हिन्दू
धर्म (संस्कृत: सनातन
धर्म) विश्व के सभी धर्मों में सबसे पुराना धर्म है। ये वेदों पर आधारित
धर्म है, जो अपने अन्दर कई अलग अलग उपासना पद्धतियाँ,
मत, सम्प्रदाय, और दर्शन
समेटे हुए है। अनुयायियों की संख्या के आधार पर ये विश्व का तीसरा सबसे बड़ा धर्म
है, संख्या के आधार पर इसके अधिकतर उपासक भारत में हैं और प्रतिशत के आधार पर नेपाल में है। हालाँकि इसमें कई देवी-देवताओं की पूजा की जाती है, लेकिन वास्तव में यह एकेश्वरवादी धर्म है।
हिन्दी
में इस धर्म को सनातन धर्म अथवा वैदिक धर्म भी कहते हैं। इण्डोनेशिया में इस धर्म का औपचारिक नाम "हिन्दु आगम" है। हिन्दू केवल एक
धर्म या सम्प्रदाय ही नही है अपितु जीवन जीने की एक पद्धति है " हिंसायाम
दूयते या सा हिन्दु "अर्थात् जो अपने मन, वचन, कर्म से हिंसा से दूर रहे वह हिन्दू है और जो कर्म अपने हितों के लिए
दूसरों को कष्ट दे वह हिंसा है।
हिन्दू धर्म की अवधारणाएँ एवं परम्पराएँ
हिन्दू धर्म की प्रमुख अवधारणाएं निम्नलिखित हैं-
- ब्रह्म- ब्रह्म को सर्वव्यापी, एकमात्र सत्ता, निर्गुण तथा सर्वशक्तिमान माना गया है। वास्तव में यह एकेश्वरवाद के 'एकोऽहं, द्वितीयो नास्ति' (अर्थात् एक ही है, दूसरा कोई नहीं) के 'परब्रह्म' हैं, जो अजर, अमर, अनन्त और इस जगत का जन्मदाता, पालनहारा व कल्याणकर्ता है।
- आत्मा- ब्रह्म को सर्वव्यापी माना गया है अत: जीवों में भी उसका अंश विद्यमान है। जीवों में विद्यमान ब्रह्म का यह अशं ही आत्मा कहलाती है, जो जीव की मृत्यु के बावजूद समाप्त नहीं होती और किसी नवीन देह को धारण कर लेती है। अंतत: मोक्ष प्राप्ति के पश्चात् वह ब्रह्म में लीन हो जाती है।
- पुनर्जन्म- आत्मा के अमरत्व की अवधारणा से ही पुनर्जन्म की भी अवधारणा पुष्ट होती है। एक जीव की मृत्यु के पश्चात् उसकी आत्मा नयी देह धारण करती है अर्थात् उसका पुनर्जन्म होता है। इस प्रकार देह आत्मा का माध्यम मात्र है।
- योनि- आत्मा के प्रत्येक जन्म द्वारा प्राप्त जीव रूप को योनि कहते हैं। ऐसी 84 करोड़ योनियों की कल्पना की गई है, जिसमें कीट-पतंगे, पशु-पक्षी, वृक्ष और मानव आदि सभी शामिल हैं। योनि को आधुनिक वैज्ञानिक भाषा में जैव प्रजातियाँ कह सकते हैं।
- कर्मफल- प्रत्येक जन्म के दौरान जीवन भर किये गये कृत्यों का फल आत्मा को अगले जन्म में भुगतना पड़ता है। अच्छे कर्मों के फलस्वरूप अच्छी योनि में जन्म होता है। इस दृष्टि से मनुष्य सर्वश्रेष्ठ योनि है। परन्तु कर्मफल का अंतिम लक्ष्य मोक्ष प्राप्ति अर्थात् आत्मा का ब्रह्मलीन हो जाना ही है।
- स्वर्ग-नरक- ये कर्मफल से सम्बंधित दो लोक हैं। स्वर्ग में देवी-देवता अत्यंत ऐशो-आराम की जिन्दगी व्यतीत करते हैं, जबकि नरक अत्यंत कष्टदायक, अंधकारमय और निकृष्ट है। अच्छे कर्म करने वाला प्राणी मृत्युपरांत स्वर्ग में और बुरे कर्म करने वाला नरक में स्थान पाता है।
- मोक्ष- मोक्ष का तात्पर्य है- आत्मा का जीवन-मरण के दुष्चक्र से मुक्त हो जाना अर्थात् परमब्रह्म में लीन हो जाना। इसके लिए निर्विकार भाव से सत्कर्म करना और ईश्वर की आराधना आवश्यक है।
- चार युग- हिन्दू धर्म में काल (समय) को चक्रीय माना गया है। इस प्रकार एक कालचक्र में चार युग-कृत (सत्य), सत त्रेता, द्वापर तथा कलि-माने गये हैं। इन चारों युगों में कृत सर्वश्रेष्ठ और कलि निकृष्टतम माना गया है। इन चारों युगों में मनुष्य की शारीरिक और नैतिक शक्ति क्रमश: क्षीण होती जाती है। चारों युगों को मिलाकर एक महायुग बनता है, जिसकी अवधि 43,20,000 वर्ष होती है, जिसके अंत में पृथ्वी पर महाप्रलय होता है। तत्पश्चात् सृष्टि की नवीन रचना शुरू होती है।
- चार वर्ण- हिन्दू समाज चार वर्णों में विभाजित है- ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र। ये चार वर्ण प्रारम्भ में कर्म के आधार पर विभाजित थे। ब्राह्मण का कर्तव्य विद्यार्जन, शिक्षण, पूजन, कर्मकांड सम्पादन आदि है, क्षत्रिय का धर्मानुसार शासन करना तथा देश व धर्म की रक्षा हेतु युद्ध करना, वैश्यों का कृषि एवं व्यापार द्वारा समाज की आर्थिक आवश्यकताएँ पूर्ण करना तथा शूद्रों का अन्य तीन वर्णों की सेवा करना एवं अन्य ज़रूरतें पूरी करना। कालांतर में वर्ण व्यवस्था जटिल होती गई और यह वंशानुगत तथा शोषणपरक हो गई। शूद्रों को अछूत माना जाने लगा। बाद में विभिन्न वर्णों के बीच दैहिक सम्बन्धों से अन्य मध्यवर्ती जातियों का जन्म हुआ। वर्तमान में जाति व्यवस्था अत्यंत विकृत रूप में दृष्टिगोचर होती है।
- चार आश्रम- प्राचीन हिन्दू संहिताएँ मानव जीवन को 100 वर्ष की आयु वाला मानते हुए उसे चार चरणों अर्थात् आश्रमों में विभाजित करती हैं- ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास। प्रत्येक की संभावित अवधि 25 वर्ष मानी गई। ब्रह्मचर्य आश्रम में व्यक्ति गुरु आश्रम में जाकर विद्याध्ययन करता है, गृहस्थ आश्रम में विवाह, संतानोत्पत्ति, अर्थोपार्जन, दान तथा अन्य भोग विलास करता है, वानप्रस्थ में व्यक्ति धीरे-धीरे संसारिक उत्तरदायित्व अपने पुत्रों को सौंप कर उनसे विरक्त होता जाता है और अन्तत: संन्यास आश्रम में गृह त्यागकर निर्विकार होकर ईश्वर की उपासना में लीन हो जाता है।
- चार पुरुषार्थ- धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष- ये चार पुरुषार्थ ही जीवन के वांछित उद्देश्य हैं उपयुक्त आचार-व्यवहार और कर्तव्य परायणता ही धर्म है, अपनी बौद्धिक एवं शरीरिक क्षमतानुसार परिश्रम द्वारा धन कमाना और उनका उचित तरीके से उपभोग करना अर्थ है, शारीरिक आनन्द भोग ही काम है तथा धर्मानुसार आचरण करके जीवन-मरण से मुक्ति प्राप्त कर लेना ही मोक्ष है। धर्म व्यक्ति का जीवन भर मार्गदर्शक होता है, जबकि अर्थ और काम गृहस्थाश्रम के दो मुख्य कार्य हैं और मोक्ष सम्पूर्ण जीवन का अंति लक्ष्य।
- चार योग- ज्ञानयोग, भक्तियोग, कर्मयोग तथा राजयोग- ये चार योग हैं, जो आत्मा को ब्रह्म से जोड़ने के मार्ग हैं। जहाँ ज्ञान योग दार्शनिक एवं तार्किक विधि का अनुसरण करता है, वहीं भक्तियोग आत्मसमर्पण और सेवा भाव का, कर्मयोग समाज के दीन दुखियों की सेवा का तथा राजयोग शारीरिक एवं मानसिक साधना का अनुसरण करता है। ये चारों परस्पर विरोधी नहीं, बल्कि सहायक और पूरक हैं।
- चार धाम- उत्तर, दक्षिण, पूर्व और पश्चिम- चारों दिशाओं में स्थित चार हिन्दू धाम क्रमश: बद्रीनाथ, रामेश्वरम्, जगन्नाथपुरी और द्वारका हैं, जहाँ की यात्रा प्रत्येक हिन्दू का पुनीत कर्तव्य है।
- प्रमुख धर्मग्रन्थ- हिन्दू धर्म के प्रमुख ग्रंथ हैं- चार वेद (ॠग्वेद, सामवेद, यजुर्वेद और अथर्ववेद) तेरह उपनिषद, अठारह पुराण, रामायण, महाभारत, गीता, रामचरितमानस आदि। इसके अलावा अनेक कथाएँ, अनुष्ठान ग्रंथ आदि भी हैं।
- सोलह संस्कार मनुष्य के जन्म से लेकर मृत्यु तक सोलह पवित्र संस्कार सम्पन्न किये जाते हैं-
मूर्तिपूजा
ज्यादातर
हिन्दू भगवान की मूर्तियों द्वारा पूजा करते हैं। उनके लिये मूर्ति एक आसान सा
साधन है, जिसमें कि एक ही
निराकार ईश्वर को किसी भी मनचाहे सुन्दर रूप में देखा जा सकता है। हिन्दू लोग
वास्तव में पत्थर और लोहे की पूजा नहीं करते, जैसा कि कुछ
लोग समझते हैं। मूर्तियाँ हिन्दुओं के लिये ईश्वर की भक्ति करने के लिये एक साधन
मात्र हैं।
मंदिर
हिन्दुओं
के उपासना स्थलों को मन्दिर कहते हैं। प्राचीन वैदिक काल में मन्दिर नहीं होते थे।
तब उपासना अग्नि के स्थान पर होती थी जिसमें एक सोने की मूर्ति ईश्वर के प्रतीक के
रूप में स्थापित की जाती थी। एक नज़रिये के मुताबिक बौद्ध और जैन धर्मों द्वारा
बुद्ध और महावीर की मूर्तियों और मन्दिरों द्वारा पूजा करने की वजह से हिन्दू भी
उनसे प्रभावित होकर मन्दिर बनाने लगे। हर मन्दिर में एक या अधिक देवताओं की उपासना
होती है। गर्भगृह में इष्टदेव की मूर्ति प्रतिष्ठित होती है। मन्दिर प्राचीन और
मध्ययुगीन भारतीय कला के श्रेष्ठतम प्रतीक हैं। कई मन्दिरों में हर साल लाखों
तीर्थयात्री आते हैं।
अधिकाँश
हिन्दू चार शंकराचार्यों को (जो ज्योतिर्मठ,
द्वारिका, शृंगेरी और पुरी के मठों के मठाधीश
होते हैं) हिन्दू धर्म के सर्वोच्च धर्मगुरु मानते हैं।
त्यौहार
नववर्ष
- द्वादशमासै: संवत्सर:।' ऐसा वेद वचन है, इसलिए यह जगत्मान्य हुआ। सर्व
वर्षारंभों में अधिक योग्य प्रारंभदिन चैत्र शुक्ल प्रतिपदा है। इसे पूरे भारत में
अलग-अलग नाम से सभी हिन्दू धूम-धाम से मनाते हैं।
हिन्दू
धर्म में सूर्योपासनाके लिए प्रसिद्ध पर्व है छठ। मूलत: सूर्य षष्ठी व्रत होनेके
कारण इसे छठ कहा गया है। यह पर्व वर्षमें दो बार मनाया जाता है, किन्तु काल क्रम मे
अब यह बिहार, पूर्वी उत्तर प्रदेश वासियों तक ही सीमित रह
गया है।
आश्विन
शुक्ल प्रतिपदा से नवरात्रोत्सव आरंभ होता है। नवरात्रोत्सव में घटस्थापना करते
हैं। अखंड दीप के माध्यम से नौ दिन श्री दुर्गादेवी की पूजा अर्थात् नवरात्रोत्सव
मनाया जाता है।
श्रावण
कृष्ण अष्टमी पर जन्माष्टमी का उत्सव मनाया जाता है। इस तिथि में दिन भर उपवास कर
रात्रि बारह बजे पालने में बालक श्रीकृष्ण का जन्मोत्सव मनाया जाता है, उसके उपरांत प्रसाद
लेकर उपवास खोलते हैं, अथवा अगले दिन प्रात: दही-कलाकन्द का
प्रसाद लेकर उपवास खोलते हैं।
आश्विन
शुक्ल दशमी को विजयादशमी का त्यौहार मनाया जाता है। दशहरे के पहले नौ दिनों
(नवरात्रि) में दसों दिशाएं देवी की शक्ति से प्रभासित होती हैं, व उन पर नियंत्रण
प्राप्त होता है, दसों दिशाओंपर विजय प्राप्त हुई होती है।
इसी दिन राम ने रावण पर विजय प्राप्त की थी।
शाकाहार
किसी भी
हिन्दू का शाकाहारी होना आवश्यक है,
क्योंकि शाकाहार का गुणज्ञान किया जाता है। शाकाहार को सात्विक आहार
माना जाता है। आवश्यकता से अधिक तला भुना शाकाहार ग्रहण करना भी राजसिक माना गया
है। मांसाहार को इसलिये अच्छा नही माना जाता,क्योंकि मांस
पशुओं की हत्या से मिलता है, अत: तामसिक पदार्थ है। वैदिक काल में पशुओं का मांस खाने की अनुमति नहीं थी, एक सर्वेक्षण के अनुसार आजकल लगभग 70% हिन्दू,
अधिकतर ब्राह्मण व गुजराती और मारवाड़ी हिन्दू पारम्परिक रूप से
शाकाहारी हैं। वे भी गोमांस कभी नहीं खाते, क्योंकि गाय को
हिन्दू धर्म में माता समान माना गया है। कुछ हिन्दू मन्दिरों में पशुबलि चढ़ती है,
पर आजकल यह प्रथा हिन्दुओं द्वारा ही निन्दित किये जाने से
समाप्तप्राय: है।
वर्ण व्यवस्था
प्राचीन
हिंदू व्यवस्था में वर्ण व्यवस्था और जाति का विशेष महत्व था। चार प्रमुख वर्ण थे
- ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र।
पहले यह व्यवस्था कर्म प्रधान थी। अगर कोइ सेना में काम करता था तो वह क्षत्रिय हो
जाता था चाहे उसका जन्म किसी भी जाति में हुआ हो।
इस प्रकार हिन्दू धर्म की विविधता, जटिलता एवं बहु आयामी प्रवृत्ति स्पष्ट है। इसमें अनेक दार्शनिकों ने अलग-अलग प्रकार से ईश्वर एवं सत्य को समझने का प्रयास किया, फलस्वरूप अनेक दार्शनिक मतों का प्रादुर्भाव हुआ।
''''''''''''''''''हिन्दू मान्यताओं और परम्पराओं'''''''''''''''''''''''''''''''''''''
हिन्दू मान्यताओं और परम्पराओं पर बेतुके ढंग से प्रश्नचिन्ह लगाने वाले बेवकूफ जरूर पढ़ें :
विज्ञान केवल यह कह देने नहीं प्रमाणित होता कि किसी किताब से
विज्ञान है, बल्कि विज्ञान आँखों से दिखाई देता है। हिन्दू धर्म की वैज्ञानिकता -
हिंदू संस्कृति किसी अंधविश्वास पर नहीं बल्कि विज्ञान की ठोस धरातल पर बनी है,
जिस पर लाखों लोग विश्वास करते हैं और आगे भी करते रहेंगे। इस
संस्कृति में सांस लेने, खाने, बैठने
और खड़े होने जैसी सामान्य बातों समेत जीवन का हर पहलू एक आध्यात्मिक प्रक्रिया के
तौर पर विकसित हुआ। वैज्ञानिक दृष्टिकोण के अन्वेषणों से भी सिद्ध हो चुका है कि
हिन्दू धर्म की अनेकों परम्पराएँ वैज्ञानिक खोजों के आधार पर प्रचलन मे आयीं।
इंसान की परम प्रकृति को यहां बड़े व्यापक तरीके से खोजा गया है। हालांकि
दुर्भाग्य की बात यह है कि हमारी संस्कृति से संबंधित काफी कुछ खो चुका है। वास्तव
में हम उसे सुरक्षित ही नहीं रख पाए, लेकिन फिर भी यह एक
जीती जागती संस्कृति है।
इसी संस्कृति की उन परंपराओं को जानेगें और उनके पीछे के वैज्ञानिक
कारणों को जिसे आम लोग नहीं जानते हैं,आज उस पर से पर्दा उठाएंगे। जरुर पढे़ यह लेख...
1. नदी में सिक्के फेंकना :
हम लोग यह हमेशा से ही सुनते आ रहें हैं, कि
बहती नदी में सिक्के डालने से हमे सौभाग्य प्राप्त होगा। लेकिन इसका एक वैज्ञानिक
कारण है, पहले जब सिक्के बनाये जाते थे तो वे तांबे के होते
थे जो कि हमारे शरीर के लिए एक बहुत उपयोगी धातु मनी जाती है। लेकिन आज के समय में
यह सिक्के तांबे के नहीं स्टेनलेस स्टील के बनते हैं, जिसे
पानी में डालने से पानी में कोई फरक नहीं पड़ता है। इसके उलट तांबे के सिक्के पानी
में जाने से पानी पीने लायक बनता था।
2. नमस्कार करना : नमस्कार करने के पीछे केवल सांस्कृतिक पहलू ही नहीं है,
एक पूरा विज्ञान है। अगर आप साधना कर रहे हैं, तो जब भी आप अपनी हथेलियों को साथ लाते हैं, तो एक
ऊर्जा पैदा होती है। जीवन-ऊर्जा के स्तर पर आप कुछ दे रहे होते हैं। आप खुद को एक
अर्पण या भेंट के तौर पर दूसरे व्यक्ति को समर्पित कर रहे हैं। देने की इस
प्रक्रिया में आप दूसरे प्राणी को भी जीवंत कर देंगे और वही जीवंतता फिर आपके साथ
सहयोग करेगी।
3. बिछिया पहनना : पांवो में अंतिम आभूषण के रूप में बिछिया पहनी जाती है।
दोनों पांवों की बीच की तीन उंगलियो में बिछिया पहनने का रिवाज है। सोने का टीका
और चांदी की बिछिया का भाव ये होता है कि आत्म कारक सूर्य और मन कारक चंद्रमा
दोनों की कृपा जीवनभर बनी रहे।
4. माथे पर तिलक लगाना : माना जाता है कि मनुष्य के मस्तक के मध्य में विष्णु
भगवान का निवास होता है और तिलक ठीक इसी स्थान पर लगाया जाता है। मनोविज्ञान की
दृष्टि से भी तिलक लगाना उपयोगी माना गया है। माथा चेहरे का केंद्रीय भाग होता है,
जहां सबकी नजर अटकती है। उसके मध्य में तिलक लगाकर, विशेषकर स्त्रियों में, देखने वाले की दृष्टि को
बांधे रखने का प्रयत्न किया जाता है।
5. मंदिर में घंटी क्यों होती है : इसके पीछे यह मान्यता है कि जिन स्थानों
पर घंटी की आवाज नियमित तौर पर आती रहती है वहां का वातावरण हमेशा सुखद और पवित्र
बना रहता है और नकारात्मक या बुरी शक्तियां पूरी तरह निष्क्रिय रहती हैं। यही वजह
है कि सुबह और शाम जब भी मंदिर में पूजा या आरती होती है तो एक लय और विशेष धुन के
साथ घंटियां बजाई जाती हैं जिससे वहां मौजूद लोगों को शांति और दैवीय उपस्थिति की
अनुभूति होती है।
6. हम नवरात्र क्यों मनाते हैं : आज हमारी लाइफस्टािइल इतनी खराब हो गई है कि
हमें अपने शरीर को शुद्ध करने का मौका ही नहीं मिलता। अगर हम नवरात्र में सारा दिन
भूखा रह कर केवल फल आदि का सेवन करें तो हमारे पेट के सारे रोग दूर हो जाएंगे।
नवरात्र हमें पूरा मौका देता है कि हम मौसम के अनुसार खुद के शरीर को ढाल लें।
7. तुलसी के पेड़ की क्यों पूजा होती है : तुलसी में विद्यमान रसायन वस्तुतः
उतने ही गुणकारी हैं, जितना वर्णन शास्रों में किया गया है।
यह कीटनाशक है, कीटप्रतिकारक तथा खतरनाक जीवाणुनाशक है।
विशेषकर एनांफिलिस जाति के मच्छरों के विरुद्ध इसका कीटनाशी प्रभाव उल्लेखनीय है।
8. क्यों करते है पीपल के वृक्ष की पूजा : पीपल की उपयोगिता और महत्ता
वैज्ञानिक और आध्यात्मिक
दोनों कारणों से है। यह वृक्ष अन्य वृक्षों की तुलना में वातावरण
में ऑक्सीजन की अधिक-से-अधिक मात्रा में
अभिवृद्धि करता है। यह प्रदूषित वायु को स्वच्छ करता है और आस-पास
के वातावरण में सात्विकता की वृद्धि भी करता है। इसके संसर्ग में आते ही तन-मन
स्वतः हर्षित और पुलकित हो जाता है। यही कारण है कि इस वृक्ष के नीचे ध्यान एवं
मंत्र जप का विशेष महत्व है।
9. भोजन के अंत में मिठाई खाना : हमारे पूर्वजों का मानना था कि मसालेदार
भोजन के बाद मिठाई खानी चाहिए। यह इसलिए भी होता है क्यों कि जब हम कुछ मसालेदार
भोजन खाते हैं, तो हमारे शरीर एसिड बने लगता है जिससे हमारा
खाना पचता है और यह एसिड ज्यादा ना बने इसके लिए आखिर में मिठाई खाई जाती है जो
पाचन प्रक्रिया शांत करती है।
10. पुरुष सर पे चोटी क्यों रखते हैं : असल में जिस स्थान पर शिखा यानि कि
चोंटी रखने की परंपरा है,
वहा पर सिर के बीचों-बीच सुषुम्ना नाड़ी का स्थान होता है। तथा
शरीर विज्ञान यह सिद्ध कर चुका है कि सुषुम्रा नाड़ी इंसान के हर तरह के विकास में
बड़ी ही महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। चोटी सुषुम्रा नाड़ी को हानिकारक
प्रभावों से तो बचाती ही है, साथ में ब्रह्माण्ड से आने वाले सकारात्मक तथा
आध्यात्मिक विचारों को केच यानि कि ग्रहण भी करती है।
11. हाथों में मेहंदी लगाना : मेंहदी एक हर्ब के रूप में देखी जाती है,
जिसे लगाने से दिमाग शांत रहता है और मन प्रसन्ना रहता है। इसलिये
शादी के एक दिन दुल्हदने मेंहदी लगाती हैं, जिससे उन्हें
शादी का तनाव ना हो पाए।
12. दीवाली से पहले घर की साफ़ सफाई : दीवाली के पहले की एक परम्परा होती है,
घर की साफ़ सफाई। घर में जितना भी पुराना सामान होता है, वह या तो बाँट दिया जाता है या फेंक दिया जाता है। वर्षा ऋतु की उमस और
सीलन घर की दीवारों और कपड़ों में भी घुस जाती है। उन्हें बाहर निकालकर पुनः
व्यवस्थित कर लेना स्वास्थ्य की दृष्टि से भी बहुत आवश्यक है।
13. ज़मीन पर बैठ कर भोजन करना : जमीन पर बैठकर खाना खाते समय हम एक विशेष
योगासन की अवस्था में बैठते हैं, जिसे सुखासन कहा जाता है।
सुखासन से पूरे शरीर में रक्त-संचार समान रूप से होने
लगता है। जिससे शरीर अधिक ऊर्जावान हो जाता है। इस आसन से मानसिक
तनाव कम होता है और मन में सकारात्मक विचारों का प्रभाव बढ़ता है। इससे हमारी छाती
और पैर मजबूत बनते हैं।
14. उत्तर दिशा की ओर सिर करके क्यों नहीं सोना चाहिए : विज्ञान की दृष्टिकोण
से देखा जाए तो पृथ्वी के
दोनों ध्रुवों उत्तरी और दक्षिणी ध्रुव में चुम्बकीय प्रवाह
विद्यमान है। दक्षिण में पैर रखकर सोने से व्यक्ति की शारीरिक ऊर्जा का क्षय हो
जाता है और वह जब सुबह उठता है तो थकान महसूस करता है, जबकि
दक्षिण में सिर रखकर सोने से ऐसा कुछ नहीं होता। उत्तर दिशा की ओर धनात्मक प्रवाह
रहता है और दक्षिण दिशा की ओर ऋणात्मक प्रवाह रहता है। हमारा सिर का स्थान धनात्मक
प्रवाह वाला और पैर का स्थान ऋणात्मक प्रवाह वाला है। यह दिशा बताने वाले चुम्बक
के समान है कि धनात्मक प्रवाह वाले आपस में मिल नहीं सकते।
15. सूर्य नमस्कार करना : सूर्य नमस्कार का संबंध योग एवं प्राकृतिक चिकित्सा
से भी जुड़ा हुआ है। सूर्य की ऊष्मा एवं प्रकाश से स्वास्थ्य में अभूतपूर्व लाभ
होता है और बुद्धि की वृद्धि होती है। सूर्य के प्रकाश एवं सूर्य की उपासना से
कुष्ठ, नेत्र आदि रोग दूर होते हैं। सूर्य अशुभ होने पर उक्त
राशि वाले को अग्निरोग, ज्वय बुद्धि, जलन,
क्षय, अतिसार आदि रोगों से ग्रस्त होने की
संभावना बढ़ती है।
16. बच्चों का कान छेदन : विज्ञान कहता है कि कर्णभेद से मस्तिष्क में रक्त का
संचार समुचित प्रकार से होता है। इससे बौद्घिक योग्यता बढ़ती है। इसलिए इसे उपनयन
संस्कार से पहले किया जाता था ताकि गुरुकुल जाने से पहले बच्चे की मेधा शक्ति बढ़
जाए और बच्चा बेहतर ज्ञान अर्जित कर पाए। इससे चेहरे पर कान्ति भी आती है और रूप
निखरता है।
17. सिंदूर लगाना : सिंदूर हल्दी, नींबू और पारा के
मिश्रण से तैयार किया जाता है। सिंदूर महिला के रक्तचाप को नियंत्रित करने के
अलावा उनकी सेक्सुअल ड्राइव को भी बढाता है। इसे उस जगह पर लगाया जाता है ,
जहां पर पिट्यूटरी ग्रंथि होती है, जहां पर
सारे हार्मोन डेवलप होते हैं। इसके अलावा सिंदूर तनाव से भी महिलाओं को दूर रखता
है।
18. चरण स्पर्श का वैज्ञानिक महत्व : हम उसके चरणों को स्प,र्श करते हैं, जो हमने उम्र में काफी बड़ा होता है।
ऐसा करने से वह हमें अपने दिल से आर्शिवाद देते हैं, जो कि
हमारे पास उनके पैर से होता हुआ हमारे
हाथों दृारा पहुंचता है। यह एक पॉजिटिव एनर्जी होती है, जो
हमारे शरीर में अच्छीर तरह से फैल जाती है।
19. व्रत क्यों रखा जाता है : यदि शरीर में जहरीले तत्व बने रहेंगे तो कोई न
कोई विकार, कोई न कोई उपद्रव होते ही रहेंगे। जब उपवास रखते
हैं तो शरीर के विभिन्न अंगों को कुछ विश्राम मिल जाता है। यह ऐसा समय है जब हमारे
सभी अंग तनावमुक्त रहते हैं। आराम पा लेते हैं। इन्हें सहज होने में मदद मिल जाती
है।
20. मूर्तियों की पूजा क्यों की जाती है : समस्त विश्व में प्राचीन स्थानों की
खुदाई में शिवलिंग (लिंग यानि प्रतिक. स्त्रीलिंग यानि स्त्री का प्रतिक.
पुल्ललिंग यानि पुरुष का प्रतीक. नपुसकलिंग यानि नपुसक का प्रटीक. उसी तरह शिवलिंग
यानि शिव का प्रतिक) व गणेश आदि की प्रतिमाओं का मिलना, जो
तीन हजार से पांच हजार वर्ष पुरानी है, मूर्तिपूजा की
प्राचीनता व सनातन धर्म की व्यापकता को ही सिध्द करते हैं। शोधकर्ता यह मानते हैं
कि मूर्ति की पूजा करने का अपना ही महत्व है। यह आपको मानसिक शांति देता है साथ ही
आपके आत्म विश्वास को भी बढ़ता है।
21. महिलाएं क्यों पहनती हैं चूड़ियाँ : शारीरिक रूप से महिलाएं पुरुषों की
तुलना में अधिक नाजुक होती हैं।चूड़ियां पहनने से स्त्रियों को शारीरिक रूप से शक्ति प्राप्त होती
है। पुराने समय में स्त्रियां सोने या चांदी की चूड़ियां ही पहनती थी। सोना और चांदी
लगातार शरीर के संपर्क में रहता है, जिससे इन धातुओं के गुण शरीर
को मिलते रहते हैं। हाथों की हड्डियों को मजबूत बनाने में
सोने-चांदी की चूड़ियां श्रेष्ठ काम करती हैं। आयुर्वेद के अनुसार भी सोने-चांदी
की भस्म शरीर को बल प्रदान करती है। सोने-चांदी के घर्षण से शरीर को इनके
शक्तिशाली तत्व प्राप्त होते हैं, जिससे महिलाओं को स्वास्थ्य लाभ मिलता है।
22. भजन और संकीर्तन करना : विज्ञान मानता है कि ऊर्जा की वृद्धि और
संवर्धन-संकलन के लिए ध्वनि भी एक कारक है, सद्वृतियों के
पावर से युक्त विभिन्न प्रकार के वादयंत्रों को बजाकर सुरों मे बांधकर जब एक स्थान
पर भजन और संकीर्तन किया जाता है तो वहाँ उत्पन्न होने वाली ध्वनि ऊर्जा वातावरण
को नकारात्मक ऊर्जा से मुक्त करती है और वातावरण स्वास्थ्यप्रद बनता है।
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