अब समय की मांग है की जातिगत श्रेष्ठता खत्म होना चाहिए तभी हिन्दू धर्म मजबूत होगा जिस धर्म में जाति व्यवस्था, छुआछूत भेदभाव और ऊंच-नीच हो वह धर्म श्रेष्ठ नहीं हो सकता।
धर्म विरुद्ध है जाति प्रथा
कोई ऊंचा नहीं, कोई नीचा नहीं, सभी समृद्धि और विकास
की ओर अग्रसर हो रहे बंधु बांधव मात्र हैं। सभी उसी देवता के पुत्र हैं। सभी
प्राणियों के हृदय में उसी देवत्व का वास है। ये वाक्य हैं भारत के प्राचीनतम
ग्रंथ ऋग्वेद के। इनमें यह स्पष्ट है कि चूंकि प्रत्येक मनुष्य के हृदय में समान
रूप से उसी ईश्वरीय सत्ता का वास है,
अत: ऊंच-नीच का सवाल ही नहीं उठता। सब
लोगों में एक ही ईश्वरीय तत्व होने के कारण सबका समान होना स्वाभाविक है। इस विचार
के ही आधार पर विवेकानंद ने जाति पर आधारित भारतीय समाज में व्याप्त शोषण को अधर्म
घोषित किया। उन्होंने कहा कि एक व्यक्ति का ईश्वर तत्व दूसरे व्यक्ति में स्थित
ईश्वर तत्व के प्रति कैसे अन्याय कर सकता है?
उसे कैसे भूखा देख सकता है? वेदों के इस समानता
संबंधी विचार को उन्होंने सामाजिक न्याय से जोड़ा।
समानता का यह संदेश जो भारतीय समाज में
वेदों से प्रारंभ हुआ वह आगे भी जारी रहा। गीता में श्रीकृष्ण कहते हैं-'सभी प्राणियों को मैं
समान रूप से देखता हूं। न किसी को कम और न किसी को ज्यादा प्रेम करता हूं। अन्यत्र
वह कहते हैं कि जो भी मेरी शरण में आएगा,
वह चाहे किसी जाति, लिंग, संप्रदाय का हो, वह अपने चरम लक्ष्य
को प्राप्त कर लेगा। महाभारत में अनेक स्थलों पर कहा गया है कि व्यक्ति केवल अपने
आचरण से ही द्विज बनता है, जन्म से नहीं। हिंदू धर्म ग्रंथ ऐसे उदाहरणों से भरे पड़े हैं, जहां व्यक्ति ने समाज
में उच्च स्थान जाति के कारण नहीं,
अपने गुणों और ज्ञान के कारण प्राप्त
किया।
वर्ण व्यवस्था मे क्षत्रिय, वैश्य, ब्राह्मण और शूद्र का
निर्धारण कर्म से होता था न कि जन्म से.जो राजपाट की जिम्मेदारी लेगा वह क्षत्रिय.
क्षत्रिय का काम राज्य की रक्षा करना, प्रशासनिक व्यवस्था,
न्याय करना होता था वैश्य व्यापार और कोषालय सम्हालने वाले होते थे ज्ञान व शिक्षा,
संस्कृति और कर्मकांड ब्राह्मणों का काम
था जबकि शूद्र शारिरिक रूप से श्रम वाले कार्य किया करते थे और इनमें से व्यक्ति जो विधा में पारंगत होते थे वह उसका वर्ण
निर्धारित करता था न कि जन्म.
सनातन वैदिक हिंदू संस्कृति समाज एक वट वृक्ष है।
जैन, सिख, बौद्ध, हिंदू आदि इस वटवृक्ष की ही निकली हुई साखायें
हैं। कोई भी शाखा तब तक फलती फूलती है जब
तक वह वृक्ष के साथ रहती है। और जो शाखा वृक्ष से कट जाती है तो
कब तक
हरी रहेगी आख़िर तो एक दिन सूख जाती है।
अगर हिन्दू धर्म में सभी इंसान और सभी जाति, वर्ग, गोत्र, समाज, काबिले
और खानदान को समान रूप से इज्ज़त, सम्मान, बराबरी, इंसाफ, प्रेम, मुहब्बत मिलता और सच्चाई ,
ईमानदारी, दया, इंसानियत, कामयाबी, शांति, सुकुन
वगैरह होता तो आज हिन्दूधर्म विश्व का
सर्वश्रेष्ठ धर्म होता और विश्व के सभी देशों में होता तथा सबसे अधिक जनसंख्या
वाला धर्म होता। हिन्दू धर्म त्याग कर कोई अलग धर्म, अलग भगवान अलग पुजा पद्धति और अलग विचारधारा न
अपनाते जैसे सिख धर्म,जैन
धर्म,परसी
धर्म, बौद्ध
धर्म, ईसाई
धर्म नहीं बनता
ऊंच नीच, भेदभाव, छुआ अछुत, शूद्र,चमार, हरिजन, दलित आदिवासी जनजाति इत्यादि इत्यादि का फर्क
ना होता तो हिन्दू धर्म इतना माटिया फलित न होता ।
भारत में विशेष कर हिन्दू धर्म में भी अलग अलग
जाति,जात
पात,धर्म,भाषा, वर्ण, गोत्र, क्षेत्र
के लोग रहते हैं। इनकी सब के भिन्न भिन्न आस्था, भावना, विश्वास, भगवान, देवी देवता,मान्यता, परम्परा,रीत रिवाज, ख़ान पान, रहेन सहेन, शादी विवाह, पहनावा, भाषा, संस्कृति, संस्कार,तेहजीब, धार्मिक त्यौहार, उत्सव व पर्व सब के अलग अलग है। कुछ शाकाहारी, कुछ
मांसाहारी,अंडा
कारी, कुछ
लोग शादी सुदा तो कुछ लोग ब्रह्मचारी । तोर तरीके, नियम, उसूल और सिद्धांत में भी आसान व जमीन फर्क और
अंतर है।सब को एक करना और एक जगह लाना नामुमकिन सा है। सब की सम्मान, इज्जत, आदर
और क़दर करना निहायत जरूरी है।
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