जहां भारत मंगल पर सैटेलाइट भेजने के लिए अपनी पीठ थपथपा रहा है, वहीं भारत में रोज़ाना सांप्रदायिक दंगे सामाजिक ताने-बाने का गला घोट रहे हैं. दंगे होते हैं या करवाए जाते हैं? यह बहस बहुत पुरानी है. पर क्या वाक़ई कहीं भी दंगे करवाना और भड़काना इतना आसान है? क्या सही में नफ़रत की खेती कोई कर रहा है या यह वह पौधा है, जो अपने आप ही उग रहा है.
क्या कहते हैं आंकड़ें?
नेशनल
क्राइम रिकॉर्ड्स ब्यूरो (एनसीआरबी) मुताबिक 2013
में भारत में 72,126 दंगे दर्ज हुए थे. एनसीआरबी के
मुताबिक भारत में साल 2000 से 2013 के बीच हर साल औसतन 64,822 दंगे हुए हैं.
भारत
में दंगों और उसके कारणों को लेकर बहुत कम शोध हुए हैं. जानकर मानते हैं कि इसका
बहुत बड़ा कारण सही आंकड़ें न मिल पाना और सांप्रदायिक दंगों के केस का कोर्ट में
लंबे समय तक चलना है.
पूर्व
आईएएस अफ़सर और सामाजिक कार्यकर्ता हर्ष मंदर मानते हैं दंगे कभी अपने आप नहीं
होते. उनका
कहना है कि राजनीतिक संगंठनों के लिए किसी को
भी लड़वाना आसान है.
हर्ष
मंदर का कहना है, "दंगे करवाने के लिए तीन चीज़ें बहुत
जरूरी है. नफ़रत पैदा करना,
बिल्कुल वैसे जैसे किसी फैक्टरी में
कोई वस्तु बनती हो. दूसरा,
दंगों में हथियार, जिसका भी प्रयोजन होता है."
उन्होंने
बताया, "अगर बड़े दंगे करवाने हैं तो छुरी और
सिलिंडर बांटे जाते हैं और सिर्फ एक तनाव का वातावरण खड़ा करना हो तो ईंट-पत्थर.
तीसरा है, पुलिस और प्रशासन का सहयोग जिनके बिना
कुछ भी मुमकिन नहीं."
वो
कहते हैं, "किसी भी दंगे को रोकने के लिए ख़ुफ़िया
सेवा का होना भी ज़रूरी है लेकिन पुलिस का यह विभाग बिल्कुल निष्क्रिय हो गया है.
लोगों को पुलिस पर भरोसा नहीं है."
भारत में सांप्रदायिक हिंसा की समस्या
सांप्रदायिक
या जातीय हिंसा केवल असम या पूर्वोत्तर भारत की समस्या नहीं है बल्कि यह एक वैश्विक
समस्या है। यह धार्मिक कट्टरता का ही उग्र रूप है। दुनिया भर में चल रहे जातीय और
नस्लीय संघर्ष भी इसी की देन हैं। भारत के संदर्भ में सर्वमान्य धारणा है कि यहां
हिंदू और मुसलमान के बीच दरारें पैदा करने का काम अंग्रेजों ने किया। अपने
औपनिवेशिक मकसद को ध्यान में रखकर उन्होंने भारत को खंडों में बांटने के लिए
सांप्रदायिकता का सहारा लिया। लेकिन पूछा जा सकता है कि क्या यही काम अंग्रेजों ने
अमेरिका और अन्य यूरोपीय देशों के कैथोलिक और प्रोटेस्टेंट संघर्ष , ईरान , इस्राइल , अफगानिस्तान के धार्मिक कट्टरवाद को
पोषित करने के लिए भी किया था ? धार्मिक
संघर्ष किसी तीसरे पक्ष के पोषित करने से नहीं बल्कि संबंधित धर्म के स्वयंभू
संरक्षकों और तथाकथित विश्लेषकों की स्वार्थी मानसिकता के कारण पनपता है।
भारत
के विभिन्न भागों में समय - समय पर उभरने वाले सांप्रदायिक तनाव ने हमें सोचने पर
मजबूर किया है कि क्या विविधता में एकता की संस्कृति अब प्रासंगिक नहीं रह गई है ? आज धर्म का उपयोग हर व्यक्ति अपनी अस्मिता और निजी
पहचान को बनाए रखने तथा अपने स्वार्थों की पूर्ति के लिए करता दिख रहा है। विभिन्न
राजनीतिक दलों के लिए तो यह एक संवेदनशील हथियार बन चुका है। ऐसा आज ही नहीं पहले
भी हुआ है। धर्म के नाम पर हिंसा की घटनाओं से इतिहास भरा पड़ा है। धर्म के नाम पर
संघर्षों ने न केवल पूरब के देशों को बल्कि पश्चिमी देशों को भी तबाह किया है। इन
सभी लड़ाइयों में दरअसल धर्म का कहीं नामोनिशान नहीं था। ये सभी लड़ाइयां मुख्य
रूप से सत्ता प्राप्ति , राजनीतिक व आर्थिक कारणों से लड़ी गईं
पर इसमें शामिल लोगों ने धर्म की आड़ ली , उसे
बहाना बनाया। धर्म हमेशा अभिव्यक्ति का वाहक और पहचान का एक रूप रहा है , जिसे आधार बना कर कोई समूह अपने लिए
अधिक सत्ता प्राप्त करने या ऐसे ही किसी अन्य स्वार्थ के लिए एकजुट होता है।
स्वार्थ की इस लड़ाई में कटने - मरने के लिए हमेशा गरीबों , वंचितों व अशिक्षितों को ही आगे रखा
जाता है।
सांप्रदायिक
दंगों के दौरान जो भयंकर लूटपाट मचती है उसका क्या कोई धार्मिक आधार होता है ? सांप्रदायिक हिंसा की घटनाओं के पीछे
धर्म के किसी भी पहलू का हाथ नहीं होता। संघर्ष मामूली विवादों से शुरू होता है जो
कि व्यक्तिगत होते हैं। ये निजी झगड़े बढ़कर सामूहिक रूप ले लेते है। ऐसा इसलिए
होता है क्योंकि लोगों को धर्मकी एकपक्षीय शिक्षा दी गई है। आज हर समाज में
विभिन्न धर्मों के लोगों के बीच आपसी अविश्वास है। यह अविश्वास और असुरक्षा की
भावना व्यक्तिगत विवादों के दौरान एक अवसर बन जाती है जो आगे चल कर हिंसात्मक हो
जाती है। इस अवसर को राजनीतिक स्वार्थों की पूर्ति में लगे राजनीतिक समूह खूब
भुनाते हैं और इसे रोकने के उपाय करने के बजाय और उकसाते है।
धर्म
के नाम पर होने वाले विवादों को देखा जाए तो उसमें धर्म के नाम पर लोग जमा होते है
, बाकी कार्य तो स्वार्थी समूहों द्वारा
निर्देशित व संचालित होता है। असम को ही लें। इसमें कहा जा रहा है कि यह दूसरे देश
से आए एक समूह द्वारा मूल निवासियों का हक छीनने के कारण भड़की हिंसा है। लेकिन यह
मुद्दा इतना सरल भी नहीं है जितना समझा जा रहा है। हिंसा सांप्रदायिक लगती है
क्योंकि दो संप्रदाय आमने - सामने हैं। लेकिन सच यह है कि विभिन्न समुदायों की कई
समस्याओं को सरकार वर्षों से इसलिए दबाए रही ताकि मुस्लिम मतदाता नाराज न हो जाए।
यह स्वार्थपरक राजनीति का उदाहरण है जो अनेक लोगों को मौत के मुंह में धकेल देती
है , हजारों लोगों को शरणार्थी बना देती है।
आज के तार्किक और वैज्ञानिक दौर में ऐसा होना वाकई दुर्भाग्यपूर्ण है।
हरेक धर्म सैद्धांतिक रूप से घृणा और हिंसा के खिलाफ हैं फिर उन्हें मानने वालों में मारकाट
क्यों मची है ? साफ है कि धर्म महज पहचान या ऊपरी रहन
- सहन तक सीमित रह गया है। वह हमारी सोच को बदल नहीं पाया है। ऐसा क्यों हुआ , इस पर विचार करने की जरूरत है।
भारत में सांप्रदायिक दंगों पर राजनीति
विभाजन
के बाद बचे कटे-छँटे भारत में भी सांप्रदायिक दंगों में सामुदायिक वाद-प्रतिवाद की
वही कहानी है। दंगों की दबी-ढँकी रिपोर्टिंग, सरकारी
जाँच और न्यायिक आयोगों की रिपोर्टें भी यही बताती हैं कि सांप्रदायिक हिंसा का
आरंभ प्रायः धार्मिक आधार पर होता है।
जबकि
भारतीय संसद में प्रस्तुत गृह मंत्रालय की एक रिपोर्ट के अनुसार देश में सन् 1968 से 1970 के बीच हुए 24 दंगों में 23 दंगे मुस्लिमों द्वारा आरंभ किए गए
थे। रिपोर्ट को राष्ट्रीय एकता परिषद की बैठक में भी रखा गया था। ऐसे सभी बुनियादी
तथ्य चर्चा से बाहर रखे जाते हैं, ताकि
दंगों पर मनपसंद राजनीतिक निष्कर्ष थोपे जा सकें।
वह कोई अपवाद अवधि नहीं थी। बाद के दंगों में भी वही हुआ है। अलीगढ़
दंगे (1978), जमशेदपुर (1979), मुरादाबाद (1980), मेरठ (1982), भागलपुर (1989),
बंबई (1992-93) भी मुसलमानों द्वारा आरंभ किए गए। कारण भी प्रायः अनुचित। जैसे, किसी मुस्लिम अपराधी को पुलिस द्वारा
पकड़े जाने की प्रतिक्रिया। सबसे कुख्यात गुजरात दंगा (2002) भी गोधरा में साबरमती एक्सप्रेस में
हिन्दू-दहन से ही शुरू हुआ।
मगर इस तथ्य को महत्व नहीं दिया जाता। किन्तु सदैव एक ही समुदाय
द्वारा हिंसा या दंगे आरंभ करने के बाद भी उसी को पीड़ित बताना, केवल इसलिए क्योंकि प्रायः बड़े दंगों
के शान्त होने के बाद संपूर्ण मृतकों में उसकी संख्या अधिक रही, एकदम गलत व्याकरण है। इस से दंगों पर
विमर्श राजनीतिक प्रोपेगंडा में बदल कर रह जाता है।
अधिकांश विमर्श में बनाव-छिपाव चलता है। अभी-अभी एक जेएनयू प्रोफेसर
ने लिखा है कि “हर बार एक समुदाय के कुछ असामाजिक
तत्वों द्वारा आपराधिक हरकत के लिए उस पूरे समुदाय को दंडित करने का काम आहत
समुदाय के असामाजिक अपराधी अपने हाथ में ले लेते हैं।” ध्यान दें, इस में भी परोक्ष रूप से नोट किया गया
है कि एक समुदाय विशेष ही हिंसा का आरंभ करता है।
मगर सचाई यह है कि ‘हर
बार’ ऐसा नहीं होता। साधारण, समान्य लोग भी आक्रोश और प्रतिशोध में
निर्मम हिंसा करते हैं। इस कड़वी सचाई से कतराकर, सभी वास्तविक पहलुओं पर खुली चर्चा न करके लीपा-पोती करते अधकचरा
छोड़ दिया जाता है।
इस पलायनवादी प्रवृत्ति से कोई भला नहीं हुआ है। दोनों समुदाय के
दंगाइयों को ‘अपराधी तत्व’ कहकर सपाट उपदेश देना फिजूल है।
निर्दोष मृतकों का अपमान और दंगे के कारणों का छिपाव भी। जिस का अंतिम परिणाम यह
होता है कि मूल दोष और दोषी बचे रहते हैं। उन्हें चिन्हित करने के बजाए बचाया जाता
है।
तब स्वभाविक है कि उन्हें अपनी गलती कभी नहीं दिखती। वे आगे फिर वही
करने के लिए नैतिक रूप से तैयार रहते हैं। यह इसीलिए होता है क्योंकि सांप्रदायिक
हिंसा का हिसाब दिखाने में ही नहीं, बल्कि
इस पर संपूर्ण विमर्श में राजनीति चलती है। सामाजिक, राष्ट्रीय हित नहीं देखा जाता। तब क्या आश्चर्य कि बीमारी छिपी रहे, और समाधान भी सदा की तरह दूर रहे।
हमारे
‘जिम्मेदार’ लोग गोधरा, किश्तवाड़, मराड या मऊ आदि अनगिन हिंसा की
वास्तविक तफसीलों को छिपा या चुप्पी साध कर समझते हैं कि उन्होंने माहौल और
बिगड़ने से बचा लिया। उन्होंने कभी ठंढे दिमाग से नहीं सोचा कि ऐसी तिकड़मों के
बाद भी उन्हें इस बीमारी को खत्म करने में सफलता क्यों नहीं मिली है?
कुछ लोग तो अपने विचारधारात्मक या दलीय राजनीतिक स्वार्थ में किसी
विरोधी दल को बदनाम करने के लिए जान-बूझ कर आतंकवादियों तक का बचाव करते रहते हैं।
वे या तो भूलते हैं, या इसकी कोई परवाह नहीं करते कि इस से सामुदायिक संबंधों पर बुरा असर
पड़ता है।
नेताओं, नीति-निर्माताओं और बुद्धिजीवियों
द्वारा विभिन्न प्रसंगों में सामुदायिक भेद-भाव का खुला प्रदर्शन करने वाले बयानों
और प्रस्तावों की संबंधित समुदायों पर एक प्रतिक्रिया होती ही है। यदि उन से किसी
समुदाय में क्षोभ पैदा हो,
और उस क्षोभ का कोई निराकरण न हो, तो वह विविध प्रकार की अस्वस्थकर
भावनाओं के रूप में एकत्र होता है।
वह
अनेकानेक लोगों के मन में या तो नये घाव बनाता है, या किसी पुराने घाव को बढ़ाता है। यह सब सांप्रदायिक सदभाव के
विरुद्ध जाता है। वस्तुतः भारत में हिन्दू-मुस्लिम दंगे समय-समय पर उन्हीं घावों
का सम्मिलित रूप से फूट पड़ना है। विगत सौ वर्षों से चल रही इसी प्रक्रिया का एक
परिणाम देश का खूनी विभाजन भी था।
नेहरू ने मुस्लिम लीग की यही पहचान ही बताई थी कि वह ‘सड़कों पर हिन्दू-विरोधी दंगे करने के
सिवा और कुछ नहीं करती’। जिन्ना ने भी पाकिस्तान बनाने में
सफलता में दंगों की निर्णायक भूमिका मानी थी। इस प्रकार, नेहरू और जिन्ना, दोनों के ही अनुसार मुस्लिम लीग ने
दंगों को अपने हथियार के रूप में राजनीतिक इस्तेमाल किया।
केवल
राजनीतिक झक में उस पर पर्दा डालने की कोशिश की जाती है। मगर उससे बीमारी बढ़ती ही
है। छिपती बिलकुल नहीं।
भारतीय समाज में हिन्दू-मुस्लिम दंगों की बीमारी की यथावत
उपस्थिति यही बताती है कि हमने इतिहास से कुछ नहीं सीखा। उलटे हमारे कर्णधार उसके
लक्षणों, विवरणों, कारणों की लीपा-पोती करने
में पूरी ताकत लगा देते हैं।
भारत
में सांप्रदायिक दंगों को लेकर देश के दो प्रमुख समुदायों- हिंदुओं और मुसलमानों
के अपने-अपने पूर्वाग्रह हैं। एक समुदाय दंगों के संबंध में मानकर चलता है कि दंगे
दूसरें समुदाय शुरू करते हैं।
आमतौर
से दंगा कौन शुरू करता है का फैसला इस बात से किया जाता है कि उत्तेजना के क्षण
में पहला पत्थर किसने फेंका। यह फैसला गलत हो सकता है। जिन्होंने सांप्रदायिक
दंगों का निकट से और समाजशास्त्रीय औजारों से अध्ययन किया है वे जानते है कि हर
फेंका हुआ पत्थर दंगा शुरू करने में समर्थ नहीं होता। दरअसल सांप्रदायिक हिंसा
भड़कने के लिए जरूरी तनाव की निर्मिति एक पिरामिड की शक्ल में होती है। वास्तविक
दंगे शुरू होने के काफी पहले से, कई
बार तो महीनों पहले से अफवाहों, आरोपों
और नकारात्मक प्रचार की चक्की चलाई जाती है। तनाव धीरे-धीरे बढ़ता है और अंततः एक
ऐसा प्रस्थान बिंदु आ जाता है जब सिर्फ एक पत्थर या एक उत्तेजक नारा दंगा शुरू
कराने में समर्थ हो जाता है। इस प्रस्थान बिंदु पर इस बात का कोई अर्थ नहीं रह
जाता कि पहला पत्थर किसने फेंका!
आखिर ये दंगे होते ही क्यों हैं?
भारत वर्ष की दशा इस समय
बड़ी दयनीय है। एक
धर्म के अनुयायी दूसरे धर्म के अनुयायियों के जानी दुश्मन हैं। अब तो एक धर्म का
होना ही दूसरे धर्म का कट्टर शत्रु होना है। ऐसी स्थिति में हिन्दुस्तान का भविष्य
बहुत अन्धकारमय नजर आता है। इन ‘धर्मों’ ने हिन्दुस्तान का बेड़ा गर्क कर दिया
है। और अभी पता नहीं कि यह धार्मिक दंगे भारतवर्ष का पीछा कब छोड़ेंगे। इन दंगों ने
संसार की नजरों में भारत को बदनाम कर दिया है। और हमने देखा है कि इस अन्धविश्वास
के बहाव में सभी बह जाते हैं। कोई बिरला ही हिन्दू, मुसलमान या सिख होता है, जो
अपना दिमाग ठण्डा रखता है,
बाकी सब के सब धर्म के यह नामलेवा अपने
नामलेवा धर्म के रौब को कायम रखने के लिए डण्डे लाठियाँ, तलवारें-छुरें हाथ में पकड़ लेते हैं और
आपस में सर-फोड़-फोड़कर मर जाते हैं। बाकी कुछ तो फाँसी चढ़ जाते हैं और कुछ जेलों
में फेंक दिये जाते हैं।
यहाँ
तक देखा गया है, इन दंगों के पीछे साम्प्रदायिक नेताओं
और अखबारों का हाथ है। इस समय हिन्दुस्तान के नेताओं ने ऐसी लीद की है कि चुप ही
भली। वही नेता जिन्होंने भारत को स्वतन्त्रा कराने का बीड़ा अपने सिरों पर उठाया
हुआ था और जो ‘समान राष्ट्रीयता’ और ‘स्वराज्य-स्वराज्य’ के
दमगजे मारते नहीं थकते थे,
वही या तो अपने सिर छिपाये चुपचाप बैठे
हैं या इसी धर्मान्धता के बहाव में बह चले हैं। सिर छिपाकर बैठने वालों की संख्या
भी क्या कम है? लेकिन ऐसे नेता जो साम्प्रदायिक
आन्दोलन में जा मिले हैं,
जमीन खोदने से सैकड़ों निकल आते हैं। जो
नेता हृदय से सबका भला चाहते हैं, ऐसे
बहुत ही कम हैं। और साम्प्रदायिकता की ऐसी प्रबल बाढ़ आयी हुई है कि वे भी इसे रोक
नहीं पा रहे। ऐसा लग रहा है कि भारत में नेतृत्व का दिवाला पिट गया है।
दूसरे
सज्जन जो साम्प्रदायिक दंगों को भड़काने में विशेष हिस्सा लेते रहे हैं, अखबार वाले हैं। पत्रकारिता का व्यवसाय, किसी समय बहुत ऊँचा समझा जाता था। आज
बहुत ही गन्दा हो गया है। यह लोग एक-दूसरे के विरुद्ध बड़े मोटे-मोटे शीर्षक देकर
लोगों की भावनाएँ भड़काते हैं और परस्पर सिर फुटौव्वल करवाते हैं। एक-दो जगह ही
नहीं, कितनी ही जगहों पर इसलिए दंगे हुए हैं
कि स्थानीय अखबारों ने बड़े उत्तेजनापूर्ण लेख लिखे हैं। ऐसे लेखक बहुत कम है जिनका
दिल व दिमाग ऐसे दिनों में भी शान्त रहा हो।
हाल के बर्षो में ज़्यादातर सांप्रदायिक दंगे सोशल
मीडिया पर आपत्ति जनक पोस्ट, लिंग
संबंधी विवादों और धार्मिक स्थान को लेकर हुए हैं.
अखबारों
का असली कर्त्तव्य शिक्षा देना, लोगों
से संकीर्णता निकालना, साम्प्रदायिक भावनाएँ हटाना, परस्पर मेल-मिलाप बढ़ाना और भारत की
साझी राष्ट्रीयता बनाना था लेकिन इन्होंने अपना मुख्य कर्त्तव्य अज्ञान फैलाना, संकीर्णता का प्रचार करना, साम्प्रदायिक बनाना, लड़ाई-झगड़े करवाना और भारत की साझी
राष्ट्रीयता को नष्ट करना बना लिया है। यही कारण है कि भारतवर्ष की वर्तमान दशा पर
विचार कर आंखों से रक्त के आँसू बहने लगते हैं और दिल में सवाल उठता है कि ‘भारत का बनेगा क्या?’
लोगों
को परस्पर लड़ने से रोकने के लिए वर्ग-चेतना की जरूरत है जो साम्प्रदायिक दंगे रोक सकता है।
साम्प्रदायिक दंगे और उनका इलाज
1948 के बाद भारत में पहला सांप्रदायिक दंगा 1961
में मध्यप्रदेश के जबलपुर शहर में हुआ! उसके बाद से अब तक सांप्रदायिक दंगो की
झड़ी सी लग गयी! बात चाहे 1969 में गुजरात के दंगो की हो, 1984
में सिख विरोधी हिंसा की हो, 1987 में
मेरठ के दंगे हो जो लगभग दो महीने तक चला था और कई लोगो ने अपनी जान गंवाई थी, 1989
में हुए भागलपुर - दंगे की बात हो, 1992
- 93 में बाबरी काण्ड के बाद मुंबई में भड़की हिंसा की हो, 2002
में गुजरात - दंगो की हो, 2008 में कंधमाल की हिंसा की हो
यह एक कटु सत्य है कि विभिन्न समुदायों के बीच शांति एवं सौहार्द
स्थापित करने की राह में सांप्रदायिक दंगे एक बहुत बड़ा रोड़ा बन कर उभरते हैं और
साथ ही मानवता पर ऐसा गहरा घाव छोड़ जाते है जिससे उबरने में मानव को कई - कई वर्ष तक लग जाते है ! ऐसे में समुदायों के बीच उत्पन्न तनावग्रस्त
स्थिति में किसी भी देश की प्रगति संभव ही नहीं है!
साम्यवादी चिन्तक काल मार्क्स ने धर्म को अफीम
की संज्ञा देते हुए कहा था कि धर्म लोगों में नसेड़ी की अफीक की तरह विद्यमान होता
है, जो हर हाल में नशा नहीं त्यागना चाहता है, भले
ही वह अन्दर से खोखला क्यों ना हो जाय ! समाज की इसी कमजोरी को राजनेताओ ने सत्ता
की लोलुपता में सत्ता हथियाने हथियार बनाया , भले
ही इसकी बेदी पर सैकड़ों मासूमों के खून बह जाय !
धर्मनिरपेक्षता और संविधान
भारतीय संविधान के तहत भारत एक धर्मनिरपेक्ष
देश है जहां कई मतों को मानने वाले लोग एक साथ रहते है ! ध्यान देने योग्य है कि
धर्मनिरपेक्ष शब्द संविधान के 1976 में हुए 42वें संशोधन अधिनियम द्वारा
प्रस्तावना में जोड़ा गया ! यह संशोधन सभी धर्मों की समानता और धार्मिक सहिष्णुता
सुनिश्चित करता है ! चूंकि भारत का कोई अपना आधिकारिक धर्म नहीं है अतः यहाँ ना तो
किसी धर्म को बढावा दिया जाता है और ना ही किसी से धार्मिक - भेदभाव किया जाता है
! भारत में सभी धर्मों का सम्मान किया जाता है और सभी मतानुयायो के साथ एक समान
व्यवहार किया जाता है ! भारत में हर व्यक्ति को अपने पसन्द के किसी भी धर्म की
उपासना, पालन और प्रचार का अधिकार है ! सभी
नागरिकों, चाहे उनकी धार्मिक मान्यता कुछ भी
हो कानून की नजर में बराबर है ! साथ ही सरकारी या सरकारी अनुदान प्राप्त स्कूलों
में कोई धार्मिक अनुदेश लागू भी नहीं होता !
सांप्रदायिक हिंसा के कारण
अगर हम बड़े - बड़े साम्प्रदायिक दंगो को छोड़
दे तो भी देश में गत वर्ष हुई सांप्रदायिक हिंसा भड़कने के मूल में किसी भी समुदाय
की धार्मिक भावनाओ का आहत होना, सहनशीलता और
धैर्य की कमी के साथ - साथ और क्रिया का प्रतीकारात्मक उत्तर देना ही शामिल है !
सांप्रदायिक हिंसा की हो शुरुआत हमेशा छोटे - छोटे दंगो से ही होती है जो कि
पूर्वनियोजित नहीं होते ! आखिर ये बिभिन्न समुदाय के लोग एक - दूसरे की धार्मिक
भावनाओं पर कुठाराघात करते ही क्यों है यह एक हम सबके सम्मुख विचारणीय प्रश्न मुह
बाए खड़ा है !
क्या कहते है आंकड़े
गृहमंत्रालय के अनुसार द्वारा जारी आंकड़ों के
मुताबित देश भर में चार सालो (2008-2011) में
सांप्रदायिक हिंसा के लगभग 2,420 से अधिक छोटी - बड़ी घटनाएं हुई जिसमें कई लोगो को
अपनी जान से हाथ ढोना पड़ा ! इन आंकड़ों का अगर हम औसत देंखे तो देश में किसी न
किसी हिस्से में हर दिन कोई न कोई सांप्रदायिक हिंसा की घटना हो ही जाती है जिसमे
कई बेगुनाह लोग मारे जाते है और कई घायल हो जाते है ! गृहमंत्रालय का भी मानना है
कि देश के लिए सांप्रदायिक हिंसा प्रमुख चिंता का विषय बन गया है ! क्योंकि सरकारी
तंत्र यह मानता है कि सांप्रदायिक हिंसा का समाज पर दूरगामी प्रभाव छोड़ता है
जिससे समाज में कटुता का ग्राफ सदैव बढ़ता है ! परन्तु अगर ऐसा माना जाय कि सरकार
का नेतृत्व थामने वाले जनता के प्रतिनिधि ही किसी न किसी रूप में सांप्रदायिकता की
आड़ में अपनी राजनैतिक रोटिया सकते है तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी, इसका
ताज़ा उदाहरण देश की राजधानी दिल्ली ने सुभाष पार्क के स्थानीय विधायक को देखा
परन्तु जनता की सहनशीलता एवं धैर्य से कोई बड़ी अनहोनी होते - होते बच गयी ! परन्तु
जब यह सहनशीलता जनता नहीं दिखाती तो देश साम्प्रदायिक दंगो की भेट चढ़ जाता है !
अगर हम हाल ही के पिछले कुछ वर्षो के आकड़ो पर नजर डाले तो आकडे इस बात की पुष्टि
कर देते है कि जनता ने जहा सहनशीलता नहीं दिखाई वहा सांप्रदायिक दंगे हुए है ! एक
आकंड़ो के अनुसार वर्ष 2010 में सांप्रदायिक हिंसा की 651 घटनाओं में जहा एक तरफ
114 लोगों को अपनी जान से हाथ ढोना पडा था तो दूसरी तरफ 2,115 व्यक्ति घायल हो गए
थे ! वर्ष 2009 में सांप्रदायिक हिंसा की 773 घटनाओं में लगभग 123 लोगों की मौत हो
गई थी जबकि 2,417 लोग घायल हुए थे ! वर्ष 2008 में सांप्रदायिक हिंसा की 656
घटनाओं में 123 लोगों की जान गयी थी और 2,270 लोग घायल हुए थे !
सांप्रदायिक हिंसा रोकने के लिए उपाय
भारत सरकार को चाहिए कि साफ़ नियति से बिना देरी
किये हुए सभी दलों के सहयोग एवं सहमति से संसद में कानून बनाकर इस नासूर रूपी
समस्या पर नियंत्रण करे ! ध्यान देने योग्य है कि सांप्रदायिक एवं लक्षित हिंसा
निवारण विधेयक - 2011 का एक प्रारूप सोनिया गांधी की अध्यक्षता वाली राष्ट्रीय
सलाहकार परिषद ने तैयार किया था परन्तु इस प्रारूप से सरकार की नियति पर सवालिया
निशान खड़े हो गए थे ! सांप्रदायिक हिंसा की घटनाएं अक्सर त्योहारों के नजदीक ही
होती है अतः सरकार को त्योहारों के समीप चौकस हो जाना चाहिए और ऐसे क्षेत्र को
संवेदनशील घोषित कर कुछ हद तक ऐसी सांप्रदायिक घटनाओ को कम किया जा सकता है !
सांप्रदायिक हिंसा खतरनाक होने के साथ ही भारत
की मिली जुली संस्कृति पर हमला हैं और इनसे कड़ाई से निपटने की जरूरत है ! किसी भी
देश के विकास के लिए परस्पर सांप्रदायिक सौहार्द का होना नितांत आवश्यक है ! अतः
आम - जन को भी देश की एकता - अखंडता और पारस्परिक सौहार्द बनाये रखने के लिए ऐसी
सभी देशद्रोही ताकतों को बढ़ावा न देकर अपनी सहनशीलता और धैर्य का परिचय देश के
विकास में अपना सहयोग करना चाहिए ! आज समुदायों के बीच गलत विभाजन रेखा विकसित की
जा रही है ! विदेशी ताकतों की रूचि के कारण स्थिति और बिगड़ती जा रही है जो भारत
की एकता को बनाये रखने में बाधक है ! अतः अब समय आ गया है देश भविष्य में ऐसी
सांप्रदायिक घटनाये न घटे इसके लिए प्रतिबद्ध हो !
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