4/29/12

100 years of hindi cinema

यह तो सभी जानते हैं कि भारत में सिनेमा की शुरुआत दादा साहब फाल्के ने की। दादा साहब फाल्के का सही नाम धुन्दीराज गोविंद फाल्के था। १९११ में उन्होंने ईसा मसीह के जीवन पर बनी फिल्म देखी। इसके बाद उनके मन में विचारों का ज्वार उमडऩे लगा। भारत के महापुरुषों और इतिहास को आधार बनाकर फिल्म बनाने के विचार दादा साहब के मन में आने लगे। जब विचारों ने मन-मस्तिष्क पर पूरी तरह से कब्जा कर लिया तो उन्होंने फिल्म बनाने का संकल्प लिया। फिल्म निर्माण की कला सीखने के लिए वे लंदन पहुंच गए। लंदन में दो साल रहकर उन्होंने सिनेमा निर्माण की तकनीकी सीखी। वहां से कुछ जरूरी उपकरण लेकर वे भारत वापस आए। काफी मेहनत-मशक्कत के बाद उन्होंने भारतीय जन-जन में रचे-बसे चरित्र राजा हरिशचन्द्र पर फिल्म बनाई। ३ मई १९१३ को भारतीय सिनेमा की पहली फिल्म प्रदर्शित हुई। यह मूक फिल्म थी। दादा साहब को उनके साथियों ने खूब कहा कि फिल्म का आइडिया बकवास है, तुम्हारी फिल्म कोई देखने नहीं आएगा, भारत की जनता को फिल्म देखने का सऊर नहीं। लेकिन, 'राजा हरिशचन्द्र' की लोकप्रियता ने सारे कयासों को धूमिल कर दिया। इस तरह भारत में दुनिया के विशालतम फिल्म उद्योग बॉलीवुड की नींव पड़ी।

यहां गौर करने लायक बात है कि दादा साहब जैसे प्रतिभाशाली व्यक्ति ने एक सुने-सुनाए, जन-जन में रचे-बसे चरित्र पर फिल्म क्यों बनाई? संभवत: उन्हें सिनेमा के प्रभाव का ठीक-ठीक आकलन था। सिनेमा लोगों के अंतर्मन को प्रभावित करता है। उनके जीवन में बदलाव लाने का सशक्त माध्यम है। इसके अलावा उनके मन में सिनेमा से रुपयों का ढेर लगाने खयाल नहीं था। ईसा मसीह के जीवन पर बनी फिल्म को देखकर उनके मन में पहला विचार यही कौंधा कि भारत के महापुरुषों पर भी फिल्म बननी चाहिए। ताकि लोग उनके जीवन से प्रेरणा लेकर स्वस्थ्य समाज का निर्माण कर सकें। हरिशचन्द्र सत्य की मूर्ति हैं। सत्य मनुष्य के जीवन की सबसे बड़ी पूंजी, उपलब्धी और सर्वोत्तम गुण है। 'राजा हरिशचन्द्र' के बाद भी लंबे समय तक भारत में बनाई जाने वाली फिल्में संस्कार और शिक्षाप्रद थीं। १४ मार्च १९३१ को प्रदर्शित पहली बोलती फिल्म आलमआरा और १९३७ में प्रदर्शित पहली रंगीन फिल्म किसान कन्या की कहानी साहित्य से उठाई गई थी। भारतीय सिनेमा लंबे समय तक सीधे तौर पर भारतीय साहित्य से जुड़ा रहा। बंकिमचन्द्र और प्रेमचंद की कृतियों पर सिनेमा रचा गया, जिसने समाज को दिशा दी। रचनात्मक सिनेमा गढऩे के लिए गुरुदत्त, हिमांशु रॉय, सत्यजीत रे, वी. शांताराम, विमल रॉय, राजकपूर, नितिन बॉस, श्याम बेनेगल जैसे निर्देशकों को हमेशा याद किया जाएगा।
लेकिन, २१ वीं सदी की शुरुआत से ही बॉलीवुड के रंग-ढंग बदलने लगे। महेश भट्ट जैसे तमाम भटके हुए निर्देशकों ने भारतीय सिनेमा की धुरी साहित्य और संस्कृति से हटाकर नग्नता पर टिका दी। मनुष्य के दिमाग को शिक्षा देने वाले साधन को दिमाग में गंदगी भरने वाला साधन बना दिया। 'आज बन रहीं फिल्में परिवार के साथ बैठकर देखने लायक नहीं है' यह वाक्य बॉलीवुड के लिए आज हर कोई कहता है। इसके बावजूद भट्ट सरीखे निर्देशक कहते हैं कि हम वही बना रहे हैं जो समाज देखना चाहता है। अब ये किस समाज से पूछकर सिनेमा बनाते हैं यह तो पता नहीं। लेकिन, मेरे आसपास और दूर तक बसा समाज तो इस तरह की फिल्म देखना कतई पसंद नहीं करता। खासकर अपने माता-पिता, भाई-बहन और बच्चों के साथ तो नहीं ही देखता। ऐसी फिल्में समाज देखना नहीं चाहता इसका ताजा उदाहरण है- टेलीविजन पर डर्टी फिक्चर के प्रसारण का विरोध।
 
 आज बॉलीवुड १००वें साल में प्रवेश कर रहा है, इसकी और समाज की बेहतरी के लिए निर्माताओं, निर्देशकों और दर्शकों को विचार करना होगा। निर्माता-निर्देशकों को विचार करना होगा क्या कैमरे को नंगई के अलावा कहीं और फोकस नहीं किया जा सकता? दर्शकों को विचार करना होगा कि जिस सिनेमा को हम अपने परिवार के साथ नहीं देख सकते या जिसे हम अपने बच्चों को नहीं दिखा सकते, उसका बहिष्कार क्यों न किया जाए?



1930 से आगे
1930 में 172 फिल्में बनीं। 1931 में बोलती फिल्म 'आलम आरा' के आगमन के बावजूद 207 मूक फिल्में बनी। लेकिन इसके बाद मूक फिल्मों का अध्याय समाप्त होने लगा। आर्देशर ईरानी की 'आलम आरा' में जहां पर्दे के पीछे से संवाद सुनायी पड़ता था, वहीं 1932 में वी. शांताराम की सत्यवादी 'राजा हरिश्चन्द्र' पहली टॉकी फिल्म बनी। इसमें सितारे सीधे-सीधे डॉयलाग बोलते हुए नजर आये। इसी साल मदन थियेटर्स ने अपनी पहली फिल्म विश्वमंगल को रंगीन करने के लिए विदेश भेजा।
इसके एक साल बाद वी. शांताराम ने फिल्म सैरन्ध्री को रंगीन बनाया, कुछ तकनीकी चूक के चलते यह रंगीन नहीं बन पायी। इस दौर में दादा साहेब फाल्के, आर्देशर ईरानी, वी. शांताराम, ई. बिल्मोरिया, देवकी बोस, प्रमथेश बरुआ, हिमांशु राय, वाडिया, नाडिया, केएल सहगल जद्दनबाई, काननबाला, आरसी बोराल, सोहराब के नाम उभर कर आये। इन प्रसिद्ध हस्तियों ने ही 1939 में भारतीय फिल्मों की रजत जयंती मनायी। इससे पहले 1932 में फिल्मवालों ने द मोशन पिक्चर का गठन किया।
40 में उभरा देशप्रेम
इस दशक की फिल्मों में मुख्यत: देशप्रेम और सामाजिक उत्थान की बातें ही होती थीं। चेतन आनंद की नीचा नगर को इसके लिए हमेशा याद किया जायेगा। इस दशक में राज कपूर ने अपने आरके बैनर की स्थापना की। 'सिकंदर', 'चित्रलेखा', 'खंजाची', 'रोटी', 'भरत मिलाप', 'किस्मत', 'रतन', 'धरती के लाल', 'शहीद', आदि लगभग पचास फिल्मों का निर्माण हुआ। महल का संगीत बहुत शानदार था। यह फिल्म कोकिलकंठी लता मंगेशकर के कॅरियर का अहम पड़ाव बनी। राज कपूर की बरसात की सफलता के साथ आरके की लोकप्रिय टीम बनी, जो वर्षों तक काम करते रहे।
50 में छाईं कल्ट और क्लासिक फिल्में 
'आवारा', 'दो बीघा जमीन', 'मदर इंडिया', 'देवदास', 'प्यासा', 'कागज के फूल', 'नया दौर', 'झनक-झनक पायल बाजे', 'आन', 'मधुमति', 'सुजाता', 'श्री 420', 'धूल का फूल' आदि वे फिल्में हैं, जिन पर हिंदी फिल्में हमेशा गर्व करेंगी। इसी दौर में फिल्मफेयर अवॉर्ड शुरू हुआ। उस दौर में सात बार फिल्मफेयर जीतनेवाले महान निर्देशक बिमल राय की सख्त हिदायत थी कि जब उनकी फिल्म को अवार्ड दिया जाए, तभी उनकी फिल्म को नॉमीनेट किया जाए।  
60 के दशक में मिली बेशुमार वैरायटी
60 के दशक की शुरुआत हुई क़े आसिफ की कालजयी फिल्म 'मुगल-ए-आजम' के प्रदर्शन के साथ। इस फिल्म को हमेशा एक यादगार घटना भी माना गया है। 'कानून', 'गंगा जमुना', 'गाइड', 'परख', 'साहिब बीवी' और 'गुलाम', 'चौदहवीं का चांद', 'हम दोनों', 'बंदिनी', 'अनुपमा', 'मुझे जीने दो', 'तीसरी कसम', 'प्रोफेसर', 'आरजू', 'संगम', 'दोस्ती', 'उपकार', 'बीस साल बाद', 'हकीकत', 'ज्वेल थीफ', 'आशीर्वाद', 'सत्यकाम', 'आराधना', 'इत्तेफाक', 'दो रास्ते', 'तीसरी मंजिल', 'फूल और पत्थर', 'मेरा साया', 'मेरे महबूब' आदि फिल्मों पर नजर दौड़ाएं, तो इनकी विषयवस्तु में कोई साम्यता दिखाई पड़ी। संगीतकार लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल इस सुरीले दौर के एक और साझीदार बने। इस दौर में आयी फिल्म सत्यकाम को हमेशा अपने वक्त से बहुत पहले की फिल्म माना गया। 
70 के दशक में छाया रहा एंटरटेनमेंट  
'जॉनी मेरा नाम', 'पूरब और पश्चिम', 'शोर', 'बेईमान', 'दाग', 'मेरा गांव मेरा देश', 'यादों की बारात', 'पाकीजा', 'सावन भादों', 'अमर प्रेम', 'दुश्मन', 'कारवां', 'दस्तक', 'हीर रांझा', 'शोले', 'दीवार', 'आनंद', 'बावर्ची', 'मेरा नाम जोकर', 'परिचय', 'मौसम','आंधी', 'रोटी कपड़ा' और 'मकान', 'जंजीर', 'त्रिशूल', 'अमर अकबर एंथोनी', 'मुकद्दर का सिकंदर', 'बॉबी', 'कालीचरण', 'विश्वनाथ', 'कभी कभी', 'मिली', 'गुड्डी' आदि। इस दौर के चार चमत्कार थे—'शोले', 'जय संतोषी मां', 'सलीम-जावेद' और 'पंचम'।
'शोले' के बारे में विस्तार से कोई चर्चा करने का कोई मतलब नहीं है। इसे बॉक्स ऑफिस की एक अतुलनीय घटना कहा जा सकता है, जो शायद ही फिर कभी दोहरायी जाये। इस दौर में सलीम-जावेद लेखक की पहली जोड़ी थी, जिसने फिल्म लेखक की गरिमा को चरम पर पहुंचाया, जिसकी कमी आज भी शिद्दत से महसूस की जा रही है। यहां पंचम यानी आरडी बर्मन के सुरीलेपन की विशेष चर्चा जरूरी है। उन्होंने अपने दौर में जो सार्थक काम किया, आज के ज्यादातर संगीतकार उसे ही धड़ल्ले से फॉलो यानी नकल कर रहे हैं।
80 के दशक में मसाला फिल्मों की माया
यह दौर चालू मसाला फिल्मों के नाम था। बस, हृषि दा एक अपवाद के तौर पर सामने आये। उनकी फिल्में 'गोलमाल', 'नरम-गरम', 'खूबसूरत', दर्शकों का स्वस्थ मनोरंजन करने में पूरी तरह से सफल रही। इसके अलावा 'एक दूजे के लिए', 'नमक हलाल', 'कर्मा', 'सिलसिला', 'कुली', 'मेरी जंग', 'गुलामी', 'मिस्टर इंडिया', 'लावरिस', 'चश्मे बद्दूर', 'काला पत्थर', 'शराबी', 'हीरो', 'कर्मा', 'रामलखन', 'तेजाब', 'कयामत से कयामत तक', 'अंकुश', 'परिंदा', 'राम तेरी गंगा मैली', 'मैंने प्यार किया', 'सारांश', 'त्रिदेव', 'प्रेम-रोग', 'मशाल', 'विधाता', 'हिम्मतवाला' आदि फिल्मों ने इस दशक में खूब हिट फिल्मों का मजा लूटा। आज के दो सुपर स्टार आमिर और सलमान का उदय इसी दशक में हुआ। इस दशक के अंत में राज कपूर की मृत्यु के साथ ही शो मैन की विदाई हुई थी और खुद को खुद ही शो मैन कहने वाले सुभाष घई का उदय हुआ था। 
90 बोले तो किंग खान 
इस दशक की सबसे बड़ी देन सुपर स्टार शाहरुख खान का उदय है। निश्चित तौर पर शाहरुख खान ने फिल्म व्यवसाय को बहुत अच्छी तरह से समझा है।  इस दशक की कुछ और चर्चित फिल्में हैं- 'दिल', 'घायल', 'दीवाना', 'जो जीता वही सिकंदर', 'दिल है कि मानता नहीं', 'बेटा', 'आंखें', 'हम हैं राही प्यार के', 'दामिनी', 'अंदाज अपना अपना' आदि।
नई सदी से अब तक (2000 से 2012)
एक बात तय है कि फिल्म मेंकिंग को जो संजीदापन चाहिए, फास्ट फूड के इस दौर में वही कहीं खो चुका है। ज्यादातर डायरेक्टर ही अब प्रोजेक्ट मैनेजर बन कर हीरो के इशारे पर नाच रहे हैं। हर तरफ एक अफरा- तफरी मची हुई है। फिल्म मेकिंग के लिए किसी के पास समय नहीं है। झटपट फिल्में बन रही हैं, ज्यादा से ज्यादा तीन हफ्ते में अपना बिजनेस कर लुप्त हो जा रही हैं।


                      सिनेमा की सेंचुरी
1913 से 1922 - मूक फिल्में
धुंडीराज गोविंद फाल्के नाम का एक शख्स था। उसके पैरोंमें चकरी थी। जे . जे . स्कूल ऑफ आर्ट का पढ़ा , राजारवि वर्मा का चेला। पहली बार सिनेमा देखा तो हक्का -बक्का। फिल्म का नाम था ' लाइफ ऑफ क्राइस्ट ' फाल्केने तय कर लिया कि ऐसी फिल्म हमें भी बनानी है और जुटगया दिन - रात। नतीजा थी ' राजा हरिश्चंद्र ', नाम कीपहली हिंदी फिल्म , जिसका पहली बार 3 मई , 1913 मेंबंबई के कोरोनेशन थियेटर में प्रदर्शन हुआ। पूरे 23 दिन चली ' राजा हरिश्चंद्र ', जो उन दिनों का रेकॉर्ड था।सिनेमा ने हिंदुस्तानियों का मन मोह लिया था। इस दशक का सिनेमा धार्मिक पृष्ठभूमि का था और उस परपारसी थियेटर का गहरा प्रभाव था। फाल्के के अलावा जमशेदजी मदन , धीरेन गांगुली , नितिन बोस आदिप्रमुख फिल्मकार थे। यह वह दौर था , जब सिनेमा को सभ्य लोगों का काम नहीं समझा जाता था और औरतों कोफिल्मों में काम करने की शरीफ घरों से इजाजत नहीं थी।
खास फिल्में : राजा हरिश्चंद्र , लंका दहन , बिलेत फेरात।
           
1923 से 1932 - आई आवाज                     

ये 10 साल सिनेमा के सबसे अहम शुरूआती बरस कहे जा सकते हैं। धार्मिक विषयों से आगे जाकर फिल्ममेकर्ससामाजिक विषयों की ओर मुड़े। इससे एक बड़ा दर्शक वर्ग सिनेमा के साथ हो लिया। बड़े कारोबारियों को सिनेमाके जरिए मुनाफा कमाया जा सकता है , इसकी गुंजाइश भी दिखने लगी थी। इन बरसों में ही पहली बोलतीफिल्म ' आलम आरा ' आई। अदेर्शिर ईरानी के निदेर्शन में बनी यह फिल्म नायक राजकुमार और बंजारन नायिकाकी प्रेम कहानी थी , जिसने पर्दे पर प्यार की कहानी ही नहीं , गीत - संगीत के लिए भी जगह बनाई। ' आलमआरा ' में सात गीत थे। यहां से हिंदी सिनेमा में गीतों का जो सिलसिला शुरू हुआ , वह अब तक धूमधाम से जारीहै। बाबूराव पेंटर , धीरेन गांगुली , चंदूलाल शाह और व्ही . शांताराम इस दौर के प्रमुख फिल्मकार थे।
खास फिल्में : नल दमयंती , माया मच्छिंदा , आलम आरा।

1933 से 1942 - स्टूडियो
यह हिंदी सिनेमा का स्टूडियो एरा है। मुख्य रूप से तीन बड़े स्टूडियो इस दौर में सक्रिय रहे। वीरेंदनाथ सरकारद्वारा स्थापित ' न्यू थियेटर्स ', चार भागीदारों ( शांताराम , दामले , फत्तेलाल , धायबर ) द्वारा स्थापित ' प्रभात' स्टूडियो और हिमांशु राय का ' बांबे टॉकीज ' 1935 में न्यू थियेटर्स के पी . सी . बरुआ ने नामी बांग्ला लेखकशरतचंद के उपन्यास पर ' देवदास ' पर फिल्म बनाकर सिनेमा को उसकी सबसे चहेती प्रेम और बिछोह की कथादी। के . एल . सहगल इस दौर के स्टार थे। उनकी गायकी तो आने वाली पीढ़ियों के लिए मिसाल ही बन गई।देविका रानी सिनेमा में नायिका की मजबूत दखल थीं। उन्हीं का दामन थामे अशोक कुमार सिनेमा में आए।सोहराब मोदी की ' सिकंदर ' ऐतिहासिक पृष्ठभूमि की फिल्मों में मील का पत्थर थी तो महबूब खान की 1940 मेंबनी ' औरत ' ने आगे चलकर हिंदी सिनेमा की महानतम फिल्मों में से एक ' मदर इंडिया ' के लिए राह बनाई।
खास फिल्में : देवदास , सिकंदर , अछूत कन्या

1943 से 1952 - स्टारडम , शोमैनशिप

अशोक कुमार इस दौर के बड़े नायक थे। ' हुमायूं ', ' किस्मत ' और ' महल ' जैसी भव्य फिल्मों में अभिनय सेउन्होंने हिंदी सिनेमा में स्टारडम जैसी बात पैदा की। यह वही दौर था , जब भारत के हिस्से आजादी औरविभाजन एक साथ आया। यह दिलचस्प है कि इन बरसों के सिनेमा ने इन दोनों बड़ी घटनाओं को बहुत तवज्जोनहीं दिया। 1947 में ' जुगनू ' की कामयाबी के साथ दिलीप कुमार दर्शकों की निगाह में आए और 1948 में ' आग' के साथ शोमैन राज कपूर ने अपनी निदेर्शकीय पारी की शुरुआत की। 1949 में महबूब खान ने इन दोनों सितारोंको लेकर ' अंदाज ' बनाई , जिसके जरिए हिंदी सिनेमा को नरगिस जैसी ग्लैमरस गर्ल मिली। खुद राज कपूर ने 'आवारा ' के जरिए अपनी इमेज चार्ली चैप्लिन जैसी बनाई।
खास फिल्में : किस्मत , महल , आवारा

1953 से 1962 - सपना समाजवाद का
नया आजाद मुल्क , उसकी आकांक्षाएं और सपने सिनेमा में दिखने लगे। समाजवाद का नेहरूवियन मॉडल राजकपूर सामने ला रहे थे। ' साथी हाथ बढ़ाना ' हिंदी सिनेमा इस दशक की टेक बना। पर्दे पर शहर और गांव , नएऔर पुराने , देश के बदलते हालात और उसकी दिक्कतें थी। ' दो बीघा जमीन ' में कोलकाता की तपती सड़कों परनंगे पैरों रिक्शागाड़ी खींचता शंभू महतो इसका गवाह बना। ' जिस देश में गंगा बहती है ', ' नया दौर ' औरदेवानंद की ज्यादातर फिल्में इसी सिलसिले की कड़ी हैं। सामंती और पूंजीवादी व्यवस्था के गठजोड़ को हमारेसामने इस दशक में महबूब खान की फिल्म ' मदर इंडिया ' लाती है। यह फिल्म इतनी प्रभावी थी कि बाद मेंऑस्कर की रेस में भी बहुत दूर तक हिंदी सिनेमा का परचम लहराने में कामयाब हुई। यह दशक ' मुगल - -आजम ' जैसी अजीमोशान फिल्म का भी गवाह बना। पर्दे पर मधुबाला की बेमिसाल सुंदरता और दिलीप कुमारके बेजोड़ अभिनय में चार चांद लगाए नौशाद के संगीत ने। इस चकाचौंध से अलग गुरुदत्त जैसी पैनी निगाह भीथी , जो बदलते दौर को अपनी फिल्मों ( प्यासा , कागज के फूल ) में किसी मोह से देखने की बजाय उसकी बहुतखरी आलोचना कर रहे थे।
खास फिल्में : दो बीघा जमीन , मदर इंडिया , मुगल - - आजम

1963 से 1972 - मेरे देश की मिट्टी , अहा !
चीन और पाकिस्तान से जंग , नायक के रूप में देखे जाने वाले नेहरू का देहांत और उनके डिवेलपमंट के मॉडलसे असंतोष और मोहभंग इस दौर की सिनेमा में दिखता है। चेतन आनंद की ' हकीकत ', युद्ध को एक ज्यादामानवीय एंगल से दिखाती है तो मनोज कुमार की फिल्में ' शहीद ', ' उपकार ', ' पूरब और पश्चिम ' में देशभक्तिऔर संस्कृति प्रेम के कई आयाम दिखते हैं। सिनेमा के लैंडस्केप इसी दौर में विदेशी होने लगे और गीत - संगीत मेंभी विदेशी धुनें आने लगीं। देवानंद जैसे सुपर स्टार ' गाइड ' जैसी फिल्म में आते हैं , जो दरअसल भारत मेंउभरते मिडल क्लास के जीवन को कई कोणों से छूती है। 1965 में फिल्मफेयर की टैलंट हंट राजेश खन्ना जीतेथे। देखते - ही देखते वह राज कपूर , दिलीप कुमार और देवानंद की सुपर स्टार तिकड़ी के रहते सुपर स्टार कामुकाम हासिल करेंगे , यह बहुत कम लोगों को अंदाजा था। ऋषिकेश मुखर्जी की फिल्म ' आनंद ' से अपनी शांतमौजूदगी दर्ज कराने वाले अमिताभ बच्चन ' एंग्री यंग मैन ' पक रहा था।
खास फिल्में : गाइड , तीसरी मंजिल , भुवन शोम

1973 से 1982 - एंग्री यंगमैन
कहते हैं कि शुरुआती दिनों में स्क्रीनप्ले रायटर जोड़ी ' सलीम - जावेद ' खुद पेंट का डिब्बा हाथ में लेकर अपनीफिल्मों के पोस्टरों पर अपना नाम लिखा करती थी। यही वह जोड़ी थी , जिसने एक सत्तालोलुप और भ्रष्ट समाजके प्रति आम आदमी के विदोह को सिनेमाई पर्दे पर जिंदा किया। ' एंग्री यंग मैन ' का जन्म समाज में दहकतेनक्सलबाड़ी के अंगारों पर हुआ था और अमिताभ बच्चन के रूप में हिंदी सिनेमा ने सदी के महानायक को इसीजोड़ी के जरिए ही पाया। अमिताभ दिन में ' शोले ' की शूटिंग किया करते और मुंबई की जागती रातों में ' दीवार' का क्लाइमेक्स फिल्माया जाता था। इसी दशक में समांतर सिनेमा शुरू हुआ , जिसने हिंदी सिनेमा के चालूनुस्खों से अलग जाकर अपना रास्ता बनाया। श्याम बेनेगल की ' अंकुर ' के साथ शुरू हुआ यह सफर नसीरुद्दीनशाह , ओम पुरी , स्मिता पाटिल , शबाना आजमी जैसे कलाकारों को हिंदी सिनेमा में लेकर आया। 1975 मेंस्थापित हुई नैशनल फिल्म डिवेलपमेंट कॉरपोरेशन ने इसमें सबसे महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। ऋषिकेश मुखर्जी, गुलजार , बासु चटर्जी की फिल्मों को साथ लेकर देखें तो पता चलेगा कि इस दशक तक आते - आते हिंदीसिनेमा में काफी वरायटी चुकी थी और कई मिजाज , सोच और अप्रोच की फिल्में एक साथ दर्शकों के बीचथीं।
खास फिल्में : दीवार , शोले , भूमिका

1983 से 1992 - समांतर सिनेमा
सत्तर के दशक के आक्रोश के प्रतीक ' एंग्री यंग मैन ' के रचयिता सलीम - जावेद की जोड़ी बिखर चुकी थी औरसदी के महानायक अमिताभ का सितारा अब बुझ रहा था। ' तेजाब ',  परिंदा ',  काला बाजार ' जैसी फिल्मों केसाथ आधुनिक शहर की अंधेरी गुफाएं सिनेमा में आने लगीं। इन्हीं बरसों में जेन नेक्स्ट के स्टार अनिल कपूर ,जैकी श्रॉफ वगैरह उभरे। पॉपुलर फिल्मों के बरक्स समांतर सिनेमा ने इस दशक में अपनी मौजूदगी का अहसासऔर गहरा किया। ' जाने भी दो यारों ' ने सत्ता की काली करतूत , ' अर्धसत्य ' ने सड़ चुके सिस्टम के भीतर जीनेकी तकलीफ और ' सलाम बॉम्बे ' ने शहर के हाशिए को जिस असरदार अंदाज में पर्दे पर दिखाया , वह हिंदीसमांतर सिनेमा किस ऊंचाई पर पहुंच चुका था , यह बताने के लिए काफी है। हालांकि इस दशक के बीतने - -बीतते हिंदी सिनेमा के पर्दे पर अलग - अलग पारिवारिक पृष्ठभूमि से आए तीन खान ( आमिर , सलमान ,शाहरुख ) ने सिनेमा के पर्दे पर फिर से पारिवारिक ताने - बाने के बीच पनपते युवा प्रेम के लिए जगह बनाई ,जिसका भारत का बड़ा मिडिल क्लास मुरीद बन गया। ' कयामत से कयामत तक ' के साथ पूरी पीढ़ी जवान हुई, जिसने बेझिझक ' मैंने प्यार किया ' कहना सीखा।
खास फिल्में : मिस्टर इंडिया , अर्धसत्य , मैंने प्यार किया

1993 से 2002 - एनआरई सिनेमा
हिंदुस्तान बहुत तेजी से बदल रहा था। उदारीकरण ने देश के बाजारों को बदला और बाजार ने सिनेमा को। हिंदीसिनेमा अब विदेशों में बसे भारतीयों को नजर में ऊपर रखने लगा। राजश्री की ' हम आपके हैं कौन ' में बसासंयुक्त परिवार के प्रति मोह और आदित्य चोपड़ा की ' दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे ' का भारत की यादों मेंतड़पता एनआरआई इस दौर के सिनेमा के बदलते मिजाज की पहचान कराते हैं। यह बतौर सुपरस्टार तीनों खान( खास तौर से शाहरुख खान को उनकी ग्रे शेड से लेकर रोमैंटिक भूमिकाओं की वजह से ) को स्थापित करने वालादशक भी है। नई सदी में सिनेमा का नया दौर आया। रामगोपाल वर्मा ने इसका ढंग बदला तो मणिरत्नम नेइसकी चाल। ' दिल चाहता है ' और ' सत्या ' जैसी फिल्में इस दौर की कल्ट क्लासिक बनीं , जिससे आगे कीसिनेमा के लिए राह खुली।
खास फिल्में : दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे , सत्या , दिल चाहता है

2003 से 2012 - छोटे-छोटे शहरों से
यहां तक आते आते बॉलिवुड में फिल्म बनाना किसी खास ' फैमिली का बिजनेस ' नहीं रह गया था। इस दौर केफिल्मकार मायानगरी के लिए आउटसाइडर थे। वे गोरखपुर , मेरठ , जमशेदपुर या नागपुर जैसे शहरों से आए थेऔर उन्होंने अपनी प्रतिभा के बलबूते इस इंडस्ट्री में जगह बनाई। तकनीक ने सिनेमा को ज्यादा सहज बनायाऔर उसे बड़े पर्दे से निकालकर आम आदमी के ड्राइंग रूम में ले आई। इसी बीच मल्टिप्लेक्स आए और उनकेसाथ सिनेमा का दर्शक बदला , विषय भी बदले। अब सिनेमा में गांव नहीं थे , स्याह शहरों की कथाएं थीं , जिन्हें' ब्लैक फ्राइडे ' में अनुराग कश्यप ने , ' मकबूल ' में विशाल भारद्वाज ने और ' हजारों ख्वाहिशें ऐसी ' में सुधीरमिश्रा जैसे डायरेक्टर्स ने असरदार तरीके से दिखाया। इन्हीं बरसों में पर्दे पर ऋतिक रोशन और रणबीर कपूरजैसे स्टार पुत्रों की मांग बढ़ी , जबकि सलमान और आमिर खान ने अपेन स्टारडम का शिखर देखा। लेकिन इनकीकामयाबी के पीछे हमेशा कोई राजकुमार हिरानी , अभिनव कश्यप , इम्तियाज अली थे।
खास फिल्में : ब्लैक फ्राइडे , रंग दे बसंती , थ्री इडियट्स

10 डॉयलॉग जो भुलाए नहीं भूलते

- कौन कमबख्त है , जो बर्दाश्त करने के लिए पीता है ... मैं तो पीता हूं कि बस सांस ले सकूं।
( दिलीप कुमार , देवदास में )

- चिनॉय सेठ , जिनके अपने घर शीशे के होते हों , वो दूसरों पर पत्थर नहीं फेंका करते।
( राजकुमार , वक्त में )

- आपके पांव देखे। बहुत हसीन हैं। इन्हें जमीन पर रखिएगा , मैले हो जाएंगे।
( राजकुमार , पाकीजा में )

- तेरा क्या होगा कालिया ?
( अमजद खान , शोले में )

- बाबू मोशाय , जिंदगी और मौत ऊपर वाले के हाथ है जहांपनाह , जिसे आप बदल सकते हैं , मैं। हम सबतो रंगमंच की कठपुतलियां हैं।
( राजेश खन्ना , आनंद में )

- पुष्पा , आई हेट टियर्स।
( राजेश खन्ना , अमर प्रेम में )

- डावर सेठ , मैं आज भी फेंके हुए पैसे नहीं उठाता।
( अमिताभ बच्चन , दीवार में )

- हम जहां , खड़े होते हैं , लाइन वहीं से शुरू होती है।
( अमिताभ बच्चन , कालिया में )

- डॉन को पकड़ना मुश्किल ही नहीं , नामुमकिन है।
( अमिताभ बच्चन / शाहरुख खान )

- मैं अपनी फेवरेट हूं।
( करीना कपूर , जब वी मेट में )



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