9/23/14

हिंदी साहित्य में सर्वश्रेष्ठ

हिंदी की 10 श्रेष्ठ कहानियाँ

1. उसने कहा था चंद्रधर शर्मा गुलेरी
'उसने कहा था' हिंदी की ऐसी कालजयी कहानी है जिसकी प्रासंगिकता और सार्वकालिकता इसके कथानक पर ही नहीं, इसकी भाषिक संरचनात्मक विशिष्टता पर भी आधारित है.
ऐसी 'हिंदी', जो आज के अकादमिक, सांस्थानिक और राजकीय-राजनीतिक प्रयासों से अपठनीय बना दी गई है और जो साधारण हिंदी भाषियों के लिए दुरुह और अजनबी हो चुकी है.वही साहित्यिक 'हिंदी' जो हिंदी के नाम पर शिक्षण संस्थानों में प्राइमरी से लेकर विश्वविद्यालयों तक लागू है और जिसमें लाखों हिंदी भाषी बच्चे परीक्षाओं में फ़ेल हो जाते हैं.उसी हिंदी के सामने 'उसने कहा था' की वो हिंदी जो आज भी इसलिए ताज़ा और समकालीन लगती है क्योंकि वो एक ओर तो जीवित-व्यावहारिक भाषा को रचना का आधार बनाती है और दूसरी ओर वो इस भाषा की व्यंजनाओं को विरल विलक्षण आँख से पकड़ती है.कोई भी पाठक, जैसे ही इस कहानी को पढ़ना शुरू करता है वो इसकी विवरणात्मकता और व्यंजना के जादू से बंध कर रह जाता है.
उदाहरण के लिए इस कहानी का पहला पैरा ही देखिए :
"यह बात नहीं कि उनकी जीभ चलती नहीं, पर मीठी छुरी की तरह महीन मार करती हुई. यदि कोई बुढ़िया बार-बार चितौनी देने पर भी लीक से नहीं हटती, तो उनकी बचनावली के ये नमूने हैं हट जा जीणे जोगिए; हट जा करमाँवालिए; हट जा पुत्ताँ प्यारिए; बच जा लंबीवालिए. समष्टि में इनके अर्थ हैं कि तू जीने योग्य है, तू भाग्योंवाली है, पुत्रों को प्यारी है, लंबी उमर तेरे सामने है, तू क्यों मेरे पहिए के नीचे आना चाहती है, बच जा."

2. हार की जीत सुदर्शन
यह किसी ऐसे फ़ेबल जैसी कहानी है जो हिंदी कहानी के इतिहास में हमेशा बनी रहेगी. इसे पढ़ते हुए आधुनिक-सभ्यता के उन पूर्व दार्शनिकों का कथन याद आता है : 'एवरीवन इज़ डिसीविंग दि अदर एंड एवरीवन इज़ डिसीव्ड बाय दि अदर.'.....हर कोई दूसरे को छल रहा है और हर कोई दूसरे के द्वारा छला गया है.
बाबा भारती और खड़ग सिंह की यह कहानी मनुष्य के भीतर छिपी अच्छाइयों के पुनरुद्धार और दूसरे मनुष्य पर विश्वास की अनश्वरता की अद्भुत लोकगाथात्मक कहानी है.यह इंसान के शरीर में दिल के धड़कने और उसके जीवित रहे आने की कहानी है.

 3. सद्गति प्रेमचंद
हिंदू धार्मिक समाज की जाति व्यवस्था पर यह कहानी एक गहरी मार्मिक आधुनिक टिप्पणी की तरह है, जो आज और अधिक प्रासंगिक हो उठी है.
'ठाकुर का कुआं', 'सवा सेर गेहूँ', 'मोटेराम का सत्याग्रह', जैसी प्रेमचंद की अनेक कहानियों में अंतर्भूत मानवीय संवेदना तथा जाति व्यवस्था के प्रति उनका दृष्टिकोण इस कहानी को कालजयी और आधुनिक बनाता है.

4. कफ़न प्रेमचंद
आर्थिक विषमता को किसी अमानुषिक वास्तविकता की त्रासदी में बदलते देखना आज की वंचना और अमीरी की खाइयों में बाँटने वाली राजनीति और समाज व्यवस्था पर यह कहानी एक कालजयी तमाचे की तरह है.
यह दुर्भाग्य ही था कि इस कहानी को दलित विमर्श के तहत पिछले वर्षों में विवादों में घेरा गया.
जब तक समाज में अमीरी और ग़रीबी यानी वैभव और वंचना की खाई रहेगी, 'कफ़न' किसी क्लासिक की तरह कालजयी रहेगी.

5. टोबा टेक सिंह सआदत हसन मंटो
भारत-पाकिस्तान के बंटवारे विभाजन पर अनेक कहानियां, उपन्यास, समाजशास्त्रीय-राजनीतिक विश्लेषण आदि लिखे गए, लेकिन सआदत हसन मंटो की कहानी – 'टोबा टेक सिंह' इस विभाजन के पीछे सक्रिय राजनीति और सांप्रदायिकता के उन्माद की अविस्मरणीय, सार्वभौमिक, कालजयी क्लासिक बन गई.
जब पाकिस्तान के पागल बिशन सिंह को उसके गांव टोबा टेक सिंह से निकाल कर हिंदुस्तान भेजा जाता है तब वह दोनों देशों की सरहद पर मर जाता है.उसके शरीर का आधा हिस्सा हिंदुस्तान और आधा पाकिस्तान की सीमा में आता है. मरने के पहले पागल बिशन सिंह की गाली, भारत और पाकिस्तान के लहूलुहान बंटवारे पर एक ऐसी टिप्पणी बन जाती है, जो अब विश्व कथा साहित्य में एक गहरी, मार्मिक, अविस्मरणीय मनुष्यता की चीख़ के रूप में हमेशा के लिए उपस्थित है :

6. तीसरी कसम उर्फ़ मारे गए गुलफ़ाम फणीश्वर नाथ रेणु
शहरी और देहाती भावनाओं और संवेदनाओं की विडंबनात्मक रोमैंटिक परिणति की यह कहानी अविस्मरणीय है.
आंचलिक भाषा के आधुनिक कथा-स्थापत्य में संयोजन और प्रयोग ने इस कहानी को विरल होने का दर्जा दिया है.

7. पक्षी और दीमक गजानन माधव मुक्तिबोध
यह कहानी पंचतंत्र या ईसप की सूत्र कथाओं की तरह है, लेकिन मौजूदा दौर में भोगवादी (हेडोनिस्ट या फिलिस्टिनिस्टिक कंज़्यूमरिज़्म) मानसिकता की वजह से अपनी स्वतंत्रता खोकर ग़ुलाम हो जाने की प्रवृत्ति पर यह एक स्मरणीय टिप्पणी है.
उनकी अन्य कहानियां भी अपनी अनगढ़ता के बावजूद महत्वपूर्ण हैं.

8. चीफ़ की दावत भीष्म साहनी
आधुनिक बनने का प्रदर्शन करते शहरी मध्यवर्गीय परिवार के करियरिज़्म पर एक तीखी टिप्पणी की तरह है यह एक और अविस्मरणीय कहानी.
पारिवारिक संबंधों के मार्मिक विघटन और बढ़ती संवेदनहीनता की यह कहानी चेखव की विख्यात कहानी 'एक क्लर्क की मौत' की तरह ही महत्वपूर्ण है.

9. गुल की बन्नो धर्मवीर भारती
साहित्यिक-राजनीतिक वजहों से उपेक्षित कर दी गई धर्मवीर भारती की यह कहानी अपनी कथावस्तु, विन्यास और विलक्षण विवरणात्मकता में प्रगतिशील परंपरा की अत्यंत महत्वपूर्ण यथार्थवादी कहानी है.

10. घंटा ज्ञानरंजन
ज्ञानरंजन ने अपनी 'घंटा' और 'बहिर्गमन' जैसी कहानियों के माध्यम से हिंदी कहानी लेखन को एक ऐसा नया गद्य दिया जिसकी मार और व्यंजना मध्यवर्गीय पात्रों के जीवन के तमाम विरोधाभासों को अभिव्यक्त करने का भाषिक हुनर कथाकारों को दिया.

नोटइस अत्यंत संक्षिप्त टिप्पणी में असंख्य अत्यंत महत्वपूर्ण कहानियाँ छूट गई हैं, जिनमें अज्ञेय की 'शरणदाता', 'विपथगा', और 'रोज़', निर्मल वर्मा की 'परिंदे', और 'कौए और कालापानी', अमरकांत की 'बू' और 'ज़िंदगी और जोंक', कृष्णा सोबती की 'यारों के यार' और 'मित्रो मरजानी', काशीनाथ सिंह की 'सुख' और अन्य कहानियां, विनोद कुमार शुक्ल की 'पाठशाला', हिंदी कहानी में अपनी अपूर्व जगह रखनेवाले विरल कथाकार रामनारायण शुक्ल की 'सहारा' और 'खलनायक', राजेंद्र यादव की 'टूटते खिलौने' और 'जहां लक्ष्मी क़ैद है', मन्नू भंडारी, कृष्ण बलदेव वैद, स्वयं प्रकाश, शेखर जोशी, ओम प्रकाश वाल्मीकि, देवेंद्र, शिवमूर्ति, बलराम, अमितेश्वर, व्रजेश्वर मदान, चंद्रकिशोर जायसवाल, जयनंदन, अवधेश प्रीत, प्रियंवद, सृंजय, सनत कुमार ..... सूची बहुत लंबी है.

मधुसूदन आनंद की 'करौंदे का पेड़', 'टिड्डा' और 'मिन्नी', संजय खाती की 'पिंटी का साबुन', पंकज बिष्ट की 'बच्चे गवाह नहीं हो सकते', भैरव प्रसाद गुप्त की 'मृत्यु' दैली अद्भुत कहानी.
इसके अलावा रघुवीर सहाय, कुँवर नारायण, श्रीकांत वर्मा ने भी भाषा, बनावट, कथावस्तु, जीवनानुभवों की इतनी अलग और अनमोल कहानियाँ लिखी हैं जिन्हें भुलाया नहीं जा सकता.


हिन्दी के पांच सदाबहार उपन्यास

गोरा
रवींद्रनाथ ठाकुर लिखित उपन्यास "गोरा" के एक सौ पांच साल हो गए हैं। साहित्य के लिए नोबल पुरुस्कार प्राप्त कविगुरू रवींद्र नाथ ठाकुर ने 1909 में इसे लिखा था। इकॉनामिक पॉलिटिकल वीकलीसाप्ताहिक के जुलाई 25-31,2009 के अंक में गोरा के सौ साल पूरा होने पर प्रकाशित इतिहासकार तनिका सरकार के लंबे निबंध रवींद्रनाथ्स गोरा ऐंड दि इंट्रेक्टिबल ऑफ इंडियन पैट्रियाटिज्ममें इसके दुनियाभर के प्रशंसकों के बीच इसके महत्व पर चर्चा की है।
रवींद्रनाथ के राष्ट्रवाद के संबंध में विचार सबको पता हैं। इस बारे में महात्मा गाँधी से उनके गहरे मतभेद थे। तनिका ने गोरा में व्यक्त उनकी दृष्टि का विस्तार से व्याख्या करते हुए उसे अपने समय में बहुत साहसिक कहा है। जाति,धर्म, वर्ण आदि से ऊपर उठकर जिस ढंग से उपन्यासकार ने देशभक्ति परिभाषित की है वह अप्रत्याशित थी। उपान्यासकार ने इसमें लिखा है कि भारत ऐतिहासिक रूप से सभी संस्कृतियों के प्रति खुला रहा है। इतनी सारी संस्कृतियों से चिन्हित कि वह ऐसी स्थिति में पहुंच गया कि किसी एक या विशेष संस्कृति से उसे चिन्हित नहीं किया जा सकता - कि उसे प्यार करना सारे संसार को प्यार करना है।
गोदान
गोदान, प्रेमचंद का अंतिम और सबसे महत्वपूर्ण उपन्यास माना जाता है। कुछ लोग इसे उनकी सर्वोत्तम कृति भी मानते हैं। इसका प्रकाशन 1936 में बंबई के एक प्रकाशक संस्था ने किया था। इसमें भारतीय ग्राम समाज एवं परिवेश का सजीव चित्रण है। गोदान ग्राम्य जीवन और कृषि संस्कृति का महाकाव्य है। इसमें प्रगतिवाद, गांधीवाद और मार्क्सवाद (साम्यवाद) का पूरी तरह से चित्रण किया गया है।
गोदान हिंदी के उपन्यास-साहित्य के विकास का सबसे बड़ा उदाहरण है। गोदान के नायक और नायिका होरी और धनिया के परिवार के रूप में हम भारत की एक विशेष संस्कृति को सजीव और साकार पाते हैं, ऐसी संस्कृति जो अब समाप्त हो रही है या हो जाने को है, फिर भी जिसमें भारत की मिट्टी की सोंधी सुवास भरी है। प्रेमचंद ने इसे अमर बना दिया है।
गुनाहों का देवता
गुनाहों का देवता भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा प्रकाशित मशहूर हिन्दी उपन्यासकार और पत्रकार धर्मवीर भारती के सर्वाधिक पढ़े जाने वाले उपन्यासों में से एक है। इसमें प्रेम के अव्यक्त और अलौकिक रूप का सर्वश्रेष्ठ चित्रण है। सजिल्द और पेपरबैक को मिलाकर इस उपन्यास के एक सौ से ज्यादा संस्करण छप चुके हैं। लेखक खुद इस उपन्यास के कितने नजदीक हैं, इसका अंदाजा उनके इस कथन से लगाया जा सकता है – ‘मेरे लिए इस उपन्यास का लिखना वैसा ही रहा है, जैसा पीड़ा के क्षणों में पूरी आस्था से प्रार्थना करना और इस समय भी मुझे ऐसा लग रहा है, जैसे मैं प्रार्थना मन ही मन दोहरा रहा हूं, बस...
मैला आंचल
मैला आंचल फणीश्वरनाथ रेणु का प्रतिनिधि  उपन्यास है। साल 1954 में प्रकाशित इस उपन्यास की कथावस्तु बिहार राज्य के पूर्णिया जिले के मेरीगंज की ग्रामीण जिंदगी से संबद्ध है। यह स्वतंत्र होते और उसके तुरंत बाद के भारत के राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक हालात का ग्रामीण संस्करण है। रेणु ने इसके बारे में खुद कहा है- इसमें फूल भी है, शूल भी है, धूल भी है, गुलाब भी है और कीचड़ भी है। मैं किसी से दामन बचाकर निकल नहीं पाया।इसमें गरीबी, रोग, भुखमरी, जहालत, धर्म की आड़ में हो रहे व्यभिचार, शोषण, बाह्याडंबरों, अंधविश्वासों आदि का चित्रण है।
शिल्प की दृष्टि से इसमें फिल्म की तरह घटनाएं एक के बाद एक घटकर विलीन हो जाती है और दूसरी प्रारंभ हो जाती है। इसमें घटना प्रधानता है किंतु कोई केन्द्रीय चरित्र या कथा नहीं है। इसमें नाटकीयता और किस्सागोई शैली का प्रयोग किया गया है। मैला आंचल को हिन्दी में आंचलिक उपन्यासों की शुरुआत का श्रेय भी प्राप्त है।
राग दरबारी
राग दरबारी मशहूर लेखक और प्रशासनिक अधिकारी रहे श्रीलाल शुक्ल की प्रसिद्ध व्यंग्य रचना है। 1968 में प्रकाशित इस उपन्यास के लिये उन्हें सन् 1970 में साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया। राग दरबारी में श्रीलाल शुक्ल ने स्वतंत्रता के बाद के भारत के ग्रामीण जीवन की मूल्यहीनता को परत- दर- परत उघाड़ कर रख दिया है। इसकी कथा का केंद्र यूपी के एक बड़े शहर से कुछ दूर बसे गांव शिवपालगंज की है। शिवपालगंज की जिन्दगी प्रगति और विकास के तमाम नारों के बावजूद, निहित स्वार्थों और अनेक अवांछनीय तत्वों के मनमाने रवैये के सामने घिसट रही है। शिवपालगंज की पंचायत, कॉलेज की प्रबन्ध समिति और कोऑपरेटिव सोसायटी के सूत्रधार वैद्यजी उस राजनीतिक संस्कृति के प्रतिनिधि हैं जो प्रजातंत्र और लोकहित के नाम पर हमारे चारों ओर फल फूल रही हैं।


हिंदी के 10 सदाबहार नाटक


1. अंधेर नगरी भारतेंदु हरिश्चंद्र
भारतेंदु हरिश्चंद्र ने अंधेर नगरी, भारत दुर्दशा, नीलदेवी, वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति जैसी रचनाएं कीं.सन् 1881 में मात्र एक रात में लिखा गया नाटक आज भी उतना ही सामयिक और समकालीन है.
बाल रंगमंच हो अथवा वयस्क रंगमंच यह नाटक सभी तरह के दर्शकों में लोकप्रिय है. एक भ्रष्ट व्यवस्था और उसमें फंसाया जाता एक निरीह क्या आज भी इस स्थिति में कोई परिवर्तन आया है? ये नाटक हिंदी रंगमंच में सबसे ज़्यादा मंचित नाटकों में से एक है.

2. ध्रुवस्वामिनी जयशंकर प्रसाद
भले ही जयशंकर प्रसाद के नाटकों को मंच के अनुकूल न माना गया हो लेकिन ध्रुवस्वामिनीहमेशा से रंगकर्मियों के बीच चर्चा का विषय रहा है.
मात्र नाट्य मंडलियों के साथ ही नहीं, स्कूलों कॉलेजों के छात्र-छात्राओं के बीच भी इस नाटक का ख़ूब मंचन हुआ है. इस नाटक की सबसे बड़ी बात है उसका कथ्य यदि पति नपुंसक है तो उसे नकारने की पहल स्त्री की तरफ़ से होती है और इसमें धर्म और शास्त्र भी उसका समर्थन करते हैं. जयशंकर प्रसाद ने ध्रुवस्वामिनी, स्कंदगुप्त, चंद्रगुप्त जैसे प्रसिद्ध नाटक लिखे.

3. अंधा युग धर्मवीर भारती
महाभारत की कथा के बहाने से द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद के विनाश, अनास्था और टूटते मूल्यों की महागाथा.
यहां तक कि ईश्वर की मृत्यु की घोषणा. एक काव्य नाटक होने के बावजूद अंधा युगरंगमंच पर सबसे ज़्यादा प्रस्तुत होनेवाली कृति है.

4. आषाढ़ का एक दिन मोहन राकेश
कलाकार अथवा रचनाकार के सामने सृजन या सत्ता में से किसी एक को चुनने का प्रश्न और फिर उसकी परिणति यह एक ऐसा कथ्य था जिसने सभी रंगकर्मियों को झकझोर कर रख दिया.
शायद ही कोई निर्देशक या कोई रंगमंडली होगी जिसने इस नाटक को न खेला हो. यथार्थवाद का भारतीय स्वरूप क्या होना चाहिए, ‘आषाढ़ का एक दिनउसका सबसे अच्छा उदाहरण है. मोहन राकेश ने आषाढ़ का एक दिन और आधे अधूरे जैसे मशहूर नाटक लिखे.

5. बकरी सर्वेश्वर दयाल सक्सेना
सातवें दशक में रंगमंच में लोकतत्वों को लेकर लिखे गए नाटकों में से सबसे सफल और चर्चित नाटक रहा बकरी’.
इस नाटक में नौटंकी लोक नाट्य शैली के गीत-संगीत के माध्यम से एक आधुनिक कथ्य की प्रस्तुति की गई है कि नेता लोग किस तरह जनता को अपनी स्वार्थपूर्ति का साधन बनाते हैं.सर्वेश्वर जी का ये नाटक रंगकर्मियों और दर्शकों में समान रूप से लोकप्रिय है.

6. एक और द्रोणाचार्य शंकर शेष
आधुनिक शिक्षा पद्धति पर एकलव्य और द्रोणाचार्य की कथा के माध्यम से गहरा प्रहार किया गया है.
इस नाटक में दो समानांतर प्रसंग एक साथ चलते हैं. एक प्रसंग महाभारत का है तो दूसरा आज के एक प्राध्यापक और उनके परिवार का प्रसंग. एक और द्रोणाचार्यहमारे अपने रोज़मर्रा के सरोकारों से जुड़ा एक सशक्त नाटक है.

7. कबीरा खड़ा बाज़ार में भीष्म साहनी
कबीर की ज़िन्दगी, कबीर की कविता और उससे भी ज़्यादा एक कलाकार, महात्मा और तत्कालीन व्यवस्था के बीच टकराव का चित्र है ये नाटक.
आज के सांप्रदायिक दंगों और तनावों के बीच और भी सामयिक है ये नाटक.

8. महाभोज मन्नू भंडारी
भले ही पहले यह रचना एक उपन्यास के रूप में की गई लेकिन बाद में एक नाटक के रूप में बेहद चर्चित और मंचित हुई.

इसकी वजह वही है कि नेता लोग किस तरह चुनाव जितने के लिए कथित रूप से निरीह लोगों की हत्या को भी हथियार बना लेते हैं. यह एक ऐसा कथ्य है जिसे हर आम आदमी ने भुगता और झेला है.

9. कोर्ट मार्शल स्वदेश दीपक
हिंदी रंगमंच में दलित पात्र को केंद्र में रखकर लिखा गया बहुत सशक्त नाटक है ये.
मुक़दमे की कार्यवाही नाटक के शिल्प और संरचना को नाटकीय तनाव से भर देती है. नतीजा यह कि दर्शक बंधे से बैठे देखते रहते हैं.

10. जिस लाहौर नई देख्या असग़र वज़ाहत
1947 के भारत विभाजन की पृष्ठभूमि पर लिखा गया ये पहला नाटक है.
कहानियों और उपन्यासों में भले ही यह कथ्य बार-बार आता रहा हो, लेकिन नाटक में अपनी आँखों के सामने देखने वाले दर्शकों को बेहद जकड़ लेता है इसका कथानक.


10 श्रेष्ठ कविताएं

1. अंधेरे में गजानन माधव मुक्तिबोध
आधुनिक हिंदी कविता में सन् 2013 एक ख़ास अहमियत रखता है क्योंकि इस वर्ष गजानन माधव मुक्तिबोध की लंबी कविता अंधेरे मेंकी अर्धशती शुरू हो रही है. सन् 1962-63 में लिखी गई और नवंबर 1964 की कल्पनापत्रिका में प्रकाशित यह कविता इन 50 वर्षों में लगातार प्रासंगिक होती गई है और आज एक बड़ा काव्यात्मक दस्तावेज़ बन चुकी है.
समय बीतने के साथ वह अतीत की ओर नहीं गई, बल्कि भविष्य की ओर बढ़ती रही है. आठ खंडों में विभाजित इस कविता के विशाल कैनवस पर स्वाधीनता संघर्ष, उसके बाद देश की राजनीति और समाज और बुद्धिजीवी वर्ग में आई नैतिक गिरावट के बीहड़ बिंब हैं और यथास्थिति में परिवर्तन की गहरी तड़प है.
उसमें चित्रित शक्तिशाली वर्गों और बौद्धिक क्रीतदासों की शोभा-यात्रा का रूपक आज भी सच होता दिखता है. हिंदी के एक और अद्वितीय कवि शमशेर बहादुर सिंह ने लिखा था कि यह कविता देश के आधुनिक जन-इतिहास का, स्वतंत्रता के पूर्व और पश्चात् का एक दहकता दस्तावेज़ है. इसमें अजब और अद्भुत रूप का जन का एकीकरण है.

2. मेरा नया बचपन सुभद्रा कुमारी चौहान
कई वर्ष पहले लिखी गई सुभद्रा कुमारी चौहान की कविता मेरा नया बचपनअपनी मार्मिकता और निश्छलता के लिए अविस्मरणीय है. यह कविता काफ़ी समय तक स्कूली पाठ्यक्रम में लगी रही और पुरानी पीढ़ी के बहुत से लोगों को आज भी कंठस्थ होगी.
खूब लड़ी मरदानी वह तो झांसी वाली रानी थीजैसी ओजस्वी कविता लिखनेवाली सुभद्रा जी इस कविता में अनूठी कोमलता निर्मित करती हैं. अपने बीते हुए बचपन को याद करते हुए वो सहसा अपनी नन्ही बेटी को सामने पाती हैं और देखती हैं कि उनका बचपन एक नए रूप में लौट आया है.
एक बचपन की स्मृति और दूसरे बचपन के वर्तमान के संयोग से एक विलक्षण कविता उपजती है जो सरल और ग़ैर-संश्लिष्ट होने के बावजूद मर्म को छू जाती है. सीधे हृदय से निकली हुई ऐसी रचनाओं को भूलना कठिन है.

3. सरोज स्मृति निराला
निराला की लंबी कविता सरोज स्मृतिभी ऐसी ही रचना है जो अपने समय को लांघ कर आज भी समकालीन है. विश्व कविता में शोकगीत (एलेजी) को बहुत अहमियत दी जाती है और इस कसौटी पर निराला की यह कविता विश्व के सर्वश्रेष्ठ शोकगीतों में रखी जा सकती है.

इस कविता में निराला अपनी बेटी सरोज के बचपन के खलों, फिर विवाह और असमय मृत्यु की विडंबना-भरी कहानी कहते हैं, जाति व्यवस्था और ब्राह्मणवाद पर तीखी चोट करते हैं और एक असहाय पिता के रूप में खुद को धिक्कार भेजते हैं:
धन्ये, मैं पिता निरर्थक था/ तेरे हित कुछ कर न सका
सरोज स्मृतिसंवेदना को विकल कर देने वाली कविता है और दो स्तरों पर पाठक के भीतर अपनी छाप छोड़ती है: पहले करुणा और ग्लानि के स्तर पर और फिर घटना के ब्यौरों और कथा कहने के स्तर पर. राम की शक्तिपूजाजैसी महाकाव्यात्मक विस्तार की रचना को निराला की प्रतिनिधि कविता माना जाता है, लेकिन सरोज स्मृतिका महत्व यह भी है कि उसमें निराला अपने क्लासिकी सांचे को तोड़कर कविता को कथा के संसार में ले आते हैं.सूर्यकांत त्रिपाठी 'निरालाने 'राम की शक्ति पूजा', 'कुकुरमुत्ता', 'सरोज स्मृतिजैसी महत्वपूर्ण काव्य रचनाएं कीं.

4. टूटी हुई बिखरी हुई शमशेर बहादुर सिंह
 सरोज स्मृतिकी करुणा के बाद शमशेर बहादुर सिंह की टूटी हुई बिखरी हुईमें प्रेम की करुणा दिखाई देती है, जो अपने विलक्षण बिंबों, अति-यथार्थवादी दृश्यों के कारण चर्चित हुई. यह प्रेम का प्रकाश-स्तंभ है. एक प्रेमी का विमर्श, उसका आत्मालाप और ख़ुद को मिटा देने की उत्कट इच्छा.
इस कविता में अंतर्निहित संगीत पाठक के भीतर एक उदास और खफीफ अनुगूंज छोड़ता रहता है. इस अनुगूंज को रघुवीर सहाय जैसे कवि ने अपनी एक टिप्पणी में सुंदर ढंग से व्याख्यायित किया था. कविता में प्रेम के बारे में जब भी कोई ज़िक्र होगा, ‘टूटी हुई बिखरी हुईउसमें ज़रूर नज़र आएगी.

5. कलगी बाजरे की अज्ञेय
खड़ी बोली की कविता का इतिहास अभी सौ वर्ष का भी नहीं है, लेकिन उसमें विभिन्न आंदोलनों के पड़ाव काफ़ी महत्वपूर्ण हैं. ऐसा ही एक प्रस्थान-बिंदु प्रयोगवाद या नयी कविता है, जिसकी घोषणा अज्ञेय की कविता कलगी बाजरे कीबखूबी करती है.
पुराने प्रतीकों-उपमानों को विदा करने और प्रेमिका के लिए ललाती सांझ के नभ की अकेली तारिकाकी बजाय दोलती कलगी छरहरे बाजरे कीजैसा आधुनिक संबोधन देने के कारण इस कविता की काफी चर्चा हुई.कविता में छायावादी बिंबों से मुक्ति और नयी कल्पना को अभिव्यक्ति देनेवाली यह कविता ऐतिहासिक रूप से महत्वपूर्ण है.
6. अकाल और उसके बाद नागार्जुन
दोहा-छंद में लिखी जनकवि नागार्जुन की कविता अकाल और उसके बादअपने स्वभाव के अनुरूप नाविक के तीर की तरह है दिखने में जितनी छोटी, अर्थ में उतनी ही सघन.
नागार्जुन भारतीय ग्राम जीवन के सबसे बड़े चितेरे हैं और अकाल और उसके बादमें घर में रोते चूल्हे, उदास चक्की और अनाज के आने के चित्र हमारी सामुहिक स्मृति में हमेशा के लिए अंकित हो चुके हैं.

 इस कविता को हम जब भी पढ़ते हैं, वह हमेशा ताज़ा लगती है. इस कविता की अंतर्निहित गतिमयता है जो उसे नया और प्रासंगिक बनाए रखती है. आधुनिक हिंदी कविता में सबसे लोकप्रिय पंक्तियां खोजी जाएं तो यही कविता सबसे पहले याद आएगी.

7. चंपा काले काले अच्छर नहीं चीन्हती त्रिलोचन
प्रगतिशील परंपरा के एक और प्रमुख कवि त्रिलोचन की कविता चंपा काले काले अच्छर नहीं चीन्हतीभी एक अविस्मरणीय कविता है जिसकी कथा और संवेदना की कोमलता दोनों अभिभूत करती हैं. यह एक छोटी बच्ची चंपा और कवि का संवाद है.
कवि उसे अक्षर-ज्ञान के लिए प्रेरित करता है ताकि बड़ी होकर वह अपने परदेस गए पति को चिट्ठी लिख सके. लेकिन चंपा नाराज़ होती है और कहती है कि वह अपने पति को कभी परदेस यानी कलकत्ता नहीं जाने देगी और यह कि कलकत्ते पर बजर गिरे’.
एक मार्मिक प्रसंग के माध्यम से इस कविता में खाने-कमाने की खोज में विस्थापन की विडंबना झलक उठती है और चंपा का इनकार स्त्री-चेतना के एक मज़बूत स्वर की तरह सुनाई देता है. कवि और चंपा का संवाद बचपन की मासूमियत लिए हुए है और कविता के परिवेश में लोक संवेदना घुली हुई दिखाई देती है.

8. रामदास रघुवीर सहाय
नागार्जुन ने युगधारा, सतरंगे पंखोंवाली, प्यासी पथराई आंखें, तालाब की मछलियां जैसी कविताएं लिखीं.
रघुवीर सहाय की कविता रामदासतक आते-आते दुनिया बहुत कठोर और स्याह हो जाती है. नागरिक जीवन के अप्रतिम कवि रघुवीर सहाय की यह कविता शहरी मध्यमवर्गीय जीवन में आती निर्ममता, संवेदनहीनता और चतुराई की चीरफाड़ करती है.

उसमें एक असहाय व्यक्ति की यंत्रणा है जिसे सब देखते-सुनते हैं, लेकिन उसे बचाने के लिए कोई नहीं आता. दुर्बल लोगों पर होनेवाले अत्याचारों पर रघुवीर सहाय की बहुत सी कविताएं हैं, लेकिन रामदासहादसे की ख़बर को जिस वस्तुपरक और बेलौस ढंस से देती है, वह बेजोड़ है. छंद में लिखी होने के कारण यह और भी धारदार बन गई है. 'रामदास' रघुवीर सहाय की प्रमुख रचना है जिसमें शहरी मध्यवर्ग की सच्चाई नज़र आती है.धूमिल की यह कविता हमारे लोकतंत्र की एक गहरी आलोचना हैइसलिए वह उनकी दूसरी बहुचर्चित कविता मोचीराम’ की अपेक्षा अधिक महत्वपूर्ण हो जाती है.

9. बीस साल बाद धूमिल
धूमिल की कविता बीस साल बाददेश की आज़ादी के बीस वर्ष बीतने पर लिखी गई थी, लेकिन आज 66 वर्ष बाद भी वह पुरानी नहीं लगती तो इसकी वजह यह है कि
सड़कों पर बिखरे जूतों की भाषा में
एक दुर्घटना लिखी गई है
जैसी उसकी पंक्तियां आज और भी सच हैं और यह सवाल आज भी सार्थक है कि
क्या आज़ादी सिर्फ़ तीन धके हुए रंगों का नाम है
जिन्हें एक पहिया ढोता है?’



10 मुक्तिप्रसंग राजकमल चौधरी
राजकमल चौधरी की लंबी कविता मुक्तिप्रसंगन सिर्फ़ इस अराजक कवि की उपलब्धि मानी जाती है, बल्कि लंबी कविताओं में भी एक विशिष्ट जगह रखती है. वह भी हमारी लोकतांत्रिक पद्धतियों की दास्तान कहती है जो जन-साधारण को पेट के बल झुका देती हैं.
यह मनुष्य को धीरे-धीरे अपाहिज, नपुंसक, राजभक्त, देशप्रेमी आदि बनाने वाली व्यवस्था के विरुद्ध एक अकेले व्यक्ति के एकालाप और चीत्कार की तरह है जिसे शारीरिक इच्छाओं के बीच एक यातनापूर्ण यात्रा के अंत में यह महसूस होता है कि मनुष्य की मुक्ति दैहिकता से बाहर निकलकर ही संभव है. मुक्तिप्रसंगका शिल्प अपने रेटरिक और आवेश के कारण भी पाठकों को आकर्षित करता है.
ये ऐसी रचनाएं हैं जो हिंदी कविता की लगभग एक सदी के इस सिरे से देखने पर सहज ही याद आती हैं और यह भी याद आता है कि इनके रचनाकार अब इस संसार में नहीं हैं. लेकिन उनके बाहर और अगली पीढ़ियों के भी अनेक कवि हैं, जिनकी रचनाएं अपने कथ्य और शिल्प में विलक्षण हैं.

केदारनाथ अग्रवाल, विजयदेव नारायण साही, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना, श्रीकांत वर्मा, कुंवर नारायण और केदारनाथ सिंह की कई कविताएं, विष्णु खरे की लालटेन जलानाऔर अपने आप’, लीलाधर जगूड़ी की अंतर्देशीयऔर बलदेव खटिक’, चंद्रकांत देवताले की औरत’, विनोद कुमार शुक्ल की दूर से अपना घर देखना चाहिएऔर हताशा से एक व्यक्ति बैठ गया था’, ऋतुराज की एक बूढ़ा आदमी’, आलोक धन्वा की जनता का आदमीऔर सफ़ेद रातऔर असद ज़ैदी की बहनेंऔर समान की तलाशजैसी अनेक कविताएं अनुभव के विभिन्न आयामों को मार्मिक ढंग से व्यक्त करने के कारण याद रहती हैं और समय बीतने के साथ वे हिंदी की सामूहिक स्मृति में बस जाएंगी.


हिंदी के 10 श्रेष्ठ यात्रा संस्मरण

1. यात्रा का आनंदः दत्तात्रेय बालकृष्ण 'काका' कालेलकर
काका कालेलकर शुरू में गुजराती में लिखते थे. उनकी 'हिमालय यात्रा' अनुदित होकर हिंदी में छपी थी. बाद में वो हिंदी में ही लिखने लगे.
उन्हें यात्राओं में बहुत आनंद आता था. देश और विदेश में अनेक प्रवास उन्होंने लिपिबद्ध किए. भारतीय सांस्कृतिक संबंध परिषद के उपाध्यक्ष होने पर सुदूर विदेश यात्राओं का सुयोग भी मिला.
उनका कोई साढ़े तीन सौ पृष्ठों का संकलन 'यात्रा का आनंद' बहुत महत्त्वपूर्ण कृति है. वह बिहार राष्ट्रभाषा परिषद से छपी थी.
संकलित यात्रा-वृत्तांत विभिन्न रूपों में हैं - संस्मरण की शैली में, लेख रूप में, पत्रों की शक्ल में.
करसियांग, नीलगिरि, अजंता, सतपुड़ा, गंगोत्री आदि की भारतीय यात्राओं के साथ अफ्रीका, यूरोप, उत्तरी और दक्षिणी अमरीका आदि की कोई सौ यात्राओं का ब्योरा हमें इस पुस्तक में मिलता है - जमैका, त्रिनिदाद और (ब्रिटिश) गयाना तक का.
लेखक की जिज्ञासु वृत्ति इन संस्मरणों की विशेषता है और जानकारी साझा करने की ललक भी. विदेश में अक्सर वो बाहर की प्रगति के बरअक्स भारतीय संस्कृति की निरंतरता को याद करते हैं.

2. किन्नर देश में: राहुल सांकृत्यायन
महापंडित राहुल सांकृत्यायन हिंदी में 'घुमक्कड़-शास्त्र' के प्रणेता थे. वो जीवन-भर भ्रमणशील रहे.
ज्ञान के अर्जन में उन्होंने सुदूर अंचलों की यात्राएं कीं. उन पर अनेक किताबें लिखीं.
'किन्नर देश में' हिमाचल प्रदेश में तिब्बत सीमा पर सतलुज नदी की उपत्यका में बसे सुरम्य इलाक़े किन्नौर की यात्रा-कथा है.
यह यात्रा उन्होंने साल 1948 में की थी. मूल शब्द 'किन्नर' है, इसलिए राहुलजी सर्वत्र इसी नाम का प्रयोग करते हैं.
कभी बस और घोड़े के सहारे और कभी कई दफ़ा पैदल भी की गई यात्रा का वर्णन करते हुए राहुलजी क्षेत्र के इतिहास, भूगोल, वनस्पति, लोक-संस्कृति आदि अनेक पहलुओं की जानकारी जुटाते हैं.
किताब का सबसे दिलचस्प पहलू वह है जहां वे अपने जैसे घुमक्कड़ों की खोज कर उनका संक्षिप्त जीवन-चरित भी लिखते हैं.
उन्हें एक ऐसा यात्री मिला जो पांच बार कैलाश-मानसरोवर हो आया था. उसने सैकड़ों यात्राएं कीं और डाकुओं ही नहीं, मौत से दो-चार हुआ और बच आया.
पुस्तक का अंतिम हिस्सा सूचनाओं से भरा है, जहां वो किन्नौर के अतीत, लोक-काव्य और उसका हिंदी अनुवाद, किन्नर भाषा का व्याकरण और शब्दावली समझाते हैं.

3. अरे यायावर रहेगा यादः सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन 'अज्ञेय'
हिंदी साहित्य में रचनात्मक यात्रा-वृत्तांत की लीक डालने वाली कृति अब कमोबेश क्लासिक का स्थान पा चुकी है.
अज्ञेय की एक कविता ('दूर्वाचल') की पंक्ति इस यात्रा-वृत्तांत का नाम बनकर अपने आप में एक मुहावरा-सा बन चुकी है और 'यायावर' नाम लगभग 'अज्ञेय' का पर्याय.
दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान जापान के भारत पर हमले की आशंका में फ़ैज़ अहमद फ़ैज़, मुश्ताक़ अली आदि की तरह अज्ञेय भी देश-रक्षा में मित्र (अलाइड) देशों की फ़ौज में शामिल हो गए थे.
युद्ध ख़त्म होने पर लौट आए. फ़ौजी जीवन से आम जीवन में वापसी तक अज्ञेय ने अनेक भारतीय स्थलों की जो यात्राएं कीं, वे इस किताब में लिपिबद्ध हैं.
पूर्वोत्तर के जिन क़स्बों, जंगलों, माझुली जैसे द्वीप के बारे में उत्तर भारत का निवासी जहां आज भी बहुत नहीं जानता, अज्ञेय ने चालीस के दशक में उन्हें फ़ौजी ट्रक हांकते हुए नापा.
असम से बंगाल, उत्तर प्रदेश, दिल्ली, पंजाब, तक्षशिला (अब पाकिस्तान में), एबटाबाद (जहां हाल में ओसामा बिन लादेन को मारा गया था), हसन अब्दाल, नौशेरा, पेशावर और अंत में खैबर - यानी भारत की एक सीमा से दूसरी सीमा की यात्रा; उसमें तरह-तरह के अनुभव, दृश्य, लोग और हादसे.
इस यात्रा के अलावा कुल्लू-रोहतांग जोत की यात्रा भी इस कृति में है, जब लेखक ने मौत को क़रीब से देखा.
उस संस्मरण का नाम ही है, 'मौत की घाटी में'. अब रोहतांग न मौत की घाटी रहा, न यात्रा उतनी दुगर्म. 'एलुरा' और 'कन्याकुमारी से नंदा देवी' वृत्तांत भी कृति में बहुत दिलचस्प हैं.
दक्षिण के बारे में भी उस ज़माने में यह यात्रा-वृत्तांत हिंदी पाठक समाज के लिए जानकारी की परतें खोलने वाला साबित हुआ था.

4. ऋणजल धनजलः फ़णीश्वरनाथ रेणु
यात्राएं केवल तफ़रीह के लिए नहीं होतीं. 'मैला आंचल' और 'परती परिकथा' जैसी ज़मीनी कृतियों के रचयिता रेणु ने दो संस्मरण लिखे, जो इस विधा को नई भंगिमा देते हैं.
दोनों में उनके अपने बिहार की जानी-पहचानी जगहों की यात्रा है, लेकिन नितांत भयावह दिनों की.
साल1966 में दक्षिणी बिहार में पड़े सूखे के वक्त उस क्षेत्र की यात्रा उन्होंने दिनमान-संपादक और कवि-कथाकार 'अज्ञेय' के साथ की.
बाद में साल 1975 में पटना और आसपास के क्षेत्र में बाढ़ की लीला को उन्होंने क़रीब से देखा. दोनों जगह उनके साथ उनकी नज़र विपरीत परिस्थितियों में भी मानवीय करुणा को चीन्हती है.
बाढ़ का इलाक़ा हो या सूखा क्षेत्र, उनका वर्णन हर जगह संवेदनशील कथाकार का रहता है. गंभीर पर्यवेक्षण, जो उनकी चिर-परिचित ठिठोली को भी उन हालात में भूलने नहीं देता.

संस्मरणों में पीड़ित तो आते ही हैं फ़ौजी, राहतकर्मी, पत्रकार, मित्र, पत्नी लतिकाजी की उपस्थिति उनको और जीवंत बनाती है. और तो और राहत सामग्री गिराता हेलिकॉप्टर भी जैसे कथा का एक चरित्र बनकर उपस्थित होता है.

5. आख़िरी चट्टान तकः मोहन राकेश
गोवा से कन्याकुमारी तक की यह यात्रा कथाकार और नाटककार मोहन राकेश ने सन् 1952-53 में की थी कोई तीन महीने में.किताब उन्होंने रास्ते के दोस्तोंको समर्पित की, साथ में यह जोड़ते हुएः "पश्चिमी समुद्र-तट के साथ-साथ एक यात्रा".देश के दक्षिण और समुद्र क्षेत्र की मोहन राकेश की यह पहली यात्रा थी.
जैसा कि रेल का ब्योरा लिखने से पहले वे चार पन्नों में कुछ पूर्व-पीठिका-सी बनाते हुए कहते हैं: "एक घने शहर (अमृतसर) की तंग गली में पैदा हुए व्यक्ति के लिए उस विस्तार के प्रति ऐसी आत्मीयता का अनुभव होने का आधार क्या हो सकता था?
केवल विपरीत का आकर्षण?" नए संसार को जानने की यह ललक उन्हें मालाबार की लाल ज़मीन, घनी हरियाली और नारियल वृक्षों से लेकर कन्याकुमारी की चट्टान तक लिए जाती है.
बीच-बीच में अनेक दिलचस्प हमसफ़र चरित्रों से दो-चार करते हुए. इस यात्रा-वृत्तांत को हम एक कहानी की तरह पढ़ सकते हैं.

6. चीड़ों पर चांदनीः निर्मल वर्मा
हिंदी लेखकों को तब विदेश यात्राओं का बहुत सुयोग नहीं मिलता था. अज्ञेय के बाद निर्मल वर्मा इस मामले में बहुत भाग्यशाली रहे.अज्ञेय ने जैसे विदेश यात्राओं के संस्मरण 'एक बूंद सहसा उछली' में लिखे, निर्मल वर्मा 'चीड़ों पर चांदनी' के साथ इस विधा में सामने आए.हालांकि इस पुस्तक में एक संस्मरण उनके जन्मस्थल शिमला पर भी है. पहले-पहल यह कृति साल 1962 में छपी थी.
विदेश यात्रा निर्मल वर्मा के लिए महज़ पर्यटकों की सैर नहीं रही. वे जर्मनी जाते हैं तो नाटककार ब्रेख्त उनके साथ चलते दिखाई देते हैं.
कोपनहेगन में दूसरे यूरोपीय देशों की मौजूदगी भी साथ रहती है. सबसे महत्त्वपूर्ण दो यात्रा-संस्मरण आइसलैंड के हैं.
आइसलैंड की हिमनदियों (ग्लेशियर) और क्षेत्र की साहित्यिक संस्कृति का आंखों देखा वर्णन हिंदी में इससे पहले शायद ही देखने में आया हो.

इन संस्मरणों के कई साल बाद निर्मलजी ने 'सुलगती टहनी' (कुंभ यात्रा) और डायरी की शक्ल में अनेक दूसरे यात्रा-संस्मरण भी लिखे. पर 'चीड़ों पर चांदनी' इस विधा में उनकी अनूठी कृति के रूप में हमेशा पहचानी जाती रही है.

7. स्पीति में बारिशः कृष्णनाथ
कृष्णनाथ अर्थशास्त्र के शिक्षक रहे और बौद्ध धर्म के अध्येता. मगर उनकी यायावर-वृत्ति उन्हें बार-बार हिमालय ले जाती रही है.
बौद्ध धर्म का अन्वेषण ही नहीं, हिमालयी अंचल के लोक-जीवन को उन्होंने बहुत आत्मीय और सरस ढंग से अपने अनेक संस्मरणों में लिखा है.
साल 1974 की यात्रा को कवि कमलेश साल 1982 में यात्रा-त्रयी के रूप में प्रकाश में लाए थे. श्रृंखला में सबसे पहली कृति थी- 'स्पीति में बारिश'. फिर 'किन्नर धर्मलोक' और 'लद्दाख़ में राग-विराग' छपी.
कुछ वर्ष बाद कुमाऊं क्षेत्र पर भी उनकी ऐसी ही तीन किताबों का सिलसिला देखने में आया. लाहौल-स्पीति, रोटांग (रोहतांग) जोत के पार हिमाचल प्रदेश का सीमांत क्षेत्र है. लोक-जीवन तो हर जगह अपना होता ही है, पर इस क्षेत्र के पहाड़ और घाटियां बाक़ी हिमालय से बहुत जुदा हैं.
कहते हैं, स्पीति में कभी बारिश नहीं होती. उस दुनिया में कृष्णनाथ बारिश ढूंढते हैं और पाते हैं, स्नेह की, ज्ञान की, परंपरा और संस्कृति की, मानवीय रिश्तों की बारिश.
कृष्णनाथ का गद्य अप्रतिम है. सरस और लयपूर्ण. छोटे-छोटे वाक्यों में वे अपने देखे को हमसे बांटते नहीं, हम पर अपने गद्य का जैसे जादू चलाते हैं. चंद पंक्तियां देखिएः
"विपाशा को देखता रहा. सुनता रहा. फिर जैसे सब देखना-सुनना सुन्न हो गया. भीतर-बाहर सिर्फ हिमवान, वेगवान, प्रवाह रह गया. न नाम, न रूप, न गंध, न स्पर्श, न रस, न शब्द. सिर्फ सुन्न. प्रवाह, अंदर-बाहर प्रवाह. यह विपाशा क्या अपने प्रवाह के लिए है? क्या इसीलिए गंगा, यमुना, सरस्वती, सोन, नर्मदा, वितस्ता, चंद्रभागा, गोदावरी, कृष्णा, कावेरी की तरह विपाशा महानद है? पुण्यतमा है? क्या शीतल, नित्य गतिशील सिलसिले में ही ये पाश कटते हैं? विपाश होते हैं?"

8. यूरोप के स्केच: रामकुमार
रामकुमार की ख्याति एक चित्रकार के रूप में अंतरराष्ट्रीय है, लेकिन हिंदी में कथाकार के रूप में उनकी अपनी प्रतिष्ठा है.
साल 1950-51 में वे पेरिस के आर्ट स्कूल में रहे. उस वक़्त मौक़े-बेमौक़े वे यूरोप के देशों की सैर को निकलते रहे.
"नए-नए शहर, नई-नई भाषाएं, नए-नए लोग... और मैं अकेला निरुद्देश्य यात्री की भांति सुबह से शाम तक सड़कों, गलियों, कैफ़ों और कला-संग्रहालयों के चक्कर लगाया करता."
साल 1955 में वे फिर यूरोप गए. दोनों प्रवासों के कोई बीस यात्रा-संस्मरण इस पुस्तक में संकलित हैं.
 पेशे से चित्रकार राम कुमार ने 1950-51 में अपनी यूरोप यात्रा के संस्मरण इस किताब में लिखे हैं. फोटो साभार: हिंदी बुक सेंटर, दिल्ली
क़ाहिरा की एक शाम, रोमा रोलां के घर में, फूचिक के देश में, टॉल्सटाय के घर में, दांते और माइकल एंजेलो का देश हर तरह से विशिष्ट यात्रा-वृत्तांत हैं.
कथाकार होने के बावजूद रामकुमार संस्मरण लिखते वक़्त तटस्थ रहते हैं और जानकारी और अनुभवों को किसी निबंध की तरह हमसे बांटते हैं. किताब में उनके बनाए रेखाचित्र पाठक के लिए एक अतिरिक्त उपलब्धि साबित होते हैं.

9. बुद्ध का कमण्डल लद्दाखः कृष्णा सोबती
कृष्णा सोबती अपनी अनूठी कलम लिए एक रोज़ दिल्ली से लेह को चल दीं. यह किताब उस यात्रा की डायरी समझिए.
इसका प्रकाशन इतना सुरुचिपूर्ण है कि हिंदी में शायद ही कोई और यात्रा-संस्मरण इस रूप में छपा होगा.
हर पन्ने पर रंगीन तस्वीरें, रेखांकन, वाक्यांश कृष्णाजी के गद्य की शोभा बढ़ाते हैं. वे अपनी पैनी और सहृदय नज़र से लेह के बाज़ार, महल, दुकानें, लोग, गुरुद्वारे, पुस्तकालय, प्रशासन, प्रकृति सबको निहारती चलती हैं.
सबसे ज्यादा उनकी नज़र टिकती है बौद्ध-विहारों के भव्य और कलापूर्ण एकांत पर. वे फियांग, हैमिस, लामायूरू, आलची, थिकसे के गोम्पा देखती चलती हैं.
जांसकर घाटी की परिक्रमा करती हैं और हमारे सम्मुख लद्दाख़ की संस्कृति, भाषा, लिपि, रीति-रिवाज, नदियों और दर्रों को हाथ की रेखाओं की तरह बड़ी आत्मीयता से परोसती चलती हैं.
करगिल को हमने भारत-पाक संघर्ष से पहचाना है. कृष्णा सोबती हमारे सामने उस करगिल का चेहरा ही बदल देती हैं.

10. तीरे तीरे नर्मदाः अमृतलाल वेगड़
सैलानी की यात्रा का तेवर अलग होता है और यात्री का अलग. अमृतलाल वेगड़ नर्मदा की विकट मगर सरस यात्राओं के लिए पहचाने गए हैं.
वे चित्रकार भी हैं और कला-शिक्षक भी. यात्रा के रेखांकनों-चित्रों से सुसज्जित उनकी यात्रा-त्रयी इस किताब के साथ पूर्णता पाती हैः सौंदर्य की नदी नर्मदा, अमृतस्य नर्मदा, तीरे-तीरे नर्मदा.
यात्राओं का यह सिलसिला वेगड़जी ने पत्नी कांताजी के साथ विवाह की पचासवीं सालगिरह के मौके पर शुरू किया था.
अंतराल में नर्मदा जैसे उन्हें फिर बुलाती रही और वे वृद्धावस्था में भी अपने सहयात्रियों के साथ निकल-निकल जाते रहे.
हम इन संस्मरणों में कदम-कदम पर नर्मदा के इर्द-गिर्द के लोकजीवन से दो-चार होते हैं. वेगड़जी के संस्मरणों में नदी नदी नहीं रहती, एक जीवंत शख्सियत बन जाती है जो हज़ारों-हज़ार वर्षों से अपने प्रवाह में जीवन को रूपायित और आलोकित करती आई है.
वेगड़जी का विनय देखिए, फिर भी कहते क्या हैं, "कोई वादक बजाने से पहले देर तक अपने साज का सुर मिलाता है, उसी प्रकार इस जनम में तो हम नर्मदा परिक्रमा का सुर ही मिलाते रहे. परिक्रमा तो अगले जनम से करेंगे."

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अन्य पठनीय यात्रा-संस्मरणः राह बीती: यशपाल; सफ़रनामा पाकिस्तान: देवेंद्र सत्यार्थी; यात्रा-चक्र: धर्मवीर भारती; अपोलो का रथः श्रीकांत वर्मा; सफ़री झोले में: अजित कुमार; कश्मीर से कच्छ तक: मनोहरश्याम जोशी; एक लंबी छांहः रमेशचंद्र शाह; रंगों की गंधः गोविंद मिश्र; नए चीन में दस दिनः गिरधर राठी; यूरोप में अंतर्यात्राएं: कर्ण सिंह चौहान; अफ़ग़ानिस्तानः बुज़कशी का मैदानः नासिरा शर्मा; सम पर सूर्यास्तः प्रयाग शुक्ल; एक बार आयोवाः मंगलेश डबराल; अवाक: गगन गिल; चलते तो अच्छा थाः असग़र वजाहत; नीले बर्फीले स्वप्नलोक में: शेखर पाठक; कहानियां सुनाती यात्राएं: कुसुम खेमानी; वह भी कोई देश है महाराजः अनिल यादव; दर दर गंगेः अभय मिश्र/पंकज रामेंदु

1 comment:

  1. आज पहली बार पता चला कि रवीन्द्रनाथ हिंदी के साहित्यकार थे ...

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