वक्त के साथ समाज बदल गया है. इंसान की सोच में
फर्क आया. लोगों ने परंपराओं के नाम पर रूढि़वादी सोच को निकाल फेंकने का साहस भी
जुटा लिया. हम ने बेशक इस में कामयाबी क्यों न हासिल कर ली हो पर यहीं से शुरू हो
जाता है रिश्तों के टूटने का सिलसिला. आधुनिकता का प्रभाव हमारे दम तोड़ते रिश्तों
में नजर आने लगा है.
अकसर अखबारों और टैलीविजन चैनलों में सुर्खियां
बनती हैं कि पत्नी ने प्रेमी के साथ मिल कर पति की हत्या कर दी. एक पिता ने अपनी
ही औलाद को गला घोंट कर मार दिया. बेटे ने अपने ही चाचा के लड़के का अपहरण कर
फिरौती की मांग की और फिरौती नहीं मिलने पर भतीजे को मार डाला वगैरहवगैरह. इन में
तो बहुत से मामले ऐसे भी होते हैं जो रिश्तों को तारतार कर देने वाले होते हैं.
विवाह जैसी सामाजिक प्रथा अब व्यक्तिगत होती नजर
आने लगी है. परिवार वालों की रजामंदी से थोपे गए रिश्ते अब नकारे जाने लगे हैं.
व्यक्ति अपनी खुशी के पैमाने पर रिश्ते जोड़ने लगा है. परिवार, रिश्तेदारी का दायरा उन के लिए उतना माने नहीं रखता जितनी स्वयं की
व्यक्तिगत अभिरुचि व पसंद.
लिव इन रिलेशनशिप खुल कर सामने आने लगी है. व्यक्ति
को यह कहते कोई संकोच नहीं रहा है कि वह रिश्तों को केवल समाज की परवा करते हुए
क्यों ढोए. रिश्ते इतने खुले होने चाहिए कि जब चाहे उन्हें उतार फेंक दिया जाए.
पाश्चात्य शैली व ग्लोबलाइजेशन का दावा करती नई पीढ़ी के साथसाथ पुरानी पीढ़ी भी
रिश्तों को नया रूप देने में लग गई है. सैक्स एक ढकाछिपा शब्द अब आम हो गया है. शायद
यही कारण है कि अब विवाहेतर संबंधों को लोग खुलेआम स्वीकार करने लगे हैं.
व्यक्ति के लिए रिश्तेनाते, सामाजिकता, परिवारवाद सब बाद में, पहले स्वयं का सुख माने रखने लगा है. कामयाबी, परंपरा,
संस्कार सभी भौतिकवादिता में बदल गए हैं.
लेकिन इन सब परिवर्तनों का कहीं न कहीं असर पड़ रहा
है हमारे आपसी रिश्तों पर. हाथ से छूटते, दरकते ये रिश्ते
कहानी बता रहे हैं इन्हीं परिवर्तनों की. इन्हीं का असर है कि आपसी संबंध बिखरने
लगे हैं. समझौता जैसा शब्द रिश्तों के बीच गायब हो चुका है.
आर्थिक सबलता ने हर किसी की सहनशक्ति को कम कर दिया
है.प्रैक्टिकल सोच के आगे भावनाएं महत्त्वहीन होती जा रही हैं. आपस में
कम्युनिकेशन गैप बढ़ा है. पैसा और भौतिक सुविधाएं ही महत्त्वपूर्ण बन गई हैं.
भाईबहन,
पतिपत्नी, बच्चों, पेरैंट्स
के बीच औपचारिकताएं न रह कर दोस्ताना रिश्ते बन गए हैं जिन्होंने इन के बीच का
सम्मान खत्म कर दिया है. इसी का नतीजा है अधिकतर बच्चे पेरैंट्स की सुनते नहीं
हैं. पेरैंट्स और बच्चों के बीच दूरियां और टकराव भी बढ़ रहे हैं. बच्चों की
मनमानी रोकने पर मातापिता आउटडेटेड मान लिए जाते हैं. पतिपत्नी की बनती नहीं है.
वे अपनीअपनी जिंदगी में व्यस्त हैं. वे अपनी सहूलियत के अनुसार एकदूसरे को वक्त
देते हैं. भाईबहन के रिश्तों में अब वह लगाव नहीं है. टीनएज प्रैग्नैंसी बढ़ती जा
रही है. सैक्सुअल बीमारियां आम होती जा रही हैं. फ्रीसैक्स आधुनिकता का सिंबल बन
गया है.
इन हालात को देखते हुए क्या तरक्की के माने ये हैं
कि व्यक्ति केवल अपने तक सीमित रह कर रिश्तों की अहमियत को भूल जाए और संकुचित सोच
के दायरे में रह कर जिसे वह अपना सुख मानता है, जीने लगे?
नहीं, यह सुख, सुख नहीं
स्वार्थ है. व्यक्ति के रिश्ते उतने ही अहमियत रखते हैं जितना कि खाने में नमक. इस
में कोई दोराय नहीं कि रिश्ते गले की फांस नहीं, गले का हार
बनने चाहिए. इसलिए आपसी संबंधों को बचाए रखना भी जरूरी है.
संयुक्त परिवार कोई दकियानूसी सामाजिक परंपरा नहीं.
इस में परिवार के सदस्यों की भावनात्मक सुरक्षा, सहयोग,
सहभागिता और घर की सुरक्षा बनी रहती है. खेद की बात है कि संयुक्त
परिवार की परंपरा अब टूटन और बिखराव के कगार पर है. आज के युग में इसे आउटडेटेड
माना जाता है. लोगों को अधिक स्वतंत्रता, अधिक उत्साह और
अधिक उत्तेजना चाहिए जो उन्हें संयुक्त परिवार की अपेक्षा छोटे परिवार में दिखाई
देती है.
हम सभी दिल से यही चाहते हैं
कि हमारे सभी रिश्ते मजबूत रहें और रिश्तों में प्रेम की गंगा बहती रहे। लेकिन ऐसा
हो नहीं पाता। कुछ लोगों से रिश्ते अच्छे से निभते हैं लेकिन कुछ लोगों से रिश्तों
को निभाना कठिन जान पड़ता है और अंततः आपसी कड़वाहट के कारण रिश्ते टूट भी जाते
हैं। और सबसे बड़ी बात यह है कि रिश्ते उन्हीं से ज्यादा कड़वे हो जाते हैं जिनसे
हमारा सबसे ज्यादा लगाव रहता है।
ऐसा इसलिए होता है क्योंकि हम रिश्तों को अपनी
जागीर समझ लेते हैं और उससे जरूरत से अधिक अपेक्षा करने लगते हैं। आमतौर पर
वैवाहिक जीवन में पति-पत्नी के बीच नोंक झोंक और रिश्ते टूटने के मामले अधिक होते
हैं। इसका कारण यह नहीं है कि रिश्ते में प्यार नहीं होता है। कुछ मामलों को छोड़
दें तो असल में वहीं अधिक नोंक झोंक और रिश्ते टूटने की घटनाएं होती हैं जहां
प्यार अधिक होता है। इसका कारण मात्र इतना है कि पति पत्नी एक दूसरे से जरूरत से
अधिक अपेक्षा रखने लगते हैं।
भाई-भाई में विवाद का कारण भी अपेक्षा है। लोगों को
यह लगता है कि उनके भाई उनसे अधिक सुखी हैं, उनके पास अधिक धन
है। भले ही आपके पास भी खूब धन हो लेकिन आपकी अपेक्षा रहती है कि आपका भाई आपको अपने
धन में से कुछ देता। परिवार के प्रति अपना कर्तव्य खुद भले नहीं निभाएं लेकिन भाई
से अपेक्षा रखेंगे कि वह परिवार की जिम्मेदारियों को उठाए। इन्हीं बातों को लेकर
मन मुटाव बढ़ता है।
रिश्तों में दूरियां बढ़ने की घटनाएं माता-पिता और
बच्चों के बीच भी होती हैं। माता पिता अपने बच्चों को बड़े जतन से पालते हैं।
उन्हें उम्मीद रहती है कि बच्चे बड़े होकर बुढ़ापे में उनकी सेवा करेंगे। लेकिन जब
बच्चे बड़े हो जाते हैं और अपने निजी जीवन में मस्त हो जाते हैं तो माता-पिता को
तकलीफ होने लगती है क्योंकि उनकी अपेक्षा को ठेस लगती है।
कई बार बच्चों को यह लगता है कि माता-पिता उन्हें
ही हर बात में डांटते हैं या कोई काम करने के लिए कहते हैं। अन्य बच्चों को न
डांटते हैं और न कुछ कहते हैं। इससे मन में तकलीफ होने लगती है। जबकि सच यह है कि
माता-पिता उन्हें ही कुछ कहते हैं जिन्हें उनकी अधिक अपेक्षा रहती है। अगर व्यक्ति
किसी से कोई अपेक्षा न रखे और सिर्फ अपने कर्तव्य का पालन करे तो संसार में किसी
से बैर नहीं हो सकता है।
शास्त्रों में कहा गया है कि जब किसी व्यक्ति की
मृत्यु आती है तब उसका अपने शरीर से मोह बढ़ जाता है। व्यक्ति अपने शरीर को और
अधिक समय तक भोगने की अपेक्षा रखने लगता है और जब अपेक्षा चरम पर पहुंच जाती है तब
आत्मा शरीर को छोड़कर चली जाती है। गीता में कहा गया है कि संसार में मोह ही दुःख
का कारण है। अपेक्षा मोह का ही रूप है, इससे जितना नाता
तोड़ेगे उससे उतना ही नाता मजबूत होगा।
आजकल रिश्ते इतने नाजुक क्यों ?
रिश्ते सिर्फ़ ढाई अक्षर से बना शब्द है पर अपनेआप में
पूरी दुनिया समेटे हुए है | सच्च पूछो तो रिश्तों की शरुआत माँ
और शिशु से होती है | माँ और बच्चे का रिश्ता इस संसार में सबसे भावनात्मक रिश्ता है| माँ के पेट से
जन्म लेकर जब बच्चा इस फानी दुनिया में अपनी आँख खोलता है, तब
उसकी गोद में कई मूल्यवान और पवित्र रिश्ते खुद-ब-खुद आ गिरते हैं, जैसे पिता, भाई, बहन आदि …
इसके साथ न जाने कितने और रिश्ते जुड़ जाते है जैसे दादा-दादी,
नाना-नानी, ताऊ-ताई, मामा-मामी
इत्यादि ..
जैसे-जैसे वह अपने जीवन पथ पर आगे बढ़ता है , कई और रिश्ते उसकी जीवन बगिया में खिलते नजर आते हैं | ये रिश्ते उसने बनाये नहीं हैं पर सामाजिक रीति-रिवाज के कारण बन गये हैं…पति/पत्नी, बेटा/बेटी , सास/ससुर
वगैरा | कुछ रिश्ते उसके साथ ऐसे जुड़े जो एकबार तो उसके साथ
चलते दिखाई दिए पर बेनाम बन कहीं खो गये .
रिश्तों को तोड़ने की शुरुआत गलतफहमी के चलते ही
होती है |
ये गलतफहमी बहुत सी कडवाहट को अपने आप में समेटती जातीं हैं | जब एक लम्बा अरसा
हो जाता है तब इन रिश्तों में नफरत और क्रोध भी
कडवाहट बन आ मिलतें हैं , जिसके कारण रिश्ते कांच की
किरचों की तरह बिखरते नजर आते हैं |
सही बात तो ये है कि ये रिश्ते पतंग और डोर की
भांति हैं | ढील देने पर काफ़ी ऊंचाई पर पहुँते नजर आते हैं
और थोडा सा खीचते ही कटते..!! कटी पतंग न जाने किसके हाथ आई होगी पर आप के हाथों
से तो दूर हो ही गई | मतलब अब समज में आया कि उसे खीचना ही
गलती थी , शायद ढील
दी होती तो यों कटती नहीं | मैंने सुना है कि रिश्ते बनाने जितने
आसन हैं , उन्हें निभाना
उतना ही कठिन !! ये ही कारण है कि
आज तलाक के किस्से दिन -प्रतिदिन बढ़ते देखे जा रहे हैं | सयुंक्तपरिवार
टूटते जा रहे हैं | राखी के बंधन खोखले और औपचारिक होते जा
रहे हैं | झुलाघर और वृध्धाश्रम की संख्याएं रोज-ब-रोज बढ
रही हैं |
रिश्ते ऐसे रखें मधुर
रिश्तों में घोलिए प्यार
की मिठास और समझदारी फिर देखिए रिश्ते आप की मुट्ठी में कैसे समाते हैं और रिश्तों
को हैंडल करने की चाबी आप की कमर में.
रिश्ते बर्फ के गोले की
तरह होते हैं जिन्हें बनाना तो सरल है लेकिन बनाए रखना काफी कठिन होता है. रिश्तों
में मिठास और जीवंतता बनी रहे,
जिस तरह पेड़ पौधों की
निरंतर उचित देखभाल कर माली उन्हें जीवंत बनाए रखता है, कुछ उसी तरह इंसान रिश्तों को समय और समझदारी से मधुर बनाए रख सकता है.
दुनिया रिश्तों पर चल रही
है. खून के रिश्ते, दोस्ती के रिश्ते, सामाजिक रिश्ते और मानवता का नाता. इन 4 कैटेगरी में
सारे रिश्ते आ जाते हैं और इन्हीं के इर्दगिर्द हम जीवन गुजार लेते हैं. अमेरिकी
राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन ने कहा था,
‘‘अगर रिश्तेनाते निभाना आप की कमजोरी है तो आप इस दुनिया के
सब से मजबूत इंसान हैं.’’ उन की बात सच है क्योंकि हर रिश्ता
बनाने के बाद उसे निभाना पड़ता है वरना वह रिश्ता खत्म हो जाता है. भले ही खून के
रिश्ते हमें जन्म से मिल जाते हों लेकिन उन्हें बनाए रखने के लिए निभाना पड़ता है.
मतलब उस पर मेहनत करनी पड़ती है. मेहनत करने से आशय यह नहीं है कि किसी तरह की
खुशामद करनी पड़ती हो बल्कि रिश्तों को निभाने के लिए समय और समझदारी की जरूरत
होती है.
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