ये विज्ञापन का युग है. हर चीज बिकती है
विज्ञापनों के सहारे. अगर विज्ञापन में दम हो, तो क्या नहीं
बिक सकता? सब कुछ बिक सकता है. विज्ञापन चाहे मिट्टी का ही क्यों न हो, अगर
बेचने वाले में दम है, तो वह भी बिक जाएगी.
आज विज्ञापनों का महाभारत हमारे देश में हो रहा
है. कंपनियाँ एक से एक चींजें बांजार में ला रही हैं. उनका तो यह भी दावा है कि
अगर आपने उनके उत्पाद को नहीं खरीदा, तो आप आधुनिकता की इस दौड़ में सबसे
पीछे रह जाएँगे. विज्ञापनों का चक्रव्यूह अभेद्य है, इससे कोई नहीं
बच सकता. आज के बच्चे भी अभिमन्यु की तरह माता के गर्भ में विज्ञापन सुनते हैं.
पैदा होकर वे यह तो नहीं बता पाएँगे कि इसे कैसे खरीदा जाए, बल्कि उसे किस
प्रकार चलाया जाता है या उपयोग में लाया जा सकता हैं, यह अवश्य बता
देंगे. आज के बच्चे चक्रव्यूह तो नहीं तोड़ पाते हैं, बल्कि खुद को ही
तोड़ कर रख देते हैं, इन विज्ञापनों के चक्रव्यूह में.
हम भी किसी से कम नहीं हैं. टी.वी. पर हमारा
प्रिय नायक जिसकी प्रशंसा कर रहा है, तो निश्चित वह चींज अच्छी ही होगी.
आखिर उसकी वकालत हमारा नायक कर रहा है. वह भला कैसे गलत हो सकता है? उसने
उस विज्ञापन से करोड़ों कमाए हैं, यह हम जानना ही नही चाहते. हम तो केवल
उसकी बताई चींजे ही खरीदेंगे. उसे हम नहीं लेंगे, तो हमारा पड़ोसी
ले लेगा, फिर हम तो पीछे रह जाएँगे. ऐसे भला कैसे हो सकता है? यहाँ
आकर हम भूल जाते हैं कि विज्ञापनों का संसार कौरवों की सेना की तरह है, हम
उनका माल खरीदकर उसी को बढ़ावा दे रहे हैं.
अब आइए विज्ञापनों की असलियत पर. हमारे सपनों
का नायक इतराते हुए जूते पहनता है, हम भी वैसा ही जूता ले आते हैं,
दो
दिन बाद ही उसका सोल जूते से नाता तोड़ लेता है, हमारी आत्मा का
साक्षात्कार परमात्मा से हो जाता है. हम कुछ नहीं कर सकते. बालों का काले और लम्बे
करने वाले बहुत से तेल आ रहे हैं, जो बहुत ही शुध्द होने का दावा करते
हैं, पर हमारे सर पर जाते ही वह तेल विज्ञापन वाला काम नहीं कर पाता.
हमारी खल्वाट बढ़ जाती है और खोपड़ी की जड़ों से सफेदी झाँकने लगती है.
क्या ऐसा नहीं लगता
कि हम एक ऐसे रचना संसार में विचर रहे हैं, जिसका सच से कोई
वास्ता नहीं. झूठ और फरेब की एक दुनिया है, जहाँ हम अपनी
साँसों को भी अपनी नहीं कह सकते. हम अपने देशको राष्ट्र कहते हैं, पर
विज्ञापन वाले इसे छोटा साबित कर महाराष्ट्र का ही नहीं, बल्कि सौराष्ट्र
का निर्माण कर रहे हैं.
झूठ के विज्ञापन
कुछ समय पहले केंद्रीय उपभोक्ता संरक्षण परिषद
ने निर्णय लिया कि झूठे विज्ञापनों और ऐसा विज्ञापन करने वाली मशहूर हस्तियों पर
नकेल कसने के लिए एक समिति का गठन किया जाएगा और उपभोक्ताओं को यह अधिकार होगा कि
विज्ञापन में किए गए दावे पूरे नहीं होने पर वे उस हस्ती और कंपनी, दोनों
के खिलाफ हर्जाने के लिए मुकदमा दायर कर सकते हैं। यानी, आने वाले दिनों
में बहुत सारे फिल्मी सितारों और खिलाड़ियों पर ऐसा मुकदमा होना तय है क्योंकि
लोकप्रियता के पैमाने पर सबसे ऊपर होने के चलते विज्ञापन कंपनियों की पहली पसंद
यही होते हैं। ऐसी जानी-मानी हस्तियों की जीवनशैली की नकल करना एक ‘परंपरा’
है।
इसलिए इन्हें विभिन्न विज्ञापनों में ऐसे पेश किया जाता है, जैसे यह उनके
व्यक्तिगत अनुभवों पर आधारित हो। जबकि सच्चाई इसके एकदम उलट होती है। कोई करोड़ों
में खेलने वाला शख्स भारतीय मध्यवर्ग को लक्षित उत्पादों का इस्तेमाल भला क्यों
करेगा! चाहे खाने-पीने, पहनने की चीजें हों, सौंदर्य प्रसाधन
या कुछ और!
‘पेप्सी’ और ‘कोक’
के
कैसे-कैसे विज्ञापन हैं, हम सब जानते हैं। ‘डर
आगे जीत है’ वाला डरावना ‘स्टंट’ भी
है। सोडा के नाम पर शराब का विज्ञापन होता है। मोबाइल फोन, जूतों, बाल
उगाने, रंग चढ़ाने आदि के विज्ञापन याद कीजिए। भारत जैसे देश में गोरे रंग को
लेकर जो पागलपन है, उसे भुनाने में कोई किसी से कम नहीं। ‘मर्द
होकर औरतों वाली क्रीम लगाते हो’ जैसी वाहियात टिप्पणी भी है। लगे हाथ
नहाने के साबुनों के विज्ञापन भी याद कीजिए। दमकती-महकती त्वचा और पता नहीं
क्या-क्या। कुछ साबुन तो ऐसे दावे के साथ बाजार में उपलब्ध हैं, मानो
वे साबुन नहीं, बल्कि कोई जादू हों। टीवी पर टिकिया इधर से उधर
गई नहीं कि कपड़े झकाझक सफेद। ‘डियो’ और ‘परफ्यूम’
के
विज्ञापन तो लड़के-लड़कियों के पटने-पटाने और बिस्तर तक घसीट ले जाने की गारंटी का
पर्याय ही बन गए हैं। मोबाइल, टेलीफोन, इंटरनेट सेवा
प्रदाता कंपनियां उपभोक्ता से ऐसे दावे करती हैं कि क्या कहना। मर्दानगी और
संतानोत्पत्ति की गारंटी वाले विज्ञापन तो हैं ही।
टीवी,
अखबार, इंटरनेट, मोबाइल
और पत्र-पत्रिकाएं आज विज्ञापन को आम जनता तक पहुंचाने का प्रमुख माध्यम हैं।
पर ये खुद किसी प्रकार की कोई जवाबदेही तो दूर, नैतिक जिम्मेदारी तक का निर्वाह करने से कतराते हैं।
अखबारों में बलात्कार की खबरों के नीचे ही अंग मोटा-पतला करने के विज्ञापन और
बाबाओं की पोल खोलने वाले चैनल पर रोज किसी बाबा का प्रवचन आम बात है। आजकल एक नया
चलन भी है ‘रियल लाइफ हीरोज’ से विज्ञापन
कराने का, जो आसानी से अपने हीरोपन को चंद पैसों के चक्कर में आकर विज्ञापनों
के सुपुर्द कर देते हैं। आज हर वह चीज विज्ञापन के दायरे में है जो बाजार का
हिस्सा बन बिक सकती है। विज्ञापन हमारी इंद्रियों से होते और हमारे दिल-दिमाग पर
राज करते हुए हमारे चयन को प्रभावित करते हैं। बाजार अब मदर्स डे, फादर्स
डे, वेलेंटाइन डे जैसे विज्ञापनों के जरिए हमारी संवेदनाओं को भी भुनाने
तक से नहीं चूकता।
कुछ विज्ञापन सुंदर, संवेदनशील और
सच्चे भी हैं। लेकिन ज्यादातर झूठ का मायाजाल
बुन रहे हैं। यह किसी सेलिब्रिटी के माध्यम से एक झूठ को बार-बार और
अलग-अलग तरीके से बोल कर सच बनाने की साजिश है, जिस पर निश्चित
रूप से लगाम लगनी चाहिए। साथ ही, जिस माध्यम से ये विज्ञापन आम जनता तक
पहुंचते हैं, उसकी भी जवाबदेही तय होनी चाहिए। इसके अलावा,
सत्ता
पाने के लिए अधिकतर राजनीतिक पार्टियां भी भ्रामक और लोकलुभावन दावे करती रहीं
हैं। वे भ्रामक विज्ञापन नहीं तो और क्या हैं? इनके मायाजाल से
नियम-कानून, समिति आदि बना देने से मुक्ति नहीं मिल पाएगी।
जन-जागृति के बिना यह काम अधूरा ही रहेगा। जब तक उपभोक्ता भ्रम के शिकार होते
रहेंगे, इस गलाकाट प्रतियोगिता के समय में लोग भ्रम का मायाजाल रचते रहेंगे।
भ्रामक विज्ञापन और बाजार का खेल
वैसे भी सभी जानते हैं कि सुनने-पढ़ने से अधिक
प्रभाव देखने का होता है। अब आज के विज्ञापनों की बात की जाए तो ऐसा लगता है जैसे
टीवी दर्शकों को प्रतिदिन, प्रतिपल बहुत सा झूठ निगलने को दे
रहा है। क्योंकि आमजन ने मनोरंजन के लिए
टेलीविजन का सहारा लिया है और अब तो टेलीविजन तथा उसके कार्यक्रम दिनचर्या का एक अपरिहार्य हिस्सा ही बन गए हैं।
अपनी रुचि के अनुसार कार्यक्रम अलग-अलग देखे जा सकते हैं, दिन में एक बार
नहीं, अनेक बार हमें यह सुनना और देखना पड़ता है कि एक अभिनेता किसी ताकत
की गोली हाथ में पकड़ कर दर्शकों को यह
बताता है कि यह गोली वह पंद्रह साल से खा रहा है, पहले उसके पिता
जी भी इसी गोली की दी हुई ताकत से जिंदा रहे और उन्हीं पिता जी के निर्देश से वह
भी यह गोली खा रहे हैं।अब प्रश्न यह है कि कौन विज्ञापन देने और प्रस्तुत करने
वालों से यह पूछेगा कि यह गोली कब बनी थी, उनके पिता जी ने कब से खानी शुरू की और
सच तो यह होगा कि यह गोली उन्होंने कभी खाई ही नहीं होगी। इस तरह के विज्ञापनों के
एक नहीं, अनेक उदाहरण हैं साथ ही
लोगों को गुमराह करने का काम भी यह विज्ञापन करते हैं। जब तीन प्रमुख
व्यक्तित्व तीन अलग-अलग कंपनियों के पानी शुद्घ करने वाले उपकरणों का प्रचार करते
हैं और हरेक का यही कहना है कि जिस मशीन का पानी वह पी रहा है वही पानी इस योग्य
है कि पीकर स्वस्थ रहा जाए। सवाल यह है कि
कोई अभिनेता हो या खिलाड़ी, जब इन वस्तुओं का प्रचार करता है
तो उन्हें तो करोड़ों रुपये मिल गए,
लेकिन
इसकी क्या गारंटी है कि जो उन्होंने कहा वह सही ही कहा है। एक प्रतिष्ठित
अभिनेत्री दीवारों पर रंग-रोगन के लिए किसी उत्पादक कंपनी का प्रचार करते हुए जब
यह कहती है कि उसने अपनी घर की दीवारों पर इसी का प्रयोग किया है तो एक बार देखना
अवश्य चाहिए कि उसके घर में कौनसी कंपनी का रंग-रोगन प्रयुक्त हुआ है, पर
देखने की सुविधा किसी को मिलती नहीं।
इसी तरह कोई मसालों को मसाला जगत का बादशाह
घोषित करता है, कोई महिला विज्ञापन में यह कहती है कि उसे पति
का प्यार तब ही प्राप्त हुआ जब उसने खाने में एक विशेष प्रकार का गर्म
मसाला डाल दिया। मुझे तो लगता है कि यह महिला का अपमान ही है कि उसे पति का प्यार भावना से नहीं मिलता
है, बल्कि गर्म मसाले के कारण मिलता है। महिलाओं का अपमान करने वाले तो कम विज्ञापन नहीं हैं।,
एक युवती विज्ञापन के माध्यम से यह दिखाती है कि एक खास किस्म की
क्रीम लगाने से उसकी चमड़ी नरम हो गई और इसी कारण पुरुष साथी उसे प्यार करने लगा
और विज्ञापन जगत की सभी सीमाओं को तोड़ते हुए तब झूठ बोला गया जब लंबे और मजबूत
बालों की गारंटी देने वाली एक फर्म द्वारा विज्ञापन दे रही महिला के बालों की
मजबूती दिखाने के लिए उसे लंबे बालों के साथ ट्रक खींचते हुए ही दिखा दिया। शेख
चिल्ली की दुनिया में भी ऐसा संभव नहीं, पर जब जनता चुपचाप देख लेती है और
प्रश्न भी नहीं करती तो जनभावनाओं का दुरुपयोग अथवा सदुपयोग करके अपना माल मार्केट
में बेचने वालों का दोष कुछ ज्यादा नहीं
रह जाता।
कौन नहीं जानता कि आधुनिकता की अतिवादी संस्कृति
में भी विवाह के समय युवक-युवती का चाहे रस्म निभाने के लिए ही सही हल्दी,
दही
व तेल आदि के मिश्रण (उबटन ) का ही लेप किया जाता है, पर विज्ञापन जगत
ने इसके स्थान पर रंग-बिरंगी क्रीम दिखानी और लगानी शुरू कर दी हैं। यह ठीक है कि
इस प्रकार की औषधि युक्त क्रीम का प्रयोग लोग करते हैं, लेकिन कभी किसी
वैवाहिक रस्म में हल्दी का स्थान यह क्रीम आज तक नहीं ले सकी। प्रश्न यह है कि
समाज को इस तरह गुमराह करने की आज्ञा भारत सरकार का सूचना व
प्रसारण विभाग क्यों देता है? बिस्कुट खाओ और शेर बन जाओ, (एक
खास प्रकार का पेय सचिन से भी बड़ा खिलाड़ी बना सकता है) इत्यादि,झूठे
प्रचार केवल पैसे कमाने के चक्कर में टीवी
चैनल कर रहे हैं। इतना ही नहीं अंधविश्वास और कुरीतियों को बढ़ाने के लिए
तरह-तरह के यंत्र-मंत्र जिनका न तो कोई वैज्ञानिक आधार है न ही पौराणिक, उनका
धंधा भी इन विज्ञापनों द्वारा ही कर दिया जाता है। ऐसा कोई साधन नहीं जिसके द्वारा
उन लोगों पर कार्यवाही हो जिनके यंत्र द्वारा न रोग मिटते हैं, न
गरीबी लेकिन यह सच है कि उनकी गरीबी अवश्य
मिट जाती है जिन्होंने यंत्र बेचने का काम किया। झूठ और गुमराह करने के लिए उनके
विरुद्घ कहां कार्यवाही की जाए, इसके लिए भी तो कोई विभाग विशेष
नहीं है। ऐसा होना चाहिए कि जिस टीवी अथवा
समाचार पत्रों द्वारा इन विज्ञापनों को प्रसारित किया जाता है उनके द्वारा ही उस
एजेंसी का भी पता दिया जाए जहां विज्ञापन झूठे सिद्घ होने पर कार्यवाही हो ।
यह झूठ और गुमराह करने की कहानी बहुत लंबी है।
अगर कोई सोना दिखाकर सोने की कीमत लेकर लोहा दे देता है, उसके विरुद्घ तो
धोखाधड़ी का केस दर्ज हो सकता है, पर चुनावी घोषणापत्रों में सभी
राजनीतिक दलों के नेता बड़े-बड़े सब्जबाग दिखाते हैं, देश को भय,भूख,भ्रष्टाचार
से मुक्त करने की बात कहते हैं, पर उनके चुनाव जीतने के बाद वे स्वयं
ही जनता को भयभीत करने का काम करते हैं,
साथ
भ्रष्टाचार भी करते है, लेकिन जनता बेचारी देखती रहती है।और वे किताबें
तथा विज्ञापनपट्ट जहां ऐसे विज्ञापन जो
दिए गए थे, कहीं रद्दी में पड़े गायब हो जाते हैं और जनता
सिसकती रह जाती है।
आज की आवश्यकता यह है कि सरकार द्वारा ऐसा कोई
तंत्र अवश्य ही जनता को दिया जाए जहां विज्ञापनी झूठ का शिकार हुए लोग अपनी शिकायत
करके राहत पा सकें और वैसे भी विज्ञापन देने वालों पर नियंत्रण होना ही चाहिए। दो
दिन पहले यह समाचार था कि सिर पर बाल उगाने के लिए जो दवाई लगाई, उससे
रहे-सहे बाल भी खत्म हो गए। ऐसा बेचारा ब्यक्ति
कहां जाए, कहां शिकायत करे और कहां मुआवजा पा सके। ज्यादा
अच्छा यह है कि जनता ही उन विज्ञापनों को नकार दे जो केवल झूठ के पुलिंदे हैं।
जागरूक, सभ्य और शिक्षित समाज से यह आशा की जाती है कि विज्ञापनी झूठ से वे
स्वयं को मुक्त रखें और इसका प्रतिकार भी करें।
सेक्स पावर बढाने के लिए संपर्क करें, कद
लंबा करें, वशीकरण के लिए अचूक उपाय, तांत्रिक
बताएंगे समस्याओं के हल। टेलीशॉपिंग, मैगजीन, अखबार या फिर बस
स्टैंड और रेलवे लाइन के आस-पास ऐसे विज्ञापन बहुतायत में देखने को मिल जाते हैं।
अब इलाहाबाद हाई कोर्ट सख्त हो गया तो ऐसे विज्ञापनों पर प्रतिबंध लग सकता है। ऐसा
होने पर देश के कई तांत्रिक और सेक्सोलॉजिस्ट के व्यापार पर असर पड़ेगा।
विज्ञापन हैं या मौजमस्ती का
निमंत्रण-पत्र
ज्यादातर जगह विज्ञापनों ने घेरी हुई है। बहुत
अजीब लगता है जब अख़बार में ख़बरें कम विज्ञापन अधिक नज़र आते हैं। लेकिन तभी
सामाजिक एवं धरातलीय वास्तविकता का सिद्धान्त दिमाग में कौंधता है कि व्यवसायिकता
तो आज हर चीज़ में निहित है......और सभी क्षेत्रों की ही तरह पत्रकारिता में भी
इसकी मध्यस्थता एक स्वीकृत आवश्यकता है। दरअसल व्यवसायिक विज्ञापनों के अभाव में
आज किसी समाचार पत्र के अस्तित्व की परिकल्पना असंभव है।
वो शायद बहुत अच्छा वक्त रहा होगा जब वास्तव
में समाचार पत्र पत्रकारिता का पर्याय हुआ करते थे और उनमें विज्ञापनों का समावेश
न के बराबर हुआ करता था। कभी-कभार किसी समाचार पत्र में कोई सरकारी या गैर सरकारी
विज्ञापन छप जाया करता था। धीरे-धीरे वक्त बदला......फिर पत्रकारिता बदली....और अब
सब कुछ नया है। आज समाचार पत्र विज्ञापन ङायरेक्टरी में बदल रहे है। कभी-कभी तो किसी
समाचार पत्र के सम्पूर्ण कवर पृष्ठ पर ही विज्ञापन होता है और ज़ाहिर सी बात है कि
कवर पृष्ठ पर स्थान पाने के लिये उन्होंने काफ़ी क़ीमत चुकायी होगी।
ख़ैर...विज्ञापन दिखाना कोई ग़लत बात नहीं है।
बदलते सामाजिक परिवेश़ एवं आर्थिक परिस्थितियों में जीवित रहने के लिये यह संजीवनी
बूटी के समान है।
मैं बहुत वक़्त से समाचार पत्र के कुछ
विज्ञापनों पर ग़ौर कर रहा हूँ। अख़बार के पन्ने पलटते हुए कभी-कभी पूरा पृष्ठ ही
इस श्रेणी के विज्ञापनों से पटा रहता है। 5-6 पंक्तियों के
इन छोटे विज्ञापनों को देखकर पहले तो किसी को भी ये मज़ाक़िया लग सकते हैं लेकिन
जब मैंने इनमें निहित भावार्थ पर गौर किया तो ये एक गम्भीर समस्या की ओर इशारा कर
रहे थे। समस्या है रूपयों का लालच देकर युवाओं को ग़लत कामों की ओर धकेलना एवं
लोगों को बेवक़ूफ बनाना।
दरअसल ये विज्ञापन समाचार पत्रों में
"मसाज" एवं "फ्रेंङशिप" कॉलम के तहत प्रकाशित किये जाते हैं।
जिनमें ''मसाज" के नाम पर एक घण्टे के लिये 10000 से 30000
रूपये तक की पेश़कश देकर युवाओं को फंसाया जाता है। जानकारी के लिये आपको बता देना
चाहता हूँ कि मसाज एक ऐसी प्रक्रिया है जिसमें तेल एवं अन्य प्राकृतिक लेप द्वारा
शरीर की थकान दूर करने के लिये मालिश की जाती है। लेकिन शारीरिक थकान मिटाने की इस
प्रक्रिया में आकर्षक एवं अश्लील विज्ञापनों की क्या आवश्यकता आ पङी। यह निश्चय ही
जाँच का विषय है। मसाज
पार्लरों के नाम अख़बार में विज्ञापन देकर " देह व्यापार " जैसे कृत्य
छुपे हुए लेकिन खुलेआम किये जा रहे हैं।
इसी प्रकार " फ्रैंङशिप " कॉलम के
तहत छपने वाले विज्ञापन भी अपने अन्दर कई रहस्यों को छिपाये होते हैं जिनमें
सांकेतिक भाषा का प्रयोग होता है। आश्चर्यचकित करने वाली बात तो यह है कि इन
विज्ञापनों में खुलेतौर पर यह कहा जाता है कि आप जिस चाहे उस उम्र की लङकी के साथ
दोस्ती कर सकते हैं। बात अगर दोस्ती तक ही सीमित रहती तो ठीक थी, लेकिन
इन विज्ञापनों में खुलेतौर पर युवाओं को मौज़-मस्ती के लिये आमंत्रित किया जाता
है। मसलन एक विज्ञापन में प्रकाशित किया गया है कि " खुले विचारों की सुन्दर
लङकियो को मौ़ज-मस्ती के लिये युवाओं की आवश्यकता है। इच्छुक युवक सम्पर्क
करें।" यहाँ मौज-मस्ती का तात्पर्य हम सभी अच्छी तरह जानते हैं। एक अन्य विज्ञापन
में युवक-युवतिओं को दोस्ती के जरिये शारीरिक सम्बन्ध बनाने का न्यौता भी दिया गया
है। विज्ञापनों की मौजूदगी की प्रमाणिकता के लिये मैं यहाँ विज्ञापनों की कतरनें
प्रस्तुत कर रहा हूँ।
हास्यास्पद बात तो यह है कि इन विज्ञापनों में
धोखेबाज़ों से सावधान रहने को भी कहा जाता है। अभिव्यक्ति की आज़ादी को हथियार बनाकर
जिस तरह से कूछ लोग विज्ञापनों के माध्यम से इस प्रकार के जालसाजी एवं अश्लीलता के
धन्धे में लिप्त हैं, उन्हें बढावा देने में समाचार पत्र संचालक भी
कम ज़िम्मेदार नहीं। एक छोटी सी चेतावनी देकर वह स्वयं तो अपना पल्ला झा़ड लेते
हैं और जानबूझकर इस गंभीर मामले से अनभिज्ञ बने बैठे हैं एवं पत्रकारिता में
व्यवसायिकता के हस्तक्षेप का दुरूपयोग कर रहे हैं। जिन मामलों पर उन्हें
पत्रकारिता के माध्यम से लगाम लगाने की ज़रूरत है, वह उन्ही मामलों
में पत्रकारिता एवं विज्ञापन का प्रयोग एक उत्प्रेरक के रूप में कर रहे हैं।
विज्ञापनों का झूठ और आम उपभोक्ता
मुझे नहीं पता कि इस लेख को पढ़ने वाले कितने
लोग टेलीविज़न देखने में अपना समय व्यतीत करते हैं, लेकिन मैं आपसे जो कहना चाहती हूं वे कुछ मौलिक सवाल हैं,
जो
पिछले कुछ सालों में टेलीविज़न देखने के बाद मेरे मन में आए. ये सवाल हमारी शहरी
मानसिकता पर उठे हैं. किसी वर्ग, लिंग या फिर सामाजिक परिदृश्य में
विज्ञापनों की विवेचना कोई नई बात नहीं है. वास्तव में ऐसी बहस परिवार और मित्रों
के बीच होती रहती है. मुझे यह जानने की जिज्ञासा है कि इस सभ्य समाज में रहने का
सबसे बेहतर तरीक़ा क्या है? किस क़िस्म का भोजन हमारे लिए सबसे
उचित है या फिर बच्चों के लिए मनोरंजन के क्या साधन सही हैं? विकास
का वह कौन सा स्तर है, जो हमारे लिए ज़रूरी है, लेकिन जिसे पाना
बहुत ही कठिन है?
ज़्यादा दिन पहले की बात नहीं है, जब
विज्ञापनों में दावा किया जा रहा था कि भारत को विकसित किया जा सकता है. विकास के
रास्ते में आने वाली मुश्किलों को दूर किया जा सकता है. हिमालय की गोद में बांध और
उन जगहों पर सड़कों का निर्माण करना जहां कभी उचित नहीं रहा, खतरों
से भरा काम है. लेकिन विज्ञापनों के ज़रिए इस काम का समर्थन करती महिलाएं
कंस्ट्रक्श्न कंपनियों के लिए यह संभव और ज़रूरी होने का साक्ष्य देती हैं.
लेकिन क्या ऐसे विज्ञापनों के निर्माताओं को इस
बात का एहसास है कि इतनी ऊंचाई पर बनाए जा रहे बांध हमारे पर्यावरण को नुक़सान
पहुंचा रहे हैं? उक्त बांध पहाड़ियों में बसे रिहाइशी इलाक़ों
को बांट रहे हैं. वे न तो वहां रहने वाले लोगों के हित में हैं और न ही इलाक़ों के
वन्य प्राणियों को इससे कोई फायदा होने वाला है.
विज्ञापनों में दिखाया जा रहा है कि कुछ साल
पहले से हमारे सुबह के नाश्ते और पिकनिक के खानपान से स्वादिष्ट फल जैसे संतरा,
अमरूद
और सेब ग़ायब हो चुके हैं. दो हफ़्तों तक दर्शकों को यह कयास लगाने के लिए छोड़
दिया गया कि उक्त स्वादिष्ट फल कहां ग़ायब हो गए हैं. इसके बाद यह खुलासा किया गया
कि उन फलों का जूस निकाल कर एक अच्छी पैकिंग में बाज़ार में बेचा जा रहा है. यही
मेरा अंदाज़ा भी था. अमेरिका में बनी बोतलों में फलों का जूस पैक करके हमारी मेज़
तक पहुंचा दिया गया है. यही साज़िश है कि किसी तरह हमारे ताज़े फलों को क़ब्ज़े
में लिया जाए और उन्हें बोतलों में पैक करके दोगुने दामों में हमें बेचा जाए. इसी
विज्ञापन से जुड़े एक दूसरे विज्ञापन में बच्चों और वयस्कों को दिखाया गया है कि
वे एक खास तरह के आम के जूस की अपेक्षा ताज़े आम को खाना पसंद नहीं करते. क्या
हमें इस विज्ञापन को सच मान लेना चाहिए. आखिर ऐसा कबसे हो गया कि ताज़े फलों में
पाए जाने वाले पौष्टिक तत्व पैकेट में बंद खाने और फलों की पौष्टिकता के समान हैं.
क्या हम यह कहना चाहते हैं कि आज की जीवन शैली में रहने का यही तरीक़ा है. बहरहाल
हमारे विज्ञापन निर्माताओं को ऐसा ही लगता है.
इसके बाद अगले विज्ञापन में दिखाया जाता है कि
बच्चों का एक झुंड रिवर रैफ्टिंग के लिए पहुंचता है, लेकिन नदी के
किनारे उसे एक बोर्ड मिलता है, जिसमें लिखा है कि पानी नहीं, रैफ्टिंग
नहीं. बच्चे मायूस हो जाते हैं, लेकिन अगले ही पल वे एक च्विंगम खाते
हैं और उन्हें महसूस होता है कि वे अपनी नाव में बैठकर रैफ्टिंग का मजा ले रहे
हैं. इस प्रचार को देखकर क्या हमें मान लेना चाहिए कि च्विंगम चबाना रैफ्टिंग का
विकल्प बन गया है? क्या बच्चों को विज्ञापन की परोसी इस सच्चाई पर
खुश होना चाहिए? या फिर जिस तरह से नदी का पानी सूख रहा है,
क्या
आने वाले दिनों में जैसा प्रचार में दिखाया गया, वह सच हो जाएगा?
मेरा
सवाल यह है कि हम अपने बच्चों को क्या सिखा रहे हैं? अगला प्रचार एक
एयर कंडीशनर का है. एक पूरा परिवार एयर कंडीशनर की ठंडी हवा से इतना खुश है कि वह
अपने घर से बाहर निकलना नहीं चाहता. घर के लोगों को इस बात से फर्क़ नहीं पड़ता कि
वे दिन भर अपना एसी चलाते हैं और ग्लोबल वॉर्मिंग (वैश्विक तापमान) और मौसम
परिवर्तन में योगदान करते हैं. इसके अलावा भारी मात्रा में बिजली की खपत कर रहे
हैं.
मुझे यक़ीन है कि ज़्यादातर लोग इस बात से
परिचित हैं कि प्रतिदिन बीज़, खाद और उर्वरक जैसे कई पदार्थों के
विज्ञापन दिखाए जाते हैं. इन विज्ञापनों से हमें खेती की समस्याओं से निबटने के
लिए क़र्ज़ लेने के तरीकों का पता चल रहा है और कर्ज़ लेने के बाद खुशहाली से भरी
किसान की ज़िंदगी दिखाई जा रही है. मैं और मेरे जैसे तमाम लोग विज्ञापनों की इस
सुनहरी तस्वीर से इत्ते़फाक़ नहीं रखते. जहां बड़ी मात्रा में पैसा लगा होता है,
वहां
लोगों को प्रभावित करने के लिए उनकी भावनाओं से खिलवाड़ करना आसान होता है.
विज्ञापनों के ज़रिए कुछ भी बेचने के लिए हमें
यह कोशिश नहीं करनी चाहिए कि हम एक खास तरह की मानसिकता को फैलाएं. मुना़फा कमाने
के लिए खपत ब़ढाने की चाहत में हमें इंसानियत से समझौता नहीं करना चाहिए. बल्कि एक
समझदार उपभोक्ता की तरह हमें इन कोशिशों का सामना अपने विश्वास के साथ करना चाहिए,
जो
इन विज्ञापनों से कहीं ज़्यादा परिपक्व है.
विज्ञापनों को रीयल लाइफ समझ लेते
हैं हम
विज्ञापन ने हमारे जीवन में एक अहम जगह बना ली
है। लगता है जैसे उसके बगैर जीवन की कल्पना ही बेकार है। लेकिन गौर करें तो ये
विज्ञापन हमारी जिंदगी में हमारी मर्जी से नहीं आए हैं। वे थोपे गए हैं या
घुसपैठिये की तरह घुस आए हैं। लेकिन इन्हें स्वीकार करने के अलावा कोई चारा नहीं
है। उन्हें देखना मजबूरी है, लेकिन वह हमारी आदत बन जाती है।
विज्ञापनों ने हमारे रहन-सहन पर गहरा असर डाला है। आज न सिर्फ शहर में बल्कि गांव-गांव
तक इटैलियन और चाइनीज खाना पहुंच रहा है। लोगों को अनेक ब्रांड्स की जानकारी हो गई
है। यहां तक कि इनका भाषा पर भी गहरा असर हो रहा है। अब तो कितने ही विज्ञापनों के
टैग लाइन लोग बोलचाल में प्रयोग करने लगे हैं जैसे दाग अच्छे हैं, सिर्फ
नाम ही काफी है, हैव ए ब्रेक। ऐसी कई लाइनें लोगों की बोलचाल
में घुल-मिल गई हैं। हालांकि टीवी पर ऐसे विज्ञापन भी चलते रहते हैं जिन्हें
अधिकतर लोग समझ ही नहीं पाते।
रिसर्च एजेंसी नेल्सन के एक शोध के मुताबिक एक
बालिग व्यक्ति अमूमन 5 घंटे टीवी देखता है, 2 से 11
वर्ष के बच्चे 4 घंटे और 65 वर्ष के
व्यक्ति लगभग 7 घंटे टीवी देखते हैं। सोचा जा सकता है कि वे
कितना विज्ञापन चाहे-अनचाहे देखते होंगे। चाहे चाय का प्रचार हो या चुनाव का,
बार-बार
देखने पर वे हमारे जेहन में जगह बना लेते हैं और हमारी सोच और व्यवहार पर गहरा असर
डालते हैं। हमारे निर्णयों में उनकी भूमिका होती है। इसलिए आज एडवरटाइजिंग पर खर्च
बढ़ता जा रहा है।
अमेरिकी मनोवैज्ञानिक टिम कैसर और एलेन केनर ने
अपनी एक किताब में जिक्र किया है कि अमेरिका में छोटे बच्चों से जुड़े रिसर्च पर
कंपनियां लाखों डॉलर खर्च करने में गुरेज नहीं करतीं। वहां सिर्फ यह पता लगाने के
लिए लगभग दस लाख डॉलर से ज्यादा खर्च कर दिया जाता है कि बच्चे किन चीजों के लिए
अपने माता-पिता से जिद करेंगे। उसी तरह भारत में चुनावों में विभिन्न पार्टियां
हजारों करोड़ रुपये खर्च कर देती हैं सिर्फ अपने कैंडिडेट के पक्ष में लहर पैदा
करने के लिए। मार्केटिंग की दुनिया में वैसे तो प्रचार के बहुत साधन हैं लेकिन
सोशल नेटवर्किंग साइट और टेलीविजन इस लिस्ट में सबसे ऊपर हैं। 50-60 के
दशक में जब टेलीविजन आया तब विज्ञापन की दुनिया में मानो क्रांति ही आ गई।
विज्ञापनकर्ताओं ने इसे हाथोंहाथ लिया और आज यह विज्ञापन की दुनिया का एक सशक्त
माध्यम है। अपने प्रॉडक्ट की बिक्री बढ़ाने के लिए
कंपनियां विज्ञापन में कुछ भी दिखाने के लिए तैयार रहती हैं। उन्हें इस बात से
फर्क नहीं पड़ता कि उनका समाज पर क्या असर पड़ेगा।
नेल्सन की एक और रिसर्च के आंकड़ों के अनुसार
एक औसत बच्चा अपनी प्राइमरी स्कूलिंग पूरी करते - करते 8000 मर्डर और 18
साल
की अवस्था तक पहुंचते - पहुंचते 2,09,000 हिंसक दृश्य देख लेता है। विज्ञापन में तमाम तरह के अंधविश्वासों और रूढ़ियों को बढ़ावा
भी दिया जाता है। विज्ञापन के जरिए अब फिल्मों को हिट कराने का खेल भी खेला
जा रहा है। सिर्फ प्रचार के बल पर कई ऐसी फिल्में भी अच्छा - खासा मुनाफा बटोर ले
गईं , जिन्हें दर्शकों ने कुल मिलाकर पसंद नहीं किया। विज्ञापन के बढ़ते
मायाजाल ने साबित किया है कि जिसके पास पूंजी होगी , वह प्रचार के बल
पर अपने ब्रांड को स्थापित कर लेगा , या अपना माल बेच ले जाएगा। इस तरह छोटी
पूंजी वाले पिछड़ जाएंगे। सचाई यह है कि हम विज्ञापन को
ही यथार्थ जीवन समझ बैठते हैं और उसी के मुताबिक आचरण करने लगते हैं। बाजार
में गैर बराबरी खत्म करने और समाज के हित में यह जरूरी है कि विज्ञापनों को
रेगुलेट किया जाए। विज्ञापन दिखाने को लेकर कई तरह के नियम बने हुए हैं। लेकिन
बदलते समय के हिसाब से इसे लेकर कोई ठोस नीति बननी चाहिए। फिर समाज को भी ऐसा कुछ
करना होगा कि विज्ञापन ही हमारे जीवन मूल्य न बन जाएं।
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