जातिवादी की आम परिभाषा ये है- जो व्यक्ति जाति के
आधार पर ख़ुद को श्रेष्ठ और दूसरों को हीन समझे वह जातिवादी है. दलित कब से ख़ुद
को श्रेष्ठ समझने लगे कि वे जातिवादी हो गए? जाति के आधार पर
होने वाले अन्याय का प्रतिकार अगर जातिवाद है तो न्याय की गुंजाइश कहाँ है?
ब्राह्मण तथा दूसरे सवर्ण नहीं चाहते कि जातिप्रथा
समाप्त हो। वे तो चाहते हैं कि शूद्र सदैव शूद्र, दलित
हमेशा दलित बना रहे। इसके लिए कदम-कदम पर साजिशें रची जाती हैं। यह षड्यंत्र जितना
सामाजिक दिखता है, उससे कहीं ज्यादा मनोवैज्ञानिक है। जितना
हिंसक है, उतना अहिंसक भी है। ब्राह्मणों की सदैव कोशिश होती
है कि दलित और शूद्र दोनों दिलो-दिमाग से उनके अधीन बने रहें। वे जहां भी, जिस हालत में भी हैं, उसी को अपनी नियति मान लें।
इसके लिए वे न केवल गैर-ब्राह्मणों की संस्कृति में जबरन दखलंदाजी करते हैं,
बल्कि उनसे उनका इतिहास, उनके महापुरुष तक छीन
लेते हैं।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ हमेशा से हिंदू एकता का
हिमायती रहा है, वह जातियों में बँटे हिंदुओं को एकीकृत
राजनीतिक शक्ति बनाना चाहता है ताकि वैसा हिंदू राष्ट्र बन सके जो उनकी सबल,
स्वाभिमानी और गौरवशाली राष्ट्र की कल्पना है. संघ को दलितों का भी
साथ चाहिए लेकिन वह हिंदू धर्म के जातिवादी विधान के ख़िलाफ़ क़तई नहीं है,
संघ से जुड़े अनेक शीर्ष 'विद्वानों' और नेताओं ने जाति पर आधारित व्यवस्थित अन्याय के लिए कभी अँग्रेज़ों को,
कभी मुसलमानों को ज़िम्मेदार बताया, लेकिन
सामाजिक न्याय की ज़िम्मेदारी ख़ुद कभी स्वीकार नहीं की, बल्कि
उनकी कोशिश जाति पर आधारित चिरंतन अन्याय को ही झुठलाने की रही.
सदियों के शोषण और ग़ैर-बराबरी को आगे के लिए ठीक करने की नीयत से संविधान में आरक्षण की व्यवस्था की गई ताकि दलित और पिछड़े देश की कहानी के अगले अध्याय में किरदार अदा कर सकें. यही एक मानवीय व्यवस्था है जो काफ़ी हद तक कारगर रही है.
कुछ ही दिनों पहले वरिष्ठ नेता और पूर्व केंद्रीय
मंत्री सीपी ठाकुर ने कहा कि अब देश का राष्ट्रपति एक दलित व्यक्ति है, प्रधानमंत्री ख़ुद पिछड़े तबके से आते हैं इसलिए आरक्षण समाप्त कर दिया
जाना चाहिए, यानी सदियों चले आ रहे जातीय शोषण, जो अब भी जारी है, उसका हिसाब बराबर मान लिया जाए.
संघ का प्रिय नारा 'समरसता'
का है, यानी देश के सभी लोग हिंदुत्व के रंग
में रंग जाएँ, लेकिन जातीय श्रेष्ठता के भाव से पैदा हुए
शोषण को ख़त्म किए बिना समरसता कैसे हो सकती है?
वेद और शूद्र
“जन्मना जायते शूद्र: कर्मणा द्विज उच्यते”
अर्थात जन्म से सभी शूद्र होते हैं और कर्म से ही वे ब्राह्मण,
क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र बनते हैं।
शूद्रो ब्राह्मणतामेति ब्राह्मणश्चैति शूद्रताम।
क्षत्रियाज्जातमेवं तु विद्याद्वैश्यात्तथैव च। (10/65)
कर्म के अनुसार ब्राह्मण शूद्रता को प्राप्त हो
जाता है और शूद्र ब्राह्मणत्व को। इसी प्रकार क्षत्रिय और वैश्य से उत्पन्न संतान
भी अन्य वर्णों को प्राप्त हो जाया करती हैं। विद्या और योग्यता के अनुसार सभी
वर्णों की संतानें अन्य वर्ण में जा सकती हैं।
हिंदू धर्म-ग्रंथों के अनुसार समाज को चार वर्णों
में विभाजित किया गया है- ब्राह्मण, क्षत्रिय,
वैश्य और शूद्र। किसी स्मृति या पुराण में भी शूद्रों के अछूत होने
का उल्लेख नहीं मिलता।
आरंभ में यह विभाजन कर्म आधारित था लेकिन बाद में
यह जन्माधारित हो गया। वर्तमान में हिंदू समाज में इसी का विकृत रूप जाति-व्यवस्था
के रूप में देखा जा सकता है।
वैदिक वर्ण व्यवस्था के अनुसार शूद्रों को वर्ण
परिवर्तन का अधिकार है, शूद्रों को अछूत नहीं माना है,
शूद्रों को समाज में सम्माननीय माना है।
भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं, 'चर्तुवर्णयम् माया श्रीष्टाम् गुणकर्म विभागसा' अर्थात्
गुण और कर्म के आधार पर मेरे द्वारा समाज को चार वर्णों में विभक्त किया गया है।
स्मृति काल में कार्य के आधार पर लोगों को ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य या दास कहा जाने लगा। वेदों का
ज्ञान प्राप्त कर ज्ञान देने वाले को ब्राह्मण, क्षेत्र का
प्रबंधन और रक्षा करने वाले को क्षत्रिय, राज्य की
अर्थव्यवस्था व व्यापार को संचालित करने वाले को वैश्य और राज्य के अन्य कार्यो
में दक्ष व्यक्ति को दास अर्थात सेवक कहा जाने लगा। आज भी हम ऐसे लोगों को सेवक,
सेवादार, आदेशवाहक, अर्दली,
श्रमिक, मजदूर आदि कहते है।
शूद्र उत्पादक, श्रमिक, भृत्य, परिचारक, प्रेष्य है ।
सभी उद्योग उसके हाथ में थे, पहले कारखाने नहीं होते थे ,
हर एक व्यक्ति गृह उद्योग करके निर्वाह करता था, अत: बिचोलिये कुपरंपरा भी नहीं थी , स्वयं निर्मित
वस्तु स्वयं बेचकर रुपये अर्जित करता था, देखिए कुम्भकार,
लोहकार, सूत्रकार, सूचिक,
चर्मकार आदि उदाहरण आप के सामने हैं । कुम्भकार अपने गृह पर ही
मिट्टी की चीज वस्तुएं बनाकर सीधा लाभ ग्रहण करता है , लोहकार
लोहे के अस्त्र, शस्त्र, हल की नोक,
कृषि के लिए लोहे के औजार जैसे दत्रक, क्षुर्पि,
कोदार आदि साधन बनाकर सीधा ग्राहकों को बेचकर लाभ अर्जित करता है,
सूत्रकार लकड़ी की चीज वस्तुएं बनाता है और वह भी सीधा लाभ अर्जित
करता है, सूचिक भी वस्त्र सीलकर ग्राहकों को देकर सीधा लाभ
अर्जित करता है, चर्मकार भी चमड़े से निर्मित वस्तुएं जैसे
कुए से पानी खिंचने का कोस, जुते, पट्टे,
थेले, पानी भरने की थेलियाँ , पाकिट आदि बनाकर सीधा ग्राहकों को बेचकर लाभ अर्जित करता है ।
कोई भी
व्यक्ति अपनी योग्यता अनुसार कुछ भी हो सकता था। जैसा कि आज बनता है कोई सोल्जर्स,
कोई अर्थशास्त्री, कोई व्यापारी और कोई
शिक्षक।
योग्यता के आधार पर इस तरह धीरे-धीरे एक ही तरह के
कार्य करने वालों का समूह बनने लगा (जैसा कि आजकल डॉक्टरों, वकीलों आदि का समूह या संगठन होता है) और बाद में यही समूह अपने हितों की
रक्षा के लिए समाज में बदलकर अपने ही समाज से रोटी और बेटी का व्यवहार करने लगा।
उक्त समाज को उनके कार्य के आधार पर पुकारा जाने लगा। जैसे की कपड़े सिलने वाले को
दर्जी, कपड़े धोने वाले को धोबी, बाल
काटने वाले को नाई, शास्त्र पढ़ाने वाले को शास्त्री,
पुरोहिताई करने वाले को पुरोहित आदि।
ऐसे कई समाज निर्मित होते गए जिन्होंने स्वयं को
दूसरे समाज से अलग करने और दिखने के लिए नई परम्पराएं निर्मित कर ली। जैसे कि सभी
ने अपने-अपने कुल देवी-देवता अलग कर लिए। अपने-अपने रीति-रिवाजों को नए सिरे से
परिभाषित करने लगे, जिन पर स्थानीय संस्कृति और
परंपरा का प्रभाव ही ज्यादा देखने को मिलता है। उक्त सभी की परंपरा और विश्वास का
सनातन हिन्दू धर्म से कोई संबंध नहीं।
स्मृति के काल में कार्य का विभाजन करने हेतु वर्ण
व्यवस्था को व्यवस्थित किया गया था। अगर ऋग्वेद की ऋचाओं व गीता के श्लोकों को गौर
से पढ़ा जाए तो साफ परिलक्षित होता है कि जन्म आधारित जाति व्यवस्था का कोई आधार
नहीं है। सनातन हिंदू धर्म मानव के बीच किसी भी प्रकार के भेद को नहीं मानता।
उपनाम,
गोत्र, जाति आदि यह सभी कई हजार वर्ष की
परंपरा का परिणाम है।
कुछ व्यक्ति योग्यता न होते हुए भी स्वयं को ऊंचा
या ऊंची जाति का और पवित्र मानने लगे हैं और कुछ अपने को नीच और अपवित्र समझने लगे
हैं। बाद में इस समझ को क्रमश: बढ़ावा मिला मुगल काल, अंग्रेज काल और फिर भारत की आजादी के बाद भारतीय राजनीति के काल में जो अब
विराट रूप ले चुका है। धर्मशास्त्रों में क्या लिखा है यह कोई जानने का प्रयास
नहीं करता और मंत्रों तथा सूत्रों की मनमानी व्याख्या करता रहता है।
हिंदू धर्म ग्रंथों में कहीं यह नहीं कहा गया है कि
शूद्र,
अछूत हैं। भारत में सामाजिक न्याय की राह में जातिप्रथा सबसे बड़ी
और सबसे पुरानी बाधा रही है। यह प्रथा अभी भी सामाजिक प्रगति को बाधित कर रही है।
जाति प्रथा का उदय कैसे, कब और क्यों हुआ, इस संबंध में कई अलग-अलग सिद्धांत हैं।
वैदिक काल के बाद जब हिंदू धर्म में विकृति
आई तो महिलाओं और शूद्रों (तथाकथित नीची जातियों) का दर्जा गिरा दिया गया.
जाति व्यवस्था एक सामाजिक बुराई है जो प्राचीन काल
से भारतीय समाज में मौजूद है। वर्षों से लोग इसकी आलोचना कर रहे हैं लेकिन फिर भी
जाति व्यवस्था ने हमारे देश के सामाजिक और राजनीतिक व्यवस्था पर अपनी पकड़ मजबूत
बनाए रखी है।
भारतीय समाज में सदियों से कुछ सामाजिक बुराईयां
प्रचलित रही हैं और जाति व्यवस्था भी उन्हीं में से एक है। हालांकि, जाति व्यवस्था की अवधारणा में इस अवधि के दौरान कुछ परिवर्तन जरूर आया है
और इसकी मान्यताएं अब उतनी रूढ़िवादी नहीं रही है जितनी पहले हुआ करती थीं,
लेकिन इसके बावजूद यह अभी भी देश में लोगों के धार्मिक, सामाजिक और राजनीतिक जीवन पर असर डाल रही है।
ऋग वैदिक कालीन वर्ण व्यवस्था ( व्यवसाय के आधार पर
निर्धारण ) उत्तर वैदिक काल के आते आते जाति व्यवस्था (जन्म के आधार पर निर्धारण)
में परिवर्तित हो गई थी। विकास सिद्धान्त के अनुसार सामाजिक विकास के कारण जाति
प्रथा की उत्पत्ति हुई है। सभ्यता के लंबे और मन्द विकास के कारण जाति प्रथा मे
कुछ दोष भी आते गए। इसका सबसे बङा दोष छुआछुत की भावना है। परन्तु विभिन्न
प्रयासों से यह सामाजिक बुराई दूर होती जा रही है।
जाति प्रथा की समस्याएं
लोकतंत्र जहाँ सभी को समान समझता है।एक लोकतांत्रिक
देश के नाते संविधान के अनुच्छेद 15 में राज्य के
द्वारा धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग, जन्म स्थान के आधार पर नागरिकों के प्रति जीवन
के किसी क्षेत्र में भेदभाव नहीं किए जाने की बात कही गई है। अनुच्छेद 17 में अस्पृश्यता का उन्मूलन किया गया है। परन्तु वास्तव में यह आज भी किसी
न किसी रूप में विद्यमान है। चुकी जाति व्यवस्था समानता नहीं बल्कि दो वर्गों में
वरिष्ठता के सिद्धांत को मानती है अतः यह लोकतंत्र के विरुद्ध है।
निःसंदेह जाति प्रथा एक सामाजिक कुरीति है। ये
विडंबना ही है कि देश को आजाद हुए सात दशक से भी अधिक समय बीत जाने के बाद भी हम
जाति प्रथा के चंगुल से मुक्त नहीं हो पाएं हैं। यहाँ तक की लोकतान्त्रिक चुनावो
में भी जाति एक बड़े कारक के रूप में विद्यमान है।
जाति प्रथा न केवल हमारे मध्य वैमनस्यता को बढ़ाती
है बल्कि ये हमारी एकता में भी दरार पैदा करने का काम करती है। जाति प्रथा
प्रत्येक मनुष्य के मस्तिष्क में बचपन से ही ऊंच-नीच, उत्कृष्टता निकृष्टता के बीज बो देती है। जो कालांतर में क्षेत्रवाद का
कारक भी बन जाती है। जाति प्रथा से आक्रांत समाज की कमजोरी विस्तृत क्षेत्र में
राजनीतिक एकता को स्थापित नहीं करा पाती तथा यह देश पर किसी बाहरी आक्रमण के समय
एक बड़े वर्ग को हतोत्साहित करती है। स्वार्थी राजनीतिज्ञों के कारण जातिवाद ने
पहले से भी अधिक भयंकर रूप धारण कर लिया है, जिससे सामाजिक
कटुता बढ़ी है।
जातिगत द्वेष से उत्पन्न तनाव , अथवा राजनैतिक पार्टियों द्वारा किये गए जातिगत तुष्टिकरण से राष्ट्र की
प्रगति बाधक होती है।
निष्कर्ष
वास्तव
में जातिप्रथा समाज की एक भयानक विसंगति है जो समय के साथ साथ और प्रबल हो गई। यह
भारतीय संविधान में वर्णित सामाजिक न्याय की अवधारणा कजी प्रबल शत्रु है तथा समय
समय पर देश को आर्थिक ,सामाजिक क्षति पहुँचाती है।
निस्संदेह सरकार के साथ साथ , जन सामान्य , धर्म गुरु , राजनेता तथा नागरिक समाज का
उत्तरदायित्व है कि यह विसंगति जल्द से जल्द समाप्त हो।
भारत में जाति व्यवस्था का बदलते
परिदृश्य
हालांकि समय के साथ कई चीजें बदल गई हैं और जाति
व्यवस्था भी बदल चुकी है लेकिन फिर भी यह विवाह और धार्मिक पूजा जैसी जीवन की
प्रमुख घटनाओं में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभा रही है। भारत में कई स्थन आज भी हैं
जहाँ शूद्रों को मंदिर में प्रवेश करने और पूजा करने की अनुमति नहीं दी जाती है।
जबकि क्षत्रिय और वैश्य जाति इस संबंध में पूर्ण अधिकारों का आनंद उठाते हैं।
जाति व्यवस्था समस्याग्रस्त हो जाती है जब इसका
उपयोग समाज की श्रेणी/समूह/पद के
लिए किया जाता है और साथ ही जब यह प्राकृतिक और मानव निर्मित संसाधनों की असमान
पहुँच की अगुआई करता है।
शहरी मध्यवर्गीय परिवारों में जाति व्यवस्था
महत्वपूर्ण नहीं है लेकिन यह विवाह के दौरान एक भूमिका निभाती है। यहाँ तक कि
इसमें और भी समायोजन किए जाते हैं।
आजादी के साथ-साथ स्वतंत्रता के बाद भी भारत में
जाति-आधारित असमानताओं को खत्म करने के लिए कई आंदोलन और सरकारी कार्रवाइयां भी
हुईं। निम्न जातियों के प्रति सकारात्मक दृष्टिकोण विकसित करने के लिए, गांधीजी ने निम्न जाति के लोगों के लिए ‘हरिजन’ शब्द (भगवान के लोगों) का इस्तेमाल
करना शुरू कर दिया था। लेकिन यह शब्द सार्वभौमिक रूप से स्वीकार नहीं किया गया था।
उन्होंने एक ही उद्देश्य के लिए एक अलग समूह बनाने की बजाय निम्न जाति के लोगों को
सुधारने के लिए प्रोत्साहित भी किया। ब्रिटिश सरकार भी 400
समूहों की एक सूची के साथ आई थी जिन्हें अछूत के रूप में माना जाता था। बाद में इन
समूहों को अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजातियों के रूप में जाना जाता था। 1970 के दशक में अछूतों को दलित कहा जाने लगा।
19वीं सदी के मध्य में ज्योतिराव
फुले ने निम्न जाति के लोगों की स्थिति का उत्थान करने के लिए दलितों के
लिये आंदोलन शुरू किया। निम्न जाति के लोगों का समर्थन करने के लिए डॉ.बी.आर. अम्बेडकर का योगदान बहुत महत्वपूर्ण था।
उन्होंने 1920 और 1930 के बीच एक
महत्वपूर्ण दलित आंदोलन शुरू किया। उन्होंने भारत में दलितों की स्थिति सुधारने के
लिए स्वतंत्र भारत में आरक्षण की एक प्रणाली भी बनाई।
लेकिन आधुनिक भारत में अलग-अलग लोगों के बीच संबंध
पूरी तरह से सुगम नहीं हो पाये हैं। जैसा कि अलग-अलग जाति के बावजूद हर कोई एक जगह
पर भोजन कर सकता है, पर्यटन स्थल पर जा सकता है लेकिन
फिर भी लोग अंतर्जाति विवाह के खिलाफ हैं। व्यवसाय
क्षेत्र में महत्वपूर्ण परिवर्तन हुआ है क्योंकि अब यह जाति तक सीमित नहीं है। हालांकि
समय के साथ कई परिर्वतन होते हैं लेकिन फिर भी भारत को आज भी इस मुद्दे पर कार्य
करने की आवश्यकता है ताकि जाति पर आधारित हमारी
असमानता को समाज से हमेशा के लिये उखाड़ फेका जा सके।
जाति समस्या है प्रगति में बाधक
निःसंदेह जाति प्रथा एक सामाजिक कुरीति है। ये
विडंबना ही है कि देश को आजाद हुए सात दशक से भी अधिक समय बीत जाने के बाद भी हम
जाति प्रथा के चंगुल से मुक्त नहीं हो पाएं हैं। हालांकि एक लोकतांत्रिक देश के
नाते संविधान के अनुच्छेद 15 में राज्य के द्वारा धर्म,
मूलवंश, जाति, लिंग,
जन्म स्थान के आधार पर नागरिकों के प्रति जीवन के किसी क्षेत्र में
भेदभाव नहीं किए जाने की बात कही गई है। लेकिन विरोधाभास है कि सरकारी औहादे के
लिए आवेदन या चयन की प्रक्रिया के वक्त जाति को प्रमुखता दी जाती है।
जाति प्रथा न केवल हमारे मध्य वैमनस्यता को बढ़ाती
है बल्कि ये हमारी एकता में भी दरार पैदा करने का काम करती है। जाति प्रथा
प्रत्येक मनुष्य के मस्तिष्क में बचपन से ही ऊंच-नीच, उत्कृष्टता निकृष्टता के बीज बो देती है। अमुक जाति का सदस्य होने के नाते
किसी को लाभ होता है तो किसी को हानि उठानी पड़ती है। जाति श्रम की प्रतिष्ठा की
संकल्पना के विरुद्ध कार्य करती है और ये हमारी राजनीति दासता का मूल कारण रही है।
जाति-प्रथा के दोष
कालांतर में जाति व्यवस्था के चलते अनेक सामाजिक
दोष पैदा हो गए इसने समाज को उच्च और निम्न जातियों में विभाजित कर दिया ब्राह्मण सामाजिक सीढ़ी की सबसे ऊपर वाली कड़ी पर
जा बैठे उनके निचे क्षत्रिय रहे फिर
वैश्य शूद्र इस तरह सामाजिक भेदभाव की बुनियाद पड़ गई इस सामाजिक व्यवस्था ने धीरे-धीरे आर्थिक
व्यवस्था को प्रभावित किया क्षत्रिय
व्यवस्था के राजा बने वे योद्धा थे इसलिए सीमान्त क्षेत्रीय शासक फिर जागीरदार
ब्राह्मण को भूमि दान में मिलती रही वैश्य
तो कृषक भी थे और व्यापारी भी लेकिन सबसे दयनीय स्थिति शूद्रों की थी वे भूमिहीन सेवक रहे इस प्रकार विभाजन से उच्च जाति के लोगों द्वारा
निम्न जाति के शोषण को प्रोत्साहन मिलने लगा
शूद्रों के साथ बुरा व्यवहार होने लगा उन्हें सभी प्रकार के कार्य करने
पड़ते थे जैसे कपड़े साफ़ करना, साफ़ करना, मरे
मवेशियों की खाल निकलना उन्हें अस्पृश्य
समझा जाने लगा इसी तरह कोई मजदूर किसी से
कर्ज लेता है तो उसे सूद भरना पड़ता है | कभी-कभी सूद नहीं दे
पाता है तो वह काम करके सधाता है लेकिन जब उनकी मजदूरी से कर्ज में लिए गए मूलधन
और सूद की पूरी तरह भरपाई नहीं होती तो वह महाजन के साथ बँध जाता उसकी आजादी ख़त्म
हो जाती है वह दास बन जाता इन्हे बंधुओं
बनाना पड़ता है बाप जब न कर्ज और न ही सूद सधा पाता तो वह दायित्त्व उसके
बेटे पर आ जाता इस तरह वे पीढ़ी-दर-पीढ़ी बंधुआ मजदूर बना दिए गए_
जातिगत भेदभाव इतने कठोर हो गए की समाज पूर्णतया
अलग जमातों में विभाजित हो गया उत्कृष्ट बुद्धि से संपन्न और विद्यार्जन में रूचि
रखने वाला क्षत्रिय ब्राह्मणवाला कार्य नहीं कर सकता था चूँकि उसका जन्म क्षत्रिय-कुल में हुआ था इसलिए
वह क्षत्रिय ही रहेगा और वही व्यवसाय अपनाएगा इसी प्रकार कोई शूद्र चाहे कितना ही
बुद्धिमान और प्रतिभाशाली हो उसे हिन्दुओं के पवित्र ग्रंथों को स्पर्श तक करके के
अनुमति नहीं थी, उनके पढ़ने की बात तो दूर थी
जाति-प्रथा से आर्थिक विकास में भी अत्यधिक बाधा
पड़ी जो व्यक्ति जिस प्रकार में जन्म लेता
था वह उस परिवार के जातिगत व्यवसाय को अपनाने के लिए मजबूर था उसके जन्म के समय ही
निश्चित हो जाता था की वह क्या करेगा, चाहे उसकी
योग्यता, रूचि और देश की अर्थव्यवस्था की मांग कुछ भी रही
हो वह अपनी रूचि के अनुसार अपना व्यवसाय
नहीं बदल सकते था इस प्रकार जाति-व्यवस्था
में व्यक्ति को अपनी पसंद का व्यवसाय चुनने स्वतंत्रता नहीं रही
जाति-प्रथा ने भारतीय समाज को विभिन्न वर्गों में
विभाजित कर दिया इसका देश सुरक्षा पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा जातिगत भावना
की कट्टरता ने लोगों को संकीर्ण विचारों का बना डाला आपस का प्रेम समाप्त होने से
भारत कमजोर हो गया विदेशी हमलावरों के
सामने भारत हारता रहा यह भावना अब भी जीवित है
अब तो लोकतंत्रीय शासन-व्यवस्था है
हर बालिग के मत से सरकार बनती है लेकिन एक नई बात आ गई है जातिगत आधार पर
चुनाव की बात की जाती है इसका फल बुरा
होता है जातीयता के संकीर्ण स्वार्थों से प्रेरित होकर वे सम्पूर्ण देश का हिट भी
भूल जाते है यह - पूर्ण है की निर्वाचन के समय जातिगत तत्त्व प्रमुख रूप से उभर
जाते है इससे खून-खराबा भी हो जाता है
संकुचित जातीय भावना का होना न केवल देश की एकता घातक
सिद्ध हुआ है, बल्कि यह लोकतंत्र के सफल संचालन और विकास
कार्यों में भी बाधा पहुँचता है.
वेद और शूद्र
जातिवाद सभ्य समाज के माथे पर एक कलंक है। जिसके कारण मानव मानव के प्रति न केवल
असंवेदनशील बन गया है, अपितु शत्रु समान व्यवहार करने लग
गया है। समस्त मानव जाति ईश्वर कि संतान है। यह तथ्य जानने के बाद भी छुआ छूत के
नाम पर, ऊँच नीच के नाम पर, आपस में भेदभाव
करना अज्ञानता का बोधक है।
वैदिक काल में वर्ण व्यवस्था प्रधान थी जिसके
अनुसार जैसा जिसका गुण वैसे उसके कर्म, जैसे जिसके कर्म
वैसा उसका वर्ण। जातिवाद रुपी विष वृक्ष के कारण हमारे समाज को कितने अभिशाप झेलने
पड़े। जातिवाद के कारण आपसी मतभेदों में वृद्धि हुई, सामाजिक
एकता और संगठन का नाश हुआ जिसके कारण विदेशी हमलावरों का आसानी से निशाना बन गये,
एक संकीर्ण दायरे में वर-वधु न मिलने से बेमेल विवाह आरम्भ हुए
जिसका परिणाम दुर्बल एवं गुण रहित संतान के रूप में निकला, आपसी
मेल न होने के कारण विद्या, गुण, संस्कार,
व्यवसाय आदि में उन्नति रुक गई।
वर्ण – ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और
शूद्र के लिए प्रयुक्त किया गया "वर्ण" शब्द का प्रयोग किया जाता है।
वर्ण का मतलब है जिसका वरण किया जाए अर्थात जिसे चुना जाए। वर्ण को चुनने का आधार
गुण, कर्म और स्वभाव होता है। वर्णाश्रम व्यवस्था पूर्ण रूप
से वैदिक है एवं इसका मुख्य प्रयोजन समाज में मनुष्य को परस्पर सहयोगी बनाकर भिन्न
भिन्न कामों को परस्पर बाँटना, किसी भी कार्य को उसके अनुरूप
दक्ष व्यक्ति से करवाना, सभी मनुष्यों को उनकी योग्यता
अनुरूप काम पर लगाना एवं उनकी आजीविका का प्रबंध करना है।
कालांतर में वर्ण के स्थान पर जाति शब्द रूढ़ हो
गया। मनुष्यों ने अपने वर्ण अर्थात योग्यता के स्थान पर अपनी अपनी भिन्न भिन्न
जातियाँ निर्धारित कर ली। गुण, कर्म और स्वभाव के स्थान पर
जन्म के आधार पर अलग अलग जातियों में मनुष्य न केवल विभाजित हो गया अपितु एक दूसरे
से भेदभाव भी करने लगा। वैदिक वर्णाश्रम व्यवस्था के स्थान छदम एवं मिथक जातिवाद ने लिया।
प्रत्येक मनुष्य दूसरों पर जीवन निर्वाह के लिए
निर्भर है। कोई भी व्यक्ति परस्पर सहयोग एवं सहायता के बिना न मनुष्योचित जीवन
व्यतीत कर सकता है और न ही जीवन में उन्नति कर सकता है। अत: इसके लिए आवश्यक था कि
व्यक्ति जीवन यापन के लिए महत्वपूर्ण सभी कर्मों का विभाजन कर ले एवं उस कार्य को
करने हेतु जो जो शिक्षा अनिवार्य है, उस उस शिक्षा को
ग्रहण करे। सभी जानते है कि अशिक्षित एवं अप्रशिक्षित व्यक्ति से हर प्रकार से
शिक्षित एवं प्रक्षिशित व्यक्ति उस कार्य को भली प्रकार से कर सकते है। समाज
निर्माण का यह भी मूल सिद्धांत है कि समाज में कोई भी व्यक्ति बेकार न रहे एवं हर
व्यक्ति को आजीविका का साधन मिले। इसलिए वेदों में समाज को विभाजित करने का आदेश
दिया गया है कि ज्ञान के प्रचार प्रसार के लिए ब्राह्मण, राज्य
कि रक्षा के लिए क्षत्रिय, व्यापार आदि कि सिद्धि के लिए
वैश्य एवं सेवा कार्य के लिए शुद्र कि उत्पत्ति होनी चाहिए [यजुर्वेद30/5]। इससे यही सिद्ध होता है कि वर्ण व्यवस्था का मूल उद्देश्य समाज में गुण,
कर्म और स्वाभाव के अनुसार विभाजन है।
वेदों में शुद्र के अधिकारों के विषय में
क्या कहा गया है?
स्वामी दयानंद ने वेदों का अनुशीलन करते हुए पाया
कि वेद सभी मनुष्यों और सभी वर्णों के लोगों के लिए वेद पढ़ने के अधिकार का समर्थन
करते है। स्वामी जी के काल में शूद्रों को वेद अध्यनन का निषेध था। उसके विपरीत
वेदों में स्पष्ट रूप से पाया गया कि शूद्रों को वेद अध्ययन का अधिकार स्वयं वेद
ही देते है। वेदों में ‘शूद्र’ शब्द
लगभग बीस बार आया है। कही भी उसका अपमानजनक अर्थों में प्रयोग नहीं हुआ है और
वेदों में किसी भी स्थान पर शूद्र के जन्म से अछूत होने ,उन्हें
वेदाध्ययन से वंचित रखने, अन्य वर्णों से उनका दर्जा कम होने
या उन्हें यज्ञादि से अलग रखने का उल्लेख नहीं है।
हे मनुष्यों! जैसे मैं परमात्मा सबका कल्याण करने
वाली ऋग्वेद आदि रूप वाणी का सब जनों के लिए उपदेश कर रहा हूँ, जैसे मैं इस वाणी का ब्राह्मण और क्षत्रियों के लिए उपदेश कर रहा हूँ,
शूद्रों और वैश्यों के लिए जैसे मैं इसका उपदेश कर रहा हूँ और
जिन्हें तुम अपना आत्मीय समझते हो , उन सबके लिए इसका उपदेश
कर रहा हूँ और जिसे ‘अरण’ अर्थात पराया
समझते हो, उसके लिए भी मैं इसका उपदेश कर रहा हूँ, वैसे ही तुम भी आगे आगे सब लोगों के लिए इस वाणी के उपदेश का क्रम चलते
रहो। [यजुर्वेद 26 /2]।
प्रार्थना हैं की हे परमात्मा ! आप मुझे ब्राह्मण
का,
क्षत्रियों का, शूद्रों का और वैश्यों का
प्यारा बना दें[ अथर्ववेद 19/62/1 ]। इस मंत्र का भावार्थ ये है कि हे
परमात्मा आप मेरा स्वाभाव और आचरण ऐसा बन जाये जिसके कारण ब्राह्मण, क्षत्रिय, शुद्र और वैश्य सभी मुझे प्यार करें।
हे परमात्मन आप हमारी रुचि ब्राह्मणों के प्रति
उत्पन्न कीजिये, क्षत्रियों के प्रति उत्पन्न कीजिये, विषयों के प्रति उत्पन्न कीजिये और शूद्रों के प्रति उत्पन्न कीजिये।
[यजुर्वेद 18/46]। मंत्र का भाव यह हैं की हे परमात्मन! आपकी कृपा
से हमारा स्वाभाव और मन ऐसा हो जाये की ब्राह्मण, क्षत्रिय,
वैश्य और शुद्र सभी वर्णों के लोगों के प्रति हमारी रूचि हो। सभी
वर्णों के लोग हमें अच्छे लगें, सभी वर्णों के लोगों के
प्रति हमारा बर्ताव सदा प्रेम और प्रीति का रहे।
हे शत्रु विदारक परमेश्वर मुझको ब्राह्मण और क्षत्रिय
के लिए,
वैश्य के लिए, शुद्र के लिए और जिसके लिए हम
चाह सकते हैं और प्रत्येक विविध प्रकार देखने वाले पुरुष के लिए प्रिय करे।
[अथर्ववेद 19/32/8 ]। इस
प्रकार वेद की शिक्षा में शूद्रों के प्रति भी सदा ही प्रेम-प्रीति का व्यवहार
करने और उन्हें अपना ही अंग समझने की बात कही गयी है।
क्या वेदों में शुद्र को नीचा माना गया
है?
वेदों में शुद्र को अत्यंत परिश्रमी कहा गया है। यजुर्वेद
में आता है "तपसे शूद्रं [यजुर्वेद 30/5]" अर्थात
श्रम अर्थात मेहनत से अन्न आदि को उत्पन्न करने वाला तथा शिल्प आदि कठिन कार्य आदि
का अनुष्ठान करने वाला शुद्र है। तप शब्द का प्रयोग अनंत सामर्थ्य से जगत के सभी
पदार्थों कि रचना करने वाले ईश्वर के लिए वेद मंत्र में हुआ है।
वेदों में वर्णात्मक दृष्टि से शुद्र और ब्राह्मण
में कोई भेद नहीं है। यजुर्वेद में आता है कि मनुष्यों में निन्दित व्यभिचारी, जुआरी, नपुंसक जिनमें शुद्र (श्रमजीवी कारीगर) और
ब्राह्मण (अध्यापक एवं शिक्षक) नहीं है उनको दूर बसाओ और जो राजा के सम्बन्धी
हितकारी (सदाचारी) है उन्हें समीप बसाया जाये। [यजुर्वेद 30 /22]। इस मंत्र में व्यवहार सिद्धि से ब्राह्मण एवं शूद्र में कोई भेद नहीं
है। ब्राह्मण विद्या से राज्य कि सेवा करता है एवं शुद्र श्रम से राज्य कि सेवा
करता है। दोनों को समीप बसने का अर्थ है यही दर्शाता हैं कि शुद्र अछूत शब्द का
पर्यावाची नहीं है एवं न ही नीचे होने का बोधक है।
ऋग्वेद में आता है कि मनुष्यों में न कोई बड़ा है , न कोई छोटा है। सभी आपस में एक समान बराबर के भाई है। सभी मिलकर लौकिक एवं
पारलौकिक सुख एवं ऐश्वर्य कि प्राप्ति करे। [ऋग्वेद 5/60/5]।
मनुस्मृति में लिखा है कि हिंसा न करना, सच बोलना, दूसरे का धन अन्याय से न हरना, पवित्र रहना, इन्द्रियों का निग्रह करना, चारों वर्णों का समान धर्म है। [मनुस्मृति 10 /63]।
यहाँ पर स्पष्ट रूप से चारों वर्णों के आचार धर्म
को एक माना गया है। वर्ण भेद से धार्मिक होने का कोई भेद नहीं है।
ब्राह्मणी के गर्भ से उत्पन्न होने से, संस्कार से, वेद श्रवण से अथवा ब्राह्मण पिता कि
संतान होने भर से कोई ब्राह्मण नहीं बन जाता अपितु सदाचार से ही मनुष्य ब्राह्मण
बनता है। [महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 143]।
कोई भी मनुष्य कुल और जाति के कारण ब्राह्मण नहीं
हो सकता। यदि चंडाल भी सदाचारी है तो ब्राह्मण है। [महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 226]।
जो ब्राह्मण दुष्ट कर्म करता है, वो दम्भी पापी और अज्ञानी है उसे शुद्र समझना चाहिए। और जो शुद्र सत्य और
धर्म में स्थित है उसे ब्राह्मण समझना चाहिए। [महाभारत वन पर्व अध्याय 216/14]।
शुद्र यदि ज्ञान सम्पन्न हो तो वह ब्राह्मण से भी
श्रेष्ठ है और आचार भ्रष्ट ब्राह्मण शुद्र से भी नीच है। [भविष्य पुराण अध्याय 44/33]।
शूद्रों के पठन पाठन के विषय में लिखा है कि दुष्ट
कर्म न करने वाले का उपनयन अर्थात (विद्या ग्रहण) करना चाहिए। [गृहसूत्र कांड 2 हरिहर भाष्य]।
जिसके माता-पिता अन्य वर्णस्थ हो,उनकी संतान कभी ब्राह्मण हो सकती है?
बहुत से हो गये है, होते है
और होंगे भी। जैसे छान्दोग्योपनिषद 4 /4 में जाबाल ऋषि
अज्ञात कुल से, महाभारत में विश्वामित्र क्षत्रिय वर्ण से और
मातंग चांडाल कुल से ब्राह्मण हो गये थे।
स्वामी दयानंद जातिवाद के प्रबल विरोधी और वर्ण
व्यवस्था के प्रबल समर्थक थे। वेदों में शूद्रों के पठन पाठन के अधिकार एवं साथ
बैठ कर खान पान आदि करने के लिए उन्होंने विशेष प्रयास किये थे।
क्या वेदादी शास्त्रों में शुद्र को अछूत
बताया गया है?
वेदों में शूद्रों को आर्य बताया गया हैं इसलिए
उन्हें अछूत समझने का प्रश्न ही नहीं उठता हैं। वेदादि शास्त्रों के प्रमाण सिद्ध
होता है कि ब्राह्मण वर्ग से से लेकर शुद्र वर्ग आपस में एक साथ अन्न ग्रहण करने
से परहेज नहीं करते थे। वेदों में स्पष्ट रूप से एक साथ भोजन करने का आदेश है।
हे मित्रों तुम और हम मिलकर बलवर्धक और सुगंध युक्त
अन्न को खाये अर्थात सहभोज करे। [ऋग्वेद 9/98/12]।
हे मनुष्यों तुम्हारे पानी पीने के स्थान और
तुम्हारा अन्न सेवन अथवा खान पान का स्थान एक साथ हो। [अथर्ववेद 6/30/6]।
महाराज दशरथ के यज्ञ में शूद्रों का पकाया हुआ भोजन
ब्राह्मण,
तपस्वी और शुद्र मिलकर करते थे। [वाल्मीकि रामायण सु श्लोक 12]।
श्री रामचंद्र जी द्वारा भीलनी शबरी के आश्रम में
जाकर उनके पाँव छूना एवं उनका आतिथ्य स्वीकार करना। [वाल्मीकि रामायण सुंदरकांड
श्लोक 5,6,7,निषादराज से भेंट होने पर उनका आलिंगन करना। [ वाल्मीकि रामायण अयोध्या कांड
श्लोक 33,34।
यह प्रमाण इस तथ्य का उदबोधक है कि रामायण काल में
भील,
निषाद शूद्र आदि को अछूत नहीं समझा जाता था। राजा धृतराष्ट्र के
यहां पूर्व के सदृश अरालिक और सूपकार आदि शुद्र भोजन बनाने के लिए नियुक्त हुए थे।
[महाभारत आ पर्व 1/19]।
इन प्रमाणों से
यह सिद्ध होता है कि वैदिक काल में शुद्र अछूत नहीं थे। कालांतर में कुछ अज्ञानी
लोगो ने छुआछूत कि गलत प्रथा आरम्भ कर दी जिससे जातिवाद जैसे विकृत मानसिकता को
प्रोत्साहन मिला।
अगर ब्राह्मण का पुत्र गुण कर्म स्वभाव
से रहित हो तो क्या वह शुद्र कहलायेगा और अगर शुद्र गुण कर्म और स्वभाव से गुणवान
हो तो क्या वह ब्राह्मण कहलायेगा?
वैदिक वर्ण व्यवस्था के अनुसार ब्राह्मण का पुत्र
विद्या प्राप्ति में असफल रहने पर शूद्र कहलायेगा वैसे ही शूद्र का पुत्र भी
विद्या प्राप्ति के उपरांत अपने ब्राह्मण, क्षत्रिय या
वैश्य वर्ण को प्राप्त कर सकता है। यह सम्पूर्ण व्यवस्था विशुद्ध रूप से गुणवत्ता
पर आधारित है। जिस प्रकार शिक्षा पूरी करने के बाद आज उपाधियाँ दी जाती है उसी
प्रकार वैदिक व्यवस्था में यज्ञोपवीत दिया जाता था। प्रत्येक वर्ण के लिए
निर्धारित कर्तव्यकर्म का पालन व निर्वहन न करने पर यज्ञोपवीत वापस लेने का भी
प्रावधान था।
मनुस्मृति में भी वर्ण परिवर्तन का स्पष्ट आदेश है।
[मनुस्मृति 10/65]।
शुद्र ब्राह्मण और ब्राह्मण शुद्र हो जाता है, इसी प्रकार से क्षत्रियों और वैश्यों कि संतानों के वर्ण भी बदल जाते है।
अथवा चारों वर्णों के व्यक्ति अपने अपने कार्यों को बदल कर अपने अपने वर्ण बदल
सकते है।
जन्मना जायते शुद्र: संस्कारों द्विज उच्यते। वेद
पाठी भवेद् विप्र: बृह्मा जानेति ब्राह्मण: ।।
अर्थात जन्म सब शुद्र होते है, संस्कारों से द्विज होते है। वेद पढ़ कर विप्र होते हैं और ब्रह्मा ज्ञान
से ब्राह्मण होते है। [नरसिंह तापनि उपनिषद्]
शुभ संस्कार तथा वेदाध्ययन युक्त शुद्र भी ब्राह्मण
हो जाता है और दुराचारी ब्राह्मण ब्राह्मणत्व को त्यागकर शुद्र बन जाता है।
[ब्रह्म पुराण 223/43]
जिस में सत्य, दान, द्रोह का भाव, क्रूरता का अभाव, लज्जा, दया और तप यह सब सद्गुण देखे जाते हैं वह
ब्राह्मण है। [महाभारत शांति पर्व अध्याय 88/4]
ब्राह्मणी के गर्भ से उत्पन्न होना, संस्कार, वेद श्रवण, ब्राह्मण
पिता कि संतान होना, यह ब्राह्मणत्व के कारण नहीं है,
बल्कि सदाचार से ही ब्राह्मण बनता है। [महाभारत अनुशासन पर्व 143/51]।
कोई मनुष्य कुल, जाति और क्रिया
के कारण ब्राह्मण नहीं हो सकता। यदि चंडाल भी सदाचारी हो तो वह ब्राह्मण हो सकता
है। [महाभारत अनुशासन पर्व 226/15]।
क्या वेदों के अनुसार शिल्प विद्या और
उसे करने वालो को नीचा माना गया है?
वैदिक काल में शिल्प विद्या को सभी वर्णों के लोग
अपनी अपनी आवश्यकता अनुसार करते थे। कालांतर में शिल्प विद्या केवल शुद्र वर्ण तक
सिमित हो गई और अज्ञानता के कारण जैसे शूद्रों को नीचा माना जाने लगा वैसे ही
शिल्प विद्या को भी नीचा माना जाने लगा। जैसे यजुर्वेद में लिखा है - वेदों में
विद्वानों (ब्राह्मणों) से लेकर शूद्रों सभी को शिल्प आदि कार्य करने का स्पष्ट
आदेश है एवं शिल्पी का सत्कार करने कि प्रेरणा भी दी गई है।
जातिभेद कि उत्पत्ति कैसे हुई और जातिभेद
से क्या क्या हानियां हुई?
जातिभेद कि उत्पत्ति के मुख्य कारण कुछ अनार्य
जातियों में उन्नत जाति कहलाने कि इच्छा , कुछ समाज
सुधारकों द्वारा पंथ आदि कि स्थापना करना और जिसका बाद में एक विशेष जाति के रूप
में परिवर्तित होना था जैसे लिंगायत अथवा बिशनोई, व्यवसाय
भेद के कारण जैसे ग्वालो को बाद में अहीर कहा जाने लगा , स्थान
भेद के कारण जैसे कान्य कुब्ज ब्राह्मण कन्नौज से निकले , रीति
रिवाज़ का भेद, पौराणिक काल में धर्माचार्यों कि अज्ञानता
जिसके कारण रामायण, महाभारत, मनु
स्मृति आदि ग्रंथों में मिलावट कर धर्म ग्रंथों को जातिवाद के समर्थक के रूप में
परिवर्तित करना था।
पूर्वकाल में जातिभेद के कारण समाज को भयानक हानि
उठानी पड़ी थी और अगर इसी प्रकार से चलता रहा तो आगे भी उठानी पड़ेगी। जातिभेद को
मानने वाला व्यक्ति अपनी जाति के बाहर के व्यक्ति के हित एवं उससे मैत्री करने के
विषय में कभी नहीं सोचता और उसकी मानसिकता अनुदार ही बनी रहती है।
इस मानसिकता के चलते समाज में एकता एवं संगठन बनने
के स्थान पर शत्रुता एवं आपसी फुट अधिक बढ़ती जाती है। R.C.Dutt
महोदय के अनुसार “हिन्दू समाज में जातिभेद के
कारण बहुत सी हानियां हुई है पर उसका सबसे बुरा और शोकजनक परिणाम यह हुआ कि जहाँ
एकता और समभाव होना चाहिये था वहाँ विरोध और मतभेद उत्पन्न हो गया। जहाँ प्रजा में
बल और जीवन होना चाहिये था वहाँ निर्बलता और मौत का वास है। [R.C.Dutt-Civilization
in Ancient India]।”
सामाजिक एकता के भंग होने से विपरीत परिस्थितियों
में जब शत्रु हमारे ऊपर आक्रमण करता था तब साधन सम्पन्न होते हुए भी शत्रुओं कि
आसानी से जीत हो जाती थी। जातिवाद के कारण देश को शताब्दियों तक गुलाम रहना पड़ा।
जातिवाद के चलते करोड़ो हिन्दू जाति के सदस्य धर्मान्तरित होकर विधर्मी बन गये। यह
किसकी हानि थी। केवल और केवल हिन्दू समाज कि हानि थी।
आशा है पाठकगन वेदों को जातिवाद का पोषक न मानकर
उन्हें शुर्द्रों के प्रति उचित सम्मान देने वाले और जातिवाद नहीं अपितु वर्ण
व्यस्था का पोषक मानने में अब कोई आपत्ति नहीं समझेगे और जातिवाद से होने वाली
हानियों को समझकर उसका हर सम्भव त्याग करेगे।
भारत में वर्ण व्यवस्था व जाति प्रथा
की कट्टरता
भारत में वर्ण व्यवस्था व धर्म और जातिप्रथा की
कट्टरता कब व कैसे और क्यों प्रारम्भ हुई, इसके ऐतिहासिक
तत्वों पर कभी गंभीरता से युक्ति-युक्त विचार नहीं हुआ। विदेशियों व वामपंथी
इतिहासकारों ने केवल अपने लाभ हेतु एवं विदेशी- अंग्रेज़ी साहित्य के चश्मे से ही
इसे देखा व वर्णित किया गया, जिसका सत्य से लेना देना नहीं
है।
देश के विश्वविद्यालयों में स्नातक स्तर के आधुनिक
इतिहास के विभाग एवं परास्नातक पाठयक्रम 1920 के बाद खोले गए | फिर प्राचीन भारत में वर्णव्यवस्था पर आधिकारिक इतिहास किस आधार पर लिखा
गया और किसने लिखा ? सारा इतिहास विदेशियों ने लिखा, उनकी ही नक़ल पर देशी अंग्रेजों व
वामपंथी इतिहासकारों ने अपने लाभ हेतु, विदेशी व अंग्रेज़ी
साहित्य व भाषा के चश्मे से ही इसे देखा, वर्णित किया,
और वही आगे भी लिखा व पढ़ा जाता रहा |
मुस्लिम व अँगरेज़ आक्रान्ताओं द्वारा देश की मूल वैदिक धर्म व परम्पराओं पर चलने
वाली हिन्दू जनता को किस प्रकार बलपूर्वक भयाक्रांत करके उन्हें निचले पायदान पर
लाया गया यह किसी इतिहासकार ने नहीं बताया या लिखा अपितु उस भयाक्रांत भारतीय जनता
को पहले फारसी, उर्दू फिर अंग्रेज़ी साहित्य द्वारा धर्मविहीन,
मानसिक दिवालिया स्व-धर्म विरोधी बनाया गया कि देश के ही इतिहासकार
स्वयं ही अपने ही इतिहास, धर्म-संस्कृति, वैदिक संस्कृति को नकारने लगे |
तथ्यों को इस प्रकार तोड़ा मरोड़ा गया और एक नया
इतिहास रच दिया गया जिसके चलते विदेशी आक्रान्ता जिनके पूर्वजों ने 800 साल तक राज किया, अत्याचार किए वही पाक साफ़ होकर देश के नागरिक बनकर स्वतंत्र भारत की
सरकारों की तुष्टीकरण नीति के कारण अल्पसंख्यकों के नाम पर आरक्षण भी पारहे हैं और
कटघरे में खड़े हैं स्वयं इस देश के मूल निवासी वैदिक धर्म व संस्कृति, यहाँ तक कि आज के कथित अल्पसंख्यक
अम्बेडकरवादी, गोंड आदि पुरा-आदिवासी जातियां अपने प्राचीन
भारतीय गौरव को भूलकर, भारत में रहने वाले सवर्ण
ब्राहमण-क्षत्री, वैश्य व अन्य लोगों को गाली देते हैं व
विदेशी बताते हैं और खुद को भारत का मूल नागरिक |
ज्योतिबा फुले और अम्बेडकर आदि ने भी उसी चश्मे से
देखा एवं तदनुसार भावावेश में इतिहास और तथ्यों को तोड़ा मरोड़ा और एक नया इतिहास रच
दिया|
अपने ही लोगों के मन में अन्य जातियों के लिए इनके द्वारा भरा गया
ज़हर हमेशा भरा रहेगा जो देश-समाज-संस्कृति के लिए अहितकर हो रहा है एवं भविष्य में
भी अहितकर होगा।
आज हालात यह हैं कि देश, समाज, सरकार की तुष्टीकरण नीति व हमारे समस्त समाज
बुद्धिवादी व विशिष्ट जनों के भी मानसिक दिवालियापन की कोइ सीमा नहीं है | कुछ उदाहरण प्रस्तुत हैं—
ऐसी कट्टर मानसिक गुलामी है कि वह अकबर तो महान है
जिसके शासन में 500000 लोगों को गुलाम बनाकर मुसलमान
बनाया गया तथा सत्ता न मानने वाले चित्तौड़गढ़ के 38000
राजपूतों को कटवा दिया गया | उस का महिमामंडन करने में मीडिया और भी आगे है | लेकिन महाराणा प्रताप, गुरु गोबिंद सिंह जी, गुरु तेग बहादुर, रानी लक्ष्मी बाई, पन्ना धाय को दो पन्नो में समेट
दिया गया या बिलकुल ही विस्मृत कर दिया
गया।
कोइ यह नहीं बता पाता कि सिर्फ 50 सालों में कश्मीर घाटी के 10 लाख हिंदू 3000 के अंदर कैसे सिमट गये | किसी ने कोई प्रदर्शन नहीं
किया, केंडल मार्च नहीं किया | कसाब के
पकड़े जाने के बाद हिन्दू विरोधी लाबी द्वारा प्रचारित किया गया कि 26/11 का मुम्बई हमला
रा.स्वयं सेवक संघ ने करवाया था। जो झूठ साबित हुआ और स्कूली किताबों से इसको
बमुश्किल हटाया गया |
जिन्होंने शायद ही कभी “मनुस्मृति”का अध्ययन किया होगा, उन्हीं लोगों ने जयपुर हाईकोर्ट परिसर में महर्षि मनु की मूर्ति लगने पर
विरोध प्रगट किया और हद तो तब हुई कि हाईकोर्ट की फुल बेंच ने भी अपनी विद्वता का
परिचय देते हुए 48 घंटे में उसे हटाने का आदेश पारित कर
दिया। जब दूसरे पक्ष द्वारा अपनी बात को
रखा गया तो तीन दिन लगातार बहस के बाद भी
मनु के आलोचक मनु को गलत साबित नहीं कर पाये और एक अंतरिम आदेश के साथ
हाईकोर्ट को अपना आदेश स्थगित करना पड़ा ।
मनुस्मृति और अन्य धर्मशास्त्रों में वर्णव्यवस्था “कर्म आधारित” थी और कर्म के आधार पर कोई भी अपना
वर्ण बदलने के लिए स्वतंत्र था। गीता में
कहा गया है—“चातुर्वर्ण्य मया सृष्टा गुण कर्म विभागश:” फिर भी कोई विरोध में तर्क दे तो
उसे कुतर्क ही माना जाना चाहिए |
भीमराव अम्बेडकर
— आंबेडकर द्वारा रचित The
Buddha And His Dharma की मूल प्रस्तावना में उन्होंने अपनी
ब्राह्मण पत्नी और अपने ब्राह्मण
अध्यापकों ( महादेव आंबेडकर, पेंडसे, कृष्णा
जी अर्जुन कुलेसकर ,बापूराव जोशी ) की हृदयस्पर्शी चर्चा की
है । क्या यह वर्णव्यवस्था का दोष है – ब्राह्मण महादेव आंबेडकर
का भीमराव को अपने घर में खाना खिलाना , पुणे के कट्टर
ब्राह्मण परिवार से उनकी पत्नी सविता देवी का जीवन जिन्होंने जाति-पाँति के बंधनों
की परवाह नहीं की |, कृष्णा जी अर्जुन कुलेसकर को जिसने
भीमराव को “महात्मा बुद्ध ” पर पढ़ने को
पुस्तक दी और भीमराव बोध हुआ |
दलित मसीहा, रामविलास पासवान
की दूसरी पत्नी नीना शर्मा (एक पंजाबी ब्राह्मण) जिसने एक ब्राह्मणत्व की धारणा को
तोड़ कर एक दलित से शादी की |
यह कभी नहीं सोचा गया कि वर्णव्यवस्था में
विद्रूपता और कट्टरपन क्यों, कब और कैसे आया, कभी हिंदुत्व के विरोधी एवं विदेशी नक़्शे कदम के पूजक वामपंथियों द्वारा
रचित इतिहास के इतर कुछ पढ़ने/पढाने की कोशिश की नहीं गयी | जो और जितना पढ़ा/पढ़ाया
गया उसी को सबकुछ मान कर भेड़चाल में हम
धर्मग्रंथों और उच्च जातियों को गलियां
देने लगे ।
वेदों के बारे में फैलाई गई भ्रांतियों में से एक
यह भी है कि वे ब्राह्मणवादी ग्रंथ हैं और शूद्रों को अछूत मानते हैं। जातिवाद की
जड़ भी वेदों में बताई जा रही है और इन्हीं विषैले विचारों पर दलित आंदोलन इस देश
में चलाया जा रहा है। लेकिन इन विषैले विचार की उत्पत्ति कहां से हुई?
सबसे पहले बौद्धकाल में वेदों के विरुद्ध आंदोलन
चला। जब संपूर्ण भारत पर बौद्धों का शासन था तब वैदिक ग्रंथों के कई मूलपाठों को
परिवर्तित कर समाज में भ्रम फैलाकर हिन्दू समाज को तोड़ा गया। इसके बाद मुगलकाल
में हिन्दुओं में कई तरह की जातियों का विकास किया गया और संपूर्ण भारत के
हिन्दुओं को हजारों जातियों में बांट दिया गया। फिर आए अंग्रेज तो उनके लिए यह
फायदेमंद साबित हुआ कि यहां का हिन्दू ही नहीं मुसलमान भी कई जातियों में बंटा हुआ
है।
अंग्रेज काल में पाश्चात्य विद्वानों जैसे
मेक्समूलर, ग्रिफ्फिथ, ब्लूमफिल्ड
आदि का वेदों का अंग्रेजी में अनुवाद करते समय हर संभव प्रयास था कि किसी भी
प्रकार से वेदों को इतना भ्रामक सिद्ध कर दिया जाए कि फिर हिन्दू समाज का वेदों से
विश्वास ही उठ जाए और वे खुद भी वेदों का विरोध करने लगे ताकि इससे ईसाई मत के
प्रचार-प्रसार में अध्यात्मिक रूप से कोई कठिनाई नहीं आए। बौद्ध, मुगल और अंग्रेज तीनों ही अपने इस कार्य में सफल भी हुए और आज हम देखते
हैं कि हिन्दू अब बौद्ध भी हैं, बड़ी संख्या में मुसलमान हैं
और ईसाई भी।
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