माता-पिता का अपने पुत्र के प्रति कितना प्रेम, स्नेह, मोह
वा त्याग भाव होता
है यह भारतीय इतिहास में माता-पिता के आज्ञाकारी पुत्र श्रवण कुमार व अयोध्या
नरेश राजा दशरथ के पुत्र राम के उदाहरणों से ज्ञात होता है। इन दोनों
उदाहरणों में पुत्र का वियोग होने व दूर हो जाने पर दोनों पिताओं ने अपने
प्राण त्याग दिये। इससे पिता के गौरव का अनुमान किया जा सकता है।
महाभारत शा. 266/21 में कहा गया है कि ‘पिता
धर्मः पिता स्वर्गः पिता हि परमं तपः। पितरि प्रीतिमापन्ने सर्वाः
प्रीयन्ति देवता।।’ अर्थात्
पिता ही धर्म
है, पिता
ही स्वर्ग है और पिता ही सबसे श्रेष्ठ तपस्या है। पिता के प्रसन्न
हो जाने पर सारे देवता प्रसन्न हो जाते हैं।
पिता के गौरव से सम्बन्धित समस्त वैदिक साहित्य
में अनेकानेक महत्वपूर्ण वचन भरे पड़े हैं। आज की युवा पीढ़ी वैदिक साहित्य के
अध्ययन से विरत व दूर है जिससे आज अनेकों माता-पिता अपनी ही सन्तानों से सेवा व
मात-पिता की पूजा के स्थान पर उनसे अवहेलना, उपेक्षा, निरादर व अनेक प्रकार से उत्पीड़न झेल रहे हैं।
इस बुराई को केवल वैदिक ग्रन्थों के अध्ययन व वैदिक विद्वानों की संगति व उपदेशों
से ही दूर किया जा सकता है। आज की शिक्षा भी बच्चों व बड़े विद्यार्थियों को
माता-पिता व आचार्य के यथार्थ गौरव को बताने में कोषों दूर है।
आज वृद्धाश्रमों की बढ़ती हुई संख्या और
तीर्थस्थानों में उम्रदराज भिखारियों को देखकर यह अनुमान लगाया जा सकता है कि
वृद्ध माता-पिता की दशा कितनी दयनीय हो गई है। कितनी लज्जा की बात है कि जिन
माता-पिता ने अपनी संतान के लिए अनेक प्रकार के कष्ट सहते हुए उन्हें पढ़ाया, सभी
सुविधाएं उपलब्ध कराईं, स्वयं
दुख सहते हुए संतान को आगे बढ़ाने के लिए हरसंभव प्रयत्न किए, वही
संतान जीवन के अंतिम समय में उनको छोड़कर दूर रह रही है। युवा यह नहीं जानते कि एक
दिन वे भी असहाय वृद्ध होंगे तब वे भी क्या अपनी संतान से इसी व्यवहार की चाह
रखेंगे जैसा कि आज वे स्वयं अपने माता-पिता के साथ कर रहे हैं?
आज अधिकांश परिवारों में वृद्ध माता-पिता के
जीवित रहने पर उनकी सेवा और चिकित्सा तो दूर, उनके साथ उपेक्षापूर्ण-पीड़ादायक व्यवहार किया
जाता है। इतना ही नहीं, उनकी
मृत्यु की प्रतीक्षा की जाती है। यह उपेक्षापूर्ण व निष्ठुर व्यवहार सर्वथा अनुचित
है।
माता-पिता की सेवा संतान का परम कर्तव्य है।
‘मातृदेवो भव। पितृदेवो भव। आचार्यदेवो भव’।
अर्थात माता-पिता और आचार्य को देव मानो।
वृद्धजनों की सेवा के संबंध में यह श्लोक
महत्वपूर्ण है :
अभिवादनशीलस्य नित्यं वृद्धोपसेविन:
चत्वारि तस्य वर्धन्ते आयुर्विद्या यशो बलम्॥
वृद्धजनों को सर्वदा अभिवादन अर्थात सादर
प्रणाम, नमस्कार, चरण
स्पर्श तथा उनकी नित्य सेवा करने वाले मनुष्य की आयु, विद्या, यश और
बल-ये चारों बढ़ते हैं। इस श्लोक का आशय स्पष्ट है कि हमें सदैव अपने माता-पिता, परिवार
के ज्येष्ठ सदस्यों एवं आचार्यों की सेवा सुश्रुषा, परिचर्या का विशेष ध्यान रखना चाहिए। वे सदैव
प्रसन्न रहेंगे तभी हमें उनका आशीर्वाद प्राप्त होगा और हम उन्नति कर सकते हैं।
माता-पिता और गुरु की सेवा एवं सम्मान करने पर दीर्घायुभव, आयुष्मान
भव, खुश
रहो आदि आशीर्वाद प्राप्त होते हैं। वृद्धजनों का आशीर्वाद हृदय से मिलता है।
कहा गया है कि जिस तरह वनस्पतियों में सूर्य से
जीवन प्राप्त होता है, वैसे
ही माता-पिता आदि वृद्धजनों के आशीर्वाद से जीवन संचारित होता है। इसलिए वृद्ध
माता-पिता की तन-मन-धन से सेवा करते हुए आशीर्वाद लेना चाहिए। उन्हें सुख देना ही
सुखी रहने का सर्वोत्तम उपाय है।
माता-पिता के समान पवित्र इस संसार में दूसरा
कोई भी नहीं है। जो व्यक्ति अपने माता-पिता और आचार्य का अपमान करता है, वह यमराज
के वश में पड़कर उस पाप का फल भोगता है।
धर्मराज युधिष्ठिर ने एक बार भीष्म पितामह से
पूछा, धर्म
का मार्ग क्या है? भीष्म
पितामह ने कहा-समस्त धर्मों से उत्तम फल देने वाली माता-पिता और गुरु की भक्ति है।
मैं सब प्रकार की पूजा से इनकी सेवा को बड़ा मानता हूं।
माता-पिता और गुरु मनुष्यों के द्वारा सर्वदा
पूजनीय होते हैं। जिसके द्वारा इन तीनों का समुचित आदर नहीं किया जाता है, उसकी
समस्त क्रियाएं असफल ही होती हैं।
आज संतान माता-पिता की संपत्ति पर तो अपना
जन्मसिद्ध अधिकार समझती है और अपने जन्मदाता पालक को बोझ मान रही है। यह सोच अत्यंत ही दुर्भाग्यपूर्ण है। जिन माता-पिता ने
अपने जीवन में पुत्रों-पुत्रियों का पालन पोषण, शिक्षा, विवाह आदि किया, तन-मन-धन से उनको आगे बढऩे का अवसर दिया, वे अब
मिल कर भी माता-पिता की सेवा करने से मुंह मोड़ रहे हैं। इससे अधिक दुर्भाग्य और
क्या हो सकता है। वे यह नहीं समझते कि ईश्वर सब कुछ देखता है। प्रत्येक व्यक्ति को
अपने अच्छे और बुरे कर्मों का फल अवश्य मिलता
है। सभी धार्मिक ग्रंथों का सार यही है कि वृद्ध माता-पिता को प्रत्यक्ष
देवता मानकर सभी प्रकार से उनकी सेवा करो और जीवन में सुखी रहने का आशीर्वाद
प्राप्त करो। माता-पिता एवं परिवार की दुर्गति से रक्षा करने वाला ही वास्तव में
संतान कहलाने का अधिकारी है। अत: वृद्ध माता-पिता की इच्छा का सम्मान करें। अपनी
व्यस्त दिनचर्या में भी उनके साथ बातचीत करें। उनके स्वास्थ्य, सुपाच्य
आहार आदि के विषय में चर्चा करते रहें। उनके प्रति सदैव सम्मान रखें।
पारिवारिक समस्याओं पर उनसे परामर्श लेने में
संकोच न करें। धार्मिक स्थान, मंदिर, तीर्थ स्थान आदि पर जाने के लिए पूछते रहें।
कभी उनको अकेला न छोड़ें। उनकी आवश्यकताओं का पूरा ध्यान रखें। कहने का तात्पर्य
यह है कि हर प्रकार से माता-पिता की सेवा का ध्यान रखें और उनको प्रसन्न रखने का
प्रयास करें।
माता पिता के बिना जीवन अनुसाशन के बिना ही
बीतता है कोई रोक टोक नहीं होती है मगर जीवन एक कटी हुई पतंग के सामान हो जाता है.
हर हाल में माता पिता चाहते हैं की हमारे बच्चे को किसी भी प्रकार का दुःख न देखना
पड़े| माता
पिता ही है जो हमें सच्चे दिल से प्यार करते हैं बाकी इस दुनिया में सब नाते
रिश्तेदार झुठे होते हैं|
जब
बच्चे को कामयाबी हांसिल होती है चाहे वो कितनी बड़ी हो चाहे कितनी छोटी माता पिता
को लगता है की ये कामयाबी उन्हें मिली है.
पहले के समय मे एक बच्चा पैदा होता था तो पिता कहते थे कि
हमारे बुढ़ापे का लाठी है,लेकिन समय
इतना तेज करवट लिया कि पिता खुद लड़के के लाठी बन गए है, माता-पिता का हमारे जिन्दगी मे कितना महत्व होता है,ये एक आदर्श पुत्र ही बता सकता है । पुराने समय के श्रवण कुमार
से अच्छा तो फिलहाल कोई नही बता सकता ।लेकिन आज के बदलते परिवेश मे श्रवण कुमार तो
बमुश्किल मिलेंगे। आज समय के हिसाब से पुत्र मे भी काफी बदलाव आया है,अब पहले वाली बात नही रह गयी।
इस जीवन में हर किसी व्यक्ति को एक जीवन साथी
या मित्र की आवश्यकता होती है जो उससे हमेशा प्यार करें और जीवन भर उसकी मदद करें।
परंतु जीवन में एक बात तो सत्य है हर किसी प्रेम की तुलना में माता पिता का प्रेम
सबसे ऊपर होता है। एक पिता के सहज और निर्मल प्रेम को किसी भी
अन्य प्रेम से तुलना नहीं किया जा सकता है।
माता-पिता वह होते हैं जो अपनी संतान की खुशी के लिए हर दुख हंसते-हंसते सह
जाते हैं। मां वह
होती है जो 9 से 10
महीने तक अपनी संतान को पेट में रखकर हर दुख कष्ट को सहते हुए जन्म देती है। चाहे
बच्चे जितनी भी बुरी हरकते करें कभी भी माता-पिता के मन में उनके प्रति घृणा की
भावना उत्पन्न नहीं होती है। अगर
बच्चों का तबीयत खराब हो जाए तो माता-पिता से ज्यादा चिंतित और दुनिया में कोई
नहीं होता है। दूसरी ओर पिता और माता रात दिन परिश्रम करते हैं ताकि उनके बच्चे का
भविष्य उज्ज्वल हो सके।
वह अपने काम के साथ-साथ बच्चों के साथ खेलते
हैं उन्हें स्कूल छोड़ने जाते हैं और साथ ही उनका ख्याल भी रखते हैं। माता-पिता
बिना किसी मोह माया के अपने बच्चो की परवरिश करते हैं ऐसे में हर एक संतान का यह कर्तव्य है कि वह
अपने माता पिता की जीवन भर सेवा करें। माता-पिता की सेवा और देखभाल करने वाला
व्यक्ति हमेशा जीवन में सफल होता है।
रामायण में भगवान् श्री राम के माता-पिता की
सेवा को कोई भूल नहीं सकता है। परन्तु अगर इस आधुनिक युग में अगर कोई व्यक्ति अपने
माता-पिता की सेवा ही करे तो बहुत है। अब एक ऐसा समय आ चूका है कि लोग पैसे और
सफलता के पीछे ही भाग रहे हैं और माता-पिता को भूलते जा रहे हैं।
कुछ ऐसे क्रूर संतान भी हैं जो माता-पिता को
वृद्ध हो जाने पर वृद्धाश्रम में छोड़ आते हैं। लालत है ऐसे बच्चों को जो अपने
माता-पिता के अंतिम समय में उन्हें छोड़ देते हैं। क्या इसी दिन के लिए वो
माता-पिता अपनी जान न्योछावर करके उस संतान का लालन पालन करते हैं। हमारे
लिए जिन कष्टों का सामना हमारे माता पिता करते हैं उसका वर्णन करना नामुमकिन है।
इसीलिए माता-पिता की सेवा से भागना पाप है। माता पिता की सेवा कभी व्यर्थ नहीं
जाती है। जिस संतान को माता-पिता की सेवा का अवसर मिले, तो
समझ लीजिये वह बहुत भाग्यशाली है।
हर माता-पिता के मन में एक चाह होती है कि उनकी
संतान वृद्धावस्था में उनका सहारा बने। जो लोग स्वयं के माता-पिता की सेवा नहीं
करते हैं उनके बच्चे भी उनके साथ वैसा ही व्यवहार दिखाते हैं। हमें
स्वयं अपने माता-पिता का सम्मान करना चाहिए इससे हमारी आने वाली पीढ़ी के बच्चे भी
वही सब सीखेंगे। कई बार देखने में आता है कुछ अशिक्षित माता-पिता को उनके शिक्षित
संतान संभालने और ख्याल रखने से कतराते हैं।
भले ही माता-पिता जितने पुराने ढंग के रहने
वाले हों वो हमारे माता पिता होते हैं और उन्हीं के कारण हम उस सफलता की जगह पर
होते हैं। झूठे नकारात्मक लोगों की बातों को सुनने जो अपने माता-पिता की सेवा नहीं
करता है और उनका अपमान करता है उसे कभी भी जीवन में सुख-शांति प्राप्त नहीं होती
है।
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