वयं विकसित होता है और ईधन का
समाप्ति पर स्वतः ही समाप्त हो जाता है। न कोई इसे मारता है न ही कोई इसे जन्म
देता है। एक अध्ययन के अनुसार, सूर्य भी 7.6 बिलियन वर्षों के बाद अपने ईधन की समाप्ति के पश्चात् स्वतः ही
नष्ट होकर ब्लैक होल में परिवर्तित हो जायेगा तथा अपने चारों ओर स्थित सभी ग्रहों
तथा उपग्रहों को निगल जायेगा। विकास और विनाश की यह प्रक्रिया सतत् है इसी
प्राकृतिक प्रक्रिया के कारण प्रत्येक प्राणी का जन्म होता है तथा इसी के कारण
उसका अन्त हो जाता है।
विभिन्न काल की चटट्ानों
में छिपे पड़े कंकालों एवं जीवांशा के अध्ययन से पता चलता है कि जब पृथ्वी पर जीव
के पनपने के लिये उपयुक्त वातावरण उपलब्ध हो जाता है तब ही जीव का धरा पर आगमन
होता है। ईसा से लगभग 600
मिलियन वर्ष पूर्व पृथ्वी का थल एवं वायुमण्डल बहुत गर्म था। इस प्रकार के
पर्यावरण में किसी भी प्रकार के जीव का विकसित होना सम्भव नहीं था। अतः इस युग में
करोड़ों वर्षों तक पृथ्वी बिना जीवन के वीरान ही पड़ी रही। यही कारण है पृथ्वी के इस
प्राचीनतम प्रारम्भिक युग को अजोईक अथवा जीवन-रहित युगकहा जाता है। धीरे धीरे
पृथ्वी ठन्ड़ी होती गयी। प्रीकैम्ब्रियन युग के आते-आते,
पृथ्वी पर कई महत्वपूर्ण परिवर्तन
हुये। हाइड्ोजन और आक्सीजन गैसों मिलने से जल की उत्पत्ति हुई और वसुन्धरा के
धरातल पर सागरों एवं महासागरों का उद्भव हुआ। धरती पर जीवन की शुरूआत पहली बार इन
सागरों के जल से ही हुई। जल से उत्पन्न हुये जीवों का शरीर बहुत कोमल था। पौधो पर
फूल नहीं खिलतें थे। इसीलिए इस युग के पौधोंको नान फलॉवरिंग अर्थात् फूलरहित कहा
जाता है। जैसे-जैसे समय और परिस्थियां बदलती गयी, जीवों में परिवर्तन होते गये। कुछ जीव लुप्त हो गये तथा कई नई प्रजातियों
का अभ्युदय हुआ। ईसा से लगभग 500 मिलियन वर्ष पूर्व, कैम्ब्रीयन युग में सागरों में ऐसे जीवों की भरमार हो गई थी
जिनमें रीद की हड्डी ही नहीं थी। इन जीवों को इनवर्टीब्रेट कहा जाता है। जल की
रानी मछली का पर्दापण आज से 350 मिलियन वर्ष पूर्व हुआ। सिल्युरियन काल की इस मछली में फेफड़े
नहीं थे। करोडों वर्षों के पश्चात् मछलियों ने अपने शरीर में फेफड़ों का विकास
किया। इसी काल में जमीन पर पनपने वाले पौधों की भी उत्पत्ति हुई। परन्तु इस काल के
आते-आते उन जीवों का पृथ्वी से बिल्कुल सफाया हो चुका था,
जिनके शरीर में रीढ़ की हड्डी नहीं
थी।
जैसे-जैसे समय बीतता गया,
धरा के पर्यावरण में भारी बदलाव
आते गये। जो जीव इन परिवर्तनों के अनुसारअपने आप को ढाल नही सके,
वे हमेशा के लिये विलुप्त हो गये।
एम्फीबियन प्रजाति के जीव, जो जमीन पर रहसकते थे तथा पानी में भी,
आज से 320 मिलियन वर्ष पूर्व डिवोनियन काल में पृथ्वी पर
प्रकट हुये। मैसोजोइकयुग के जुरासिक काल में डायनासोर का आगमन हुआ। इस भारी भरकम
जीव ने लगभग 90
मिलियन वर्षों तक पृथ्वी पर साम्राज्य किया। परन्तु एक उल्कापिण्ड के पृथ्वी से
टकराने से भूमण्डल का पर्यावरण इतना धूल-धूसरित हो गया कि सूर्य का प्रकाश भी कई
वर्षों तक जमीन तक नहीं पहुंच पाया। पर्यावरण के इस बदलाव को डायनासोर सहन नहीं कर
सके और आज से 65
मिलियन वर्ष पृथ्वी से हमेशा के लिये गायब होगये। पृथ्वी के भूगर्भिक इतिहास के
टरशियरी काल को स्तनधारी जीवों का युग कहा जाता है। ह्वेल मछलिया,
चमगादड़,
बन्दर,
घोड़े इत्यादि स्तनधारी जीव इसी
काल में पृथ्वी पर आये। इस समय तक पृथ्वी पर विभिन्न प्रकार के पेड़ पौधों की भरमार
हो चुकी थी। इनमें फल देने वाले वृक्ष भी शामिल थे। ऐसी घास जिनसे गेंहू,
जौ, चावल और अन्य कई प्रकार के खाद्यान्न प्राप्त होते हैं जगंली
पौधों के रूप में जगह-जगह उगने लगी थी।आज से 30-45 लाख वर्ष पूर्व जब टरशियरी काल अपने अन्तिम चरण
में था, मनुष्य
का पर्दापण हुआ।
अफ्रीकी महाद्वीप के
इथोपिया देश में मिला लुसी फौसिल और अर्दी फोसिल जो क्रमशः 32 लाख एवं 44 लाख वर्ष पुराने हैं, इस बात का प्रमाण है। ये आदिमानव के प्राचीनतम फोसिल है। इन
दोनों फोसिल की लम्बाई लगभग एक मीटर ही थी। यह तथ्य इस बात को प्रमाणित करता है कि
इस युग का मानव पूर्ण रूप से विकसित नहीं हो पाया था। उसके शरीर का कद भी छोटा था
तथा उसके हाथ, पैर,
उंगलियां और मस्तिष्क भी बहुत
छोटा था। जैसे जैसे समय बीतता गया, मनुष्य के शरीर और मस्तिष्क में बहुत धीमी गति से व्यापक सुधार
होते गये। लन्दन के इम्पीरियल कॉलेज के एक अध्ययन के अनुसार पाषण युग के आदि मानव
को अपने दिमाग को उस क्षमता तक विकसित करने में लगभग बीस लाख वर्ष लगे ताकि वह पत्थर
क़ी कुल्हाड़ी बना सके. मेधावीअथवा बुद्धिमान मानव जिसे हम होमोशेपियन कहते हैं और
जिनको हम अपना सबसे नजदीकी पूर्वज मानते हैं, का अभ्युदय आज से लगभग 30,000 वर्ष पाषण युग में हुआ था। यह हमारा पूर्वज जंगलों
से फल इकट्ठा करता था, हड्डियों
एवं पत्थरों से बने हथियारों से शिकार करता था। तेज दौड़ने वाले पशुओं का शिकार
करने के लिये उसने घोड़े को पालतू बनाया तथा उस पर चढ़कर हथियार चलाने की कला विकसित
की। अपने पालतु पशुओं की जंगली जानवरों से रक्षा करने के लिये उसने भेड़ियों को
पाला और प्रशिक्षित किया। आगे चलकर इन पालतू भेडियों ने कुत्ते का रूप धारण कर
लिया। विकास की प्राकृतिक प्रक्रिया का यह सर्वोत्तम उदाहरण है।
मनुष्य में अधिकांश बदलाव
जलवायु में निरन्तर होने वाले परिवर्तन के कारण आये। हिमयुग के अन्तिम चरण के समय
जब हिमालय की निचली पहाड़ियां और घाटियां भी बर्फाच्छादित हो गई थीं तब यहां का
आदिमानव दक्षिण में पठारी भाग की ओर प्रस्थान कर गया था। यहां की जलवायु आवास के
लिये उपयुक्त थी। दुनिया में सबसे पहला स्थानातरण मनुष्य ने शायद जलवायु परिवर्तन
के कारण ही किया था। पठारों पर पत्थरों की बहुतायत होने के कारण यहां मनुष्य ने पत्थरों
से औजार एवं भवन बनाने की कला में निपुणता प्राप्त की थी। संसार की सांस्कृतिक
इतिहास का यह पाषण युग था। शिवालिक पर्वत की घाटियों में मिली मानव हड्डियों के
अध्ययन से ऐसे संकेतमिले हैं कि यह मानव ही हमारा पूर्वज था,
जो उत्तरी भारत की अत्याधिक ठन्ड
से बचने के लिये दक्षिण के पठारों पर जाकर कुछ समय के लिये बस गया था। अब वह
पशुपालन एवं कृषि की ओर अग्रसर हो रहा था।चारागाह बनाने तथा खेती करने के लिये उसे
जमीन से जंगल साफ करने की आवश्यकता पड़ी। पेड़ो को हड्डीया पत्थरों के औजारों से
काटना सम्भव नहीं था। अतः उसने लोहे जैसी कठोर धातु खोज निकाली। लौह युगका व्यक्ति
पाषाण युग के मानव की तुलना में बहुत अधिक विकसित हो चुका था। अपनी बुद्धि के बल
पर वह प्रकृति का मास्टर बन चुका था। रोज नये-नये आविष्कार करता जा रहा था। कृषि
में काम आने वाली अनेकवस्तुये जैसे हल, बैलगाड़ी, घोड़ा गाड़ी, रंहट, कुएं
इत्यादि उसने स्वयं ही बनाये थे। ये औजार उसे किसी देवी,
देवता की घोर तपस्या करने पश्चात्
आशीर्वाद रूप में प्राप्त नहीं किये थेे। आधुनिक युग का आदमी पाषण,
तांबा तथा ब्रोन्ज युग के मानव से
अत्याधिक सशक्त एवं बुद्धिमान बन चुका है। पिछले कुछ शतकों में उसमें तेजी से
विकास हुआ है। अपने विकसित मस्तिष्क के कारण, आशातीत गति से अब वह सफलता की नई ऊंचाइयां छूता जा रहा है।
आधुनिक मानव के पैर चन्द्रमा के धरातल को छू चुके है। मंगल ग्रह पर कदम रखने के
लिये वह व्याकुल है। अब उसने अपने लिये अणु बम्ब ,अन्तर्राष्टीय महाद्वीपीय मिसाइल, पैंटन टैंक जैसे हथियारों का आविष्कार कर लिया है। भेड़ का क्लोन
वह बना चुका है। मानव की हूबहू-शक्ल का क्लोन बनाने के लिये वह आतुर है। कृत्रिम
ह्रदय बनाकर तथा एक 15
वर्षीय इटली के बालक में सफलता पूर्वक प्रत्यारोपित करके उसने सिद्ध कर दिया है कि
उसके लिये कुछ भी असम्भव नहीं है। आज का मानव ब्रहमाण्ड का मास्टर है। आश्चर्य
चकित कर देने वाला उसका प्रत्येक आविष्कार इस बात का प्रमाण है कि आधुनिक मानव का
बौद्धिक विकास तीव्रता से हो रहा है। आज का हर व्यक्ति कल के आदमी से बेहतर है।
हमारे बच्चे हम से ज्यादा बुद्धिमान हैं और मानसिक एवं बौद्धिक दृष्टि से ज्यादा
विकसित है। वास्तव में अब यह कहावत सिद्ध होती जा रही है क़ी चाइल्ड ऑफ़ द फादर
ऑफ़ मैन।
हमारी धार्मिक अवधारणा
विकास की थ्योरी का सर्मथन नही करती।हिन्दू धर्म की पौराणिक कथाओं के अनुसार,
पृथ्वी पर भगवान द्वारा प्रेषित
प्रथम पुरुष शारीरिक एवं बौद्धिक दृष्टि से पूर्णतयाः विकसित था तथा आज के मनुष्य
की तुलना में वह अत्यधिक बलवान एवं सामर्थ्यवान था। उसके कुछ वशंज इतने बलवान थे
कि वे हिमालय या गोवर्धन पर्वत को हाथ में उठा सकते थे तथा सागर को छलांग मारकर,
पार कर सकते थे।
मनुष्य की उत्पत्ति : कहाँ,
कब और कैसे?
मानव की उत्पत्ति अभी भी
अनबूझा सवाल है। मनुष्य की उत्पत्ति कहाँ शरू हुई थी,
कैसे हुई थी,
और कैसे विश्व में फैली?
इसके आदिपूर्वज (primates)
कौन थे?
क्या मनुष्य ऐसा ही आदि में था
जैसा आज है? ये सवाल
अमानव प्राणियों के लिए भी मनुष्य की उत्पत्ति के बराबर महत्व रखते हैं। गाय,
घोड़ा,
हाथी,
कबूतर,
चमगादड़,
सर्प,
मछली कैसे,
कब और कहाँ उत्पन्न हुए?
हम मनुष्य हैं इसलिए मनुष्य से
संबंधित हर जानकारी के लिए जिज्ञासु, व्याकुल व उत्सुक ज्यादा होते हैं। मेरी उत्पत्ति तो मेरे
माता-पिता से हुई, माता-पिता
की उत्पत्ति उनके माता-पिता से हुई। उनके माता-पिता की उत्पत्ति…..?
यह कथन (उत्तर) अनंत है,
कभी न समाप्त होने वाला। फिर भी
वैज्ञानिक विमर्श करके ठोस समाधान खोजा जा सकता है।
अब तक जीवविज्ञान में यही
पढ़ाया गया कि हजारों वर्ष पूर्व आधुनिक मनुष्य आज जैसा नहीं था। लाखों वर्ष में
म्यूटेसन द्वारा शारीरिक परिवर्तन के साथ दो या चार पैर पर चलने वाले अन्य
स्तनधारी प्राणियों से उसका धीरे-धीरे विकास हुआ। अब सवाल यह है,
कि मनुष्य का कोई तो एक माता-पिता
होना चाहिए। नहीं होने चाहिए, क्योंकि कोई भी जीव अपने माता-पिता से ही पैदा होते हैं और
शारीरिक व मानसिक गुणरूप से एक समान होते हैं। इसका अर्थ है कि लाखों वर्ष में गुण
परिवर्तन होने से हमारे आदिपूर्वज अवश्य ही हमारे जैसे नहीं हो सकते हैं।
अँधेरे में तीर चलाने से
वैज्ञानिक सत्य नहीं बदलते हैं।
1. मैक्समुलर
आदि भाषाशास्त्रियों के अनुसार आदिमानव का सृष्टिस्थान मध्य एशिया है।
2. बंगला
के प्रसिद्ध विद्वान बाबू उमेश चन्द्र ‘विद्यारत्न’ “मानवरे आदि जन्मभूमि” पुस्तक में मंगोलिया बताते हैं।
3. स्वामी
दयानन्द सरस्वती ‘आर्य’
ने “सत्यार्थप्रकाश” में आर्यावर्त (तिब्बत व हिमालय का निचला भाग) बताया।
4. शतपथ
ब्राह्मण में “तेषां
कुरुक्षेत्रे देव यजनं आस तस्मादाहु: कुरुक्षेत्रं देवानां देव यजनम्”
प्राचीन देवता कुरुक्षेत्र में
यज्ञ करते थे, और वे
वहीं पैदा हुए थे, अत:
आदिमानव वे ही हैं।
5. बाइबिल
व कुरआन के अनुसार मनुष्य का आदि जन्मस्थान “बाग़ अदन” (बंदरों का देश) है। ईश्वर ने चौथे आसमान (स्वर्ग) पर बगीचे में
अपने जैसा पुतला “आदम”
बनाया,
उसके कान में फूंक कर जीवन डाल
छोड़ दिया। घूमते-घूमते वह सो गया, उसकी पसली निकाल कर नारी “हव्वा” को रचा। दोनों के प्यार की जलन से शैतान ने हव्वा को निषेध पेड़
के फल को तोड़ने-खाने के लिए पटाया। दोनों ने ऐसा ही किया जिससे ईश्वर नाराज होकर
उन्हें पृथ्वी पर फेंकते हुए मनुष्य की सन्तति पैदा करने के आदेश देता है,
जिनसे ही विश्व में मनुष्य की
योनि स्थापित हुई।
6. प्रमाण
कुरान से:–
१). अल-ए-इमरान (‘Ali
`Imran):49 – “और उसे इसराईल की संतान की
ओर रसूल बनाकर भेजेगा। (वह कहेगा) कि मैं तुम्हारे पास तुम्हारे रब की ओर से एक
निशाली लेकर आया हूँ कि मैं तुम्हारे लिए मिट्टी से पक्षी के रूप जैसी आकृति बनाता
हूँ, फिर उसमें फूँक मारता हूँ,
तो वह अल्लाह के आदेश से उड़ने
लगती है। और मैं अल्लाह के आदेश से अंधे और कोढ़ी को अच्छा कर देता हूँ और मुर्दे
को जीवित कर देता हूँ। और मैं तुम्हें बता देता हूँ जो कुछ तुम खाते हो और जो कुछ
अपने घरों में इकट्ठा करके रखते हो। निस्संदेह इसमें तुम्हारे लिए एक निशानी है,
यदि तुम माननेवाले हो
२). अल-हिज्र (Al-Hijr):26
– हमने मनुष्य को सड़े हुए गारे की
खनखनाती हुई मिट्टी से बनाया है,
३). मरयम (Maryam):67
– क्या मनुष्य याद नहीं करता कि हम
उसे इससे पहले पैदा कर चुके है, जबकि वह कुछ भी न था?
४). अल-अंबिया (Al-‘Anbya’):30
– क्या उन लोगों ने जिन्होंने इनकार
किया, देखा नहीं कि ये आकाश और
धरती बन्द थे। फिर हमने उन्हें खोल दिया। और हमने पानी से हर जीवित चीज़ बनाई,
तो क्या वे मानते नहीं?
५). अल-अकल (Al-`Alaq):2
– पैदा किया मनुष्य को जमे हुए ख़ून
के एक लोथड़े से
विवेचना :— मनुष्य कैसे पैदा हुआ ?? इस बिषय पर एक ही कुरान मे पाँच जगहो पर पाँच जबाव मिला और सभी
अलग अलग | पहले
आयात मे अल्लाह ने कहाँ की वह मनुष्य को मिट्टी से बनाया है फिर उसमे फूँक मार कर
जीवित कर दिया | वाह
बहुत सुन्दर अल्लाह की कारीगरी का जबाव ही नही | आगे देखते है यहाँ अल्लाह कह रहे है की उन्होने मनुष्य को सड़े
हुए मिट्टी से बनाया | थोड़ा
और आगे देखे अल्लाह क्या कहँ रहे है मनुष्य को उन्होने तब बनाया जब उससे पहले वह
कुछ भी नही था | अब
देखे अल्लाह क्या कहँ रहे है उन्होने हर जीवित चीज को पानी से बनाया |
वाह जी बहुत खूब |
अब तो कमाल ही हो गया अंत मे
अल्लाह ने कहाँ की उन्होने मनुष्य को खून के लथोड़े से बनाया |
हद हो गई वैज्ञानिकता की |
क्या कहेगे आप ?? किस
उत्पत्ति बिषय को सच मानेगे ?? अगर किसी भी एक आयात को आप सच मानते है तो बाकी चार आयाते झूठी
हो रही है ??
ब्रह्मा ने सृष्टि के समय
स्त्री-परुष (नारी-नर) योगमाया से पैदा किया, जिससे मनुष्य की सन्तति बढ़ी और भारत में विस्तार किया। ब्रह्मा,
वैदिक और पौराणिक मनुष्य पूरी
दुनिया के बारे में नहीं जानता था, इसलिए भारत की अनुमानित विचारधारा ठप्प हो गई। जबकि यूरोप के
वैज्ञानिक मानते हैं कि पहला मनुष्य मात्र 9000 वर्ष पहले था। अँधेरे में तीर चलाना नहीं तो और क्या है?
हिन्दू पौराणिकों का मत है
कि हर 71वें
सतयुग में पृथ्वी जलमग्न होती है जिसमें कुछ मनुष्य हिमालय पर बच जाते हैं जिनसे
मनुष्य की जनन होने से जनसंख्या बढ़ती है। दूसरे, हजारों लोग घाटियों में दब (hybernation) जाते हैं जो हजारों वर्ष बाद उसी स्थिति में जिन्दा
हो जाते हैं। आर्यसमाजी यह भी दावा करते हैं कि मनुष्य जैसा आज है,
आदि से ऐसा ही है और अंत तक ऐसा
ही रहेगा। तात्पर्य कि मनुष्य का शारीरिक व मानसिक विकास नहीं होता है जो विज्ञान
के सिद्धांतों पर गलत है। वैदिक, हिंदूधर्म तथा आर्यसमाज अँधेरे में तीर चलाते हैं। परन्तु इससे
यह सिद्ध नहीं होता है कि दुनिया में बिखरे हुए मनुष्य का आदिमाता-आदिपिता (प्रथम
मनुष्य) यही थे, जबकि
डीएनए परीक्षण से स्पष्ट हो गया है कि आर्य (ब्राह्मण) यूरेशिया से भारत आये थे,
तब 71वें युग या हिमालय में दबने-बचने का सिद्धांत
अमान्य हो जाता है।
स्पेनार्ड मॉसेस डि लियोन 13वीं शताब्दी में अपनी पुस्तक “The
Book of Splendour” में लिखता है कि जेहोवा ने
एक ही वक्त में एक पुरुष “एडम” व
एक स्त्री “लिलिथ”
को उत्पन्न किया जो पति-पत्नी
बनाये। निर्दयी व शैतानी स्वभाव के कारण वह एडम को छोड़ कर चली गई। एडम विक्षुप्त
हो ईश्वर से प्रार्थना करता है तो वह ईव को पैदा करके पत्नी के रूप में प्रदान
करता है और आदेश देता है कि तुम लोग पृथ्वी पर मनुष्य की सन्तति बढ़ाओ।
बाईबिल के अनुसार 2 लाख 9 हजार वर्ष पहले ईसू ने एडम-ईव को सजा-बतौर पृथ्वी पर भेजा था
जिनसे मनुष्य की उत्पत्ति होकर वह हर भूभाग में फैलता गया। जीसस येरूशलम में थे,
इसलिए वहीं मनुष्य के
आदिमाता-पिता आदम-ईव थे। इसे सच मानें तो पूरी दुनिया में येरुशलम की संस्कृति और
भाषा होनी चाहिए थी, जो
नहीं है। दूसरे, इटली
का ईसाई क्रिस्टोफर कोलंबस 14वीं शताब्दी के अंत में भारत आया था,
तत्पश्चात् ईसाई भारत आने लगे,
परंतु उनके आदिपूर्वज नहीं। आज
करीब 1 करोड़ से ज्यादा ईसाई भारत
में हैं, न
उन्होंने अपनी संस्कृति त्यागी, न ही भारतीय संस्कृति अपनाई, न ही अपनी संस्कृति भारतीयों लादी,
तमाम हिन्दुओं ने धर्मपरिवर्तन
करके ईसाई हुए जिनका आदिपूर्वजों से कोई संबंध नहीं है। इसी प्रकार मुसलमान अपनी
संस्कृति लेकर आये, जिसे
न तो त्यागी और न ही भारतीय संस्कृति अपनाई। इससे स्पष्ट है कि विश्व की हर सभ्यता
के लोग अपने-आप में स्वतंत्र रही तथा अपनी पहचान कायम रखने में भी सफल रही। अत:
विश्व के सभी मनुष्यों के आदिपूर्वज एक नहीं हैं और एक ही स्थान पर आधुनिक मनुष्य
की उत्पत्ति नहीं हुई। अँधेरे में तीर चलाने से वैज्ञानिक सत्य नहीं बदलते हैं।
ईसाई/इस्लाम धर्म की उत्पत्ति या विकास 1400 वर्ष पूर्व होने से 2 लाख 9 हजार वर्ष पूर्व एडम+ईव की कथा का चश्मदीद गवाह कौन है–यहून्ना, जेहोवा, ईसू या कोई पैगम्बर? कोई नहीं। हिन्दुओं में भी कौन है जो ब्रह्मा या शिव के काल का
ब्यौरा प्रमाणित करे। सब अँधेरे में तीर चलाते हैं।
बात उस मनुष्य की है जो
पृथ्वी पर सबसे पहले जन्मा और जिससे पूरी पृथ्वी पर विस्तृत हुआ। प्राणी अपने जैसा
ही प्राणी (सन्तान) पैदा करता है, कबूतर से शेर की बात क्या करें पक्षियों में कौआ तक पैदा नहीं
हो सकता है, चीता
से बिल्ली, खरगोश
से चूहा पैदा नहीं हो सकता। फिर अवश्य ही मनुष्य सिर्फ मनुष्य से ही पैदा होता
आया। लेकिन पहला मनुष्य भी तो मनुष्य से पैदा हुआ होगा! यही सत्य नहीं है,
क्योंकि आज का प्रत्येक प्राणी
अपने-अपने पूर्वजों से पैदा होता आया और कई लाखों वर्ष में म्यूटेसन से प्रभावित
होकर अलग-अलग प्राणियों में रूपांतरित हुआ। इससे यह सिद्ध होता है कि मनुष्य एक
स्थान पर एक माता-पिता से पैदा नहीं हुए होंगे, क्योंकि नीग्रो, द्रविण, भील, एंग्लोइंडियन,
रेडइंडियन,
जापानी,
चीनी,
अफ्रीकन,
आदिवासी एवं वनमानुष जैसी मनुष्य
की विभिन्न प्रजातियाँ अपने-अपने स्थान पर अपने-अपने आदिपूर्वजों से रूपांतरित
होते आये।
विश्व में जितनी भी
सभ्यताएं हैं, 9-10 हजार
वर्ष ही पुरानी हैं जिनमें मनुष्य द्वारा निर्मित मकान,
वस्त्र,
बर्तन,
हथियार,
सामाजिक संरचना आदि की पहचान से
समय व सभ्यता का अनुमान लगाया गया है। हम मान लेते हैं कि हम स्थानीय सभ्यताओं में
मिले फॉसिल मनुष्यों की संतानें हैं, इससे यह प्रमाणित नहीं हो जाता है कि वही पहले मनुष्य थे,
क्योंकि तब फिर एक स्थान पर नहीं,
हर देश या हर महाद्वीप या भूखंड
पर खोजी गई सभ्यताओं के लोग पहले मनुष्य थे। प्रश्न है कि पहला मनुष्य विश्व में
कहाँ जन्मा? सभ्यताओं
से भी तो इस नतीजे पर नहीं पहुंचा जा सकता, क्योंकि यूरोप की सभ्यता का मानव हड़प्पा की सभ्यता में 10-15 लाख वर्ष पूर्व नहीं आ सकता था,
तब असभ्य होने,
वैज्ञानिक सोच व साधन-संसाधन के
बिना वह हजारों मील दूर नहीं जा सकता था। इसके लिए हमें जीव विज्ञान की शोध पर
आधारित होना पड़ेगा।
जीवाश्म (फॉसिल) :
आदिमानव के जीवाश्म विश्व
में सबसे अधिक पूर्व अफ्रीका की रिफ्ट घाटी में सुरक्षित अवस्था में प्राप्त हुए
हैं। यह घाटी इथियोपिया, केन्या
व तंजानिया की सीमाओं को लांघती है। प्राप्त जीवाश्मों के अध्ययन से पता चला कि
मानववंश का उद्भव कम से कम 25 लाख वर्ष पूर्व हुआ था। मानववंश के जनकों या कपिमानवों (ape)
का उद्भव उनसे भी 25-30 लाख वर्ष (वर्तमान से 50-60 लाख वर्ष) पूर्व हो चुका था जबकि आधुनिक मानव की
उत्पत्ति केवल 2-3 लाख
वर्ष पूर्व ही हुई है। आस्ट्रैलोपिथैकस वंश को होमो वंश के जनक की मान्यता दी गई
है। उपलब्ध प्रमाणों से पता चला है कि आस्ट्रैलोपिथैकस की एफोरेंसिस प्रजाति 40 लाख वर्ष पूर्व पूर्वी अफ्रीका की रिफ्ट घाटी में
विद्यमान थी। दोनों में 3 अंतर हैं-मस्तिष्क कपिमानव की अपेक्षा आस्ट्रैलोपिथैकस का छोटा
व होमो का अधिक चौड़ा था। दांत बड़े (चबाने वाले) व होमो के दांत छोटे (संशोधित
खाद्य पदार्थ लेते थे), प्रथम
चलते थे व पेड़ों पर भी चढ़ते थे, होमो सिर्फ दो पैरों पर ही चलते थे। लगभग 15-20 लाख वर्ष पूर्व के होमो हैनिलस,
होमो रूडोल्फेंसिस तथा होमो
एरगास्टर की जानकारी हो चुकी है।
नये वंश व प्रजातियों के
उद्भव के लिए आनुवंशिकी भिन्नता चाहिए जो उत्परिवर्तन (Mutation)
तथा पुनर्योजन द्वारा उत्पन्न
होती है। उनमें से फिर प्रकृति सबसे सफल आनुवंशिक रूपों को चुनती है। इस प्रकार
पुराने वंशों से नये वंश बनते हैं तथा उनकी नई प्रजातियों का उदय होता है। जलवायु
परिवर्तन में ढलते-ढालते होमो एरगास्टर से होमो एरेक्टस व फिर होमो सेपियेंस
विकसित हुआ माना गया। होमो एरेक्टस के जीवाश्म अफ्रीका के अलावा विश्व में भी फैले
हुए हैं।
आधुनिक मानव (होमो
सेपियेंस) 2 लाख
वर्ष पूर्व संभवत: अफ्रीका में विकसित हुआ और संसार में फैलता गया। मानव कोशिका का
माइटोकांड्रिया (सूत्र कणिका) के डीएनए के अध्ययन से पता चला कि 2 लाख वर्ष पूर्व अफ्रीकी जमीन पर एक किसी महिला में
आधुनिक डीएनए की माइटोकांड्रिया विकसित हुई जो उससे पूर्व मानव के माइटोकांड्रिया
से ज्यादा सक्षम थी एवं उसकी संतानों से वंशज पर वंशजों में पहुंचते रहे और
अनुकूलन क्षमता अधिक थी। फिर भी अभी मतभेद है कि होमो सेपियेंस अफ्रीका से फैला था
या विश्व में कई जगह विकसित हुआ था।
प्राय: 25 हजार वर्ष पूर्व मनुष्य की एक प्रजाति होमो
नियण्डरथेंटेसिस लुप्त हो गई। मध्य पाषाण युग के औजार इसी मानव की कृति हैं,
और नियण्डरथल व आधुनिक प्रजाति का
विकास एक ही प्रजाति पिथैकेन्थोपाइन मानव (होमो एरेक्टस) से होना समझा जाता है।
मानव कुल का प्रारंभिक सदस्य आस्ट्रैलोपिथैसाइन मानव माना जाता है जिससे
पिथैकेन्थोपाइन मानव विकसित हुआ। मानव वैज्ञानिक डार्ट की राय में यह आदिम मानव
अन्य प्राणियों की हड्डियों, दांतों व सींगों का उपयोग बिना रूपान्तरण के ही औजारों के रूप
में प्रयोग करता था। एक गुफा में आस्ट्रैलोपिथैकस मानव के जीवाश्म के साथ बबून
बन्दर व एन्टीलोप हिरन के कई जीवाश्म उपलब्ध हुए। दोनों पशुओं के सिर आदि पर चोटों
के निशान थे जो जिन्दा पर ही बनाये गये थे, ऐसे निशान जीवाश्म में नहीं बनते।
यद्यपि लेवेंटाइन में रह
रहे मानव 12 हजार
वर्ष पूर्व गेहूं तथा जौ का खाद्यानों के रूप में प्रयोग कर चुके थे,
परन्तु अफ्रीका में रह रहे मानव
को इन खाद्यानों का ज्ञान नहीं था। मानव के कुछ समुदाय लगभग 10,000 से 12,000 वर्ष पूर्व गेहूं, जौ, मटर
व मसूर का भोजन में प्रयोग करने लगे थे।
पूना से 100 किमी दूर कुकड़ी नदी के किनारे “बोरी” गाँव के पास ज्वालामुखी से निकली सफेद मिट्टी “ट्रेफा” प्राप्त हुई थी, जिस पर पुरातन पाषाण हथियार मिले। राख के नीचे 6-8 मीटर तक लाल मिट्टी है जिसके नीचे मानवी हथियार
मिले थे। ज्वालामुखी राख में पोटेशियम होता है। कुछ पोटेशियम किरणोत्सारी होता है
जिसका रूपांतरित निर्धारित समय के बाद आरगॉन गैस में हो जाता है। विस्फोट के समय
यह हल्की गैस वायुमंडल में चली जाती है। अत: इस समय राख में आरगॉन होती है। इसीलिए
राख की आयु के लिए पोटेशियम व आरगॉन की मात्रा में तुलना की जाती है। बोरी गाँव की
वह राख 14 लाख
वर्ष की आंकी गई थी। तुलनात्मक अध्ययन से ज्ञात हुआ कि सुमात्रा स्थित “टोबा” ज्वालामुखी की राख का गुणधर्म इस राख के गुणधर्म के समान है,
जबकि दोनों के बीच 2000 किमी की दूरी है। बोरी की काली व लाल मिट्टियों के
चुम्बकीय अध्ययन से उनकी आयु 7 लाख वर्ष है। बोरी में राख की बौछार का समय ‘अश्युलीयन’ कहा जाता है। अफ्रीका में इसी काल के मानवीय अवशेष मिले हैं।
हड्डियों के आधार पर उन्हें होमो एरेक्टस कहा गया।
चार्ल्स राबर्ट का
निष्कर्ष था कि प्रकृति में जीवों की एक जाति एक ही बार किसी क्षेत्र विशेष में
उत्पन्न होती है। जैसे-जैसे उनकी आबादी बढ़ती है, उनका क्षेत्रीय विस्तार होता जाता है। विभिन्न भूभागों में
पहुंच कर नई भौगोलिक परिस्थितियों में उनके लक्षणों में परिवर्तन आने लगते हैं
जिनसे नई प्रजातियाँ बनती हैं। थामस माल्थस के आबादी के सिद्धांत के प्रभाव में
डार्विन (1842) ने
प्राकृतिक वरण (Natural Selection) का सिद्धांत निश्चय किया–अपनी आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए जीव आपस में संघर्ष करते
हैं जो भ्रूण से लेकर जीवनपर्यंत तक चलता है। इसे जीवन-संघर्ष (Struggle
for life) कहते हैं। जीवन-संघर्ष से प्रकृति
को किसी जाति के ऐसे सदस्यों के वरण (चुनाव) में मदद मिलती है जो उसी जाति के अन्य
सदस्यों से अधिक ताकतवर, योग्य
व सहनशील होते हैं। इस प्रकार जातियों का प्राकृतिक वरण होता है। इसे सविस्तार लिख
कर डार्विन ने अपने मित्र वनस्पति वैज्ञानिक जोसेफ डाल्टन हुकर को दिखाया था।
आल्फ्रेड रसेल वालेस का
प्राकृतिक वैज्ञानिक आलेख डार्विन ने 18.06.1858 को पढ़ा तो आश्चर्य में पड़ गया। परन्तु उससे मिल कर
लन्दन की लीनियस सोसाइटी में 01.07.1858 को डार्विन व वालेस का संयुक्त शोधपत्र पढ़ा गया। फिर 24.11.1859 को ‘ऑन दी ओरीजिन अॉफ स्पिसीज बाय मीन्स अॉफ नेचुरल सेलेक्शन’
डार्विन के नाम से प्रकाशित
पुस्तक के कारण धर्मावलंबियों ने डार्विन को नास्तिक कहा,
फिर भी दूसरी पुस्तक ‘दी वेरिएसन अॉफ एनिमल्स एंड प्लांट्स अंडर
डोमेस्टिकेसन’ 1868 में
और तीसरी पुस्तक ‘दी डीसेंट
अॉफ मैंन एंड सेलेक्सन इन् रिलेशन टू सेक्श’ 1871 में छपी व काफी हद तक इसे शिक्षित वर्ग ने सराहा।
लगभग 6 करोड़ वर्ष पूर्व आधुनिक सीनोजोइक युग का प्रारंभ
हुआ था जिसमें प्रकृति ने विशेषत: स्तनधारी प्राणियों पर ध्यान दिया जो सफल रहे।
ये प्राइमेट वर्ग के प्राणी थे। मनुष्य भी इसी वर्ग का सुविकसित प्राणी है।
प्रकृति ने बुद्धि और कौशल के धनी मानव होमो सेपियेंस को लगभग एक लाख वर्ष पूर्व
अर्द्धविकसित रूप में छोड़ दिया जिसने शनै:शनै: यह आधुनिक अवस्था प्राप्त की है।
किसी भी प्राणी का उद्भव (Evolution-क्रमागत विकास) हमें सिखाता है कि मनुष्य छोटे व
सरल जीव (स्तनधारी जैसे एप, चिम्पांजी, गोरिल्ला, गिब्बन, आदि) से धीरे-धीरे कई लाखों वर्षों में उत्परिवर्तन द्वारा
विकसित हुआ है। अत: मनुष्य जीवश्रेष्ठ व सर्वोच्च से अधिक नहीं है। यदि मनुष्य का
आधुनिक विकास इन पशुओं से हुआ होता तो आज ये कुछ समानता रखने वाले पशु तब पशु।
नहीं रह जाते, सभी
मनुष्य हो जाते। इसका तात्पर्य कि मानव के आदिपूर्वज ये प्राणी नहीं हो सकते। जिस
प्रकार पृथ्वी सूर्य के एक गर्म पिंड से करोड़ों वर्षों में धीरे-धीरे आज की अवस्था
या जैविक सम्पदा के उद्भव की स्थिति में विकास कर पाई है,
वह आदि से ऐसी ही नहीं थी। इसे
स्पष्टत: जानने के लिए “ओपेरिन
थियुरी” को
समझना होगा।
ओपेरिन थियुरी
(अतिसंक्षिप्त) :
रूसी वैज्ञानिक
अलेक्जेण्डर इवानोविच ओपेरिन (Alexander Ivanovich Oparin) ने 1924 में “जीव की उत्पत्ति” नाम से निर्जीव पदार्थों से जीवन की उत्पत्ति का सर्वप्रथम
सिद्धान्त प्रतिपादित किया था। ओपेरिन ने लुई पाश्चर के कथन “जीव की उत्पत्ति जीव से ही होती है”
को सच बताते हुए कहा कि रसायनिक
पदार्थों के जटिल संयोजन से ही जीवन का विकास हुआ है। विभिन्न खगोलीय पिण्डों पर
मीथेन की उपस्थिति इस बात का संकेत है कि पृथ्वी का प्रारम्भिक वायुमण्डल मीथेन,
अमोनिया,
हाइड्रोजन तथा जलवाष्प से बना
होने के कारण अत्यन्त अपचायक रहा होगा। इन तत्वों के संयोग से बने यौगिकों ने आगे
संयोग कर और जटिल यौगिकों का निर्माण किया होगा। इन जटिल यौगिकों के विभिन्न
विन्यासों के फलस्वरूप उत्पन्न नए गुणों ने जीवन की नियमितता की नींव रखी होगी। एक
बार प्रारम्भ हुए जैविक लक्षण ने स्पर्धा व संघर्ष के मार्ग पर चल कर वर्तमान सजीव
सृष्टि का निर्माण किया होगा।
गर्म पृथ्वी ठंडी होती गई।
बर्षाजल के वाष्प से कार्बनिक व अकार्बनिक लवण, खनिज तत्व निचले स्थलों (वर्तमान समुद्र) में एकत्र होते गये।
ईथेन, मीथेन,
ब्यूटौन,
एथिलीन,
एसिटिलीन जैसे कार्बनिक यौगिक बने,
जिनकी परस्पर प्रतिक्रिया के
फलस्वरूप मिथाइल एल्कोहल, इथाइल एल्कोहल, अॉक्सी-हाइड्रो यौगिक, अमोनिया व जल की संयुक्त प्रतिक्रिया से जटिल कार्बनिक यौगिक
बने। कालान्तर में पराबैंगनी किरणों (एक्सरे/थण्डरवोल्ट) के होते तमाम शर्करायें
बनीं। ग्लिसरीन, वसा,
अम्ल,
अमीनो एसिड,
लेक्टिक एसिड,
पाइरिमिडीन,
पाइरीन्स बने जो जीवन के मुख्य
कारक हैं। अब न्युक्लियोराइड्स-आरएनए व डीएनए (हार्मोन्स की तरह सक्रिय) तरल बने
जो स्वऊर्जावान थे। हैल्डेन (1920) ने इसे प्राजैविक तरल (Probiotic soup) कहा। चूंकि इन्हीं से सारे पदार्थों,
यौगिकों,
तरलों की आपसी तीव्र प्रतिक्रिया
के फलस्वरूप प्रोटीन्स और न्यूक्लीइक अम्ल बने, जिनसे न्यूक्लियोप्रोटीन्स बन कर द्विगुणित होने लगीं। जीवों के
लिए सर्वप्रथम कोशिकाभित्ति (Cell wall) का निर्माण हुआ जिसके बावत न्यूक्लियस का विभाजन संभव हुआ।
अब एक समान कार्य के लिए
समान यौगिकों द्वारा ऊतकों का निर्माण होने लगा। कोशिकाद्रव को छानने वाली
कोशिकाभित्ति का निर्माण हुआ। कालान्तर में स्वपोषी जीव बने जो अपना भोजन खुद ही
बनाने-पचाने लगे। कुछ कोशिकाएं सूर्यप्रकाश की उपस्थिति में भोजननिर्माण एवं हरित
पदार्थ (क्लोरोफिल) का निर्माण करने लगीं और वनस्पति (पेड़-पौधे) के विकास का
शुभारम्भ हुआ। इसी अवस्था से प्राणियों का उद्भव व विकास प्रारम्भ हुआ। अब
कोशिकाओं ने स्वपोषी न्यूक्लियस, माइटोकांड्रिया, क्लोरोप्लास्ट, गॉलगी कॉम्प्लेक्स, लीमोजोम्स आदि स्वतंत्ररूप से निर्माण कर लिए और इस प्रकार
वनस्पति के समानांतर एककोशीय प्राणी (जन्तु) का विकास संभव हो सका जैसे पैरामिशियम
व अमीबा। कालान्तर में बहुकोशीय प्राणियों का उद्भव होता गया,
साथ में धरती के वातावरण और आपस
की विसम परिस्थितियों में जीने के लिए प्राणियों ने जीवन-संघर्ष प्रारंभ किया।
पहले एक-कोशिकीय (अमीबा,
पैरामीशियम) जीव बने,
जिनसे लाखों वर्ष में मछली आदि
में उद्भव हुआ। बिना रीढ़ के जन्तुओं से रीढ़ वाले जन्तुओं का विकास हुआ जिन्हें
समूहों में बांटा गया जैसे मत्स्य, पक्षी, सरीसृप, स्तनधारी, कृन्तक, उभयचर आदि। स्तनधारी प्राणियों में जंगली पशु आते हैं जैसे शेर,
चीता,
तेंदू,
भेड़िया,
बिल्ली,
कुत्ता,
ऊंट,
हाथी,
गाय,
भैंस,
मनुष्य आदि। यह निश्चित है कि ये
सभी प्रारंभ में किसी एक पूर्वज से लाखों वर्ष में विकसित हुए हैं। सभी पक्षियों
के भी एक पूर्वज रहे होंगे। इसी प्रकार स्तनधारी जीवों का दूसरा समूह गाय,
भैंस,
घोड़ा,
गधा,
बकरी,
बन्दर,
भालू,
चिम्पांजी,
गोरिल्ला,
वनमानुष आदि के भी पूर्वज एक ही
रहे होंगे जिनसे लाखों वर्ष में रूपांतरण होने से नये व आधुनिक प्राणी विकसित हुए
होंगे जिनमें एक मनुष्य है। आधुनिक मनुष्य आदि से ऐसा ही नहीं था क्योंकि फॉसिल के
अध्ययन से वह भिन्न था। समय के साथ उसने अपना शरीर, आवश्यकताएं, आवास, भोजन,
यात्रा के साधन तथा सुरक्षा में
विकास किया और आधुनिक मनुष्य बन गया। अर्वाचीन मानव पशु से पाषाण,
ताम्र,
रजत-स्वर्ण,
मशीन,
अस्त्र-शस्त्र युग पार करता हुआ
अत्याधुनिक सभ्य, सुंदर,
शिक्षित,
वैज्ञानिक व ज्ञानी-ध्यानी बन
गया।
इससे हम यह सिद्ध नहीं कर
सकते कि मनुष्य किसी एक स्थान से पैदा होकर पूरे विश्व में फैला है,
क्योंकि विश्व का मनुष्य एक स्थान
पर पैदा होता तो वह एक तरह का होता, भिन्न-भिन्न नहीं होता जैसे नीग्रो,
जापानी,
एंग्लोइंडियन,
द्रविड़,
रेडइंडियन आदि।
निष्कर्ष :
यदि मनुष्य बन्दर से
विकसित है तो आज के बन्दर मनुष्य होने चाहिए थे, बन्दर आज नहीं होने चाहिए थे। मनुष्य चिम्पांजी,
गोरिल्ला,
ओरंगुटान,
गिब्बन,
जलमानुष या वनमानुष से विकसित
होता तो ये प्राणी आज नहीं होते, क्योंकि वो पूर्व में कभी मनुष्य में रूपांतरित हो गये होते। अब
स्पष्ट है कि मनुष्य जिससे भी विकसित हुआ है वह प्राणी सिर्फ मनुष्य जैसा ही रहा होगा,
परन्तु अविकसित,
असभ्य,
असामाजिक,
अशिक्षित,
अभाषीय और अपूर्ण। चूंकि विश्व
में मनुष्य की कई प्रकातियाँ व भाषाएँ हैं, इसलिए मनुष्य एक बार में एक ही भूभाग में उत्त्पत्ति का स्थान
नहीं रख सकता। वह भिन्न-भिन्न भूभागों पर अपने ही पूर्वजों से विकसित हुआ है। इसलिए
मनुष्य (Homo होमो)
की अनेक प्रजातियाँ अनेक स्थानों पर विकसित होती रहीं
पृथ्वी पर मनुष्य की
उत्पत्ति का सिद्धांत क्या है?
रूसी वैज्ञानिक
अलेक्जेण्डर इवानोविच ओपेरिन (Alexander Ivanovich Oparin) ने 1924 में “जीव की उत्पत्ति” नाम से निर्जीव पदार्थों से जीवन की उत्पत्ति का सर्वप्रथम
सिद्धान्त प्रतिपादित किया था। ओपेरिन ने लुई पाश्चर के कथन “जीव की उत्पत्ति जीव से ही होती है”
को सच बताते हुए कहा कि रसायनिक
पदार्थों के जटिल संयोजन से ही जीवन का विकास हुआ है। विभिन्न खगोलीय पिण्डों पर
मीथेन की उपस्थिति इस बात का संकेत है कि पृथ्वी का प्रारम्भिक वायुमण्डल मीथेन,
अमोनिया,
हाइड्रोजन तथा जलवाष्प से बना
होने के कारण अत्यन्त अपचायक रहा होगा। इन तत्वों के संयोग से बने यौगिकों ने आगे
संयोग कर और जटिल यौगिकों का निर्माण किया होगा। इन जटिल यौगिकों के विभिन्न
विन्यासों के फलस्वरूप उत्पन्न नए गुणों ने जीवन की नियमितता की नींव रखी होगी। एक
बार प्रारम्भ हुए जैविक लक्षण ने स्पर्धा व संघर्ष के मार्ग पर चल कर वर्तमान सजीव
सृष्टि का निर्माण किया होगा।
गर्म पृथ्वी ठंडी होती गई।
बर्षाजल के वाष्प से कार्बनिक व अकार्बनिक लवण, खनिज तत्व निचले स्थलों (वर्तमान समुद्र) में एकत्र होते गये।
ईथेन, मीथेन,
ब्यूटौन,
एथिलीन,
एसिटिलीन जैसे कार्बनिक यौगिक बने,
जिनकी परस्पर प्रतिक्रिया के
फलस्वरूप मिथाइल एल्कोहल, इथाइल एल्कोहल, अॉक्सी-हाइड्रो यौगिक, अमोनिया व जल की संयुक्त प्रतिक्रिया से जटिल कार्बनिक यौगिक
बने। कालान्तर में पराबैंगनी किरणों (एक्सरे/थण्डरवोल्ट) के होते तमाम शर्करायें
बनीं। ग्लिसरीन, वसा,
अम्ल,
अमीनो एसिड,
लेक्टिक एसिड,
पाइरिमिडीन,
पाइरीन्स बने जो जीवन के मुख्य
कारक हैं। अब न्युक्लियोराइड्स-आरएनए व डीएनए (हार्मोन्स की तरह सक्रिय) तरल बने
जो स्वऊर्जावान थे। हैल्डेन (1920) ने इसे प्राजैविक तरल (Probiotic soup) कहा। चूंकि इन्हीं से सारे पदार्थों,
यौगिकों,
तरलों की आपसी तीव्र प्रतिक्रिया
के फलस्वरूप प्रोटीन्स और न्यूक्लीइक अम्ल बने, जिनसे न्यूक्लियोप्रोटीन्स बन कर द्विगुणित होने लगीं। जीवों के
लिए सर्वप्रथम कोशिकाभित्ति (Cell wall) का निर्माण हुआ जिसके बावत न्यूक्लियस का विभाजन संभव हुआ।
अब एक समान कार्य के लिए
समान यौगिकों द्वारा ऊतकों का निर्माण होने लगा। कोशिकाद्रव को छानने वाली
कोशिकाभित्ति का निर्माण हुआ। कालान्तर में स्वपोषी जीव बने जो अपना भोजन खुद ही
बनाने-पचाने लगे। कुछ कोशिकाएं सूर्यप्रकाश की उपस्थिति में भोजननिर्माण एवं हरित
पदार्थ (क्लोरोफिल) का निर्माण करने लगीं और वनस्पति (पेड़-पौधे) के विकास का शुभारम्भ
हुआ। इसी अवस्था से प्राणियों का उद्भव व विकास प्रारम्भ हुआ। अब कोशिकाओं ने
स्वपोषी न्यूक्लियस, माइटोकांड्रिया,
क्लोरोप्लास्ट,
गॉलगी कॉम्प्लेक्स,
लीमोजोम्स आदि स्वतंत्ररूप से
निर्माण कर लिए और इस प्रकार वनस्पति के समानांतर एककोशीय प्राणी (जन्तु) का विकास
संभव हो सका जैसे पैरामिशियम व अमीबा। कालान्तर में बहुकोशीय प्राणियों का उद्भव
होता गया, साथ
में धरती के वातावरण और आपस की विसम परिस्थितियों में जीने के लिए प्राणियों ने
जीवन-संघर्ष प्रारंभ किया।
पहले एक-कोशिकीय (अमीबा,
पैरामीशियम) जीव बने,
जिनसे लाखों वर्ष में मछली आदि
में उद्भव हुआ। बिना रीढ़ के जन्तुओं से रीढ़ वाले जन्तुओं का विकास हुआ जिन्हें
समूहों में बांटा गया जैसे मत्स्य, पक्षी, सरीसृप, स्तनधारी, कृन्तक, उभयचर आदि। स्तनधारी प्राणियों में जंगली पशु आते हैं जैसे शेर,
चीता,
तेंदू,
भेड़िया,
बिल्ली,
कुत्ता,
ऊंट,
हाथी,
गाय,
भैंस,
मनुष्य आदि। यह निश्चित है कि ये
सभी प्रारंभ में किसी एक पूर्वज से लाखों वर्ष में विकसित हुए हैं। सभी पक्षियों
के भी एक पूर्वज रहे होंगे। इसी प्रकार स्तनधारी जीवों का दूसरा समूह गाय,
भैंस,
घोड़ा,
गधा,
बकरी,
बन्दर,
भालू,
चिम्पांजी,
गोरिल्ला,
वनमानुष आदि के भी पूर्वज एक ही
रहे होंगे जिनसे लाखों वर्ष में रूपांतरण होने से नये व आधुनिक प्राणी विकसित हुए
होंगे जिनमें एक मनुष्य है। आधुनिक मनुष्य आदि से ऐसा ही नहीं था क्योंकि फॉसिल के
अध्ययन से वह भिन्न था। समय के साथ उसने अपना शरीर, आवश्यकताएं, आवास, भोजन,
यात्रा के साधन तथा सुरक्षा में
विकास किया और आधुनिक मनुष्य बन गया। अर्वाचीन मानव पशु से पाषाण,
ताम्र,
रजत-स्वर्ण,
मशीन,
अस्त्र-शस्त्र युग पार करता हुआ
अत्याधुनिक सभ्य, सुंदर,
शिक्षित,
वैज्ञानिक व ज्ञानी-ध्यानी बन
गया।
इससे हम यह सिद्ध नहीं कर
सकते कि मनुष्य किसी एक स्थान से पैदा होकर पूरे विश्व में फैला है,
क्योंकि विश्व का मनुष्य एक स्थान
पर पैदा होता तो वह एक तरह का होता, भिन्न-भिन्न नहीं होता जैसे नीग्रो,
जापानी,
एंग्लोइंडियन,
द्रविड़,
रेडइंडियन आदि
पृथ्वी पर मनुष्य का जन्म
कैसे हुआ? इतिहास
जाने
पुरातत्ववेत्ताओं
(आर्कियोलॉजिस्ट) का अनुमान है कि धरती पर सबसे पहले मानव जैसे लोग आज से लगभग 53 लाख वर्ष पूर्व प्रकट हुये। धीरे-धीरे कई प्रकार
के मानव धरती पर अस्तित्व में आये परन्तु कुछ समय के पश्चात वह लुप्त हो गये। आज
का मानव (Homo Sapiens) लगभग 2,00,000 वर्ष पूर्व धरती पर अस्तित्व में आया। मानव जीवन के इस लम्बे
काल में मनुष्य पौधे और जड़ें खाकर अथवा शिकार करके अपना पेट पालता था। इस पोस्ट
में हम धरती पर मनुष्य का जन्म कैसे हुआ एवं कब हुआ से लेकर इसके विकास आदि की
चर्चा करेंगे।
पहले विद्वानों को 19वीं शताब्दी तक के पूर्व इतिहासकाल के बारे में
बहुत कम जानकारी थी। परन्तु विद्वानों ने उन स्थानों पर खुदाई की जहाँ पर किसी समय
मनुष्यों के रहने की सम्भावना समझी। इन खुदाइयों में पुराने बर्तन तथा प्राचीन काल
के मनुष्यों तथा जानवरों की हड्डियां प्राप्त हुई हैं। इन वस्तुओं से मिली जानकारी
के आधार पर विद्वानों ने इस बात पर प्रकाश डाला कि पूर्व ऐतिहासिक काल में मनुष्य
कैसे जीवन व्यतीत करता था। विद्वानों का विचार है कि मानव जाति का इतिहास लगभग 40 लाख वर्ष पुराना है।
मनुष्य का जन्म
मानव का क्रमिक विकास
मानव की उत्पत्ति का
सम्बन्ध जीव विज्ञान से है। इस उद्देश्य के लिए सबसे महत्वपूर्ण विकास की क्रिया
है। मनुष्य का अस्तित्व में आना क्रमिक विकास (evolution) का परिणाम है।
विकास का क्रमबद्ध
व्याख्या करने का श्रेय चार्ल्स डार्विन को जाता है। विकास के बारे में उनका सिद्धांत
आधुनिक विचारधारा का आधार बना। उनकी पुस्तक “On the Origin of
Species” ने धार्मिक संस्थाओं अथवा न्यूटन
द्वारा दिये गये ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति के बारे में दार्शनिक विचारों पर सन्देह
व्यक्त किया। न्यूटन के निश्चित तथा स्थाई वर्गों के स्थान पर डार्विन ने जीवों के
विकास के लिए परिवर्तन तथा संयोग के स्थिर सिद्धांत को प्रस्तुत किया। यह सिद्धांत
स्थिर तत्वों के स्थान पर गतिशीलता तथा विकास पर पूर्ण बल देता है। डार्विन ने
तथ्यों को एकत्रित करके यह सिद्ध करने का प्रयत्न किया कि जीवित पौधे,
मनुष्य तथा जानवर सभी प्राणी
प्राथमिक रूप से विकसित हुये। जीवित वस्तुएं वातावरण के प्रभावाधीन अपना अस्तित्व
बनाये रखने के लिए जो संघर्ष करती हैं उसमें उन्हीं को सफलता मिलती है जो पूर्णतया
स्वयं को वातावरण के अनुकूल ढाल सके। ( सर्वाइवल ऑफ द फिटेस्ट / स्वस्थतम की
उत्तरजीविता )
डार्विन ने जीव विकास की
विधिवत व्याख्या की है। उसके अनुसार मनुष्य विकास क्रिया का सबसे उत्तम प्रमाण है।
मनुष्य तथा पशुओं के शारीरिक ढांचों तथा कार्यों में बहुत-सी समानतायें हैं।
मनुष्य एक स्तनधारी तथा रीढ़ की हड्डी वाला जीव है। उसके तथा अन्य स्तनधारी और रीढ़
की हड्डी वाले जीवों के पूर्वज एक ही थे। डार्विन ने अपने विचारों के समर्थन में
बहुत-सी सामग्री एकत्रित की। नये अवशेषों के मिलने से डार्विन के सिद्धांतों को बल
मिला।
मनुष्य की उत्पत्ति तथा
प्रारम्भिक समाज
मनुष्य जाति स्तनधारी वर्ग
से सम्बन्धित है। मनुष्य नर वानर (Primates) वर्ग से सम्बन्ध रखते हैं। नर वानर स्तनधारी जीवों के उन वर्गों
से सम्बन्ध रखते हैं जो कि पूर्ण विकसिकत तथा बुद्धिमान हैं। मनुष्य,
बंदर तथा लंगूर इसी वर्ग से
सम्बन्ध रखते हैं। उनके शरीर पर बाल होते हैं। उनके दाँत कई प्रकार के होते हैं।
उनके शरीर के तापमान में स्थिरता होती है।
28-30 लाख
वर्ष पहले इन नर वानरों में एक और समूह उत्पन्न हुआ जिनको मनुष्य परिवार के पशु
अथवा महावानर (Hominid) कहा
जाता है, इनमें
वनमानुष भी सम्मिलित है। मनुष्यों तथा नर वानरों में अनेक समानतायें पाई जाती थी।
आरम्भिक मनुष्य का सिर बहुत छोटा तथा पीछे की ओर झुका हुआ था। उनके शरीर पर घने
बाल होते थे। वे बोल नहीं सकते थे परन्तु समझने योग्य ध्वनि निकाल सकते थे। वे
भ्रमणकारी थे तथा भोजन की तलाश में जगह-जगह घूमते रहते थे। आरम्भ में वे पशुओं की
भान्ति चार टांगों पर चलते थे। परन्तु समय बीतने पर वे सीधे खड़े होकर हाथों का
प्रयोग करने लगे। लाखों वर्षों में हुए मानव के क्रमिक-विकास की प्रक्रिया से
समझाने का प्रयास किया गया है। आदिमानव (Upright man or Homo
erectus) की उत्पत्ति सर्वप्रथम लगभग 12-20 लाख वर्ष पहले अफ्रीका में हुई। परन्तु कई
इतिहासकारों का विचार है कि मनुष्य की उत्पत्ति केवल अफ्रीका में ही नहीं अपितु
साथ-साथ यूरोप, उत्तरी
तथा दक्षिण पूर्वी एशिया में भी हुई। यह पाषाण युग तथा आदिमानव की उत्पत्ति का समय
था। इस युग को पाषाण युग (paleolithic age) कहा जाता है क्योंकि इस काल के मनुष्य हथियार बनाते
थे।
वनमानुष से आधुनिक मानव तक
मानव विकास की प्रक्रिया के अध्ययन से पहले हमें होमीनाईडज (Hominoids)
तथा होमिनिड (Hominids)
शब्दों का अर्थ अच्छी तरह समझ
लेना चाहिए। होमीनाईडज नर वानरों की ही एक उपजाति थी। जबकि होमिनिड का विकास
होमीनाईडज से हुआ था। उन दोनों में कई समानतायें हैं साथ-साथ उनमें कुछ भिन्नतायें
भी हैं। होमीनाईडज का मस्तिष्क होमिनिड के मस्तिष्क की अपेक्षा छोटा था। होमीनाईडज
की चार टांगे होती थी तथा वे इन पर चलते थे परन्तु इनकी अगली दो टांगें लचीली होती
थी। इसके विपरीत होमिनिड सीधे खड़े हो सकते थे तथा वे दो टांगों पर चलते थे।
होमीनाईडज तथा होमिनिड के
हाथों के पंजों में भी अन्तर था जिसकी सहायता से वे औज़ार बनाने तथा इनका प्रयोग
करते थे। होमीनाईडज बन्दरों से भिन्न होते थे। उनका शरीर बहुत छोटा होता था तथा
उनकी कोई दुम नहीं होती थी। इसके अतिरिक्त होमीनाइडज का शिशुकाल तथा बड़ों पर
निर्भरता का काल लम्बा होता था।
आदिमानव के अवशेषों का
भिन्न-भिन्न जातियों तथा हड्डियों की बनावट के अनुसार वर्गीकरण किया जाता है।
आस्ट्रेलोपिथिक्स (Australopithecus),
40-30 लाख वर्ष पूर्व तक
प्रथम वनमानुष को
आस्ट्रेलोपिथिक्स अथवा Southern ape कहा जाता है। वे पूर्वी अफ्रीका में पाये जाते थे। उनमें
मनुष्यों की विशेषतायें पाई जाती थीं। वे खड़े हो सकते थे। परन्तु आस्ट्रेलोपिथिक्स
तथा वनमानुष के हाथों की बनावट में अन्तर था। इन्हीं आस्ट्रेलोपिथिक्स की एक
उपजाति को Zinjanthropus कहा जाता था तथा वह पत्थर के औजारों का प्रयोग करते थे। वे पशु
जीवन व्यतीत करते थे तथा जंगली कीडे-मकोडे खाते थे।आस्ट्रेलोपिथिक्स के प्रथम
अवशेष 1959 में
तंजानिया के Olduvai Gorge में, ब्रिटिश
पुरातत्व विज्ञानी Mary Leakey द्वारा खोजा गया था।
होमो हैबिलिस (Homo
Habilis), 24-14 लाख वर्ष पूर्व तक
इस काल में मनुष्य के पंजे
इतने कठोर नहीं थे कि वह लड़ाई में काम आ सके। वह तीखे दांतों वाले बाघो और शेरों
का सामना नहीं कर सकते थे। मनुष्य को अपनी जान बचाने के लिए फुर्ती से काम लेना
पड़ता था। 24 से 14 लाख ई.पू. के बीच के काल का मनुष्य पत्थर के
शस्त्र बनाते थे।
होमो हैबिलिस अपने
पूर्वजों की अपेक्षा अधिक लम्बे थे। वह उन स्थानों पर जाकर ड़ेरे डाल लेते थे जहां
उन्हें आसानी से भोजन मिल सके। यह लोग पत्थर के औज़ार तथा शस्त्र बनाते थे परन्तु
यह औज़ार देखने में बहुत भद्दे लगते थे। मनुष्य, सुरक्षा तथा क्षमता के लिए छोटे समूह मिल कर बड़े समूह बना लेते
थे। इन समूहों का आकार भोजन की उपलब्धि पर निर्भर करता था। होमो हैबिलिस मनुष्य आग
जला कर इसके इर्द-गिर्द इकट्ठे बैठ कर आनन्द लेते थे। परन्तु वह स्वयं आग जलाना नहीं
जानते थे, इसलिए
उनको तब तक प्रतीक्षा करनी पड़ती थी जब तक कि उन्हें कोई जलती हुई वस्तु न मिल जाये
जिसकी सहायता से वह किसी अन्य वस्तु को जला सके। वैज्ञानिकों को होमो हैबिलिस मानव
द्वारा जलाई गई आग के अवशेष प्राप्त हुये हैं तथा उन्होंने उसका निरीक्षण करके उसका
समय भी निश्चित किया है। उन्हें उन स्थानों पर पत्थर के औज़ार तथा पशुओं की
हड्डियां भी प्राप्त हुई हैं। इससे संकेत मिलता है कि होमो हैबिलिस जानवरों का
शिकार करते थे तथा पशुओं की हड्डियों का मज्जा (bone marrow) भी एकत्रित करते थे। इन अवशेषों से यह भी पता चलता
है कि होमो हैबिलिस अधिक समय तक एक स्थान पर निवास नहीं करते थे बल्कि वह भोजन की
खोज में विभिन्न स्थानों पर भ्रमण करते थे।
सीधा खड़े होने वाला मनुष्य
(Homo Erectus), 19-143,000 लाख वर्ष पूर्व तक
इस काल में मानव ने आग
जलाना सीख लिया था। वह अफ्रीका से चल पड़ा तथा लगभग 10 लाख वर्ष पूर्व विश्व के कई भागों में फैल गया। इस काल के
मनुष्य को विकसित होने में और 2 लाख वर्ष लग गये। सीधे खड़े होने वाले मनुष्य का आकार लगभग इतना
ही था जितना कि अब है परन्तु उसकी खोपड़ी का आकार आज के मनुष्य की खोपड़ी के आकार का
लगभग दो तिहाई था। अब वह और अधिक अच्छे हथियार बनाने लगा था। उसने पत्थर के
कुल्हाड़े तथा चाकू बनाये जिनका उसने शस्त्रों के रूप में प्रयोग किया। सम्भवतः
सबसे पहले शिकारी यहीं मनुष्य था। इस मनुष्य को आग जलाने का ढंग भी आता था। इस खोज
से मानव के जीवन में नाटकीय परिवर्तन आये। लगभग 10-15 लाख वर्ष पहले होमो इरेक्टस अफ्रीका छोड़ कर अन्य
महाद्वीपों में जा कर बसने लगे। यह आरंभिक मनुष्य सम्भवतः भोजन की खोज में अफ्रीका
से यूरोप तथा एशिया से अमेरिका जा पहुँचा। होमो इरेक्टस की जानकारी हमें पीकिंग
(चीन) से मिले इस काल के मनुष्यों के अस्थि पंजर से मिलती है। इस अस्थि पंजर को
पीकिंग मैन के नाम से भी जाना जाता है। यहां से इस काल के मनुष्यों द्वारा बनाये
गये औजार तथा शस्त्र भी प्राप्त हुये हैं। इन शस्त्रों तथा औजारों से हमें यह पता
चलता है कि वह लोग किस प्रकार रहते थे, किन दिशाओं में गये और वहाँ कैसे पहुंचे।
आज का बुद्धिमान मनुष्य (Homo
Sapiens), 3,00,000 लाख वर्ष पूर्व से आज तक
इस काल के अवशेषों से पता
चलता है कि इन आरम्भिक मनुष्यों के अस्थि-पंजर वर्तमान मनुष्य के अस्थि पंजर के
आकार जैसे ही थे। होमो सैपियन मनुष्यों की खोपड़ी होमो इरेक्टस मनुष्य की खोपड़ी से
अधिक बड़ी तथा अधिक आगे की ओर झुकी हुई थी। इससे मस्तिष्क का आकार बढ़ने के लिए
स्थान की गुंजाईश थी। इस काल का मनुष्य शिकार द्वारा भोजन इकट्ठा करता था। वह
पत्थरों के औजारों, सुइयां
तथा हड्डियों से मछली पकड़ने के कांटे बनाता था। वे जानवरों की चमड़ी को जानवरों की
अंतड़ियों के धागे बना कर सीते थे। वह चमड़ी से गर्म जूते भी बनाते थे।
निअंडरथल (Neanderthal),
1,50,000,-2,00,000 वर्ष पूर्व तक
इस काल के आरम्भिक
मनुष्यों की सबसे पुरानी जातियों में से निअंडरथल मानव थे। यह शब्द जर्मनी के
निअंडर घाटी से लिया गया है, जहां से निअंडरथल मानव के अस्थि-पंजर प्राप्त हुए थे। यह
आरम्भिक मनुष्य की अन्य जातियों से भिन्न थे। वह अधिक लंबे,
मजबूत तथा शक्तिशाली थे। ऐसा
प्रतीत होता है कि वह उस समय के अनुसार बहुत विकसित थे। वे बहुत कुशल शिकारी थे।
वह प्रायः गुफाओं में रहते थे। वे आग जलाने में बहुत निपुण थे तथा सम्भवतः हमेशा
अपना भोजन आग में पका कर खाते थे। वे मृतकों को कुछ रीतियों के अनुसार दफनाते थे।
ऐसा प्रतीत होता है वह किसी धर्म में भी विश्वास रखते थे। निअंडरथल काल के
कब्रिस्तान के स्थान पर की गई खोजों से ऐसा प्रतीत होता है कि वे मृतक शरीर को
रंगों से सजाते थे। वे प्रथम मनुष्य थे जो मृत्यु के पश्चात जीवन के सम्बन्ध में
सोचते थे।
होमो सेपियन –
क्रोमैगनन तथा आधुनिक मनुष्य (Homo
Sapiens & Cro-Magnon)
निअंडरथल मनुष्य विभिन्न क्षेत्रों से विभिन्न समय में लुप्त हो गये। उदाहरणतया वे यूरोप में 12000 ई.पू. के लगभग लुप्त हो गये थे परन्तु साईबेरिया में लगभग 2000 ई.पू. में। वैज्ञानिकों के अनुसार इसका मुख्य कारण जलवायु परिवर्तन था। इस समय तक मनुष्य एक कुशल शिकारी तथा भोजन एकत्रित करने वाला बन चुका था। वे अब सारे विश्व में फैल चुके थे। वैज्ञानिकों को यूरोप, एशिया, अमेरिका तथा विश्व के अन्य भागों से इस काल के मनुष्यों के अवशेष प्राप्त हुये हैं। यद्यपि इस काल के मनुष्य का जीवन बहुत कठोर था परनतु उनके पास पर्याप्त मात्रा में भोजन-पदार्थ तथा शरण स्थल थे। इनमें बहुत से मनुष्यों की आयु बहुत लंबी थी। यूरोप में रहने वाले होमो सेपियन को क्रोमैगनन कहा जाता है।
क्रोमैगनन मानव हिमयुग की
कठोर सर्द ऋतु से सुरक्षा के लिए स्थाई निवास स्थान बनाते थे। गर्मियों में वह
तंबुओं में रहते थे तथा पशु पालते थे। सर्दियों में वह बर्फ की झोपड़ियों में रहते
थे जो कि वृक्षों की शाखाओं तथा बड़ी-बड़ी मोटी हड्डियों से बनी होती थी तथा ऊपर से
जानवरों की खाल से ढकी होती थी। कुछ झोपड़ियां लोगों के छोटे समूहों के रहने के
लिये बनाई जाती थी। यूक्रेन में लंबी झोपड़ियों के अवशेष प्राप्त हुये हैं। जिनमें
एक पूरा कबीला ही समा सकता था। इन लम्बी झोपड़ियों में अंदर जाने के लिए बहुत से
प्रवेश द्वार बनाये जाते थे। इन कमरों में आग जलाने के लिए बहुत से स्थान होते थे।
मनुष्य की उत्पत्ति का सिद्धांत
मनुष्य की उत्पत्ति का
सिद्धांत हर धर्म में अलग-अलग है। हालांकि विज्ञान सभी से अलग सिद्धांत प्रतिपादित
करता है। यदि हम बाइबल में उल्लेखित आदम से लेकर ईसा मसीह तक के ईशदूतों की उम्र
की गणना करें तो 3,572 वर्ष
मनुष्य की उत्पत्ति के होते हैं। ईसाई मत के जानकार स्पीगल के अनुसार यह अवधि 6,993 वर्ष की मानी गई है और कुछ और संशोधनवादियों ने यह
समय 7,200 वर्ष माना है अर्थात
मनुष्य की उत्पत्ति हुए मात्र 7,200 वर्ष से कुछ अधिक समय व्यतीत हो चुका है। लेकिन हिन्दू धर्म
में इसको लेकर भिन्न मान्यता है। संसार के इतिहास और संवतसरों की गणना पर दृष्टि
डालें तो ईसाई संवत सबसे छोटा अर्थात 2016 वर्षों का है। सभी संवतों की गणना करें तो ईसा संवत से अधिक
दिन मूसा द्वारा प्रसारित मूसाई संवत 3,583 वर्ष का है। इससे भी प्राचीन संवत युधिष्ठिर के
प्रथम राज्यारोहण से प्रारंभ हुआ था। उसे 4,172 वर्ष हो गए हैं। इससे पहले कलियुगी संवत शुरू 5,117 वर्ष पहले शुरू हुआ। इब्रानी संवत के अनुसार 6,029 वर्ष हो चुके हैं, इजिप्शियन संवत 28,669 वर्ष, फिनीशियन संवत 30,087 वर्ष। ईरान में शासन पद्धति प्रारंभ हुई थी तब से ईरानियन संवत
चला और उसे अब तक 1,89,995 वर्ष हो गए। ज्योतिष के आधार पर चल रहे चाल्डियन संवत को 2,15,00,087 वर्ष हो गए। खताई धर्म वालों का भी हमारे भारतीयों
की तरह ही विश्वास है कि उनका आविर्भाव आदिपुरुष खता से हुआ। उनका वर्तमान संवत 8,88,40,388 वर्ष का है। चीन का संवत जो उनके प्रथम राजा से
प्रारंभ होता है वह और भी प्राचीन 9,60,02,516 वर्ष का है।अब हम वैवस्तु मनु का संवत लेते हैं,
जो 14 मन्वंतरों में से एक है। उससे अब तक का मनुष्योत्पत्ति
काल 12,05,33,117 वर्ष
का हो जाता है जबकि हमारे आदि ऋषियों ने किसी भी धर्मानुष्ठान और मांगलिक कर्मकांड
के अवसर पर जो संकल्प पाठ का नियम निर्धारित किया था और जो आज तक ज्यों का त्यों
चला आता है उसके अनुसार मनुष्य के आविर्भाव का समय 1,97,29,447 वर्ष होता है।
मनुष्य की उत्पत्ति कैसे
हुई – मनुष्य का जन्म कैसे हुआ
Manushya Ki Utpatti Kaise Hui In Hindi
कहा जाता हैं की मनुष्य इस
धरती का पहला प्राणी था| धरती
की कुछ ऐसी सच्चाईया हैं जिनसे कोई भी पर्दा नहीं उठा पाया हैं|
यह रहस्य की जड़े बहुत गहरी हैं
जिनका पता वैज्ञानिक आज भी लगाने में जुड़े हुए हैं| मनुष्य या मानव का इस धरती पर एक विशेष स्थान हैं|
मनुष्य धरती का पहला ऐसा जीव हैं
जो अपने ऊपर आत्म निर्भर हैं और धरती का सबसे विकसित प्राणी हैं|
विज्ञान और वैज्ञानिक अभी तक नहीं
पता लगा पाए की मनुष्य की उत्पत्ति के पीछे क्या कारण था|
यह बात एक बहुत बड़ा रहस्य बन गया
हैं जिसके बारे में कोई नहीं जानता|
मनुष्य कैसे बना –
मानव की उत्पत्ति और विकास
हर एक मनुष्य के पीछे उसके
माता और पिता का हाथ होता हैं| आज तक कोई भी जीव वैज्ञानिक यह पता नहीं लगा पाया हैं की इस
धरती का पहला मनुष्य कैसे पैदा हुआ| किसी भी चीज़ के होने के पीछे वैज्ञानिक और धार्मिक कारण होते
हैं| इन दोनो मतों के अपने अलग
अलग प्रमाण होते है| इन
दोनों मतों की वजह से यह सिद्ध नहीं हो पाया हैं की मनुष्य धरती पर कैसे आया|
यह प्रश्न भी उठता हैं की इस धरती
पर पहला जीव कौन था और उसकी उत्पत्ति कैसे हुई| इन प्रश्नो का उत्तर शायद भविष्य में जाकर मिल जाए और शायद कभी
मिले ही नहीं परन्तु आज के समय में जितने भी प्रमाण हैं उनसे यह सिद्ध हो जाता हैं
की मनुष्य की उत्त्पत्ति के पीछे कुछ न कुछ कारण तो जरूर था जिसका हम पता लगाने
में असमर्थ रहे हैं|
मनुष्य का जन्म कब हुआ,मनुष्य का जन्म कैसे हुआ
वैज्ञानिक रूप से देखे जाए
तो इसके पीछे प्रकृति का बदलता स्वरुप हैं| वैज्ञानिको का ये प्रमाण उनकी लम्बे समय तक चली रिसर्च का
परिणाम हैं| विज्ञान
धार्मिक प्रमाणों को सत्य नहीं मानता| वे किसी भी बात के निश्चय तक तब तक नहीं पहुँचता जब तक की उसका
कोई पक्का प्रमाण उनके सामने नहीं आ जाता| वैज्ञानिक रूप से माना जाए तो मानव करोड़ो साल पहले एक वानर था
जो चारो पैर से चलता था| जैसे
जैसे समय गुजरा उसकी जरुरत के साथ उसकी प्रवृत्ति में बदलाव आया|
मानव ने अपने आप को प्रकृति के
साथ अपनी जरूरतों को पूरा करने के लिए विकसित करा हैं|
History of India: Human Evolution and
Development | Hindi
मानव प्रजाति के अफ्रीकी
पूर्वज (African Ancestor of Human Species):
पृथ्वी चार अरब साठ करोड़
वर्षों से अधिक पुरानी है । इसकी परत के विकास से चार अवस्थाएँ प्रकट होती हैं ।
चौथी अवस्था चातुर्थिकी (क्वाटर्नरी) कहलाती है, जिसके दो भाग हैं, अतिनूतन (प्लाइस्टोसीन) और अद्यतन (होलोसीन) । पहला 20 लाख ई॰ पू॰ से 12,000 ई॰ पू॰ के बीच था और दूसरा लगभग 12,000 ई॰ पू॰ से शुरू होकर आज तक जारी है ।
पृथ्वी पर जीवोत्पत्ति
लगभग तीन अरब पचास करोड़ वर्ष पूर्व हुई । करोड़ों वर्षों तक जीवन पौधों और पशुओं तक
सीमित रहा । मानव धरती पर पूर्व-प्लाइस्टोसीन काल और प्लाइस्टोसीन काल के आरंभ में
उत्पन्न हुआ । लगभग साठ लाख वर्ष पूर्व मानवसम (होमिनिड) का दक्षिणी और पूर्वी
अफ्रीका में आविर्भाव हुआ ।
आदिमानव,
जो बंदरों से बहुत भिन्न नहीं थे,
लगभग तीन करोड़ वर्ष पूर्व पृथ्वी
पर प्रकट हुए । मानव के उद्भव में ऑस्ट्रालॉपिथेकस का आविर्भाव सबसे महत्वपूर्ण
घटना है । ऑस्ट्रालॉपिथेकस लैटिन शब्द है जिसका अर्थ है दक्षिणी वानर । यह नर वानर
था और इस प्रजाति में वानर और मनुष्य दोनों के लक्षण विद्यमान थे ।
ऑस्ट्रालॉपिथेकस का उद्भव
लगभग 55 लाख वर्ष पूर्व से लेकर 15 लाख वर्ष पूर्व हुआ । यह दो पैरों वाला और उभरे
पेट वाला था । इसका मस्तिष्क बहुत छोटे आकार (लगभग 400 cubic centimeter) का था । ऑस्ट्रालॉपिथेकस में कुछ ऐसे लक्षण
विद्यमान थे जो ‘होमो’
अथवा मानव में पाए जाते हैं ।
ऑस्ट्रालॉपिथेकस सबसे अंतिम पूर्वमानव (होमिनिड) था । अत: इसे प्रोटो-मानव अथवा
आद्यमानव भी कहते हैं ।
20 लाख
से 15 लाख वर्ष पूर्व पूर्वी और
दक्षिणी अफ्रीका में प्रथम मानव कहे जाने वाले मानव होमो हैविलिस का प्रादुर्भाव
हुआ । होमो हैविलिस का अर्थ है हाथवाला मानव अथवा कारीगर मानव । इस प्रथम वास्तविक
मानव ने पत्थरों को टुकड़ों में तोड़कर और उन्हें तराशकर उनका औज़ार के रूप में
इस्तेमाल किया ।
इसलिए जहाँ भी होमो विलिस
की हड्डियाँ पाई गई हैं, वहाँ पत्थर के टुकड़े भी मिले हैं । होमो हैविलिस का मस्तिष्क
हल्का (500-700 cc) था । 18-16 लाख वर्ष पूर्व पृथ्वी पर सीधे मानव अथवा होमो इरेक्टस का
आविर्भाव हुआ ।
पत्थर का हस्तकुठार
(हैंड-एक्स) के निर्माण तथा अग्नि के आविष्कार का श्रेय इसी को दिया जाता है ।
हामी हैविलिस के विपरीत होमो इरेक्टस लंबी दूरी की यात्राएँ करते थे । इनके अवशेष
अफ्रीका के अलावा चीन दक्षिण एशिया और दक्षिण-पूर्व एशिया में मिले हैं ।
मानव के उद्भव में अगला
महत्वपूर्ण कदम था पृथ्वी पर होमो सेपीयन्स (बुद्धिमान मानव) का आविर्भाव । आधुनिक
मानव का उद्भव होमो सेपीयन्स से ही हुआ है । जर्मनी में मिले नियंडर्थल मानव से
इसकी काफी समानताएँ हैं ।
होमो सेपीयन्स का काल 2,30,000 से 30,000 वर्ष पूर्व निर्धारित किया जा सकता है । इसका शरीर छोटा और
ललाट संकीर्ण था, लेकिन
इसके मस्तिष्क का आकार बड़ा (1200-1800 cc) था ।
आधुनिक मानव अथवा होमो
सेपीयन्स सेपीयन्स 115,000 वर्ष पूर्व ऊपरी पुरापाषाण काल में दक्षिणी अफ्रीका में प्रकट
हुआ । अन्य होमिनिडों की अपेक्षा इसका ललाट बड़ा था और हड्डियाँ पतली थीं । आधुनिक
मानव ने विभिन्न प्रकार के कार्यों के लिए अनेक प्रकार के पत्थर के औजार बनाए ।
लेकिन यह स्पष्ट नहीं है
कि उसमें बोल पाने की क्षमता था अथवा नहीं । अभी हाल तक यह माना जाता रहा है कि
लगभग 35,000 ई॰
पू॰ में भाषा का जन्म हुआ लेकिन अब भाषा के जन्म का समय 50,000 ई॰ पू॰ माना जाता है ।
आधुनिक मानव का मस्तिष्क
अपेक्षाकृत अधिक बड़ा (लगभग 1200-2000 cc) था । मस्तिष्क बड़ा होने की वजह से आधुनिक मानव
ज्यादा बुद्धिमान था और उसमें अपने परिवेश को बदल पाने की क्षमता मौजूद थी ।
भारत में मानव
प्रजाति (Human Species
in India):
भारतीय उपमहाद्वीप में
शिवालिक पहाड़ी इलाके में पाकिस्तान के पंजाब प्रांत के अंतर्गत पोतवार के पठार में
मानव खोपड़ियों के अत्यंत प्राचीन जीवाश्म मिले हैं । इन मानव खोपड़ियों को
रामापिथेकस और शिवापिथेकस कहा गया ।
इनमें होमिनिड की लाक्षणिक
विशेषताएँ तो है लेकिन ये वानरों का ही प्रतिनिधित्व करते हैं । रामापिथेकस
स्त्री-खोपड़ी है, हालांकि
दोनों एक ही वर्ग के हैं । इसी वर्ग का प्रतिनिधित्व करने वाला एक अन्य जीवाश्म,
जो यूनान में प्राप्त हुआ है,
लगभग एक करोड़ वर्ष पुराना माना
गया है । यह रामापिथेकस और शिवापिथेकस के तिथि-निर्धारण में सहायक हो सकता है,
अन्यथा इन खोपड़ियों को 22 लाख वर्ष पुराना माना जाता है ।
जो कुछ भी हो,
इस बात का कोई प्रमाण नहीं मिलता
है कि इस जाति का प्रसारण भारतीय उपमहाद्वीप के अन्य भागों में भी हुआ हो । ऐसा
प्रतीत होता है कि शिवालिक पहाड़ी इलाके में मिले होमिनिड से भारतीय उपमहाद्वीप में
मानव का उद्भव न हो सका और यह प्रजाति लुप्त हो गई ।
1982 ई॰
में मध्य प्रदेश के नर्मदा घाटी अंतर्गत हथनौरा नामक स्थल से होमिनिड की लगभग
संप्रग खोपड़ी प्राप्त हुई है । इसे होमो इरेक्टस अथवा सीधे मानव की खोपड़ी बताया
गया । लेकिन इसका शारीरिक परीक्षण करने के बाद अब इस आद्य होमो सेपीयन्स माना जाता
है ।
अब तक होमो सपीयन्स के
अवशेष भारतीय उपमहाद्वीप में कहीं से भी नहीं प्राप्त हुए हैं,
हालाँकि श्रीलंका में होमो
सेपीयन्स सेपीयन्स के जीवाश्म मिले हैं । यह जीवाश्म लगभग 34,000 वर्ष पूर्व का बताया जाता है ।
श्रीलंका में यह काल ऊपरी
प्लाइस्टोसीन और प्रारंभिक होलीसीन काल के शिकारी और खाद्य संग्राहक जीवन का है ।
ऐसा लगता है कि आधुनिक मानव (होमो सेपीयन्स सेपीयन्स) इसी समय दक्षिण भारत में
अफ्रीका से समुद्रतट होते हुए पहुँचा । यह घटना प्राय: 35,000 वर्ष पूर्व हुई ।
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