5/29/14

2013 में भारतीय सिनेमा के 100 साल पूरे

2013 में भारतीय सिनेमा के 100 साल पूरे हो चुके हैं। इन 100 सालों में भारतीय सिनेमा ने खूब तरक्की की। एक से 

बढ़कर एक फिल्में परदे पर दिखाई दीं जिन्हें दर्शकों ने खूब सराहा। समाज को जागरुक करती फिल्मों से शुरू हुआ ये सफर

 रूमानियत की तरफ बढ़ा। फिर एक्शन प्रधान फिल्मों का दौर भी आया और फिर रियलिटी दिखाती फिल्मों का। 

भारतीय सिनेमा के सौ वर्ष

भारतीय सिनेमा का सफ़रनामा बहुत रोचक है। यह कई उतार-चढ़ावों से भरा हुआ है। सौ वर्ष पहले, जब भारतीय सिनेमा का जन्म हुआ था, तब भारत गुलाम था। गुलाम भारत की लाचार-बेबस जनता ने उस समय सोचा भी नहीं होगा कि उसे रुपहले परदे पर चलते चित्र देखने को मिल पाएँगे। सन् 1857 के प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के बाद भारतीय समाज के नवजागरण की शुरुआत हुई थी।

साहित्य, समाज, शिक्षा, कला और पत्रकारिता आदि के क्षेत्रों में अनेक भारतीय आगे आकर आजादी पाने के लिए कार्य कर रहे थे। दूसरी ओर, भारत का अभिजात्य वर्ग, अंग्रेजी शासन के नौकरशाह और अंग्रेजों के चहेते राजा और नवाब अपने मनोरंजन के नए-नए माध्यम तलाश रहे थे। उस समय चर्चित पारसी थिएटरों को पीछे छोड़ते हुए सन् 1896 में सिनेमा का आगमन भारत में हुआ।

07 जुलाई, 1896 को बम्बई के वाटसन होटल में लुमिरै भाईयों ने छह मूक फिल्मों का प्रदर्शन किया। इन्ही में से एक फिल्मद लाइफ़ ऑफ़ द क्राइस्ट को देखने का अवसर धुंडीराज गोविन्द फ़ालके को मिला। महाराष्ट्र राज्य के नासिक जिले के त्र्यंबकेश्वर नामक छोटे-से कस्बे में 30 अप्रैल, सन् 1870 को जन्मे धुंडीराज गोविंद फालके को हम दादासाहब फाल्के के नाम से जानते हैं। भारतीय सिनेमा के जनक दादासाहब फालके, सर जे.जे. स्कूल ऑफ आर्ट और कला भवन बड़ौदा के छात्र व प्रख्यात चित्रकार राजा रवि वर्मा के शिष्य थे। वह मंच के अनुभवी अभिनेता थे और शौकिया जादूगर भी थे।


बहुमुखी प्रतिभा के धनी और साधारण-से व्यक्ति दादासाहब फालके ने अंग्रेजों के मनोरंजन की वस्तु सिनेमा को भारतीय नवजागरण की धारा के साथ जोडने का काम किया। उन्होंने 5 पौंड में एक सस्ता कैमरा खरीदा। वे शहर के सभी सिनेमाघरों में जाकर फिल्मों का अध्ययन करते और रोज 20-20 घंटे तक नए-नए प्रयोग करते थे। इसका प्रभाव उनकी सेहत पर भी पड़ा और उनकी एक आंख खराब हो गई। फिर भी उन्होने हार नहीं मानी। उनकी पत्नी सरस्वती बाई ने उनका साथ दिया और समाज के विरोध को चुनौती देते हुए उन्होने अपने जेवर और अपनी पत्नी की जीवन बीमा पॉलिसी गिरवी रखकर, ऊंची ब्याज दर पर कर्ज लिया। दादा साहब फाल्के ने कर्ज के धन से इंग्लैण्ड जाकर फरवरी 1912 में फिल्म प्रोडक्शन में एक क्रैश-कोर्स किया और भारत लौटकर सबसे पहली भारतीय मूक फिल्म राजा हरिश्चंद्र बनायी। इस फिल्म को बनाने के लिए कामचलाऊ व्यवस्था उन्हें स्वयं ही करनी पड़ी। उन्होने पात्रों को अभिनय करना सिखाया, दृश्य लिखे, फोटोग्राफी की और फिल्म प्रोजेक्शन भी किया। कुल मिलाकर निर्माता, निर्देशक, पटकथा लेखक, कैमरामैन और फिल्म निर्माण के अन्य सहयोगियों की जिम्मेदारी दादा साहब फाल्के ने ही उठाई।


पहली भारतीय फिल्म के निर्माण के साथ कई रोचक तथ्य भी जुड़े हुए हैं। यह वो दौर था, जब सिनेमा को सभ्य लोगों का काम नहीं समझा जाता था और महिलाओं को फिल्मों में काम करने की इजाजत नहीं होती थी। इस कारण राजा हरिश्चंद्र  फिल्म में सभी नायिकाएं भी पुरुष कलाकार ही थे। राजा हरिश्चंद्र फिल्म में हरिश्चंद्र का किरदार दत्तात्रेय दामोदर दबके ने निभाया था, रानीमती तारा की भूमिका एक रेस्टोरेंट में काम करने वाले बैरे अन्ना सालुंके ने, रोहिताश्व की भूमिका दादासाहब फाल्के के सात वर्षीय पुत्र भालचन्द्र फालके ने निभाई और विश्वामित्र की भूमिका जीवी सेन ने निभाई थी। फिल्म की शुरूआती शूटिंग दादर के एक स्टूडियो में सेट बनाकर की गई। फिल्म की सभी शूटिंग दिन की रोशनी में की जाती थी, क्योंकि दादासाहब फाल्के अपनी पत्नी की सहायता से एक्सपोज्ड फुटेज को रात में डेवलप करते थे और प्रिंट करते थे। रात और दिन की लगातार मेहनत के बाद छह माह में तीन हजार सात सौ फीट लंबी 40 मिनट की फिल्म तैयार हुई।

21 अप्रैल, 1913 को ओलम्पिया सिनेमा हॉल में पहली भारतीय मूक फिल्म रिलीज की गई। 03 मई, 1913 को पहली बार बम्बई के कोरोनेशन थियेटर में इसका प्रदर्शन हुआ। पूरे तेईस दिन चलकर राजा हरिश्चन्द्र फिल्म ने उन दिनों रिकॉर्ड बनाया था। पहले भारतीय सिनेमा ने हिन्दुस्तानियों का मन मोह लिया था। उन दिनों भारत में अमेरिकी और यूरोपीय फिल्मों के शौकीन नकचढ़े दर्शकों ने ही नहीं, बल्कि प्रेस ने भी इसकी उपेक्षा की। लेकिन फालके की फिल्म आम जनता के लिए थी, इस कारण यह फिल्म जबरदस्त हिट रही। दादासाहब फाल्के ने कुल 125 फिल्में बनाईं।

भारतीय फिल्मों में दादासाहेब फाल्के के अभूतपूर्व योगदान को सम्मान देते हुए भारत सरकार ने सन् 1969 में सर्वोच्च फिल्म पुरस्कार दादासाहेब फाल्के पुरस्कार के नाम से शुरू किया। शुरुआती सिनेमा धार्मिक पृष्ठभूमि का था और उस पर पारसी थियेटर का गहरा प्रभाव था। जमशेद जी मदन, धीरेन गांगुली तथा नितिन बोस इस दौर के अन्य फिल्मकार थे। लंका दहन, बिलेत फ़ेरात, भस्मासुर मोहिनी और सावित्री आदि इस दौर की चर्चित फिल्में थीं।
  इसी दौरान प्रभात फिल्म कंपनी के बैनर तले बनी राजाराम वणकुंदरे शांताराम की फिल्म फ्लैग आफ फ्रीडम (स्वराज्य तोरण) पर अंग्रेज सरकार को एतराज हुआ और यह फिल्म थंडर आफ हिल्स  बन गयी। यह पहली भारतीय फिल्म थी, जिसमें अंग्रेजी शासन के खिलाफ भारतीयों का विरोध दिखाया गया था। 18 नवंबर सन् 1901 को महाराष्ट्र के कोल्हापुर में जन्मे राजाराम वणकुंदरे शांताराम उर्फ वी. शांताराम के गुरु बाबूराव पेंटर थे। सन् 1929 में वी. शांताराम ने कोल्हापुर में प्रभात फिल्म कंपनी स्थापित की थी। प्रभात फिल्म कंपनी के बैनर तले वी. शांताराम ने फाइटिंग ब्लेड (खूनी खंजर), चंद्रसेना  और स्टोलन ब्राइड (जुल्म) बनायी। उनकी ये सभी फिल्में अवाक थीं।

वी. शांताराम हिंदी सिनेमा के पहले निर्माता-निर्देशक थे, जिन्होंने सन् 1930 में बच्चों के लिए रानी साहिबा  नाम से एक फिल्म बनाई थी।
दादासाहब फाल्के के द्वारा शुरू किए गए प्रयास में नया आयाम सन् 1931 में आई फिल्म आलम आरा  के माध्यम से आया। यह भारत की पहली फिल्म थी, जिसमें आवाज भी थी और गाने भी थे। कोलकाता की मदन टॉकीज के बैनर तले अर्देशिर ईरानी के निर्देशन में बनी नायक राजकुमार और बंजारन नायिका की प्रेम कहानी आलम आरा पारसी थियेटर की मैलोड्रामा शैली से प्रभावित थी। इसमें सात गीत थे और यहीं से हिन्दी सिनेमा और गीतों का ऐसा अटूट रिश्ता जुड़ा, जो आज तक कायम है। भारत की पहली बोलती फिल्म आलम आरा  की शूटिंग रात में रेलवे लाइन के निकट की गई थी।

बोलती फिल्मों का युग आया, तो वी. शांताराम की फिल्मों का भी नया दौर आया। सन् 1932 में उनकी पहली बोलती फिल्मअयोध्या का राजा आई। इस दौरान सामाजिक मुद्दे सिनेमा में आने लगे थे और बड़े व्यापारी भी फिल्मों में अपना रुपया लगाने लगे थे। भारत के बड़े व्यवसाय के रूप में विकसित होने के कारण सिनेमा जगत को मायानगरी का नाम भी दिया गया। चित्रकार परिवार से आए बाबूराव पेंटर, धीरेन गांगुली और चंदूलाल शाह इस दौर के बड़े फिल्मकार हुए। माया मच्छिंद्रा महारथी कर्ण, नल दमयन्ती और चन्द्रसेना आदि इस दौर की चर्चित फिल्में थीं। आलम आरा के प्रदर्शन के बाद तमिल, तेलुगु, बांग्ला, मराठी और कन्नड़ भाषाओं में भी फिल्में बनने लगीं और फिल्म व्यवसाय का केंद्र भारत के विविध भाषाई क्षेत्रों में बँट गया। मुंबई हिंदी फिल्म इंडस्ट्री के लिए जाना गया।

मुंबई में प्रतिवर्ष लगभग 200 फिल्मों का निर्माण होने लगा। ये फिल्में राष्ट्रीय एकता और हिंदी के विस्तार में सहयोगी बनने लगीं। इसी दौर में हिंदी सिनेमा ने अपना नया सफर शुरू किया।


सन् 1933 से 1942 के दशक को सिनेमा स्टूडियो के युग के रूप में जाना जाता है। वीरेन्द्रनाथ सरकार द्वारा स्थापित न्यू थियेटर्स, वी.शांताराम, वी. जी. दामले, एम. फ़त्तेलाल, के. आई. धायबर और एस. बी. कुलकर्णी द्वारा स्थापित प्रभात स्टूडियो,वी. शांताराम द्वारा स्थापित राजकमल कलामंदिर तथा हिमांशु राय के बॉम्बे टाकीज़ ने दर्शकों के सभी वर्गों को ध्यान में रखकर, सामाजिक अन्याय के विरोध को प्रदर्शित करते हुए कई यादगार और मनोरंजक फिल्में दीं। न्यू थियेटर्स से जुड़े प्रथमेश चन्द्र बरुआ ने सन् 1935 में शरतचन्द्र के उपन्यास पर देवदास फिल्म बनाकर भारतीय सिनेमा के साथ प्रेमकथाओं को जोड़ा। कुंदनलाल सहगल ने नायक और गायक, दोनों ही भूमिकाएँ निभाकर सिनेमा जगत में नए दौर की शुरुआत की। देविका रानी इस दौर की सितारा नायिका थीं, सिनेमा जगत में उनके आने के साथ ही नायिकाओं के आगमन की शुरुआत हुई।

फिल्मजीवन नैया के नायक के बीमार हो जाने पर बांबे टाकीज के प्रतिभाशाली लैब असिस्टेंट कुमुद कुमार गांगुली उर्फ अशोक कुमार उर्फ दादामुनि को हिमांशु राय ने अवसर दिया और इस तरह वे सिनेमा में आए। मारधाड़ वाली स्टंट फिल्मों में सर्वाधिक प्रसिद्ध और सबसे पहली फिल्म हंटरवाली  थी। वर्ष 1935 में बनी इस फिल्म ने समाज में पोशाक और पहनावे का नया चलन शुरू किया। इस फिल्म में अत्याचारी वज़ीर के ज़ुल्मों और उससे निपटने को उठ खड़ी हुई एक औरत की कहानी थी। इस कहानी में ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ भारतीय जनता के आज़ादी के आन्दोलन की झलक दिखाई पड़ती थी।


अर्देशिर ईरानी के निर्देशन में सन् 1932 में बनी मूक फिल्म नूरजहाँ पहली ऐतिहासिक फिल्म थी। इसके बाद सोहराब मोदी की फिल्मों- पुकार और सिकन्दर से बोलती हुई ऐतिहासिक फिल्मों की शुरुआत हुई। महबूब ख़ान ने 1940 में वो औरत फिल्म बनाई जिसकी प्रेरणा से आगे चलकर हिन्दी सिनेमा की सबसे महान फिल्म मदर इंडिया  बनी। भारतीय सिनेमा देश की गुलामी के दौर में अपने सामाजिक दायित्व को निभाते हुए धार्मिक कथाओं का दामन छोड़कर अब सामाजिक मुद्दों का रुख़ करने लगा था। समाज को नई चेतना और संदेश देने के लिए फिल्मी मनोरंजन को माध्यम बनाने वाले और फिल्मों के निर्माण में नए-नए प्रयोग करने वाले वी. शांताराम इस दौर के सबसे प्रतिभाशाली फिल्मकार थे। उन्होंने चंद्रसेना  फिल्म में पहली बार ट्रॉली का प्रयोग किया। उन्होंने 1933 में पहली रंगीन फिल्मसैरंध्री बनाई। वर्ष 1935 में प्रदर्शित हुई फिल्म जंबूकाका में एनिमेशन का इस्तेमाल करके वे भारत में एनिमेशन का इस्तेमाल करने वाले पहले फिल्मकार बन गए थे। उनकी फिल्म डॉ. कोटनिस की अमर कहानी  विदेश में दिखाई जाने वाली पहली भारतीय फिल्म थी।


सन् 1943 से 1952 में अशोक कुमार बड़े नायक बनकर उभरे। उन्होंने इस दौर में हुमायूँ, किस्मत  और महल जैसी यादगार फिल्में दीं। सन् 1947 में हिन्दोस्तान की आज़ादी और बँटवारे जैसी बड़ी घटनाएं हुईं, लेकिन उस दौर के सिनेमा में इनका प्रत्यक्ष प्रभाव नहीं दिखता है। सन् 1947 में जुगनू की सफलता के साथ दिलीप कुमार सिनेमा में आए और सन् 1948 में आग के साथ राज कपूर चार्ली चैपलिन के भारतीय संस्करण के साथ हिंदी फिल्मों में आए। सन् 1949 में महबूब ख़ान ने इन दोनों सितारों को लेकर अन्दाज़ बनाई। सन् 1949 में राजकपूर की फिल्म बरसात ने तहलका मचा दिया। सन् 1951 में रिलीज हुई आवारा  फिल्म के गीतों की लोकप्रियता रूस तक पहुँची। शैलेन्द्र के लिखे और मुकेश के गाए गीतों ने भारत द्वारा देखे गए समाजवाद के स्वप्न को हिंदी सिनेमा का स्वप्न भी बना दिया। इस फिल्म के बाद राज कपूर ने आर. के. फिल्म्स स्टूडियो स्थापित करके निर्देशन प्रारंभ किया और देश-विदेश में प्रसिद्ध हुए।


वर्ष 1949 में एस. के. पाटिल समिति की सिफारिशों के आधार पर सिनेमेटोग्राफिक एक्‍ट ऑफ इंडिया लागू किया गया। इस एक्‍ट के जरिए हिंदी सिनेमा को यू अर्थात् यूनिवर्सल एक्जीबिशन और  यानि एडल्ट एक्जीबिशन की दो श्रेणियों बाँटा गया। सन् 1952 में मुंबई में देश का पहला अंतरराष्‍ट्रीय फिल्‍म समारोह आयोजित किया गया। इस समारोह में विश्‍व के अनेक नामचीन फिल्‍मकारों ने शिरकत की। इस दौर में भारतीय सिनेमा उपनिवेशवादी अतीत से निकलकर आजाद भारत के नेताओं को अपने साथ जोड़ रहा था और आजाद भारत की अनेक समस्याओं को अपने साथ लेकर उनके समाधान देने की कोशिश भी कर रहा था। 


वर्ष 1953 में फिल्‍म कला को प्रोत्‍साहित करने के उद्देश्‍य से राष्‍ट्रीय‍ फिल्‍म पुरस्‍कारों की शुरुआत हुई और सर्वश्रेष्‍ठ सिनेमा का पहला राष्‍ट्रीय पुरस्‍कार मराठी फिल्‍म श्‍यामची आई को प्राप्‍त हुआ। सन् 1953 से 1962 के दशक में देवानंद के नवनिर्मित नवकेतन स्टूडियो से निकली फिल्मों में शहरी आधुनिकता का मोह था तो राज कपूर की जिस देश में गंगा बहती है और दिलीप कुमार की नया दौर जैसी फ़िल्में आधुनिकता का स्वप्न गाँव-देहातों तक पहुंचा रहीं थीं। इसी दशक में फिल्म निर्माता बिमल रॉय की फिल्म दो बीघा ज़मीन ने देश के किसानों की दयनीय दशा दर्शायी। इस फिल्म में शंभू महतो बने बलराज साहनी कलकत्ता की तपती सड़कों पर नंगे पैरों रिक्शागाड़ी खींचते हुए शहर की यंत्रणाओं और सामन्ती-पूंजीवादी व्यवस्था के गठजोड़ को हमारे सामने लाते हैं।

यह भारत की पहली ऐसी फिल्म थी, जिसे कॉन फिल्म अवॉर्ड मिला था। वी. शांताराम की सर्वाधिक चर्चित फिल्म दो आंखे बारह हाथ सन् 1957 में प्रदर्शित हुई। यह एक साहसिक जेलर की कहानी है जो छह क़ैदियों को सुधारता है। इस फिल्म को सर्वश्रेष्ठ फीचर फिल्म के लिए राष्ट्रपति के स्वर्ण पदक से सम्मानित किया गया था। इसे बर्लिन फिल्म फेस्टिवल में सिलवर बीयर और सर्वश्रेष्ठ विदेशी फिल्म के लिए सैमुअल गोल्डविन पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया। इस फिल्म का गीत ए मालिक तेरे बंदे हम.... आज भी लोगों को याद है और कई स्कूलों में इसे प्रार्थना के रूप में आज भी गाया जाता है।

सन् 1958 में ऑस्कर पुरस्कार के लिए रजिस्टर्ड होने वाली यह पहली फिल्म थी। इसी वर्ष महबूब खान की फिल्म मदर इंडिया में दुनिया ने भारत का समतावादी समाज का स्वप्न देखा। फिल्म में एक स्त्री के स्वाभिमान के माध्यम से भारतवर्ष की उन्नति को बताया गया। इसी दशक में सत्यजीत राय ने अपनी पत्नी के जेवर गिरवी रखकर कर्ज से पाथेर पांचाली  बनाई। इस फिल्म को सर्वश्रेष्ठ मानव वृत्तचित्र के लिये केन्स पुरस्कार दिया गया और इसके साथ ही भारतीय फिल्मों को अंतरराष्ट्रीय पहचान मिली। इस दशक में नदिया के पार, बंदिनी, सुजाता, बदनाम बस्ती, तीसरी कसम, एक बार फिर  और जागते रहो जैसी यादगार फिल्में आईं। इसी दशक में रिलीज हुई फिल्म मुग़ले-आज़म में निर्देशक आसिफ ने जबरदस्त शूटिंग सेट तैयार किए। दिलीप कुमार के जबरदस्त अभिनय और मधुबाला की सुंदरता ने फिल्म को यादगार बना दिया। इस फिल्म को जबरदस्त मुनाफा हुआ और यह फिल्म हिंदी सिनेमा जगत में मील का पत्थर बन गई।

इसी दशक में सोवियत संघ के सहयोग से बनीं गुरुदत्त की फिल्में प्यासा, काग़ज़ के फूल, साहब बीवी और ग़ुलाम  भी चर्चित रहीं। सन् 1958 में रिलीज हुई हास्य फिल्म चलती का नाम गाड़ी  में तीन कुमार भाइयों- अशोक कुमार, किशोर कुमार और अनूप कुमार ने अपने जलवे बिखेरे।
1953 से 1962 का दशक सिनेमाई संगीत के लिहाज से महत्त्वपूर्ण रहा। गीतकार नौशाद ने ए मोहब्बत ज़िन्दाबाद में मोहम्मद रफ़ी के साथ सौ गायकों को कोरस में गवाया था। इसी दशक में लता मंगेशकर, मोहम्मद रफ़ी, किशोर कुमार जैसे गायकों की आवाज़ का जादू फिल्मी दुनिया में छा गया। निपुण गीतकार, संगीतकार और कलाकारों के चलते सिनेमा का चस्का लोगों को लग चुका था। युवाओं में सिनेमा देखने की ललक इस क़दर बढ़ी कि वे अब आने वाली हर पिक्चर की बाट जोहने लगे और सिनेमा देखने के लिए देहात से दूर शहरों के सिनेमाघरों तक जाने लगे। सिनेमा घरों में सत्यजीत रे की कामर्शियल फिल्मों का चलन पर्दे पर हो चुका था। सन् 1960 में फिल्म विकास प्राधिकरण के गठन ने नए फिल्मकारों को गुणवत्ता बढ़ाने हेतु प्रशिक्षण का अवसर सुलभ कराना शुरू किया।


साठ के दशक में धर्मेंद्र, देवानंद, राजकुमार और दिलीप कुमार जैसे सितारे बुलंदी पर थे। इसी दौर में सायरा बानो और आशा पारेख जैसी आदाकाराओं के जलवे फिल्मों में देखने को मिले। जंगली में शम्मी कपूर की याहू पर्सनालिटी के साथ नई पीढ़ी परम्पराओं की जकड़ से आज़ाद हो जाना चाहती थी। यथार्थ से पलायन, मोहभंग और असंतोष के शुरुआती चिह्न दिखने लगे। सन् 1964 में आई चेतन आनंद की हक़ीकत युद्ध का एकाकीपन साथ लाई तो मनोज कुमार की फिल्मों शहीद, उपकार, पूरब और पश्चिम में राष्ट्रीयता की भावना के विविध रंग दिखे और मनोज कुमार की पहचान भारत कुमार के रूप में होने लगी।


भारत के प्रथम राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद के प्रयासों से भोजपुरी की पहली फिल्म हे गंगा मैया तोहे पियरी चढ़ाइबो 21 फरवरी सन् 1963 को रिलीज हुई। भोजपुरी की पहली फिल्म के रिलीज होने के बाद भोजपुरी फिल्म इंडस्ट्री ने पीछे मुड़कर नहीं देखा। भोजपुरी फिल्में देश में ही नहीं, विदेशों में भी लोकप्रिय हुईं। यह सुखद संयोग है कि वर्ष 2013 में भोजपुरी सिनेमा के भी पचास वर्ष पूरे हुए हैं।


राजेश खन्ना सन् 1965 में फिल्मफ़ेयर की टैलेन्ट हंट में जीते और बाद में यह आम आदमी  सुपर स्टार बना। ऋषिकेश मुखर्जी के निर्देशन में आनंद  के बाबू मोशाए ने अपनी उपस्थिति से हिंदी फिल्मों को समृद्ध किया। आर. के. नारायणन की कहानी पर निर्देशक विजयानंद ने देवानंद को लेकर गाइड बनाई। दूसरी ओर आओ ट्विस्ट करें  फिल्म में पहली बार पश्चिमी चाल की आधुनिकताएं सिनेमा में दिखीं।


सत्तर के दशक में एंग्री यंगमैन की भूमिका में अमिताभ बच्चन का पदार्पण हुआ और यहीं से फिल्मों को गोल्डेन जुबली और डायमंड जुबली का खिताब मिलना शुरू हुआ। अपनी सफलता के शुरुआती दिनों में सलीम जावेद खुद पेंट का डिब्बा हाथ में लेकर अपनी फिल्मों के पोस्टरों पर अपना नाम लिखा करते थे। सलीम जावेद ने सत्तालोलुप और भ्रष्ट समाज के प्रति आम इंसान के विद्रोह को सिनेमा में जीवंत कर दिया और उनके एंग्री यंगमैन  अमिताभ बच्चन के रूप में हिन्दी सिनेमा ने सदी के महानायक को पाया। इस दशक का रोमांस भिन्न था। लैंप बुझाती जया भादुड़ी और माउथऑर्गन बनाते अमिताभ का अधूरा प्रेम लोगों को रोमांचित कर देता था। रमेश सिप्पी की मल्टीस्टार फिल्मशोले सन् 1975 में रिलीज हुई। स्पेक्टाक्युलर हिट फिल्म दीवार, राजकपूर कीबॉबी के साथ ही जंजीर, खूनपसीना, कभी-कभी, अमर अकबर एन्थॉनी, मुकद्दर का सिकन्दर और भूमिका  आदि इस दौर की चर्चित फिल्में थीं। कमाल अमरोही की फिल्म पाकीज़ा  हिंदी फिल्मों में मील का पत्थर बनकर आई।


डाकुओं के आतंक, मारधाड़, एक्शन और रोमांस से भरपूर इस दशक की फिल्मों के साथ श्याम बेनेगल की फिल्म अंकुर ने समांतर सिनेमा का नया दौर शुरू किया, जिसमें नसीरुद्दीन शाह, ओम पुरी, स्मिता पाटिल, शबाना आज़मी और अनुपम खेर जैसे आर्ट कलाकार परदे पर आए। सन् 1975 में स्थापित राष्ट्रीय फिल्म विकास प्राधिकरण ने आर्ट फिल्मों के निर्माण में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। श्याम बेनेगल हिंदी फिल्मों के प्रमुख निर्देशक के तौर पर उभरे। इस दशक में समांतर सिनेमा अपनी जगह बनाने के दौर में था। श्याम बेनेगल के अतिरिक्त गोविन्द निहलानी की आक्रोश, सईद मिर्जा की अलबर्ट पिन्टो को गुस्सा क्यों आता हैऔर अजीब दास्तां, मुजफ्फ़र अली की गमन  आदि आर्ट फिल्में थीं, जिन्हें दर्शकों ने पसंद किया। मगर मनोरंजन पसंद दर्शकों को एसी फिल्में पसंद नहीं आईं और गुलज़ार, बासु चटर्जी, ऋषिदा की फ़िल्में आम दर्शकों की पसंद पर खरी उतरती रहीं।


कुल मिलाकर भारतीय सिनेमा ने शहरों से लगाकर भारत के धुर देहातों तक ऐसी पकड़ बनाई, जिसने फिल्मी गानों को गुनगुनाने, संवादों की नकल करने, और चाल-ढाल-पहनावे को फिल्मों के अनुरूप उतारने के लिए जनता को विवश कर दिया। दूसरी ओर राष्ठ्रीय एकता को स्थापित करने और समाज की हकीकत को परदे में उतारने में भारतीय सिनेमा ने अप्रत्याशित सफलता पाई।
सन् 1913 में पहली मूक फिल्म राजा हरिश्चंद्र और पहली बोलती हुई फिल्म आलम आरा  के सन् 1931 में रिलीज होने के बाद भारतीय सिनेमा ने पीछे मुड़कर नहीं देखा। सन् 1913 से 1980 तक के सफर में देश की राजनीति, समाज, शिक्षा, कृषि, संस्कृति और जीवन-स्तर में कई बदलाव आए। इन बदलावों को कई तरीकों से रुपहले परदे पर उतारते हुए भारतीय सिनेमा हर आम और खास दर्शक का बखूबी मनोरंजन करता रहा। अस्सी का दशक आते-आते फिल्मी विधा बदलने लगी। सत्तर के दशक के एंग्री यंगमैन के रचयिता सलीम-जावेद की जोड़ी टूट चुकी थी और सदी के महानायक अमिताभ का सितारा भी बुझ रहा था। मर्द, शहंशाह औरजादूगर जैसी फिल्में ज्यादा कामयाब नहीं रहीं। अमिताभ बच्चन के अलावा राजेश खन्ना, राजकुमार, सुनील दत्त जैसे दिग्गज अभिनेताओं की फिल्में इस दौरान आईं, मगर ज्यादा चर्चित नहीं रहीं।

अच्छे हीरो और हीरोइनों का पारिवारिक फिल्मों में एकछत्र राज था। उन्हें देखने के लिए देश के सिनेमाघरों में दर्शकों की अपार भीड़ होती थी। एक ओर हिंदी सिनेमा का नया स्वाद चखने के लिए जनता बेकरार थी और दूसरी तरफ सन् 1982 में रंगीन टेलीविजन का देश में आगमन हुआ। ऐसे में सिनेमा प्रेमियों ने सिनेमाघरों को रविवार तक ही सीमित कर दिया। फिर भी फिल्म निर्माता शांत नहीं थे, इनका प्रयोग जारी रहा। नए-नए आविष्कारों ने घिसे-पिटे डांस की जगह डिस्को डांस का प्रचलन ला दिया, जिसके आधार पर एक्शन फिल्में तैयार की जाने लगीं। इस दशक में नए नायकों और नायिकाओं का फिल्म जगत में आगमन हुआ।

सन् 1981 में रिलीज हुई सलमान खान की फिल्म मैंने प्यार किया ब्लॉकबस्टर साबित हुई। 1986 में सुभाष घई की फिल्म कर्माको जबरदस्त कामयाबी मिली। 1987 में शेखर कपूर एक अलग फिल्म मिस्टर इंडिया लेकर आए, जिसमें श्रीदेवी और अनिल कपूर लीड रोल में थे। 1988 में आमिर खान और जूही चावला की फिल्म कयामत से कयामत तक भी खूब चर्चित रही। नक्सली दुनिया को छोड़कर फिल्मों में आए डांसिंग स्टार मिथुन चक्रवर्ती ने लोगों पर ऐसा असर छोड़ा कि लोग उनके जैसे बाल कटवाने लगे, उनके जैसे कपड़े पहनने लगे। फिल्म तेजाब में माधुरी दीक्षित और अनिल कपूर की जोड़ी दर्शकों की पसंद बन गई। फिल्म राजा बाबूमें गोविंदा का जादू चल गया, वहीं पारिवारिक फिल्मों में जितेंद्र, श्रीदेवी, जयाप्रदा, शबाना आज़मी, स्मिता पाटिल की भूमिका सराहनीय रही। वर्ष 1991 में प्रदर्शित सौदागर से दिलीप कुमार और राजकुमार का 32 साल बाद आमना सामना हुआ। इस फिल्म में राजकुमार के बोले जबरदस्त संवाद दुनिया जानती है कि राजेश्वर सिंह जब दोस्ती निभाता है तो अफसाने बन जाते हैं, मगर दुश्मनी करता है तो इतिहास लिखे जाते हैं आज भी सिने प्रेमियों के दिमाग में गूँजता रहता है। इसी फिल्म से मनीषा कोईराला और विवेक मुशरान इलू इलू करते नजर आए।

निर्देशक विधु विनोद चोपड़ा की फिल्म परिंदा भी बहुत चर्चित रही। दशक के अंत में आमिर खान, सलमान खान और शाहरूख खान जैसे सितारे उभरे। इस तिकड़ी ने हिंदी सिनेमा को चार चांद लगा दिए। ये सितारे हर अदा में नाचे, इनका जादू सिनेमा प्रेमियों के सिर चढ़कर बोला। बप्पी लहरी की धुनों ने फिल्मों में नई जान डाली।

सन् 1973 में यशराज फिल्म्स के माध्यम से निर्माण और निर्देशन की शुरुआत करने वाले यश चोपड़ा ने 1989 में चाँदनी  फिल्म के माध्यम से फिल्मों में रोमांस की नई इबारत लिखी। यश चोपड़ा को हिंदी फिल्मों में रोमांस के नए-नए अंदाज पेश करने के लिए जाना जाता है। इनके साथ ही खलनायकों की बात करें तो अजीत, प्राण, अमजद खान, अमरीश पुरी, गुलशन ग्रोवर, शक्ति कपूर, रंजीत आदि ने विलेन की भूमिका निभाकर अपने अभिनय का लोहा मनवाया। वहीं विश्व सुंदरियों ने अपनी प्रतिभा सिनेमा जगत में उड़ेलने में कसर नहीं छोड़ी।


अस्सी के दशक की बड़ी विशेषता सार्थक सिनेमा या नए सिनेमा आंदोलन की स्थापना है। इस दशक में दर्शकों के लिए सिनेमा में समाज और समय के सच्चे और खरे यथार्थ को देखने का अवसर मिला। मनोरंजनप्रिय दर्शकों को यह भले ही अटपटा लगा हो, मगर इससे प्रभावित बुद्धिजीवी दर्शकों का एक नया वर्ग तैयार हुआ, और इन फिल्मों को स्वीकार किया जाने लगा। श्याम बेनेगल नेमंथन भूमिका, निशान्त, जुनून और त्रिकाल जैसी विविध विषयों का समेटती हुई अच्छी फिल्में दर्शकों को दीं। सन् 1973 में आंध्र प्रदेश की ग्रामीण पृष्ठभूमि पर बनी श्याम बेनेगल की फिल्म अंकुर  ने समांतर भारतीय सिनेमा आंदोलन की शुरुआत की। श्याम बेनेगल मशहूर फिल्म निर्देशक गुरुदत्त के भतीजे थे। आगे चलकर वे भारतीय सिनेमा के प्रभावशाली निर्देशक के रूप में स्थापित हुए। प्रकाश झा की दामुल, अपर्णा सेन की 36 चौरंगी लेन, रमेश शर्मा की नई दिल्ली टाईम्सकेतन मेहता की मिर्चमसाला,गुलजार की इजाजतमुजफ्फ़र अली की उमराव जान, तपन सिन्हा की आज का रॉबिनहुड और महेश भट्ट की पहली फिल्म अर्थ आदि नए रुझान की फिल्में थीं। युवा निर्देशिका मीरा नायर ने अपनी पहली फिल्म सलाम बॉम्बे के लिए 1989 में केन्स में गोल्डन कैमरा अवार्ड जीता। इसके साथ ही डाकू, कैबरे नृत्यों, मारधाड, पेडों के आगे पीछे गाना गाते हीरो-हीरोईन से उबे दर्शकों का जायका बदलने लगा था।


नब्बे के दशक में संगीतकार लक्ष्मीकांत प्यारेलाल का दौर चला, लेकिन गानों में पहले जैसा स्वाद नहीं था। ऐसा ही हाल सिनेमा का भी हुआ। हिंदी सिनेमा को अंतरराष्ट्रीय बनाने के प्रयास में बिना सिर पैर की फिल्में बनने लगीं। सन् 1990 में आई महेश भट्ट की फिल्म आशिकी  में समाज की उपेक्षा से आहत नायक और नायिका एक-दूसरे के करीब आते हैं और अपना जीवन अपने अनुसार जीने के लिए संघर्ष करते हैं। सन्1993 में आई 1942 ए लव स्टोरी  भी इसी तासीर की श्रेष्ठ फिल्मों में से एक बन गई।
1993 से 2002 के दशक में हिन्दुस्तान बहुत तेज़ी से बदल रहा था। उदारीकरण ने देश के बाजारों को बदला और बाजार ने सिनेमा को। हिन्दी सिनेमा विदेशों में बसे भारतीयों तक पहुँचा।

राजश्री की हम आपके हैं कौन में बसा संयुक्त परिवार के प्रति मोह तथा 1995 में आई यश चोपड़ा की दिलवाले दुल्हनिया ले जायेंगे में भारत की यादों में तड़पता एनआरआई विदेशों तक हिंदी फिल्मकथा की पहुँच का बखान करता है। उसके बाद सन् 1997 में यश चोपड़ा की दिल तो पागल है आई। इस दौर के उभरते सितारे शाहरूख खान एक ओर डर, बाज़ीगर और अंजाम के हिंसक प्रतिनायक की भूमिका में दिखे, वहीं दूसरी ओर कभी हाँ कभी ना, राजू बन गया जेंटलमैन और चमत्कार जैसी फिल्मों में एक साधारण-से लड़के जैसे नजर आए। अपने समय के महानायकों दिलीप कुमार, राजेश खन्ना और अमिताभ बच्चन की तरह वे भी सिनेमा के लिए बाहरी थे। फिल्मी खानदानों से अलग हटकर उन्होने अपनी मेहनत से अपने लिए जमीन तैयार की थी।
इस दशक में यथार्थवादी फिल्मों की दृष्टि से द्रोहकाल, परिन्दा, दीक्षा, माया मेमसाब, रूदाली, लेकिन, तमन्ना, बैंडिट क्वीन आदि उल्लेखनीय नाम हैं।

क्षेत्रीय भाषाओं की फिल्में भी इस दौर में पीछे नहीं थीं। अंजलि, रोजा और बॉम्बे दक्षिण भारत की ऐसी फिल्में हैं, जो अपनी लोकप्रियता को साथ लेकर हिंदी में डब हुईं।
नई सदी में सिनेमा का नया दौर आया। रामगोपाल वर्मा ने इसका ढंग बदला तो मणि रत्नम ने इसकी चाल। दिल चाहता है औरसत्या जैसी फिल्में अपने दौर की कल्ट क्लासिक बनीं और उन्होंने अपने आगे सिनेमा की नई धाराएं शुरू कीं। नई सदी के फिल्मकार मायानगरी के लिए एकदम बाहरी थे और उन्होंने अपनी प्रतिभा के बलबूते इस उद्योग में पैठ बनाई। तकनीक ने सिनेमा को ज्यादा आसान बनाया और सिनेमा बड़े परदे से निकलकर आम आदमी के ड्राइंगरूम में आ गया। इसी बीच मल्टीप्लैक्स सिनेमाघर आए और उनके साथ सिनेमा का दर्शक बदला, विषय भी बदले। अब सिनेमा में गाँव नहीं थे। यह स्याह शहरों की कथाएं थीं जिन्हें ब्लैक फ़्राइडे में अनुराग कश्यप नेमकबूल में विशाल भारद्वाज ने और हज़ारों ख्वाहिशें ऐसी में सुधीर मिश्र ने बड़े अदब से सुनाया।

ऋतिक रोशन, रणबीर कपूर नई सदी के नायक हुए। सलमान खान और आमिर खान ने नए समय में फिर से स्टारडम का शिखर देखा। लेकिन इन नायकों की सफलता के पीछे उनका अभिनय कौशल नहीं, बल्कि नए-नए निर्माता-निर्देशकों की मेहनत और बेहतरीन पटकथाएँ थीं। इन पटकथाओं में कहीं गाँव थे तो कहीं शहर थे। कहीं देश की ज्वलंत समस्याएँ थीं तो कहीं पर समाज का बदलता स्वरूप था। इस दौर के सफल निर्माता-निर्देशकों में राजकुमार हिरानी, अभिनव कश्यप, इम्तियाज़ अली, प्रियदर्शन, प्रकाश झा आदि रहे, जिनके काम की ईमानदारी इन महानायकों की सफलताओं में बोलती रही।


सन् 2001 में आई लगान ने अपने समय में काफी धूम मचाई और ऑस्कर पुरस्कार पाने की दौड़ में भी शामिल हुई। सन् 2002 में आई फिल्म ओम जय जगदीश से अनुपम खेर ने निर्देशन की शुरुआत की। तीन भाइयों के बीच के भावनात्मक संबंधों को बड़े कलात्मक ढंग से बताती इस फिल्म के साथ ही वहीदा रहमान की 11 वर्षों के बाद फिल्मों में वापसी हुई। प्रकाश झा की फिल्मगंगाजल एक ईमानदार पुलिसवाले की भ्रष्ट व्यवस्था के साथ संघर्ष की कहानी लेकर आई। इस फिल्म की कहानी 1979-80 में बिहार के भागलपुर में घटित एक सत्य घटना आंखफोड़वा कांड से प्रेरित थी। इसी तरह सन् 2001 में एस. शंकर के निर्देशन में आई अनिल कपूर की फिल्म नायक में एक दिन का मुख्यमंत्री राजनीति, भ्रष्टाचार और अपराध के गठजोड़ को प्रकट किया गया। सन् 2003 में आई रवि चोपड़ा की फिल्म बागबान  उन माता-पिता के दुखद बुढ़ापे की कथा कहती है, जो अपने बच्चों के ऊपर बोझ बन जाते हैं। यह फिल्म उस आधुनिक समाज का सच्चा आइना दिखाती है, जहाँ परिवार की मर्यादा पर आधुनिकता भारी पड़ रही है। सन् 2003 में रिलीज हुई फिल्म कोई मिल गया के माध्यम से राकेश रोशन ने अपने बेटे रितिक रोशन के कैरियर को संभालने की कोशिश की, वहीं दूसरी ओर धरती के बाहर भी जीवन होने की संभावनाओं को ऐसे रोचक ढंग से उठाया कि लोगों के जेहन में अनेक विचार उठने लगे।

सन् 1857 की क्रांति के महानायक को रुपहले परदे में उतारने का प्रयास केतन मेहता ने अपनी फिल्म मंगल पाण्डे  में किया। यह फिल्म सन् 2005 में रिलीज हुई।
रोमांच, मनोरंजन, कलात्मकता, हकीकत और नसीहत से भरी फिल्में देने वाले प्रियदर्शन की सन् 2004 में रिलीज हुई फिल्महलचल का अगला क्रम मालामाल वीकली, भूलभुलैया  और दे दनादन में आगे बढ़ता है। सन् 2007 में आई फिल्म गाँधी, माई फ़ादर में निर्माता अनिल कपूर और निर्देशक फिरोज अब्बास नकवी ने महात्मा गाँधी और उनके बेटे हरिलाल गाँधी के रिश्तों की तल्खी को सच्चाई के साथ पेश करने की कोशिश की। सन् 2007 में आमिर खान की फिल्म तारे ज़मीन पर  महत्त्वाकांक्षी माँ-बाप की उम्मीदों के पहाड़ तले दबकर घुटते एक ऐसे बच्चे की कहानी बयाँ करती है, जिसे अपने समय और समाज में आसानी से खोज लेना कठिन नहीं है। इस फिल्म को 2008 का सर्वश्रेष्ठ फिल्म पुरस्कार मिला है और दिल्ली सरकार ने इसे करमुक्त घोषित किया है। ऐसी ही एक फिल्म पा है। इस फिल्म में अमिताभ बच्चन ने अभिषेक बच्चन के बेटे का किरदार निभाया है। बाल्की द्वारा निर्देशित यह फिल्म प्रोजोरिया नामक बीमारी से पीड़ित 12 साल के बच्चे की कहानी बयाँ करती है।


लीक से हटकर समाज में घटने वाली घटनाओं को रुपहले परदे पर उतारने के लिए मशहूर श्याम बेनेगल की फिल्म वेलकम टू सज्ज्नपुर  में सज्जनपुर ऐसा गाँव है, जो भारत के किसी खाँटी गाँव का सच्चा नक्शा उतारकर हमारे सामने रख देता है। इस गाँव में हर वर्ग का प्रतिनिधित्व करते लोग हैं, विधवा विवाह, अशिक्षा और अंधविश्वास जैसी सामाजिक समस्याएँ हैं। वोट हासिल करने के लिए कुछ भी कर गुजरने वाले नेता हैं और गांव के इकलौते पढ़े-लिखे महादेव के रूप में ऐसा सामान्य व्यक्ति भी है, जो अपनी प्रेमिका कमला को चाहते हुए भी जब अपना नहीं बना पाता तो उसकी खुशियों के लिए अपनी जमीन बेच देता है।


सन् 2008 में रिलीज हुई नीरज पांडे द्वारा निर्देशित फिल्म ए वेडनसडे  में दोपहर दो बजे से लगाकर शाम छह बजे तक की कथा है, मगर दर्शकों को कई दिनों तक सोचने को मजबूर कर देती है। आतंकवाद से त्रस्त आम आदमी की असहाय स्थिति और उसकी ताकत, दोनों ही फिल्म में ऐसी शिद्दत के साथ प्रकट होती हैं कि देखते ही बनता है। गंभीर विषयों के लिए चर्चित निर्देशक राजकुमार संतोषी ने अंदाज़ अपना अपना  बनाकर साबित कर दिया था कि वे हास्य पर भी अपनी मजबूत पकड़ रखते हैं और लंबे अरसे बाद सन् 2009 में अपनी नयी फिल्म अजब प्रेम की ग़ज़ब कहानी  के साथ उन्होने फिल्म जगत् को एक और स्वस्थ हास्य फिल्म दी।


लाइफ एक रेस है, तेज़ नहीं भागोगे तो कोई तुम्हें कुचलकर आगे निकल जाएगा और कामयाब नहीं, काबिल बनोजैसे नसीहत भरे संवाद लेकर आई राजकुमार हिरानी की फिल्म 3 ईडियट्स भारतीय शिक्षा प्रणाली की कमियों और उसकी वजह से विद्यार्थियों के किताबी कीड़ा बन जाने की भयावह स्थितियों को उजागर करती है। पढ़ाई की रॅट्टामार शैली पर व्यंग्य करती फिल्म साल 2009 की सर्वश्रेष्ठ फिल्म बनी। अंग्रेजी उपन्यासकार चेतन भगत के आईआईटी पर आधारित उपन्यास 5 पॉइंट सम वन से मिलती-जुलती होने की वजह से यह विवादों में भी रही।


 सन् 2010 में निर्माता आमिर खान और निर्देशक अनुषा रिजवी के प्रयासों से आई फिल्म पीपली लाइव को श्याम बेनेगल की फिल्म वेलडन अब्बा  के आगे की कथा कहा जा सकता है। इन दोनों फिल्मों में भारत के धुर ग्रामीण समाज की विवशताओं को दिखाने का प्रयास किया गया है। कर्ज के कारण मरने को मजबूर किसान नत्था की खबर को सनसनीखेज बनाने में जुटे मीडिया की संवेदनहीनता को भी फिल्म में शिद्दत के साथ प्रकट किया गया है। सन् 2010 में आई निर्देशक हबीब फ़ैसल की फिल्म दो दूनी चारमें मजाकिया ढंग से प्रस्तुत की गई कहानी ऐसी लगती है, जैसे वह हमारी ही कहानी हो। फिल्म महानगरीय जीवन में एक मध्यवर्गीय परिवार की परेशानियों और जोड़ तोड़ को बेहद वास्तविकता के साथ चित्रित करती है। इसी तरह ईगल फिल्म्स के बैनर तले राजीव मेहरा की फिल्म चला मुसद्दी आफिस आफिस  घपलों-घोटालों और कार्यालयों में व्याप्त भ्रष्टाचार को इस तरह प्रकट करती है कि सच्चाई और रुपहले परदे पर चलते चित्रों के बीच कोई अंतर नहीं दिखता है। फिल्म का नायक मुसद्दीलाल अपनी बंद हुई पेंशन पाने के लिए स्वयं को जिंदा साबित करने में लगा हुआ है।


सन् 2010 में आई निर्माता अमिता पाठक और निर्देशक अश्विनी धीर की फिल्म अतिथि तुम कब जाओगे की कहानी महानगरीय संस्कृति के कारण टूटते पारिवारिक संबंधों की कड़वी हकीकत को शिद्दत के साथ बयाँ करती है। फिल्म यह सवाल उठाती है कि हम अपनी आने वाली पीढ़ी को संवेदनहीन होने की नसीहत देकर किस ओर ले जा रहे हैं। सुभाष कपूर की फिल्म फँस गए रे ओबामा वैश्विक मंदी के लोकल इफेक्ट को मजाकिया अंदाज में पेश करती है। अमिर खान की फिल्म तलाश और दिल्ली बेल्लीगौरी शिंदे की फिल्म इंगलिश विंगलिशसौरभ शुक्ल की फिल्म बर्फीअनुराग कश्यप की फिल्म गैंग्स ऑफ वासेपुरमिलन लुथुरिया की फिल्म द डर्टी पिक्चर, श्रीराम राघवन की फिल्म एजेंट विनोदपंकज कपूर की फिल्म मौसमप्रकाश झा की फिल्म आरक्षण,अनुराग कश्यप की फिल्म दैट गर्ल इन यलो बूट्स  और अजय सिन्हा की खाप  आदि ऐसी फिल्में हैं, जो अपने अलग-अलग अंदाज लेकर आईं हैं और अपने ज्वलंत विषयों के माध्यम से समाज को सोचने के लिए मजबूर कर देने की क्षमता रखती हैं। इस दौर मेंजिस्म औरजन्नत आदि फिल्में भी आईं, मगर इनमें मानसिक विकृतियों को ही ज्यादा स्थान मिला।

सत्तर-अस्सी के दशक तक हिंदी फिल्मों के साथ बेहतरीन गीतों का मेल हुआ करता था। मशहूर शायरों, ग़ज़लकारों के बेहतरीन नगमे हुआ करते थे। लता मंगेशकर, आशा भोंसले, किशोर कुमार, मुकेश, उदित नारायण, कविता कृष्णमूर्ति और अनुराधा पोडवाल जैसे कई गायक-गायिकाओं के मीठे सुर दर्शकों-श्रोताओं का मन मोह लेते थे। इनमें से कई यादगार नगमे अक्सर लोगों की जुबाँ पर होते थे। हॉलीवुड की नकल करते हुए बॉलीवुड से फिल्मी नगमों की वह पुरानी मिठास गायब होती चली गई। नई सदी में अशोक मिश्र, अमित मिश्र, प्रीतम चक्रवर्ती, अंजन अंकित, संजोय चौधरी, साजिद-वाजिद और शांतनु मोइत्रा जैसे गीतकारों के गीतों में डिस्को-डांस की कान फोड़ने वाली थिरकन तो दिखी, मगर गीतों से मिलने वाली अजीब-सी तसल्ली नहीं मिली। हालाँकि नई सदी के कुछ गीत यादगार भी बने।


दादासाहेब फाल्के के जमाने की मूक फिल्मों की शुरआती तकनीक से लगाकर आज के दौर की थ्री डी तकनीक तक फिल्म निर्माण में कई उतार-चढ़ाव आए। आज फिल्में बनाना उतना कठिन और मेहनत भरा काम नहीं रह गया। तकनीकी सुविधाएँ बढ़ने के बावजूद बॉक्स ऑफिस में कई फिल्मों की लागत करोड़ों तक पहुँच जाती है। जो फिल्म जितनी महँगी होने लगी, वह उतनी ही ज्यादा कारगर मानी जाने लगी। इस तरह फिल्म व्यवसाय भी भौतिकता की अपार चकाचौंध में खोता चला गया।



इन सबके बावजूद साल भर में सर्वाधिक फिल्में बनाने में भारत अग्रणी है। हिंदी के साथ ही भारत की अनेक भाषाओं-बोलियों में फिल्म व्यवसाय अपनी सामाजिक जिम्मेदारी को पूरी तरह से निभाते हुए लगातार आगे बढ़ रहा है। राष्ट्रीय एकता को स्थापित करने में भी फिल्म व्यवसाय का अमूल्य योगदान है। देश की विविध भाषाओं-बोलियों की प्रसिद्ध फिल्मों की डबिंग ने सारे देश को एक सूत्र में जोडने का काम किया है। इतना ही नहीं, विदेशों तक भारतीय फिल्मों की गूँज सुनाई देती है। भारतीय फिल्मों को भले ही हॉलीवुड की तरह सम्मान या बड़े-बड़े पुरस्कार नहीं मिले हों, फिर भी भारतीय फिल्मों के संस्थापक दादासाहब फाल्के से लगाकर इक्कीसवीं सदी में भारत के दूरदराज क्षेत्रों से आने वाले नए-नवेले निर्माता-निर्देशकों तक फिल्म व्यवसाय को समाज के हित में लगाने का जज्बा बरकरार है। आने वाले समय में भारतीय फिल्में अपनी इस जिम्मेदारी को और भी अच्छे तरीके से निभाएँगी, ऐसी संभावना से भी इंकार नहीं किया जा सकता है। 

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