ब्राह्मणों ने अपना प्रभाव, अपना वर्चस्व लोगों के दिलो-दिमाग पर कायम रखने के लिए, ताकि उनकी स्वार्थपूर्ति होती रहे, कई तरह के हथकंडे
अपनाए और वे भी इसमें कामयाब भी होते रहे। केवल अपने निजी हितों को ही मद्देनजर रख
कर, एक से अधिक बनावटी ग्रंथो की रचना करके कामयाबी हासिल
की। उन नकली ग्रंथो में उन्होंने यह दिखाने की पूरी कोशिश की कि, उन्हें जो विशेष अधिकार प्राप्त हैं, वे सब ईश्वर
द्वारा प्रदत्त हैं। ब्राह्मण-पुरोहितों
की मर्जी के खिलाफ कुछ भी नहीं करना चाहिए। मतलब, तभी इन्हें
ईश्वर प्राप्त होंगे और इनका जीवन सार्थक होगा। उन ग्रंथो को (ब्राह्मणों ने) केवल
अपने मतलब के लिए लिख रखा है। उन ग्रंथो को में हर तरह से ब्राह्मण-पुरोहितों का
महत्व बताया गया है।
वेदों के बारे में फैलाई गई भ्रांतियों
में से एक यह भी है कि वे ब्राह्मणवादी ग्रंथ हैं और शूद्रों को अछूत मानते हैं।
जातिवाद की जड़ भी वेदों में बताई जा रही है
सवाल यह उठता है कि शूद्र कौन? ब्राह्मण कौन? क्षत्रिय कौन? और
वैश्य कौन? यदि हम आज के संदर्भ में शूद्र की परिभाषा करें
तो महाभारत के रचयिता वेद व्यास शूद्र थे। रामायण के रचयिता वाल्मीकि भी शूद्र ही
थे। भगवान कृष्ण अहीर यादव समाज से थे तो उन्हें भी शूद्र ही मान लिया जाना चाहिए।
वेदों के ऋषियों की जाति पता करेंगे तो सभी शूद्र ही निकलेंगे। स्वामी दयानंद ने
वेदों का अनुशीलन करते हुए पाया कि वेद सभी मनुष्यों और सभी वर्णों के लोगों के
लिए वेद पढ़ने के अधिकार का समर्थन करते हैं।
दरअसल, शूद्र किसी जाति
विशेष का नाम नहीं था। ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य भी किसी
जाति विशेष का नाम नहीं होता था। ये तो सभी बौद्धकाल और मध्यकाल की विकृतियां हैं,
जो समाज में प्रचलित हो चलीं। वर्ण को जाति सिद्ध किया गया।
यजुर्वेद 18.48 में
प्रार्थना है कि हे परमात्मन! आप हमारी रुचि ब्राह्मणों के प्रति उत्पन्न कीजिए,
क्षत्रियों के प्रति उत्पन्न कीजिए, विषयों के
प्रति उत्पन्न कीजिए और शूद्रों के प्रति उत्पन्न कीजिए।
मंत्र का
भाव यह है कि हे परमात्मन! आपकी कृपा से हमारा स्वभाव और मन ऐसा हो जाए कि
ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र
सभी वर्णों के लोगों के प्रति हमारी रुचि हो। सभी वर्णों के लोग हमें अच्छे लगें।
सभी वर्णों के लोगों के प्रति हमारा बर्ताव सदा प्रेम और प्रीति का रहे।
प्राचीनकाल में जन्म से हर कोई गुणरहित हैं ऐसा
मानते थे और शिक्षा प्राप्ति के पश्चात गुण, कर्म और स्वभाव
के आधार पर वर्ण का निश्चय होता था। ऐसा समाज में हर व्यक्ति अपनी-अपनी क्षमता के
अनुसार समाज के उत्थान में अपना-अपना योगदान कर सके इसलिए किया गया था। मध्यकाल
में यह व्यवस्था जाति व्यवस्था में परिवर्तित हो गई। यदि जाति के मान से आज देखें
तो एक ब्राह्मण का बालक दुराचारी, कामी, व्यसनी, मांसाहारी और अनपढ़ होते हुए भी ब्राह्मण
कहलाने लगा जबकि एक शूद्र का बालक चरित्रवान, शाकाहारी,
उच्च शिक्षित होते हुए भी शूद्र कहलाने लगा। होना इसका उल्टा चाहिए
था।
इस जातिवाद ने देश को तोड़ दिया। परंतु आज समाज में
योग्यता के आधार पर ही वर्ण की स्थापना होने लगी है। एक चिकित्सक का पुत्र तभी
चिकित्सक कहलाता है, जब वह सही प्रकार से शिक्षा ग्रहण
न कर ले। एक इंजीनियर का पुत्र भी उसी प्रकार से शिक्षा प्राप्ति के पश्चात ही
इंजीनियर कहलाता है और एक ब्राह्मण के पुत्र को अगर अनपढ़ है तो उसकी योग्यता के
अनुसार किसी दफ्तर में चतुर्थ श्रेणी से ज्यादा की नौकरी नहीं मिलती। यही तो वर्ण
व्यवस्था है।
दरअसल, वेद और पुराणों
के संस्कृत श्लोकों का हिन्दी और अंग्रेजी में गलत अनुवाद ही नहीं किया गया,
बल्कि उसके गलत अर्थ भी जान-बूझकर निकाले गए। अंग्रेज विद्वान जो
काम करने गए थे उसे ही आज हमारे यहां के वे लोग कर रहे हैं, जो
अब या तो वामपंथी हैं या वे हिन्दू नहीं हैं।
सब वर्णों में परस्पर पूर्ण सहानुभूति, सहयोग और प्रेम-प्रीति का बर्ताव होना चाहिए। जब कोई भी व्यक्ति किसी भी
जाति का हो यदि वह समाज में धर्म ज्ञान का संदेश प्रचार-प्रसार करने में योगदान दे
रहा है तो वह ब्राह्मण है। यदि कोई व्यक्ति समाज की रक्षा अथवा नेतृत्व कर रहा है
तो वह क्षत्रिय है। यदि कोई व्यक्ति देश को व्यापार, धन आदि
से समृद्ध कर रहा है तो वह वैश्य है और यदि कोई व्यक्ति गुणों से रहित है अर्थात
तीनों तरह के कार्य करने में अक्षम है तो वह इन तीनों वर्णों को अपने-अपने कार्य
करने में सहायता करे अर्थात इन तीनों के लिए मजबूत आधार बने।
ब्रह्म (ईश्वर) को जानने वाला ब्राह्मण कहलाता है।
कहते हैं कि जो पुरोहिताई करके अपनी जीविका चलाता है, वह ब्राह्मण नहीं, याचक है। जो ज्योतिषी या नक्षत्र
विद्या से अपनी जीविका चलाता है वह ब्राह्मण नहीं, ज्योतिषी
है और जो कथा बांचता है वह ब्राह्मण नहीं कथा वाचक है। इस तरह वेद और ब्रह्म को
छोड़कर जो कुछ भी कर्म करता है वह ब्राह्मण नहीं है।
कोई भी बन सकता है ब्राह्मण
ब्राह्मण होने का अधिकार सभी को है चाहे वह किसी भी
जाति,
प्रांत या संप्रदाय से हो। हम ऐसे हजारों उदाहरण बता सकते हैं जबकि
क्षत्रिय समाज से कई लोग ब्राह्मण बने और ब्राह्मण समाज से कई लोग क्षत्रिय। ऐसे
कई वैश्य है जिन्होंने पूर्वकाल में क्षत्रियत्व धारण किया और ऐसे भी कई दलित है
जिन्होंने ब्राह्मणत्व धारण कर समाज को दिशा दी। हां यह बात सही है कि ब्राह्मण
होने के लिए कुछ नियमों का पालन करना होता है। ज्ञान, साहस,
संयम, विनम्रता और संस्कार को महत्व देना होता
है।
इश्वर निर्गुण है. इश्वर दुनिया बनाने वाला या
चलाने वाला है. वह प्रकृति की सबसे बड़ी शक्ति है जिससे सब कुछ बनता है और सब कुछ
उसी में विलीन हो जाता है. ये एक वैज्ञानिक बात है कोई अंधविश्वास नहीं है.
इश्वर भेदभाव नहीं करता. वो कुदरत या प्रकृति का ही रूप है. जैसे सूरज की धुप सबको बराबर मिलती है. उसकी नजर में कोई उंचा नीचा नहीं होता. इश्वर सबको एक जैसा प्यार करता है और जाति और छुआछूत को नहीं मानता है.
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