दम तोड़ते रिश्ते, बिखरते
परिवार और टूटता समाज
हमारे देश में संयुक्त परिवार की प्रथा रही है।
एक बड़ा-सा घर और उसमें मम्मी-पापा के साथ-साथ दादा-दादी, चाचा-चाची
और उनके बच्चे एक साथ एक छत के नीचे रहते थे। सभी बच्चे एक साथ खेलते, खाते-पीते
और पढ़ते-लिखते थे। एक सदस्य परेशान होता, तो सभी सदस्य उसकी समस्या का समाधान करते थे।
किंतु आज संयुक्त परिवार का चलन खत्म हो रहा है। उसकी जगह एकल परिवार ले रहा है।
परिवार के सदस्यों के बीच वह प्यार, अपनापन और सम्मान अब देखने को नहीं मिलता, जो
कभी दिखा करता था। जिस घर को कभी हमारा घर कहकर पुकारा जाता था, वह घर
अब टुकड़े-टुकड़े होकर तेरे-मेरे घर में परिवर्तित हो रहा है। हाल यह है कि एक भाई
अपने दूसरे भाई के साथ नहीं रहना चाहता। भारत में प्राचीन काल से ही ‘वसुधैव
कुटुंबकम्’ की
रीति को अपनाया जाता रहा है। अर्थात पूरी पृथ्वी हमारा परिवार है। किंतु सच्चाई यह
है कि हम अपने परिवार को भी अपना नहीं समझते हैं।
यह ऐसा समय था, जब समाज में परिवारों का बोलबाला था और समाज
में संपन्नता की निशानी परिवार की प्रतिष्ठा से लगाई जाती थी। उस दौर में व्यक्ति
की प्रधानता नहीं थी, बल्कि
परिवारों की प्रधानता थी। परिवार
के धनी लोगों की बिरादरी में विशेष इज्जत होती थी और ऐसे लोग पूरे समूह और समाज का
प्रतिनिधित्व करते थे। बड़े परिवार का मुखिया पूरे समाज का मुखिया बनकर सामने आता
था और उसकी बात का एक विशेष वजन होता था। संयुक्त
परिवारों के उस दौर में परिवार के सदस्यों में प्रेम, स्नेह, भाईचारा
और अपनत्व का एक विशिष्ट माहौल रहता था। इस माहौल और संयुक्त परिवारों का फायदा
परिवार के साथ पूरे समाज को मिलता था और जो पूरे समाज और राष्ट्र को एकसूत्र में
बांधने का संदेश देता था।
एक ज़माना था जब परिवार में कितने ही लोग होते
थे और परिवार हँसता खेलता था और एक दूसरे से एक एकदम जुड़ा रहता था. पैसे कम होते थे पर उसमे भी बहुत बरकत होती थी.
घर में कोई ख़ुशी की बात होती थी तो बाहर वालों
को बुलाने की ज़रूरत ही नहीं पड़ती थी. आज परिवार कितने छोटे हो गए हैं और
टूटते जा रहे हैं, हमारे
रिश्ते बिखरते जा रहे हैं. माँ बाप, भाई बहिन, चाचा चची, मामा मामी इत्यादि रिश्ते दिखने में तो बहुत प्रिय लगते हैं, लेकिन उनमे मिठास नाम की चीज़ बिलकुल ख़तम सी होती जा रही है. हरेक को
अपनी अपनी पड़ी है कि बस सब कुछ हमें मिल जाये. पीछे
मुड़ के देखते तक नहीं कि हम अपनी इस विचारधारा से कितना कुछ खोते चले जा रहे हैं.
कोई दिन ऐसा नहीं होगा जब कोई परिवार न टूट रहा हो. एक बाप कितने चाव से घर की
आधारशिला रखता है, लेकिन
आज उस आधारशिला की ईंटे इतनी कमज़ोर पड़
गई हैं कि जितना मर्ज़ी सीमेंट लगा लो, वो आपस में जुड़ने का नाम ही नहीं लेती. क्या
हो गया है हमको, क्यों
ऐसा कर रहे हैं हम? बातें
तो हम बहुत करते हैं, लेकिन
खुद में आये बदलाव को बिलकुल नज़र अंदाज़ कर रहे हैं. दिखावे के लिए रिश्तों को निभाना कुछ
एहमियत नहीं रखता, जब तक आप उसे दिल से न माने. आज
आप खुश हैं और आप चाहते हैं सब आपकी ख़ुशी में शामिल हों. लेकिन ऐसी ख़ुशी का क्या
फायदा जिसमे किसकी दुआ, अपनों
का प्यार शामिल ना हो. आज जो आपके पास है, कल वो किसी और के पास भी हो सकता है. दूसरों को
अपना बनाने के लिए आप उनके पीछे भाग रहे
हैं और जो आपके अपने हैं उनसे आप बिना वजह कट रहे हैं,क्यों? बिना मतलब कोई आपके पास नहीं फटकेगा, लेकिन
आपका अपना जिसे आप बेगाना समझ रहे हैं, ख़ुशी
ख़ुशी हर मोड़ पे आपका साथ देगा. अगर आपको
खुद अपने पर विश्वास नहीं,
तो
क्या खाक आप किसी और पे विश्वास करेंगे. अन्दर से आप बिलकुल खोखले हो चुके हैं, लेकिन
दिखावा करने से आप बाज़ नहीं आते. लोगों
का क्या है, उन्हें
तो थोड़ी देर की ख़ुशी और खाने पीने को चाहिए, पर आपके अपने परिवार के लोग जो हर कदम पर आपको
सहारा दे सकते हैं, उनको
आप किसी के बहकावे में आकर अपने से दूर कर रहे हैं. अगर कुछ टूट जाये तो उसे
जोड़ना बहुत मुश्किल है, कुछ
बिखर जाये तो उसे फिर से समेटा नहीं जा सकता. अरे यह तो वो माला है जिसके मनके
जितने साथ रहें उतना उनका जाप करना दिल को बहुत भाता है. अपने
एहम को फ़ेंक दीजिये, वर्ना बहुत देर हो जाएगी. आप कितने
ही लोगों से घिर जाएँ, खुद को हमेशा अकेला ही महसूस करेंगे. क्या
परिवार के चार लोग मिल कर नहीं रह सकते?. सब कुछ यहीं रह जाना है और आपने एक दिन चले
जाना है. नींद से जागिये और आँखें खोल के देखिये, जिन्हें आप पीछे छोड़ आये थे वो आज भी आपके साथ
हैं. आपकी अकल पर ऐसा पत्थर पड़ गया है कि आपको अच्छे बुरे की पहचान तक नहीं रही. चीज़ों को टूटने और उनको बिखरने से
बचाइए, वर्ना
एक दिन आप ऐसा पछतायेंगे कि सब कुछ होते हुए भी आप खुद को कंगाल ही समझेंगे. अभी भी वक्त है समेट लीजिये
जितना समेट सकते हैं, ऐसा न
हो जो बचा खुचा है आप उसे भी खो बैठें. कोई बुरा नहीं होता, बुरा
वक्त होता है जो हमारे अन्दर बुराई के बीज पैदा करता है. जब बारिश रुक जाती है तो
सूरज बादलों का सीना चीर कर हमें फिर से रौशनी देता है. खुद को ऐसा सूरज बनायें कि
आपकी गर्मी में भी लोगों को चाँद सी ठंडक महसूस हो. जो हुआ वो एक नासमझी थी और
उसके लिए आप किसी को दोष मत दें. उसे बस रास्ते का पत्थर समझ कर हटायें और अपनी
मंजिल की तरफ बड़ते रहें. जिंदगी बहुत खुबसूरत है मेरे
दोस्त, इसलिए
मुस्कराइए, किसी
को गले लगाइए और सारे गम भूल जाइये.ऊपरवाला आप पर अपनी आशीष के फूल बरसायेगा.
टूटते बिखरते परिवार
विश्व वन्धुत्व की भावना वाला हमारा देश विश्व
को एक कुटुम्ब की तरह मानता था और इसीलिये जब भी सोचते तो केवल देश के लिए नहीं परतु
पुरे विश्व के कल्याण के लिए सोचते थे.ऐसे देश में संयुक्त परिवार विश्व के लिए एक
बहुत अचंभित करने वाला ख्याल था.ताऊ.ताई,चाचा, चाची ,बुआ,फूफा, मौसा मौसी दादा दादी की कहानियाँ अब तो बीते
ज़माने की बाते हो गयी क्योंकि आधुनिकता, नौकरी और पच्छमी सभ्यता के साथ सब कुछ बदल
गया.कितना अच्छा लगता था जब छुट्टी के बाद नाना नानी के घर जाने की खुशियाँ होती
थी.वहां उनके प्यार आते वक़्त मिलने वाले उपहार और मामा मामी के प्यार तो अब सपने
बन चुके.संयुक्त परिवार हमारी संस्कृति का अभिन्न अंग होता था.परिवार में ज्यादा
लोग होते थे परन्तु आपस में अटूट प्यार होता था क्योंकि बचपन से ऐसे वातावरण में
रहते चले आये थे और ऐसी ही शिक्षा मिलती थी.उस वक़्त घर में बड़ो का अनुशासन चलता था
जो बहुत सुचार तरह से बिना भेदभाव के चलता था.संब लोग मिल जुल कर कार्य करते थे.छोटे
बड़ो की आदर करते वही बड़े छोटो को प्यार देते उनका ख्याल रखते और अच्छी शिकक्षा देते जो जिन्दगी के हर क्षेत्र में बहुत काम की
होती थी.घर में धार्मिक वातावरण होता.तुलसी माता और सूर्य भगवन को जल चढ़ाना गो
माता को रोटी घर में रामायण, हनुमान चालीसा का पाठ ,भगवन
का छोटा सा मंदी और भगवन को भोग लगाने के बाद ही खाने की आदत थी.लडकियों को सब तरह
से निपुण बनाया जाता था उनको सब तरह की व्यावारिक शिक्षा दी जाती थी.आस पास के
लोगो में प्यार होता था.दहेज़ की कोई समस्या नहीं थी शादी के बाद भी लडकिय खुश हो
कर रहती थी. ससुराल् में किसी को जला दिया जाता हो या निकाल दिया जाता ऐसा नहीं
सुना जाता था.इंसानियत का वातावरण था.
हम लोग पढ़ लिख कर उच्च डिग्री पा गए अच्छी
कंपनी में नौकरी करने लगे परन्तु इन्शनिअत भूलते रहे.बच्चो पर ज्यादा ध्यान नहीं
दे सके उनको आया के ऊपर छोड़ दिया ज्यादा पैसे से लोभ बढ़ने लगा इसी के साथ दहेज़ की
मांग और फिर शादी जो एक पवित्र रिश्ता दो परिवारों के बीच में था व्यापार बन गया
लडको की शादी नहीं बोली लगने लगी.पति पत्नी के परिवार से दूर रहने में आदत ऐसी पढ़
गयी की अपनापन भूलकर परिवार के साथ ज्यादा दिन रहना मुस्किल लगने लगी.पति पत्नी दो
ने नौकरी करने और शिक्षित होने से विचारो में भिन्नता आनी लगी प्यार कम होने लगा
तनाव, झगडा
के साथ तलाक बड़ने लगे.अब तो बिना शादी एक साथ रहने, एक ही लिंग में शादी ऐसे उन्मर्यादित रिश्ते
होने शुरू हो गए जिसके बारे में हमारे देश में सोचा भी नहीं जाता था.पच्छमी सभ्यता
के प्रभाव से शराब .देर रात की पार्टी और भी चीजे होने लगी पहले लडकियों को परिवार
के साथ रहने की शिक्षा दी जाती थी और लडकी के घर वाले ससुराल के मामले में
हस्तपक्षेप नहीं करते आज अलग रहने की भी शिक्षा और बात बात में लडकी के ससुराल में
हस्तप्क्षेप के साथ ससुराल वाले दहेज़ की मांग भी करने लगे और न देने में अत्याचार
करते ,मार
डालते या फिर तलाक करवा देते या फिर लडकियां शादी के बाद चाहती की पति घर से अलग
हो कर रहे .इसके अलवा नयी तकनीक ने वातावरण बहुत ख़राब कर दिया.पब में जा कर शराब
पीना हुरदंगा मानना और रोकने पर न मानना फैशन हो गया.हमलोग
धन कमाने और मौज मस्ती की मशीन हो गए और इन्शानियत ख़तम हो
गयी.शर्म की बात है की आज देश में माँ बाप की देख भाल करने में बच्चे
कतराने लगे जिससे उनके लिए वृद्धाआश्रम बन्ने लगे जहाँ उन्हें छोड़ दिया जाता.माँ
बाप भी लडको में भेदभाव रखते जायदाद के लिए परिवारों के सदस्यों में आपस में
मुकदमेबाजी होनी लगी.कहीं कहीं माँ बाप लड़कियो को
ससुराल वालो के खिलाफ बाधक कर झगडा करवा देते और घर टूट जाते.
आज दादा दादी की कहानिया, नाना
नानी का प्यार और खिरखिराते प्यार भरे रिश्ते ख़तम हो गए और अकेले वाली स्वार्थभरी
रिश्ते रह गए.टीवी ,लैपटैप
और दुसरे आधुनिकता चीजो ने इसनियत को छीन कर मशीन बना दिया .आज हालत ये है की लोग
अपने पड़ोसी को नहीं जानते क्या ये सभ्यता की निशानी या हमारा अव्मुलन स्वयं विचार
करे?
पुरुष और स्त्री परिवार की नींव हैं और यह नींव
जितनी मजबूत होती है उतना ही परिवार खुशहाल होता है। पुरुष और नारी एक-दूसरे के
पूरक हैं। दोनों का मिलन जहां परिवार व समाज तथा संसार का आधार रखता है वहीं दोनों
का टकराव परिवार और समाज में भी टकराव व तनाव पैदा करता है। व्यक्तिगत सुख-सुविधा, आशा-निराशा
को किनारे करते हुए जब पुरुष और नारी मिलकर कर्म करते हैं, तो घर
के आंगन में खुशहाली, समृद्धि
के साथ-साथ सुख-शांति के वह फूल खिलते हैं जिसकी महक घर की चारदिवारी से बाहर निकल
समाज को भी आनंदित करती है।
दरकते रिश्ते और टूटते परिवारों
मूल्य, जीवन को गुणवत्ता व अर्थ प्रदान करते हैं और
व्यक्ति को उसकी पहचान एवं चरित्र। बच्चे अपने माता- पिता, शिक्षक
और हम उम्र बच्चों से मूल्य सीखते हैं। परंतु यह भी जरूरी है, उन्हें
बचपन से ही सही मूल्यों का ज्ञान दिया जाए। इस कच्ची उम्र में वे जो सीखते हैं, वह
जीवन भर उनके साथ रहता है। यदि आपसे प्रश्न पूछा जाए कि वर्तमान समाज की स्थिति के
लिए जिम्मेदार कौन? तीव्र
गति से हो रहे परिवर्तन की वजह क्या है? क्या वर्तमान समाज स्वस्थ कहलाने के योग्य हैं, क्यों
व्यथित हैं हरेक मन, तनाव
भरे जीवन का कारण क्या है?
मेरा मानना है कि इन प्रश्नों का उत्तर हमें
खुद तलाशना होगा। झांकना होगा अपने अंतर्मन में, टटोलना होगा स्वयं को, क्योंकि
समाज एवं स्वयं की इस स्थिति के लिए हम खुद ही जिम्मेदार हैं। प्रतिस्पर्धा एवं
दिखावे की अंधी दौड़ में पड़कर हम सिर्फ अपना स्वार्थ हल कर रहे हैं। भूला बैठे हैं
अपनी प्राथमिकताओं को। नकार रहे हैं उन मूलभूत दायित्वों को, जो एक
संस्कारित परिवार एवं समाज की आश्यकता, या यूं कहें कि आधारशिला हैं।
गत कुछ वर्षाें में यह भावना तेजी से बढ़ी और
हमने अपने परिवार को समय एवं महत्व देना कम कर दिया। परिणमस्वरूप बुजुर्गों का
तिरस्कार बढ़ा एवं बच्चों की अवहेलना। संयुक्त परिवार टूटने लगे। रिश्तों में
दरारें आ गई। अंतत: व्यक्ति एकल परिवारों में विभक्त हो गए। इंसान स्वार्थी हो
गया। वह एकल परिवार में सिमट गए। संयुक्त परिवार, जहां दादा- दादी, ताऊ-ताई, चाचा-चाची आदि परिवार के लोग मिलजुलकर एक छत के
नीचे रहते, खाते-
पीते, सुख
दुख में साथ खड़े रहते थे। यहां थोड़े बहुत झगड़े तो होते थे, परंतु
बेइंतहा प्यार भी बरसता था। एक बड़े से थाल के चारों तरफ घर के सारे बच्चें को जब
दादी एक एक कौर सभी को खिलाती थी। तो बच्चें बांटकर खाना, लेना-
देना और एक दूसरे को ध्यान रखना सीखते थे। जीवन सहज था, दिखावे
से कोसों दूर। घरों में दिखावे की चीज भले ही न थी, पर एक दूसरे का ख्याल जरूर रखा जाता था। घर के
बड़ों का सम्मान, आज्ञा
सर्वोपरि होती थी। यहीं से नींव पड़ी थी संस्कारों की, जो
किसी भी व्यक्तित्व को सु²ढ, सुगढ़
व प्रभावी बनाती है। ऐसी व्यक्तित्व समाज व राष्ट्र के निर्माण में अगणी भूमिका
निभाते हैं।
एकल परिवार स्वयं एक विडंबना है। यहां बच्चों
को तो छोड़िए, बड़ों
पर अंकुश लगाने वाला कोई नहीं है। परिवार में यदि अनुशासन
नहीं तो परिवार बिखरते देर नहीं लगती। बढ़ते पारिवारिक झगड़े, तलाक, बच्चों
का उद्दंडतापूर्ण व्यवहार,
इसका
ज्वलंत उदाहरण है। दादा- दादी का संरक्षण एवं स्नेह मिलना तो दूर उनके प्रति
बच्चों के दिलो में लगाव उत्पन्न ही नहीं हो पाता। क्योंकि आधुनिक माता पिता
उन्हें अपने साथ रख पाने में असमर्थ हैं, जो साथ हैं भी तो वे तिरस्कृत। बच्चा वही
सीखेगा जो देखेगा। दूसरों पर दोषारोपण समस्या का समाधान नहीं।
संबंधों में जुड़ाव, विश्वास, अपासी
समझ बनाए रखने के लिए कुछ त्याग करने पड़ेंगे। इस बदलते परिदृश्य में नई पीढ़ी को
गर्त में जाने से बचाने के लिए उनमें चारित्रिक सुदृढ़ता लाने के लिए माता पिता को
दृष्टिकोण में परिवर्तन लाना होगा। उन्हें समय, प्यार एवं भावनात्मक सुरक्षा प्रदान करनी होगी।
उनके समक्ष दम तोड़ रहे रिश्तों को तिरष्कृत संबंधिनियों को मान देना होगा। एक बार पुन: मैं' की भावना से हटकर हम' की भावना का विकास करना होगा।
परस्पर सहयोग से दूर होगी दूरी
एक छत के नीचे रहने भर से परिवार का अर्थ पूरा
नहीं होता, एक
दूसरे की भावनाओं को समझने के साथ ही एक दूसरे को समझना। सम्मान देना। सुख दुख में
भागीदारी के साथ परिवार के सदस्यों की मदद का भाव रखना भी जरूरी है। परिवार के लोग
व्यक्तिगत महत्व को दर्शाने में लगे हुए हैं। अन्य सदस्यों के उत्थान की ¨चिन्ता कम
हो गई। परस्पर सहयोग की भावना पर मानो ग्रहण लगा गया। परिवार, समाज
की समृद्धि के लिए निजी स्वार्थ की प्रवृत्ति को त्यागना होगा।
मोबाइल भी तोड़ रहा परिवार
आधुनिक पीढ़ी, बड़ों का सम्मान करना ही भूल रही है। दरअसल
बच्चे परिवार के बड़े बुजुर्गों के अनुभव, व्यवहार से ही सीखते हैं। बड़ों ने बच्चों से
बात बंद कर दी। वे मोबाइल में लगे रहते है। इसका असर बच्चों पर पड़ रहा और परिवार
भी टूट रहे हैं। सोशल मीडिया इन दिनों जीवन का हिस्सा बन चुका है। फेसबुक, वाट्सअप
आदि एप पर चै¨टग से
समय के साथ सेहत खराब हो रही है। परिवार में बातचीत बंद हो रही। सोशल मीडिया के
सीमित प्रयोग की सख्त जरूरत है। यह तभी संभव तब बड़े सोशल मीडिया पर सीमित होकर
बच्चों से बात करेंगे।
संस्कार से बचेंगे परिवार
आजकल परिवार के लोग खुद की श्रेष्ठता पर ज्यादा
ध्यान देते हैं। परिवार के अन्य सदस्यों की ओर ध्यान नहीं दिया जाता। जबकि संस्कार
रूपी जल से परिवार रूपी पेड़ का संवर्धन किया जा सकता है। हम दिनोंदिन परिवार की
सार्थकता, महत्व
भूलते जा रहे है। आपसी संवाद खत्म सा हो गया। पारवारिक संबंधों में दरार आ रही हे।
मनुष्य की सफलता में उसके परिवार का अहम योगदान होता है। परस्पर प्यार, त्याग
के संस्कार से परिवार बचाने की जरूरत है।
आज के युग में टूटते परिवार
परिवार न केवल मानव-जीवन के प्रवाह को जारी
रखने वाला अखण्ड स्रोत है,
बल्कि
मानवोचित गुणों की प्रथम पाठशाला भी है। परिवार को ‘सामाजिक जीवन की अमर पाठशाला’, सामाजिक
गुणों का पालना या पाठशाला आदि कहा गया है। इस प्रकार परिवार मानव समाज की आधारभूत
एवं सार्वभौमिक सामाजिक संरचना है। भारत में परिवार की प्रकृति आदिकाल से ही
संयुक्त रही है। इसके अन्तर्गत समस्त कुटुम्बीजन सम्मिलित रूप से ही एक मकान में
ही निवास करते थे तथा जहाँ पर एक अनुभवशील वयोवृद्ध की सत्ता होती थी। उस परिवेश
में प्रेम, सहयोग, सहानुभूति
एवं परस्पर त्याग की भावना पूरे परिवार को एक सूत्र में बाँधे रहती थी। संयुक्त
परिवार में रहने के अपरिमित लाभ हैं। बड़े-बूढों के अनुभव का फायदा अन्य लोगों को
मिलता है। एक-दूसरे के साथ मिलकर सुख-दुःख में सहायता करते हैं। हारी-बीमारी में
एक-दूसरे की सहायता मिल जाती है। छोटे बच्चे दादा-दादी के साथ बड़े चाव से रहते
हैं। दूसरी तरफ विभक्त परिवार में पति-पत्नी और बच्चे रहते हैं। इस एकल परिवार में
यदि पति-पत्नी दोनों नौकरी करते हैं तो बच्चों को कहाँ छोड़ें, यह
समस्या सामने आती है। जो परिवार अकेले रहते हैं, उन्हें भी संयुक्त परिवार में ही रहने की
आवश्यकता अनुभव होती है।
संयुक्त परिवार के टूटने के निम्न कारण हैं-
कुछ लोग तो माता-पिता के टोकने के कारण उनका दखल नहीं चाहते और अकेले रहना पसंद
करते हैं। दूसरा कारण अलग होने का यह है कि बेटे की नौकरी दूसरे शहर में या विदेश
में लग गई है तो वह अपनी पत्नी को लेकर चला जाता है और माँ-बाप पुराने स्थान पर ही
रहते हैं। कुछ मनचले युवक-युवती, माता-पिता को एक बोझ समझने लगते हैं इसलिए अलग
हो जाते हैं कि उनकी स्वतन्त्रता में बाधा न पड़े, परन्तु उनकी यह सोच गलत है।
परिवार का विभाजन आधुनिक काल में ही हुआ। लोगों
में स्वार्थ की प्रवृत्ति का बढ़ना और घूमने-फिरने की आजादी की चाह होना, माता-पिता
को अपने परिवार में न माना जाना, इन्हीं कारणों से विभाजित परिवार का चलन बढ़ा। जैसे-जैसे बच्चे अपने बुजुर्ग माता-पिता से दूर रहने लगे, वैसे-वैसे ही वृद्धाश्रम खुलते चले गए। विदेशों
में तो वृद्धाश्रम बहुत पहले से ही उपयोग में लाए जा रहे हैं, लेकिन
भारत में तो अभी हाल में ही इनका उदय हुआ है।
संयुक्त परिवार एक आदर्श परिवार है। यहाँ
एक-दूसरे की आवश्यकता का ध्यान रखा जाता है। परिवार के मुखिया का पूरे परिवार पर
नियन्त्रण रहता है। वह सभी का उचित मार्ग-दर्शन करता है। सब लोग उसका आदर करते हैं
और उसकी बात मानी जाती है। ऐसे परिवार में लोग कोई गलत काम नहीं करते और न उन्हें
अति की स्वतन्त्रता होती है। उनके परिवार का खर्चा बड़ों की राय के अनुसार होता है
और फिजूलखर्ची नहीं होती। बुजुर्गों के पास अपने जीवन का अनुभव होता है। वे अपने बच्चों का मार्गदर्शन करते रहते हैं।
भारत में संयुक्त परिवार प्रणाली ही सर्वोत्तम
प्रणाली है। यह आगे आने वाले समय तक अपना महत्त्व रखेगी। सन्त समाज भी संयुक्त
परिवार प्रणाली की ही वकालत करता है। सद्गृहस्थ वही है जो अपने पूरे परिवार को
मिलाकर चलता है। यदि किसी संयुक्त परिवार में किसी बात को लेकर दरार पड़ जाती है
तो भी वह परिवार विभाजित हो जाता है और लोग अलग-अलग रहने लगते हैं। भारत का
युवावर्ग पाश्चात्य सभ्यता से प्रभावित होकर भारतीय संस्कृति को भूला जा रहा है और
एकल परिवार की ओर दौड़ रहा है। अंग्रेजी संस्कृति और शिक्षा ने बहुत से परिवारों
को विभाजित कर दिया
टूटते परिवार, दरकते रिश्ते
परिवार का नहीं, मोहल्ले का बुजुर्ग सबका बुजुर्ग माना जाता था
और ऐसे बुजुर्गों के सामने जुबान चलाने या किसी अप्रिय कृत्य करने का साहस किसी का
नहीं होता था। उस दौर में मोहल्लों में ऐसा माहौल और अपनापन होता था कि 'गांव
का दामाद' या 'मोहल्ले
का दामाद' कहकर
लोग अपने क्षेत्र के दामाद को पुकारते थे और अगर कोई भानजा है तो किसी परिवार का
नहीं, बल्कि
पूरे मोहल्ले और गांव का भानजा माना जाता था और यही कारण था कि लोग 'गांव
की बेटी' या 'गांव
की बहू' कहकर
ही किसी औरत को संबोधित करते थे।
उस दौर में संयम, बड़ों की कद्र, छोटे बड़े का कायदा, नियंत्रण
इन सब बातों का प्रभाव था। ऐसे ही संयुक्त परिवारों से संयुक्त समाज का निर्माण
हुआ था और पूरा मोहल्ला और गांव एक परिवार की ही तरह रहते थे। समय के साथ परिवार
की नींव कम•ाोर हुई, कारण पुरुष और नारी मैं और मेरे तक सीमित होते गए। अब
प्राथमिकता परिवार का हित न होकर एक व्यक्ति विशेष का होकर रह गया। अब आशा-निराशा
का चक्र व्यक्ति तक सीमित होने लगा है। सुख और दु:ख
परिवार का न होकर एक पुरुष या औरत का हो गया है। सात फेरे, सात
जन्मों का रिश्ता न होकर बस एक समझौतानुमा जीवन का आधार हो गया है। अथर्ववेद में
पति-पत्नी परमात्मा से प्रार्थना करते हैं- 'हम पति-पत्नी एक-दूसरे को प्यार भरी दृष्टि से
देखें। मुख से सदैव मीठे वचन बोलें। एक-दूसरे के हृदय में रहें। हम दो शरीर और एक
मन हों। यजुर्वेद में कहा गया है पति-पत्नी आपस में ऐसा
व्यवहार करें, जिससे
उनका पारस्परिक भय और उद्वेग का भाव नष्ट हो जाए, आत्मा की एकता बढ़े, विश्वास, दृढ़ता
और उत्साह बना रहे। इससे गृहस्थाश्रम में ही स्वर्गतुल्य सुख की अनुभूति होती है।
दोष-दर्शन की भावना दांपत्य जीवन का विष है।
हाल ही में पढ़े-लिखे लोग अपने सोशल रिश्तों को
संभालने में कामयाब नहीं हैं। तलाक के पीछे जो सबसे बड़ी वजह पाई गई, वह
पैसों को लेकर अनबन थी। जो ज्यादा कमा रहा है, उसकी दूसरे व्यक्ति के लिए ये भावना है कि 'ये
मुझे कैसे आदेश दे रहा है'
इसी
वजह से तलाक बढ़ रहे हैं। दूसरी समस्या ये है कि लव मैरिज वाले मामलों में
पति-पत्नी अपने परिवार से भी बात नहीं कर पाते, क्योंकि ये शादी उनका अपना फैसला होता है।
झगड़े होने पर समझौता करवाने वाला कोई नहीं होता।
सत्य यही है कि आज के पढ़े-लिखे युवक व युवती
एक-दूसरे पर किसी के अधिकार को सिद्धांतिक तौर पर मानने को तैयार नहीं हैं। बराबरी के इस खेल में एक-दूसरे के सम्मान व भावनाओं को कौन किस
घड़ी ठेस पहुंचाने लगता है, इसका उन्हें पता ही नहीं चलता और
इसके साथ उत्पन्न होती है, असंतुष्टि की भावना। सबसे
पहले तो कमाई को लेकर असंतुष्टि पैदा होती है, फिर एक-दूसरे के व्यवहार, कामेच्छा
और तो और जो सुख-सुविधा मिली होती है, उससे भी यह लोग असंतुष्ट होते हैं। इस
असंतुष्टि व तनाव का मूल कारण है संस्कारों का कमजोर होना।
आज शिक्षा का लक्ष्य केवल और केवल धन कमाना ही रह गया है। शिक्षा के नैतिक पक्ष के
कमजोर पडऩे
के कारण हमारा नैतिक पक्ष भी कमजोर होता
जा रहा है। शिक्षित व्यक्ति दूसरे पर हावी होने तथा अपनी हवस पूरी करने को ही
प्राथमिकता दे रहा है। कुछ अपवादों को छोड़ दें तो अधिकतर मामलों में यही देखने को
मिलेगा।
अभी जो स्कूल वगैरह चल रहे हैं, उनमें
हर चीज किताबी है, डिग्रियां
किताबी हैं और इनसे मिलने वाली जो समझ है, वह भी किताबी है। हमारी शिक्षा पद्धतियों के
साथ सबसे बड़ी दिक्कत यह है कि इससे दिमाग का हुनर नहीं मिलता। हमारे यहां बोलने
वालों की कमी नहीं। खूब बोलते हैं लेकिन करते कुछ भी नहीं। यह हमारी शिक्षा
व्यवस्था की कमी है कि यह हमें कुछ नया व रचनात्मक करने योग्य नहीं बनाती। हमारी
परंपरागत शिक्षा तीन 'आर' (क्र)
रीडिंग, राइटिंग
और अर्थमैटिक पर आधारित है। इसमें पढऩे, लिखने और कुछ गणितीय योग्यताओं पर जोर दिया
जाता है। इसे तीन 'एच' (हेड, हैंड्स, हार्ट)
में बदलने की जरूरत है। शिक्षा ऐसी होनी चाहिए जो समझ बढ़ाए। कौशलयुक्त बनाए और
दिल से अमीर बनाए। वर्तमान शिक्षा से जो पीढ़ी निकल रही है वह सही मायनों में
रचनात्मक न होकर 'अक्षम' है।
लोग दिल से गरीब हैं। केवल एक-दूसरे पर हावी होने की कोशिश कर रहे हैं। इसे ही वे
स्वस्थ प्रतिस्पर्धा कहते हैं। लेकिन स्वस्थ समाज का
निर्माण प्रतिस्पर्धा से नहीं बल्कि सामूहिक सहयोग से संभव है। हमारे देश
को कौशलयुक्त लोगों की जरूरत है। शिक्षा की इसमें बड़ी भूमिका है। शिक्षा ऐसी होनी
चाहिए जो लोगों को कुशल व खुले दिल वाला बनाए। हमें ऐसे समाज की जरूरत है जहां लोग
एक-दूसरे के प्रति सहानुभूति रखते हों। अगर आप एंटरप्रेन्योर हैं या फिर अपना
बिजनेस करना चाहते हैं, तो
पैसा कमाने के लिए मत कीजिए। किसी समस्या का समाधान बनने की कोशिश कीजिए। किसी
खाली जगह को भरने की कोशिश कीजिए। इसके लिए लोगों को अपनी सोच बदलनी पड़ेगी।
शिक्षा को लेकर यह मान्यता है कि 'शिक्षा
शून्य व्यक्ति तो पशु समान ही होता है। 'शिक्षा से ही व्यक्ति का विकास होता है, लेकिन
आज शिक्षित लोगों के परिवार टूट रहे हैं क्योंकि शिक्षित परमार्थ की राह पर चलने
की बजाए स्वार्थसिद्धि को प्राथमिकता दे रहे हैं, तो इसका सीधा सा अर्थ है कि हमें अपनी शिक्षा
पद्धति पर पुन: विचार करने की आवश्यकता है। शिक्षा के नैतिक व संस्कारी पक्ष को
मजबूत करने की आवश्यकता है। एक शिक्षित व संस्कारी
व्यक्ति ही परिवार व समाज को मजबूत आधार देकर टूटने से बचा सकता है।
उस समय में समाज में रिश्तों को बोझ नहीं समझा
जाता था बल्कि रिश्तों की जरूरत समझी जाती थी और ऐसा माना जाता था कि रिश्तों के
बिना जीवन जीया ही नहीं जा सकता है।लेकिन बदलते दौर और समय ने इस सारी व्यवस्था को
बदलकर रख दिया है। अब वह दौर नहीं रहा। आज परिवार छोटे हो गए हैं और सब लोग स्व में केंद्रित होकर जी रहे हैं। पहले
व्यक्ति पूरे परिवार के लिए जीता, था पर आज व्यक्ति अपने बीवी-बच्चों के लिए जीता
है। उसे अपने बच्चों और अपनी बीवी के अलावा किसी और
का सुख और दुख नजर नहीं आता है। वह अपनी पूरी जिंदगी सिर्फ इसी उधेड़बुन में लगा
देता है कि कैसे अपने बच्चों को ज्यादा से ज्यादा सुविधाएं दे और कैसे अपने आपको
समाज में प्रतिष्ठित बनाए। आपाधापी
के इस दौर में जीवन से संघर्ष करता हुआ व्यक्ति आज रिश्तों को भूल गया है। आज के
बच्चों को अपने चाचा, मामा, मौसी, ताया
के लड़के-लड़की अपने भाई-बहन नहीं लगते। उन्हें इन रिश्तों की मिठास और प्यार का
अहसास ही नहीं हो पाता है,
क्योंकि
कभी उन्होंने इन रिश्तों की गर्माहट को महसूस ही नहीं किया है।
टूटते परिवार, दरकते रिश्ते
सच! कितना अपनापन और आत्मिक स्नेह था उस दौर
में! यह वह समय था, जब किसी व्यक्ति की चिंता उसकी चिंता
न बनकर पूरे परिवार की चिंता बन जाती थी और सहयोग से सब मिलकर उस चिंता को दूर
करने का प्रयास करते थे। ऐसे समय में रिश्तों में अपनापन था और लोग
रिश्ते निभाते थे ढोते नहीं थे।
यह ऐसा समय था, जब समाज में परिवारों का बोलबाला था और समाज
में संपन्नता की निशानी परिवार की प्रतिष्ठा से लगाई जाती थी। उस दौर में व्यक्ति
की प्रधानता नहीं थी, बल्कि
परिवारों की प्रधानता थी। परिवार
के धनी लोगों की बिरादरी में विशेष इज्जत होती थी और ऐसे लोग पूरे समूह और समाज का
प्रतिनिधित्व करते थे। बड़े परिवार का मुखिया पूरे समाज का मुखिया बनकर सामने आता
था और उसकी बात का एक विशेष वजन होता था। संयुक्त
परिवारों के उस दौर में परिवार के सदस्यों में प्रेम, स्नेह, भाईचारा
और अपनत्व का एक विशिष्ट माहौल रहता था। इस माहौल और संयुक्त परिवारों का फायदा
परिवार के साथ पूरे समाज को मिलता था और जो पूरे समाज और राष्ट्र को एकसूत्र में
बांधने का संदेश देता था। एक
समय था, जब
लोग समूह और परिवार में रहना पसंद करते थे। जिसका जितना बड़ा परिवार होता वो उतना
ही संपन्न और सौभाग्यशाली माना जाता था और जिस परिवार में मेल-मिलाप होता था और
संपन्नता होती थी उसकी पूरे क्षेत्र में प्रतिष्ठा रहती थी।
आज का व्यक्ति सिर्फ अपनी जिंदगी जी रहा है, उसे
दूसरे की जिंदगी में झांकना दखलअंदाजी लगता है। वह सारी दुनिया की खबर इंटरनेट से
रख रहा है, पर
पड़ोसी के क्या हाल हैं उसे नहीं पता। परिवारों
की टूटन ने रिश्तों की डोरी को कमजोर कर दिया है। आज का व्यक्ति आत्मनिर्भर होते
ही अपना एक अलग घर बनाने की सोचता है। पहले हमारे बुजुर्ग
जब भगवान से प्रार्थना करते थे तो कहते थे कि- 'हे ईश्वर, घर छोटा दे और परिवार बड़ा दे'। ऐसा इसलिए कहते थे कि घर छोटा होगा और परिवार
बड़ा तो परिवार के लोगों में प्रेम बढ़ेगा। साथ रहेंगे तो अपनापन होगा, एक-दूसरे
की वस्तु का आदान-प्रदान करना सीखेंगे और इससे एकता बढ़ेगी। लेकिन
बदलते समय में व्यक्ति भगवान से एक अदद घर की प्रार्थना करता है कि- 'हे
ईश्वर, मेरा
खुद का एक घर हो'। तो
ऐसे एक अलग घर में रिश्तों की सीख नहीं बन पाती और ऐसा घर बनते ही परिवार टूट जाता
है।
सामूहिक परिवार में कब बच्चे बड़े हो जाते थे और
दुनियादारी की समझ कर लेते थे, बच्चों के मां-बाप को पता ही नहीं लगता था। पर
आज बच्चों को पालना एक बड़ा काम हो गया है। सामूहिक परिवारों में बच्चे अपने चाची, ताई, भाभी
के पास रहते थे और उन लोगों को भी अपने इन बच्चों से काफी प्यार होता था। सामूहिक
परिवारों में एक परंपरा बहुत शानदार थी। वह यह कि बच्चा अपने पिता से बड़े किसी भी
व्यक्ति के सामने अपने पिता से बात नहीं करता था और पिता भी अपने से बड़े के सामने
अपने बेटे-बेटी का नाम लेकर नहीं बुलाता था और अक्सर ऐसा होता था कि बच्चा अपनी
ताई, चाची
या भाभी के पास ही रहता था। बच्चे से उनका भी बराबर का लगाव होता था और यही लगाव
पूरे परिवार को एकसूत्र में बांधकर रखता था।
हो सकता है कि भाई-भाई में लड़ाई हो जाए, पर
भाई के बच्चे से लगाव के कारण परिवारों में टूट नहीं आती थी। शायद इसी अपनत्व का
कारण रहा है कि आज भी उत्तर भारत में बेटी की शादी में बेटी के मां-बाप की अपेक्षा
उसके चाचा-चाची या ताया-ताई से कन्यादान करवाया जाता है ताकि वे उसे अपनी बेटी ही
मानें। ऐसा देखा गया है कि ऐसे चाचा या ताया कन्यादान
के बाद उसको अपनी ही बेटी मानकर प्यार करते थे और जीवनभर उसके साथ वह ही रिश्ता
निभाते थे और समाजशास्त्र के दृष्टिकोण से देखें तो यह एक महान परंपरा रही है
जिसने परिवारों को एकसाथ रहने के लिए प्रेरित किया है। लगभग
यही परंपरा पूरे भारत में एक समय रही है और इसके फायदे हमेशा से ही पूरे परिवार व
समाज को मिलते रहे हैं।
परंतु बदलते समय ने व्यक्ति की सोच में निजता
को हावी किया और इसी निजता ने व्यक्ति को परिवार से दूर करने के लिए प्रेरित किया।
जबसे व्यक्ति ने अपने भतीजे या भतीजी को छोड़कर अपने बेटे या बेटी के बारे में
सोचना शुरू किया है, तब से
संयुक्त परिवार टूटे हैं। व्यक्ति ने यह सोचना शुरू कर दिया कि मेरे परिवार में
किसका योगदान ज्यादा है और किसका कम और यहीं से शुरू हुई संयुक्त परिवारों में
दरार। व्यक्ति ने सोचना शुरू कर दिया कि कैसे मेरा
बेटा सबसे आगे निकले और कैसे मैं अपनी कमाई के हिसाब से अपना जीवनस्तर जीना शुरू
करूं और इसी सोच ने अपनत्व और भाईचारे की भावना को आघात पहुंचाया है।
आज हालात ये हैं कि व्यक्ति की इस सोच ने
रिश्तों की पहचान को समाप्त कर दिया है। बच्चों से बचपन छिन गया है और बड़ों से
बड़प्पन। आज मां-बाप मजबूर है कि अपने बच्चों के साथ समय नहीं बिता पाते। आज 6 माह
या 1 साल
का बच्चा किसी आया के हाथ में पलता है और किराए का यह पालना किसी भी सूरत में ताई
या चाची का अपनापन नहीं दे पाता है।
आज पड़ोसी या मोहल्ले की समस्या से दूर भागना एक
आदत बन गई है और यह सोचा जा रहा है कि अपने को क्या मतलब है किसी बात से? इसी
सोच के कारण समाज में अपराध बढ़े रहे हैं, चोरियां हो रही हैं और अराजकता फैल रही है। भाईचारे के अभाव ने समाज में एक ऐसी दरार पैदा कर दी है कि हर
व्यक्ति दूसरे व्यक्ति को संदेह की नजर से देख रहा है।
लोग कहते हैं कि आज जमाना नहीं रहा कि घर में
अकेले रहा जाए। आज जमाना नहीं रहा कि किसी नौकर को घर में अकेले छोड़ा जाए। अक्सर
लोगों को कहते सुना होगा कि आज जमाना नहीं है कि अकेले बच्चों को बाहर भेजा जाए। आज
कॉलोनियों और महानगरों में रहने वाले परिवार अपने ही घर में अपने आपको सुरक्षित
महसूस नहीं करते हैं और घर के मुख्य द्वार पर एक छेद रखा जाता है कि पहले देखा जाए
कि कौन है? यह
छेद संयुक्त परिवारों की टूटन के बाद आया छेद है। लोग
दिनदहाड़े अपने घरों में अंदर से ताला लगाकर कैद होकर रह रहे हैं और कह रहे हैं कि
जमाना बदल गया है। कभी सोचा है यह जमाना बदला किसने? आज जरूरत है, इन तालों को तोड़ने की, मुख्य
दरवाजों में लगे इन छेदों की जगह दिल में रोशनदान बनाने की ताकि आप अपने मोहल्ले
और शहर को अपना समझें और भाईचारा फैलाएं।
आज जरूरत है, औपचारिकताओं को मिटाकर दिमाग के दरवाजे खोलने
की ताकि आपके दिल में सारा परिवार समा जाए और पूरा
मोहल्ला आ जाए और आपको लगे कि यह शहर मेरा है, यह परिवार मेरा है, यह मोहल्ला मेरा है। हम अपने संस्कारों को न भूलें, अपनी
परंपराओं को न भूलें। याद रखें विकास करना बुरी बात नहीं है, पर
विकास के साथ परंपराओं को भूलना नासमझी है। हम समझदार बनें और संयुक्त परिवार और
मोहल्ले के महत्व को समझें ताकि आने वाले समय में हमारी पीढ़ी को कह सके कि हां
हमने भी आपके लिए एक सुखी,
समृद्ध, संपन्न
और विकसित भारत छोड़ा है।
टूटता संयुक्त परिवार एवं बिखरते
रिश्ते
परिवार स्थायी एवं सार्वभौमिक संस्था है, परन्तु
प्रत्येक स्थान पर इसके स्वरूप में भिन्नता पायी जाती है। उदाहरणार्थ – पश्चिमी
देशों में मूल परिवार या दाम्पत्य परिवार की प्रधानता थी तो भारतीय गांव में
संयुक्त परिवार या विस्तृत परिवार की। परिवार के अभाव में हम समाज की कल्पना नहीं
कर सकते हैं। आगस्त काम्टे ने परिवार को समाज की आधारभूत इकाई कहा है।
समाजशास्त्री परिवार को संस्था और समूह दोनों मानते हैं। परिवार मनुष्य के जीवन का
बुनियादी पहलू है। भारत में तो परिवार का और भी महत्व है क्योंकि आदिकाल से ही यह
वृद्धों का मुख्य आश्रय रहा है जो उनकी भावनात्मक शारीरिक व आर्थिक आवश्यकताओं की
पूर्ति करता है। संयुक्त परिवार व्यवस्था में वृद्धों को अपेक्षानुरूप सुरक्षा, सम्मान, आत्मीयता
व मानसिक संतुष्टि प्राप्त थी। संयुक्त पूंजी, संयुक्त निवास तथा संयुक्त उत्तरदायित्व के
कारण आर्थिक सुरक्षा होने तथा परिवार की सत्ता वृद्ध व्यक्तियों के हाथों में
केन्द्रित होने के कारण परिवार में उनका प्रभुत्व था परन्तु वर्तमान परिप्रेक्ष्य
में औद्योगीकरण, नगरीकरण, प्रवजन, आधुनिकीकरण, नवीन
आर्थिक व्यवस्था तथा सामाजिक गतिशीलता में वृद्धि ने परिवार की परम्परागत, संरचनात्मक
व प्रकार्यात्मक प्रकृति को विखंडित कर दिया है तथा उनके स्थान पर एकाकी परिवारों
का प्रचलन बढ़ा है जो युवा पीढ़ी के लिए उपयुक्त व सुविधाजनक सिद्ध हो रहा है।
संयुक्त परिवार के टूटने का
महत्वपूर्ण कारण नित्य बढता उपभोक्तवाद है। जिसने
व्यक्ति को अधिक महत्वाकांक्षी बना दिया है। अधिक सुविधाएँ पाने की लालसा के कारण
पारिवारिक सहनशक्ति समाप्त होती जा रही है और स्वास्थ्यपरता बढ़ती जा रही है। अब वह अपनी खुशियाँ परिवार या परिवारजनों में नहीं बल्कि अधिक
सुख साधन जुटा कर ढूढ़ता है, यही संयुक्त परिवार के बिखरने का
कारण बन रहा है। एकल परिवार में रहते हुए मानव भावनात्मक रूप
से विकलांग होता जा रहा है। आज के युवा के लिए बुजुर्ग व्यक्ति घर में विद्यमान
मूर्ति की भाँति होता है जिसे सिर्फ दो वक्त की रोटी, कपड़ा
और दवा – दारू
की आवश्यकता होती है। उनके नजरिये के अनुसार बुजुर्ग लोग अपना जीवन जी चुके होते
है। उनकी सम्पूर्ण इच्छाएँ,
भावनाएं, आवश्यकताएं
सीमित होती हैं, जबकि
वर्तमान का बुजुर्ग एक अर्द्धशतक वर्ष पहले के मुकाबले अधिक शिक्षित है एंव मानसिक
स्तर भी अधिक अनुभव के कारण अपेक्षाकृत ऊँचा है। अत: वह अपने जीवन के अंतिम प्रहार
की प्रतिष्ठा से जीने की लालसा रखता है। वह वृद्धावस्था को अपने जीवन की दूसरी
पारी के रूप में देखता है जिसमें उस पर कोई जिम्मेदारियों का बोझ नहीं होता वह
निष्क्रिय न बैठकर मनपसंद के कार्य करने की इच्छा रखता है चाहे आमदनी हो या न हो।
परिवार पर बढ़ते आर्थिक बोझ, शहरों
में आवासीय समस्याओं, अत्यधिक
मंहगाई व सीमित आय के कारण परिवार के युवा सदस्य माता -पिता को अपने साथ रखने में
असमर्थ हैं। जो संयुक्त परिवार शेष हैं भी वे परम्परागत आदर्शों में बहुत दूर हट
चुके हैं। पीढ़ी अंतराल पश्चिमी रंग – ढंग और नवीन सोच के कारण पुरानी व नई पीढ़ी में टकराव स्पष्ट
दृष्टिगोचर हो रहा है। फलतः वृद्धिजन न केवल पारिवारिक देखभाल से
वंचित हो रहे हैं वरन् पर्याप्त संस्थागत साधनों के अभाव में परिवार में वृद्धों
के प्रति उपेक्षा की प्रवृत्ति बढ़ती जा रही है। बच्चों में बढ़ रही स्वायत्तता की
भावना के परिणामस्वरूप माता – पिता व बच्चों के सम्बन्ध शिथिल हो रहे हैं।
पारिवारिक विघटन से उत्पन्न इस रिक्तता को ओल्ड एज होम एवं अन्य सहायता समूहों
द्वारा भरने की कोशिश की जा रही है। परन्तु ओल्ड एज होम एवं सहायता समूहों द्वारा
परिवार की सुरक्षा एवं उत्साह का उपस्थापन नहीं किया जा सकता। अत: परिवार को
संतुष्टि व स्थायित्व प्रदान करने हेतु एक स्वस्थ सामाजिक परिप्रेक्ष्य की नितांत
आवश्यकता है।
परिवार व्यक्तियों का वह समूह होता है,
जो विवाह और रक्त सम्बन्धों से जुड़ा होता है
जिसमें बच्चों का पालन पोषण होता है ।
परिवार एक स्थायी और सार्वभौमिक संस्था है। किन्तु इसका स्वरूप अलग अलग स्थानों पर भिन्न हो सकता है । पश्चिमी देशों में अधिकांश नाभिकीय परिवार पाये जाते हैं । नाभिकीय परिवार वे परिवार होते हैं
जिनमें माता-पिता और उनके बच्चे रहते हैं । इन्हें एकाकी परिवार भी कहते हैं। जबकि
भारत जैसे देश में सयुंक्त और विस्तृत परिवार की प्रधानता होती है । संयुक्त परिवार वह परिवार है जिसमें माता
पिता और बच्चों के साथ दादा दादी भी रहतें हैं । यदि इनके साथ चाचा चाची ताऊ या अन्य
सदस्य भी रहते हैं तो इसे विस्तृत परिवार कहते हैं । वर्तमान में ऐसे परिवार बहुत
कम देखने को मिलते हैं । व्यापरी वर्ग में विस्तृत परिवार अभी भी मिलते हैं । क्योंकि
उन्हें व्यापार के लिये मानव शक्ति की आवश्यकता होती है ।
परिवार के बिना समाज की कल्पना नहीं की जा सकती
। आगस्त कॉम्टे कहते हैं कि परिवार समाज की आधारभूत इकाई है । एक अच्छा परिवार समाज के लिये वरदान और एक बुरा परिवार समाज के
लिये अभिशाप होता है । क्योंकि समाज में परिवार की भूमिका प्रदायक की होती है। परिवार सदस्यों का समाजीकरण करता
है, साथ ही सामाजिक नियंत्रण का कार्य करता है क्योंकि
सभी नातेदार सम्बन्धों की मर्यादा से बंधे होते हैं । एक अच्छे परिवार में अनुशासन और आजादी दोनों होती हैं ।
परिवार मनुष्य के जीवन का बुनियादी पहलू
है। व्यक्ति का निर्माण और विकास परिवार
में ही होता है । परिवार मनुष्य को मनोवैज्ञानिक सुरक्षा प्रदान करता है ।
व्यक्तित्व का विकास करता है । प्रेम,स्नेह, सहानुभूति , परानुभुति आदर सम्मान जैसी भावनाऐं सिखाता है ।
धार्मिक क्रियाकलाप सिखाता है। धर्म स्वयं में नैतिक है । अतः बच्चा नैतिकता सीख
जाता है। बच्चों में संस्कार परिवार से ही आते हैं । इसलिये ही प्लेटो कहते हैं कि
परिवार मनुष्य की प्रथम पाठशाला है ।
इस तरह
परिवार का समाज में विशेष महत्त्व है किन्तु इससे भी अधिक महत्त्व भारतीय समाज
में सयुंक्त परिवार का रहा है । संयुक्त परिवार में प्रत्येक व्यक्ति की जिम्मेदरी होती है ।
स्वास्थ्य सम्बन्धी समस्या हो या आर्थिक सामाजिक सुरक्षा , सभी
लोग मिलकर वहन करते हैं । कोई अकेला व्यक्ति परेशानी नहीं उठाता । इससे किसी एक
व्यक्ति पर तनाव नहीं बढ़ता । पूरा परिवार एक शक्ति ग्रह की भांति होता है । जो
सामाजिक सुरक्षा का कार्य करता है । संगठित होकर रहने से मौहल्ले में भी झगड़े कम
होते हैं ।
संयुक्त परिवार में बच्चे कैसे बड़े
हो जातें है पता ही नहीं चलता । बच्चों के खेलने के लिये परिवार के सदस्य ही उनके दोस्त बन जाते हैं । मनोरंजक
गतिविधियां जैसे त्यौहार उत्सव आदि होते रहते हैं । उन्हें दादा दादी आदि का अपार
प्यार मिलता है । इसलिये परिवार को प्यार
का मंदिर कहा जाता है । प्यार के साथ साथ
उनका ज्ञान अनुभव अनुसाशन आदि बहुत कुछ बच्चों को मिलता है । ऐसे में बच्चों का उचित शारीरिक और चारित्रिक
विकास होता है । जबकि एकाकी परिवार में
कभी कभी बच्चे को माँ बाप का प्यार भी
नहीं मिल पाता । बच्चों को संस्कारवान
बनाने , चरित्रवान बनाने एवं उनके नैतिक विकास में
संयुक्त परिवार का विशेष योगदान होता है जोकि एकाकी परिवार में कभी संभव नहीं है।
संयुक्त परिवार में कौशल भी सिखाया जाता है ।
साम्य श्रम विभाजन देखा जा सकता है ।कार्य
लिंग और आयु के आधार पर बँटा होता है ।
परिवार एक नियामक संस्था भी है
। जो घर में सभी सदस्यों को अनुशासित और नियंत्रित रखती है ।
इसे तनाशाही भी कहते हैं । घर का एक मुखिया होता है जो चुना नहीं जाता किन्तु वह
परिवार का वरिष्ठतम सदस्य होता है । वही
नियामक होता है । किन्तु मुखिया का कार्य
बहुत कठिन होता है । क्योंकि वही पूरे
परिवार को एक सूत्र में बाँधे रखता है ।
जरूरत पड़ने पर उचित दंड भी देता है ।
बदले में अक्सर उसे बुराइयाँ भी मिलती है । इसलिये कहा जाता है कि परिवार का मुखिया होना
कांटों भरा ताज पहनने जैसा है । मजूमदार
परिवार को लघु राज्य कहते हैं । मनु स्मृति में भी पिता को राजा और माता को रानी
बताया गया है ।
संयुक्त परिवार में झगड़ों की प्रकृति
सामान्य और आपसी होती थी। जिनको बुजुर्ग लोग घर में ही सुलझा लेतें थे
। क्योंकि संयुक्त परिवार स्वयं में
नियामक था । लेकिन आज झगड़े व्यक्ति होते जा रहे हैं । एकाकी परिवार में पति पत्नी के झगड़े बढते ही जा
रहे रहें है । एकाकी
परिवार में समाधान के लिये कोई बुजुर्ग
नहीं होता इसलिये झगड़े घर से बाहर निकल रहे हैं । पारिवारिक विवादों को
निपटाने के लिये विभिन्न सतर पर परामर्श
केंद्र बनाये गये है ।बाबजूद इसके
पारिवारिक झगड़े बढ़ते ही जा रहे हैं । इसके अनेक कारण हो सकते हैं जैसे -अहंकार ,
बढ़ता सुखवाद , बिना
कर्तव्य के अधिकार, नारी सशक्तिकरण , समय
और आपसी संचार की कमी आदि ।
प्रत्येक व्यक्ति की इच्छा होती है की उसकी वृद्धावस्था सुचारू रूप से गुजरे । उसे कोई तकलीफ न उठानी पड़े । यह सब एक सयुंक्त
परिवार में ही संभव है । किन्तु
बदलते समय के साथ साथ परिवार का स्वरूप भी बदल रहा है । आधुनिक परिवारों में
मुखानुमुख सम्बन्ध कम हो रहे हैं । परिवार
में मुखिया का महत्त्व कम हो रहा है । पारस्परिक सम्बंधों
की अपेक्षा आर्थिक महत्त्व बढ़ता जा रहा है । सम्बंधों में औपचरिकता बढ़ती जा
रही है । व्यक्तिवाद बढ़ रहा है । दूसरे के प्रति भावनाऐं कम हो रही हैं तथा जीवन
अधिक यांत्रिक होता जा रहा है । फिर भी व्यक्ति
व्यस्त है । बुजुर्गों की उपेक्षा
की जा रही है । उनके प्रति सम्मान एवं कर्तव्य घट रहा है । बुजुर्गों को
बोझ समझा जा रहा है । उनकी बातों को
अतार्किक कहकर अस्वीकार किया जा रहा है । बढ़ती
महत्तवाकांक्षा के कारण संयुक्त परिवार
एकाकी परिवार में टूट रहे है । संयुक्त परिवार के विखंडन से सर्वाधिक हानि
बुजुर्गों को ही होती है । आज अधिकांश
बुजुर्ग या तो किसी एक कोने में अकेलापन भोग रहे होते हैं या नौकरों के सहारे अपना
जीवन काट रहे है । क्योंकि बेटों को स्वयं
के कार्यों से फुर्सत नहीं है । कुछ
बुजुर्ग तो विदेश गये अपने बेटे के वापस आने की आश में जीवन गुजार देते हैं ।
पहले व्यक्ति का उद्देश्य परिवार का सुख होता
था । किन्तु आज व्यक्ति स्वयं के हित में
सोचता है । वह अधिक उपयोगितावादी और
सुखवादी हो गया है । जिस कारण से संयुक्त
परिवार टूट रहे हैं ।
विवाह स्वरूप में परिवर्तन से भी
संयुक्त परिवार में सामंजस्य कम हुआ है । प्रेम
विवाह और अंतरजातीय विवाह बढ़ रहे हैं ।
परिवार एक परम्परागत संस्था है । वह परिवर्तन जल्दी स्वीकार नहीं करती
। इसलिये परिवार विवाह के इन रूपों को
बहुत ही कम स्वीकार करते है नारी की स्तिथि भी बदल रही है । महिलायें कामकाजी अधिक
होती जा रही है । परिवार की सेवा की
अपेक्षा आर्थिक कार्यों को अधिक महत्व दिया जा रहा है । घर में बच्चा आया के हाथों में है । उसे माँ बाप का प्यार नहीं मिल पाता । इस तरह आधुनिक समय में परिवार संरचात्मक और
प्रकार्यात्मक रूप से परिवर्तित हो रहा है ।
दादा दादी की नैतिक कहनियाँ अब नहीं सुनायी देतीं । घर से अंत्याक्षरी जैसे खेल समाप्त हो चुके है
। इनका स्थान म्यूजिक सिस्टम और इंटरनेट
ने ले लिया है ।
बच्चे नेट पर उपलब्ध सेकंडों विडिओ गेम्स में व्यस्त है होकर तनावग्रस्त
है । व्यक्ति ने सोशल मीडिया पर अपना आभासी समाज बना
रखा है । और यह समाज घर तक आ रहा है ।
प्रेम ईर्ष्या घ्रणा जैसे भाव भी इसमें देखे जा सकते हैं । आभासी समाज वास्तविक समाज पर हावी हो रहा है ।
आज का परिवार
परिवार में सर्व हित की भावना अब
नहीं देखी जाती ।
संयुक्त परिवार में संघर्ष वधू और परिवार के बीच थे । एकाकी परिवार में ये संघर्ष पति पत्नी के बीच आ
गये हैं । भविष्य के संघर्ष माता पिता और
उनके बच्चों के बीच होंगे । भाई बहन के
बीच संघर्ष जारी है । उतराधिकारी के मामले
इसी की देन हैं ।
लेकिन प्रश्न ये है कि संयुक्त परिवारों में
इतना विखंडन एवं परिवर्तन आखिर क्यों हो रहा है ? तो
इसके अनेक कारण हो सकते है । जैसे
-आधुनिकता , नगरीकरण
, रोजगार
हेतु पलायन , महत्वकांक्षा , स्वार्थवाद
, घमंड , विचारों में असमानता आदि ।
नगरीकरण परिवारों को नष्ट कर रहा है । व्यक्ति रोजगार हेतु नगरों के छोटे छोटे घरों
में रहने के लिये विवश है । उसके पास उतनी जगह नहीं है कि वह पूरे परिवार को साथ
रख सके । बढ़ती
महत्त्वकांक्षा ने संयुक्त परिवारों को विखंडित किया है । लोग अपना भविष्य
बनाने के लिये परिवार से दूर प्रदेश अथवा विदेश चले जाते हैं । अधिक सुख सुविधाएं
मिलने के कारण वो वही बस जाते हैं ।
किन्तु परिवार की संरचना और प्रकार्य में जो परिवर्तन
आज हम देख रहे हैं उसके लिये मुख्य कारण आधुनिकता
है । भारत में आधुनिकता का अर्थ पाश्चात्य सभ्यता से लगाया जाता है अर्थात यूरोप और अमेरिका की सभ्यता से। आज लोग वहाँ के रहन सहन , खानपान
तथा पहनावे को अपनाकर स्वयं को आधुनिक अनुभव करते हैं । अंग प्रदर्शन को आधुनिकता
से जोड़ दिया गया है । पहनावे को लेकर
मीडिया पर जंग छिड़ी हुई । पाश्चात्य सभ्यता
मूल्य रहित है । जबकि भारतीय समाज आज भी सांस्कृतिक मूल्यों से जुड़ा हुआ है
। लोगों की विचारधारा भिन्न भिन्न है इस
कारण परिवार में विखंडन एवं संघर्ष बढ़ता जा रहा है ।
लेकिन देखा जाये तो आधुनिकता गलत नहीं है । गलत
वो लोग हैं जो आधुनिकता को गलत रूप से परिभाषित करते हैं । आधुनिकता के अनेक लाभ हैं । आज तकनिकी संचार मध्यम से सम्बन्धों में निकटता
आयी है । यदि हम वस्तु या व्यक्ति को
लेकर मध्यम मार्ग अपनायें तो परिवार को
विखंडित होने से बचाया जा सकता है । इसके
लिये हमें अपनी सहनशीलता बढ़ानी होगी और इच्छाऐं थोड़ी सीमित करनी होंगी । परिवार की खुशी में ही अपनी खुशी होती है यह बात हमें समझनी
पड़ेगी और दूसरों को भी समझानी पड़ेगी ।
रिश्ते कच्चे धागों की भांति बहुत नाजुक होते है जो एक बार टूटने पर मुश्किल से जुड़ते
है । फिर भी उनमें गांठ पड़ ही जाती है
। कवि रहीम उचित कहते है कि ” रहिमन धागा प्रेम का
मत तोड़ो चटकाय
टूटे पे फिर
न जुड़े जुड़े गांठ पर जाये ” । अतः
परिवार विखंडित न हो इसके लिये जरूरी है
कि आपसी मित्रता सद्भावना ,
आदर , सम्मान
सेवा भाव एवं विश्वास बना रहे । परिवार
में संघर्ष समाप्त करने के लिये क्षमा सबसे बड़ी औषधि है।
कुछ विद्वान कहते हैं कि आधुनिकता , नगरीकरण और बढते उपभोक्तावाद के कारण परिवार
समाप्त हो रहे हैं । लेकिन यह गलत धारणा
है क्योंकि परिवार एक ऐसी संस्था है जो विवाह पर आधारित है और विवाह संतान उत्पत्ति से सम्बंधित है । अतः परिवार मनुष्य की मूल भावनाओं से जुड़े हुए
हैं । अतः परिवार कभी समाप्त नहीं हो सकते
। स्वरूप बदल सकता है । दुर्भावनाएं बढ़ सकती हैं अर्थात संरचना बदल सकती है किन्तु प्रकार्य वही
रहेंगे । परिवार बच्चों को जन्म देंगे ही
। उनका पालन पोषण करेंगे ही तथा सामाजिक सुरक्षा प्रदान करते रहेंगे ।
टूटते परिवार, बिखरता समाज
हमारे प्राचीन ग्रंथ में कहा गया है, “वृद्धवाक्यैर्विना
नूनं नैवोत्तरं कथंचन!” अर्थात्
वृद्ध लोगों के वाक्यों के बिना किसी प्रकार का भी निस्तार नहीं है। इसी तरह एक
फ़ारसी लोकोक्ति है, “ज़्यारते
बुज़ुर्गां कफ़ारह-ए-गुनाह।”
अर्थात्
वयोवृद्ध का सम्मान करने से पापों का नाश होता है। संयुक्त परिवार में वृद्ध
परिवार के मुखिया होते थे और उनकी बातों को महत्व दिया जाता था। “टूटते
परिवार और बिखरता समाज” के इस
दौर में आज इन संस्कारों का अर्थ नहीं रह गया। आज के संदर्भ में तो यह सटीक बैठता
है,
उत्साहशक्तिहीनत्वाद् वृद्धो दीर्घामयस् तथा।
स्वैरेव परिभूयेते द्वावप्येतावसंशयम्॥
अर्थात् इसमें कोई संदेह नहीं कि वृद्ध
व्यक्ति में उत्साह एवं शक्ति कमी होती है क्योंकि वे स्वजनों द्वारा ही तिरस्कृत
होते हैं। आज की युवा पीढी बूढों को बर्दाश्त नहीं कर पा
रही है। शायद भौतिकतावादी इस युग में उन्हें धन ही सबसे बड़ी चीज़ दिखती है।
संयुक्त राष्ट्र ने 1994 को
अऩ्तर्राष्ट्रीय परिवार वर्ष घोषित किया था। समूचे संसार में लोगों के बीच परिवार
की अहमियत बताने के लिए हर साल 15 मई को अंतर्राष्ट्रीय परिवार दिवस मनाया जाने
लगा है। 1995 से
यह सिलसिला जारी है। परिवार की महत्ता समझाने के लिए विभिन्न कार्यक्रम आयोजित किए
जाते हैं। इस दिन के लिए जिस प्रतीक चिन्ह को चुना गया है, उसमें
हरे रंग के एक गोल घेरे के बीचों बीच एक दिल और घर अंकित किया गया है। इससे स्पष्ट
है कि किसी भी समाज का केंद्र (दिल) परिवार ही होता है। परिवार ही हर उम्र के
लोगों को सुकून पहुँचाता है।
अथर्ववेद में परिवार की कल्पना करते हुए कहा
गया है,
अनुव्रतः पितुः
पुत्रो मात्रा भवतु संमनाः।
जाया पत्ये मधुमतीं
वाचं वदतु शन्तिवाम्॥
अर्थात् पिता के प्रति पुत्र निष्ठावान हो।
माता के साथ पुत्र एकमन वाला हो। पत्नी पति से मधुर तथा कोमल शब्द बोले।
परिवार कुछ लोगों के साथ रहने से
नहीं बन जाता। इसमें रिश्तों की एक मज़बूत डोर होती है, सहयोग
के अटूट बंधन होते हैं, एक-दूसरे
की सुरक्षा के वादे और इरादे होते हैं। हमारा यह फ़र्ज़ है कि इस रिश्ते की गरिमा
को बनाए रखें। हमारी संस्कृति में, परंपरा में पारिवारिक एकता पर हमेशा से बल दिया
जाता रहा है। परिवार एक संसाधन की तरह होता है। परिवार की
कुछ अहम जिम्मेदारियां भी होती हैं। इस संसाधन के कई तत्व होते हैं।
दूलनदास ने कहा है
दूलन यह परिवार सब, नदी नाव संजोग।
उतरि परे जहं-तहं
चले, सबै बटाऊ लोग॥
आज विश्व बड़ी तेजी से बदल रहा है। पारिवारिक
संसाधन को अक्षुण्ण रखने हेतु इस बदलते विश्व में परिवार की ज़िम्मेदारियां भी
काफी बढ़ गई हैं। परिवार से जुड़े मुद्दों के प्रति हमें गंभीरता से विचार करना
चाहिए।
अरस्तू की बात मानें तो, “परिवार
तो मनुष्य की दैनिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए प्रकृति द्वारा स्थापित एक संस्था
है”।
औद्योगीकरण, आधुनिकीकरण व वैश्वीकरण के कारण हमारी सामाजिक
मान्यताएं बदलती जा रहीं हैं। हमारे देश की पारिवारिक पद्धति भी इससे अछूता नहीं
है। पिछले डेढ़-दो दशक में पारिवारिक पद्धति, खासकर संयुक्त परिवार के रूप में काफी बदलाव आता गया है। इसका असर पूरे
विश्व में और ख़ासकर भारत में तो काफ़ी बुरा पड़ा है। बीते
समय के साथ संयुक्त परिवार का स्वरूप टूट कर लघु से लघुतम परिवार में बदलता गया
है।
संयुक्त परिवार में जहां सामुदायिक भावना होती
है वहीं छोटे परिवार में व्यक्तिगत भावना प्रधान होती है। जहां व्यक्तिगत भावना
हावी होगी वहां स्वार्थ का आ जाना स्वाभाविक है। सब अपना-अपना सोचने लगते हैं। संयुक्त
परिवार में सब एक दूसरे के प्रति प्यार व सम्मान दर्शाते हैं और सब की आवश्यकताओं
को हर कोई मिलकर पूरी करता है। कोई भेद भाव नहीं होता। हर कोई सुख-दुःख में हर
किसी के साथी होते हैं।
जैनेन्द्र ने इतस्ततः में कहा है,
“परिवार
मर्यादाओं से बनता है। परस्पर कर्त्तव्य होते हैं, अनुशासन होता है और उस नियत परम्परा में कुछ
जनों की इकाई हित के आसपास जुटकर व्यूह में चलती है। उस इकाई के प्रति हर सदस्य
अपना आत्मदान करता है, इज़्ज़त
खानदान की होती है। हर एक उससे लाभ लेता है और अपना त्याग देता है”।
कुछ खामियां भी हैं, जैसे
गोपनीयता का अभाव और छोटी-छोटी बातों पर तनाव व आंतरिक कलह। इसके अलावा संयुक्त
परिवार की अपेक्षा छोटा परिवार चलाना काफी सुगम होता है। आर्थिक विकास के कारण
गांवों से शहरों की तरफ जो लोगों का पलायन बढ़ा तो छोटे परिवार रखना आवश्यक हो
गया। ऐसे परिवार में व्यक्तिगत अधिकारों पर ज़्यादा जोर दिए जाने के फलस्वरूप घर
के वातावरण में परिवर्तन आने लगा। बच्चों के ऊपर अंकुश की कमी हो जाने से युवा
पीढ़ी अधिक उच्छृंखल (स्वेच्छाचारी, बंधन
न माननेवाला) हो गई। बुजुर्गों के प्रति सम्मान में कमी आने
लगी है। वे अपने को उपेक्षित महसूस करते हैं। अकसर ही घर के बुजुर्गों को यह कहते
सुना जा सकता है कि हमारे जमाने में इतना बड़ा परिवार था और हम सब दुःख-सुख बांट
कर काफी हंसी-खुशी के दिन बिताया करते थे। वे बातें आज कहां!
भास के दूतवाक्यम् में कहा गया है,
कर्तव्यो भ्रातृषु
स्नेहो विस्मर्तव्या गुणेतराः।
सम्बन्धो बन्धुभिः
श्रेयांल्लोकयोरुभयोरपि॥
दोषों को भूलकर भाइयों पर केवल स्नेह करना
चाहिए, बन्धुओं
से प्रेम स्थापित करना, लोक-परलोक
दोनों के लिए लाभदायक होता है।
आज तो जीवन बिल्कुल यांत्रिक हो गया है। रिश्ते
भी औपचारिकता तक सीमित हो गये हैं जिसमें आपसी स्नेह, माधुर्य, सौहार्द्र
और परस्पर विश्वास की कमी आ गई है। आज यह बहुत ज़रूरी है कि हमारो सम्बन्धों में
मज़बूती हो, एकजुटता
हो, दृढ़ता
हो। विश्वास की दृढ़ता।
जिस परिवार में एकता और एकजुटता होती है उसमें
समृद्धि होती है। वहां रिश्ते सुंदर होते हैं। क्योंकि वहां कोई भेद-भाव नहीं
होता। सब एक दूसरे की मदद करते हैं। एक-दूसरे के प्रति स्नेह-प्रेम-सद्भाव रखते
हैं। इस तरह का परिवार ऐसा लगता है मानों सारा संसार उसमें सिमट गया हो।
पालि में लिखे जातक कथा महावेस्सन्तर जातक में
कहा गया है,
येन केनचि वण्णेन
पितु दुक्खं उदब्बहे,
मातु भागिणिया चापि
अपि पाणेहि अत्तनि।
अर्थात् मां, बहन और पिता का दुःख जैसे भी हो दूर करना
चाहिए! यह तभी संभव है जब परिवार के सारे लोग परिवार की तरह रहें, एक
संयुक्त परिवार की तरह। जहां मत-भेद तो हों, पर मन-भेद नहीं।
मर्यादा के अभाव में बिखरते परिवार, टूटता समाज और दम तोड़ते रिश्ते
समाज और परिवार कुछ व्यक्तियों के सामूहिक रूप
से रहने पर बनता है l हर
व्यक्ति किसी-न-किसी परिवार का सदस्य रहा है या फिर है। समाज और परिवार के लोगो मे
एक दूसरे के साथ आपस में कुछ रिश्तों के, बंधन से भी जुड़े होते हैं, जेसे
माता-पिता, दादा
दादी, चाचा
चाची, मामा
मामी, मौसा
मौसी, बेटा-बेटी, भाई-बहन
और ताऊ ताई इत्यादि । ये रिश्ते एक-दूसरे के प्रति प्रेम, सम्मान, सहनशीलता, शिष्टता, विश्वास, ईमानदारी, साहस
और अनुशासन जेसे मानवीय गुणों से बंधे रहते हैं और एक मजबूत, सुखी
परिवार और समाज की रचना करते हैं |
जब पिता अपने बेटे से गुस्से में कुछ कहता है
तो बेटे की सहनशीलता और शिष्टता बेटे को पिता की डांट चुपचाप बिना विरोध किये
सुनने को प्रेरित करती है । पत्नी, बेटा और बेटी सब पिता को मुखिया मान के उसका
सम्मान करते हैं और उसके अनुशासन में रहते हैं | इसी तरेह पति-पत्नी के बीच प्रेम, विश्वास
और ईमानदारी दोनों को एक दूसरे का अटूट अंग बना देते हैं और जीवन भर का अटूट
रिश्ता बन जाता है । जिसे हम संयुक्त परिवार और समाज कहते है l
वर्तमान में संयुक्त परिवार बिखर रहे है । अब
नाम मात्र के ही संयुक्त परिवार बचे हैं l एकल परिवार की आंधी में कोई ऐसा आदर्श एकल
परिवार भी नहीं हैं जिसके सदस्य सुखपूर्वक रहते हों । अक्सर देखा गया है कि लोग
अपनी बातों में कहते हैं ‘जमाना
बदल गया है’ क्या
वास्तव में जमाना बदल गया है जब इस बात पर गौर करे तो पाते हैं कि जमाना तो वहीं
का वहीं है । हाँ कुछ स्वार्थी लोगो ने परिवार और
समाज के बिखराव का अपने राजनैतिक स्वार्थ के लिए आर्थिक और सामाजिक स्तर पर समाज
को जब चाहा जैसा चाहा बदलाव कर दिया, चाहे वो समाज के लिए सही हो या ना हो
।
उस दौर में समाज विकास के लिए संघर्ष करते थे
और आज इस दौर में एक दुसरे से बदले के लिए लड़ रहे है, जिसका
परिणाम विकास का रास्ता बंद हो जाता है । गुलामी
से लेकर आज़ादी तक के सफ़र की बात करें, तो हम कह सकते है कि उस समय हम आर्थिक रूप से
ज्यादा मजबूत नहीं थे परन्तु आपसी रिश्तो से ताकतवर थे । उस
दौर में अगर गाँव में कोई एक व्यक्ति पिछड़ता था, तो पूरा गाँव उसका साथ देता था । वर्तमान दौर
में अगर कोई भाई पिछड़ जाये तो उसका साथ उसका भाई भी नहीं देता । आज चाहे हमारी
आर्थिक स्थिति मजबूत हुई हो, पर ये कहना भी गलत नहीं होगा कि आज हम रिश्तों
में बहुत कमजोर हो रहे हैं । इसी कमजोरी के कारण आज समाज का दायरा कम होता जा रहा
हैं ।
दशको पहले लोग संयुक्त परिवार में रहकर बहुत
खुश रहते थे, आज
लोग एकल परिवार में रहकर भी खुश नहीं रह पा रहे है, आज बेटे को बाप नहीं समझ रहा और बाप
को बेटा नहीं समझ रहा, एक-दुसरे पर सब बोझ समझते हैं । पहले
परिवार साफ-सुथरे सरोवर की तरह होता था, जिसमें कमल ही कमल खिले होते थे। आज के परिवार
में ना तो सरोकार का सरोवर है और ना ही कमल रूपी संस्कार है ।
समाज व परिवार रूपी सरोवर में कुछ बंधन भी हुआ
करते थे, जिनकों
तोड़ पाना संभव नहीं था । जिसमें सासें तो अपनी होती थी, पर
उसकी मर्यादा रूपी लगाम समाज व परिवार के हाथों में होती थी । लेकिन फिर भी उस दौर
में बंदिश में रहते हुए किसी का दम नहीं गुटता था, बल्कि लोग खुश रहते थे l तब
सामाजिक परम्परा और संस्कृति के नाम पर समाज में कई कुरीतियाँ भी सातवें आसमान पर
थी l जिसका
परिणाम यह हुआ कि वर्तमान समय में सामाजिक आधारों में न रीति रही, न ही
नीति रही, सिर्फ
और सिर्फ भावनाओं से
खेलना इस दौर में आदत सी हो गयी है । परम्परा, संस्कृति
और संस्कार बेजान हो गए हैं, और हर इन्सान अपनी खुद की बस्ती में ही गुम हो
गये है, जैसे
किनारों पर आकर लहरे गुम हो जाती हैं । आधुनिक दौर की इस
भाग-दौड़ भरी जिन्दगी में किसी के पास किसी के लिए समय ही नहीं हैं । बस भागते रहो, भागते रहो, यह दौड़ केवल श्मशान में जाकर ही
खत्म होती हैं ।
सच है कि आज संयुक्त परिवार बिखर रहे हैं । एकल
परिवार भी तनाव में जी रहे हैं । बदलते परिवेश में पारिवारिक सौहार्द का ग्राफ
नीचे गिर रहा है, जो एक
गंभीर समस्या है । परिवार से पृथकता तक तो ठीक है, किंतु उसके मूल आधार स्नेह में भी खटास पड़ जाती
है । स्नेह सूत्र से विच्छिन्न परिवार, फिर ‘घर’ के दिव्य भाव को नहीं जी पाता क्योंकि तब उसकी
दशा ‘परिवार
के सदस्यों की परस्पर अजनबी समूह’ जैसी हो जाती है।
मित्रो आज हमें अपने परिवारों में फिर से शुख
शांति लानी है तो आज हमें अपने विवेक से अपने अंतर्मन में झांक कर स्वयं को टटोलना
होगा और वास्तविकता को समझ कर फिर से अपनी जीवन शैली और विचारो को बदलना होगा ।
जिस प्रकार आयुर्वेद में निरोगी काया के लिए वात, पित्त और कफ का संतुलन अनिवार्य बताया गया है, उसी
प्रकार पारिवारिक सुख और शांति के लिए स्नेह, सम्मान और स्वतंत्रता का संतुलन जरूरी है ।
इतिहास गवाह है कि अनुशासित और मर्यादित जीवनशैली को अपनाने से टूटते-बिखरते
परिवारों में भी फिर से सुख शांति जैसा वातावरण बन जाता है ।
आज हम आधुनिक समय जी रहे हैं। दुनिया के हर
हिस्से में जबरदस्त प्रगति हो रही है। आज, यांत्रिक संसाधनों का एक नेटवर्क हर जगह फैला
हुआ है। हर कोई आगे निकलने के लिए अंधाधुंध भागदौड़ कर रहा है, लेकिन
क्या इंसान सुखी हो रहा है? नहीं, बल्कि मनुष्य अपनी जड़ों से दूर जा रहा है।
मनुष्य एक तनावपूर्ण वातावरण में भटक रहा है। मनुष्य इतना
स्वार्थी हो गया है कि वह अपने फायदे के लिए किसी को भी नुकसान पहुँचाता और खुद को सही ठहराता है। यदि
हमारे पास मानवता नहीं है,
तो
हमें मानव कहलाने में शर्म आनी चाहिए। हम इंसान नहीं हैं अगर हमारी आंखों के सामने
किसी निर्दोष मासूम के साथ बुरा होता है और हमारे मन में करुणा पैदा नहीं होती है।
आज के आधुनिक समय में इंसान अपने कपड़ों, पैसों से जाना जाता है, अपने
कर्मों से नहीं, क्यों? मासूम
निष्पाप मुस्कान अब सिर्फ एक छोटे बच्चे के चेहरे पर ही देखी जा सकती है। सम्मान
और संस्कार समाप्त हो रहे हैं। एक इंसान, जीतना शिक्षित, सभ्य और उन्नत दिखता है उतना ही वह हैवानियत से
भरा हुआ है, आज हम
किसी भी मीडिया के माध्यम से समाचार सुनते या देखते हैं, तो
पता चलता हैं कि समाज में कितनी अमानवीय घटनाएं हो रही हैं। कई गंभीर घटनाओं को तो
समाज के सामने कभी उजागर ही नहीं किया जाता है। पैसा आजकल भगवान की तरह हो गया है।
भ्रष्टाचार, महिलाओं, बच्चों, बुजुर्गों
और कमजोरों पर अत्याचार, जातिगत
भेदभाव, धोखाधड़ी
जैसे गंभीर अपराध हर दिन बड़ी संख्या में हो रहे हैं। आज की मानवजाति वर्चस्व की
लड़ाई लड़ रही है। हम चाँद पर भी पहुँच चुके हैं, लेकिन हमें यह नहीं पता कि हमारे पड़ोस में कौन है।
आजकल तो रिश्तों में भी मिलावट देखी जा रही है।
रिश्तों को कलंकित करने वाले दृश्य समाज में लगातार घट रहे हैं, यानी
आपके सामने अपनो की भूमिका में और आपकी पीठ के पीछे दुश्मन की भूमिका में। अनैतिक
तरीकों सेकमाकर फैशन, नशा, दिखावे
के नाम पर पैसा बर्बाद कर रहे हैं। नौकरियों में भ्रष्टाचार, हर
जगह राजनीतिक हस्तक्षेप, सिफारिश, भेदभाव, अमीर
और गरीब के बीच की बढ़ती खाई, समाज
में असंतोष को बढ़ावा देती है। सडक़ के किनारे एक दुर्धटनाग्रस्त बिमार असहाय
व्यक्ति मदद के लिए पुकारता रोता है लेकिन कोई मदद नहीं करता है, बल्कि
वे वीडियो बनाने और उसकी तस्वीरें लेने में व्यस्त हो जाते हैं। कुछ जगहों पर छोटे
बच्चे भूख-भूख करके मर रहे हैं लेकिन लोगों में मानवता नहीं दिखाई देती है। समाज
में लगातार अनाथालय, वृद्धाश्रम
बढ़ रहे हैं और लोगों के संयुक्त परिवार टूट रहे हैं और छोटे घरों में बदल रहे
हैं।
आज के मनुष्य में, मैं और मेरा, केवल यह सोच दिखती हैं, अर्थात्, जो
स्वयं के लिए सोचते हैं, उनमें
दूसरों के प्रति ईष्र्याभाव बढ़ गया है। दूसरों की सफलता का तिरस्कार करने और
दूसरों के दुखों में खुशी मनाने और दूसरों को दोष देने की प्रवृत्ति लगातार बढ़ी
है। रिश्तों, दोस्ती, परिवार, आस-पड़ोस, कार्यस्थल, कार्यालय, हर
क्षेत्र में कहीं भी यही बात होती है, आपस में गुटबाजी करके शीत युद्ध लड़ते रहते हैं, आखिर
लोग ऐसा व्यवहार क्यों करते हैं? यदि किसी व्यक्ति में मानवता नहीं है, तो वह
किस प्रकार का मानव है? अधिकांश
अपराध ईष्र्या और श्रेष्ठता की भावना से किए जाते हैं जिसमें सज्जन उलझ जाते हैं, बेईमान
सफल हो जाते हैं और ईमानदार अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ते ही रह जाता हैं।
माता-पिता दस बच्चों की देखभाल कर सकते हैं लेकिन दुनिया में इससे ज्यादा
दुर्भाग्यपूर्ण क्या हो सकता है कि दस बच्चे एक साथ अपने माता-पिता की देखभाल नहीं
कर सकते। कई जगहों पर तो इंसानों की ज़िंदगी जानवरों से भी बदतर है।जितने जानवर एक
दूसरे से नहीं लड़ते उससे अधिक इंसान छोटी-छोटी बातों पर लड़ते मरते हैं। मानवता, समझाने
की नहीं बल्कि स्वयं को समझने की बात है। सभी प्रकार के भेदभाव, जातिवाद, श्रेष्ठता
से ऊपर उठकर मानवता के दृष्टिकोण से मानवजाति को देखें।
दुनिया में हर जगह अच्छे कामों की सराहना करनी
चाहिए और बुरे कामों को रोकना चाहिए। सभी प्राणियों में मनुष्य के सोचने और समझने
की क्षमता अधिक होती है, लेकिन
फिर भी इंसान कभी-कभी जानवरों से भी बदतर घटीया काम करता है। प्रेम से लोगों का मन जितना, दया,
करुणा और निस्वार्थ सेवा दुनिया में मानवता का आधार है। दुनिया में
मानवता से बढकर में कुछ नही है।
कर्तव्यनिष्ठ बनें, जिम्मेदारी
को समझें, हमेशा
स्वाभिमान के साथ रहें, अभिमान
के साथ नहीं, किसी
के प्रति कभी भी घृणा की भावना न रखें, किसी व्यक्ति को उसके व्यवहार, कर्म, गुणों
से पहचानें न कि उसके धन या महंगी उपस्थिति से। आज भी आपको समाज के हजारों लोग मिल
जाएंगे जो देश और विदेश में अपनी सफलता का बिगुल बजाने के बावजूद अब ग्रामीण
क्षेत्र में एक गुमनाम और बहुत सादा जीवन जीकर पर्यावरण और असहाय लोगों की मदद कर
रहे हैं। जीवन में हमेशा उच्च आदर्श का पालन करें, मानव जन्म मिला है, तो मानव के रूप में जिएं, सभी
प्रकार के आडंबर से ऊपर उठकर मानवता को समझें।
toot te parivar, darakte rishte,toot te rishte bikharte parivar,dam todte rishte, bikharte parivar aur tootata samaj,
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