10/8/21

रिश्ते नाते और परिवार

आधुनिक जीवन का अगर कोई सर्वाधिक उपयुक्त पर्याय है तो वो है आत्मकेन्द्रित होता मनुष्य । महानगर तो महानगर ग्रामीण समाज भी इस आत्मकेन्द्रित होती भावना से अब अछूता नहीं रहा । अगर देखा जाए तो मानव सभ्यता की सारी विकास कथा उसके इर्द-गिर्द के रिश्तों-नातों एवं समाज से हीं विनिर्मित हुई है । यदि मनुष्य अपने सुख-दुःख, अपने जीने-मरने को मात्र अपने तक सीमित किये रहता तो ना परिवार बनता ना समाज, ना राष्ट्र, और ना हीं देश । संग और साथ रिश्ते और नाते मनुष्य की मजबूरी नहीं ज़रूरत है । आज के अन्तराष्ट्रीय युग-संसार में जहाँ एक ओर जीवन और परिवेश संपन्न और विस्तृत हो गया है वहीँ हमारा व्यव्हार अत्यंत सीमित और एकांगी हो चला है । मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है और रिश्ते-नाते निभाना सामाजिकता के अनिवार्य नियम का हिस्सा हैं । मनुष्यता को जीवित रखना है तो रिश्ते-नातों को जीवित रखना हीं होगा । किन्तु आज दिनप्रतिदिन बढ़ते तलाक के किस्से, विलुप्तप्राय होते संयुक्त परिवार और बेतरह बढ़ते वृद्धाश्रम एवं झूलाघर यही बयान करते हैं कि आधुनिक समाज में रिश्ते नाते शनैः शनैः अपनी अहमियत खोते जा रहे हैं । वसुधैव कुटुम्बकम की भावना से पोषित भारतीय संस्कृति आज अपने हीं परिवारों, रिश्तेदारों से कटता जा रहा है ।

 

रिश्तों के प्रकार :-

 

1) जन्मजात रिश्ते ये उस तरह के रिश्ते हैं जो हमें जन्म के साथ हीं मिलते हैं । इन पर हमारा कोई वश नहीं होता जैसे, माता-पिता, भाई-बहन, चाचा-ताऊ, नाना-नानी इत्यादि । ये खून से बंधे रिश्ते होते हैं । कई बार इस तरह के रिश्तों में दूरी या कड़वाहट भी आ जाती है, बावजूद इसके ये रिश्ते टूटते नहीं ।

 

आज का विश्व कुछ सदियों पहले वाला एकाकी और एकांगी विश्व नहीं रहा । वैश्वीकरण के इस ज़माने को अन्तराष्ट्रीय युग-संसार कहना ज्यादा उचित होगा । जीवन और परिवेश संपन्न और विस्तृत हो गया है । अधिकांश व्यक्ति शिक्षित हैं और जीविकोपार्जन हेतु घर-परिवार-समाज से दूर रहना सामान्य माना जाने लगा है । लम्बी दूरियों एवं अवकाश के अभाव में ऐसे लोगों के पास सारे के सारे सगे-सम्बन्धियों से मिलना-जुलना मुमकिन नहीं हो पाता । ऐसे में रिश्ते फ़ोन या ईमेल के सहारे बस जैसे-तैसे चलते रहते हैं ।

 

2) हमारी पसंद के रिश्ते ये वैसे रिश्ते हैं जो हम स्वयं अपनी मर्ज़ी से बनाते हैं । इसमें ना तो किसी प्रकार की मजबूरी होती है और ना हीं ये जबरन थोपे हुए होते हैं । जैसे दोस्त, प्रेमी/प्रेमिका, प्रेम विवाह करने वाले पति/पत्नी । अधिकतर ये रिश्ते जितनी जल्दी बनते हैं, उतनी हीं जल्दी ख़त्म भी हो जाते हैं । कई बार अपनी मर्ज़ी से बनाए गए ये रिश्ते आजीवन भी चलते हैं फ़िर भी इनकी मिठास ख़त्म नहीं होती, तो कई बार बीच सफ़र में हीं इनमें दरारें पड़ जाती हैं । यह स्थिति बेहद तकलीफ़देह होती है । चूँकि ये रिश्ते हम स्वयं की मर्ज़ी से बनाते हैं इसलिए इससे मिलने वाली कड़वाहटों को भी हमें अकेले हीं झेलना पड़ता है ।

 

3) सामाजिक रीति-रिवाज़ों से जुड़े हुए रिश्ते ये माता-पिता अथवा परिवार, समाज द्वारा तय किये गए रिश्ते होते हैं जैसे पति/पत्नी, ननद/देवर/भाभी/सास-ससुर इत्यादि के रिश्ते । इनमें से पति पत्नी के रिश्ते में सबसे अधिक चुनौतियाँ होती हैं । आजकल अधिकांशतः पति-पत्नी दोनों कामकाजी होते हैं । घर की जिम्मेदारी और ऑफिस का कार्यभार मिश्रित होकर तनाव के स्तर को उच्च बनाए रखता है । छोटी-छोटी बात पर एक-दूसरे के ऊपर बिफ़र पड़ना, क्रोध और चिड़चिड़ापन आम बातें हैं । अगर परिवार में कोई सुलह-समझौता, बीच-बचाव करवाने वाला ना हुआ तो ब्रेकअप और तलाक़ भी सामान्य-सी बात है । अगर किसी मजबूरीवश संबंध आगे चलता भी है तो इमोशनल ब्रेकअपतो तय सी बात है ।

 

इसके आलावा आजकल कुछ नए प्रकार के रिश्ते भी बन रहे हैं

 

4) आभासी संसार के रिश्ते इन्टरनेट पर बनने वाले ये रिश्ते काफ़ी दिलचस्प होते हैं । दो सर्वथा अनजान व्यक्तियों के बीच कभी-कभी परिचित रिश्तों से भी अधिक नजदीकियाँ और मिठास आ जाती है ।

 

5) कार्यक्षेत्र के रिश्ते कार्यालय में साथ-साथ काम करते हुए कभी-कभार दो लोगों के बीच बेहद आत्मीय रिश्ते बन जाते हैं । स्थानान्तरण के साथ-साथ कभी तो ये रिश्ते ख़त्म हो जाते हैं, कभी-कभार लम्बे समय तक साथ चलते हैं ।

 

खैर रिश्ता चाहे कोई भी हो वह टिकता केवल परस्पर आदर, स्नेह, विश्वास, आत्मीयता एवं प्रतिबद्धता की सतह पर हीं है । रिश्तों में अगर स्नेह-प्रेम की ऊष्मा और आदर-विश्वास की संजीवनी हो तो इसके रेशमी धागे में इतनी ताकत होती है कि यह दो विपरीत विचारधारा, दो विपरीत परिवेश वाले व्यक्तियों को भी अटूट मधुर बंधन में बाँध देती है । किन्तु आज के हाईटेक ज़माने की रफ़्तार इतनी तेज़ है कि व्यक्ति के पास रिश्तों की मिठास को महसूस करने, रिश्तों को ख़ूबसूरती के साथ जीने का वक़्त हीं नहीं है । आधुनिक समय की दौड़ती-भागती ज़िंदगी के बीच रिश्तों को समझने, बातचीत करने का अवसर हीं नहीं मिलता । ऐसे में रिश्तों का संतुलन बिगड़ जाता है और ग़लतफ़हमियाँ, क्रोध और फ्रस्ट्रेशन सर उठाने लगते हैं । सम्बन्धों में इस तरह की नकारात्मक भावनाओं का उत्पन्न होना इस बात का संकेत है कि रिश्तों के इस पड़ाव को आपके ध्यान, आपके केयर की ज़रूरत है । जो व्यक्ति यहाँ चेत गया उसके संबंध बच जाते हैं, अन्यथा सम्बन्धों को ध्वस्त होने में समय नहीं लगता । आजकल की प्रॉब्लम ये है कि लोग प्यार लेना तो चाहते हैं लेकिन देना नहीं चाहते । दूसरों से उम्मीद तो करते हैं पर स्वयं उम्मीदों पर खरा उतरना ज़रूरी नहीं समझते । स्वयं तो अपेक्षाएँ रखते हैं पर दूसरा भी कुछ अपेक्षाएँ रखे यह उन्हें मंज़ूर नहीं । वैसे रिश्ता चाहे जन्म का हो या हमारी पसंद का ज़रूरत से ज्यादा अपेक्षाओं से भी रिश्तों का दम घुट जाता है ।

 

बदलते युग के साथ रिश्तों की परिभाषा चाहे बदल जाए, पर रिश्तों की अहमियत आज भी उतनी हीं है । यह ना कभी ख़त्म हुई थी, ना कभी होगी । यह एक कटु सत्य है कि आजकल अधिकांश व्यक्तियों में सहनशीलता का घोर अभाव हो चला है । ऐसे में झुकना, सहना, समझौता करना, रिश्तों को जीवित रखने के लिए ख़ुशियों का परित्याग करना ये सब बीती बातें हो चुकीं हैं । रिश्ते नाते जिनके बगैर मनुष्य अधूरा है आज अपना महत्व और मिठास खोते जा रहे हैं तो ऐसी परिस्थिति में मुझे तो यही लगता है कि आज के परिपेक्ष्य में रिश्ते-नाते निभाना मात्र एक मजबूरी बन के रह गयी है ।

 

परखना मत परखने में कोई अपना नहीं रहतास्वर्गीय श्री जगजीत सिंह जी की बेहद ही खूबसूरत गजल जो कि हमारे जीवन मे बिल्कुल सटीक बैठती है।

चूँकि मनुष्य बहूत ही स्वार्थी होता है, हर पल उसे अपने मैंकी चिंता लगी रहती है; वह जीवन मे स्वयं को सबसे उच्च स्थान देता है वही करता है जो उसके मैंको संतोष पहुचाता है। वह रिश्तों से जुड़ता है क्योंकि स्वयं खुश रह सके , उन रिश्तों को तोड़ देता है क्योंकि स्वयं खुश नहीं है। अपने जीवन को सुगम बनाने की आपा-धापी में लगा रहता है किसी से मुस्कुराकर बात तक करने की फुरसत नहीं होती। वह अपने द्वारा तय आयामों को हासिल कर समृद्ध जीवन जीने भी लगता है; परन्तु वह खुश रह पाता है? शायद नहीं , वह स्वयं को अकेला महसूस करता है। जीवन के भागम भाग में उसके अपने पीछे छूट चुके होते हैं जिनके साथ वह अपनी खुशियों को बाँटना चाह रहा होता है पर मनुष्य के अंदर मैंकी प्रवृत्ति उसे अपनों से मीलों दूर धकेल देती है।

और यहाँ तो प्रत्येक व्यक्ति के लिए खुशियों की परिभाषाएं भी अलग-अलग होती हैं। किसी को पैसा चाहिए तो किसी को सुकून, किसी को प्रेम चाहिए तो किसी को अलगाव। जिस इंसान के पास जो नहीं है वह सदा उसी में अपनी खुशी तलाशता है जो उसे उसमे कभी मिलती ही नहीं..और इसी जीवन चक्र में भागते-भागते एक दिन इस जीवन का अंत हो जाता है। अक्सर हम अपने जीवन को समझ नहीं पाते हैं, हमें वास्तव में क्या चाहिए और जिस राह पर हम निकल पड़े हैं क्या उसकी मंजिल वही है जिसकी हमें तलाश होती है। हमारे वो अपने करीबी रिशते उनका भी मूल्य हमें तभी समझ आता है जब वह हमारे जीवन से चले जाते हैं यही मनुष्य की प्रवृति होती है।

 

मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है, कोई भी व्यक्ति अकेला नहीं होता; अपने आस-पास के लोगों से जुड़ा होता है चाहे वह अपने रिश्ते हों या फिर मित्र । परंतु मनुष्य स्वयं से जुड़े प्रत्येक लोगों को भी सदैव अपने स्वार्थ के तराजू पर तौलता है और आज के आधुनिक मनुष्य की तो बात ही अलग है वह स्वार्थ की चरम सीमा पर पहुँच चुका है। वह हर जगह अपनी प्राथमिकताएं तलाशने की कोशिश करता है सिर्फ और सिर्फ अपनी सहूलियतों के दायरे में जीना चाहता है। जो भी इस दायरे में नहीं आते हैं उनसे वह अलग हो जाता है फिर चाहे वह उसके माता पिता , भाई बहन , पत्नी बच्चे हों या मित्र । हम यह तो मानते हैं कि प्रत्येक मनुष्य का अपना एक वजूद होता है, आदर्श होते हैं, विचारधारायें होती हैं परंतु सिर्फ स्वयं के लिए। हम दूसरों को भी अपने अनुसार ही चलाना चाहते हैं हम हमेशा दूसरों को गलत ठहराने में लगे रहते हैं अर्थात सिर्फ मैं सही तुम गलत।

वास्तव गलत सही तो कुछ होता ही नहीं अंतर सिर्फ अलग-अलग सोच विचार का होता है जो एक दूसरे से मेल नहीं खाती है। हम यह समझने की कोशिश ही नहीं करते और ऐसी स्थिति में हमारे अपने रिश्ते भी बोझिल हो जाते हैं। अक्सर यही हमारे मानवीय रिश्तों के टूटने का प्रमुख कारण बन जाता है। परंतु क्या अपनों के बिना एकल जीवन जिया जा सकता हैं? अकेला जीवन कुछ पल का तो सुकून दे सकता है परंतु जीवनपर्यन्त हम असामाजिक होकर अकेले नहीं रह सकते हमें अपने रिश्तों की जरूरत होती है, लोगों के साथ कि जरूरत होती है।

 

हमारे रिश्ते बिल्कुल सूत के कच्चे धागे के समान होते हैं उन्हें खीच-तान कर नहीं उन्हें सहेज कर रखा जाता है। वास्तव में रिश्तों का आधार ही प्रेम होता हैं जिसमें- स्वार्थ नहीं , त्याग होता है - तर्क नहीं , भाव होता है - परख नहीं, सम्मान होता है - मैं व तुम नहीं , सिर्फ हम होता है -  एक दूजे पर विश्वास होता है

 

बस यही तो अपनो में प्रेम होता है, किन्तु आज के आधुनिक युग मे ना सयुंक्त परिवार रह गए हैं ना ढेरों रिशते। कुछ बचे खुचे करीबी रिशते हैं जिनसे आज भी हम जुड़े हुए हैं। उन्हें बनायें रखने के लिए हमें उनके नजरिये को भी समझना होगा उन्हें परख कर नहीं स्वीकार कर आगे बढ़ना होगा, रिश्तो में सम्मान का भाव लाना होगा, रिश्तों को हमें संजो कर रखना होगा। सच मानिए यदि हम ऐसा करें तो हमारा जीवन कितना संतुलित और आनंदमय हो जायेगा जिसकी हम कल्पना दिनरात करते हैं।

 

 

एक सफल और सार्थक जीवन के लिए समझ और समझौता बहुत जरूरी है। व्यक्ति यदि समझौता करना नहीं जानता, तो छोटी-छोटी घटनाएं भी विकराल बन जाती हैं। समझौते के बगैर दुनिया में कभी काम नहीं चलता। महायुद्ध होता है, बड़ी-बड़ी लड़ाइयां होती हैं, वहां भी आखिर में समझौते और संधि के लिए टेबल पर बैठना पड़ता है। सामान्य आदमी भी अगर कोई आग्रह लेकर बैठ जाए, किसी और को न सुने, तो समस्या उलझती ही चली जाती है। इसलिए सामंजस्य और समन्वय करना जरूरी है। ऐसा करके ही व्यक्ति परिवार और समुदाय के साथ चल सकेगा।

सामंजस्य, समझौता और व्यवस्था-इन तीनों से भी अधिक महत्वपूर्ण सूत्र है सहिष्णुता। यह पारस्परिक सौहार्द और शांतिपूर्ण जीवन का आधार है। समस्या यह है कि आज आदमी एक दूसरे को सहन करना नहीं जानता। बड़ों की बात छोड़ दें, तीन-चार वर्ष का छोटा बच्चा भी सहन करना नहीं जानता। उसके मन के प्रतिकूल बात होती है, तो वह इतना उबल पड़ता है कि शांति भंग हो जाती है। एक-दूसरे को सहन किए बिना दो व्यक्ति साथ कैसे रह सकते हैं? जब तक सहिष्णुता का विकास नहीं होता, तब तक परस्पर शांति के साथ रहने की कल्पना भी नहीं की जा सकती।

एक-दूसरे की कमजोरी और असमर्थता को सहन करना, अल्पज्ञता और मानसिक अवस्था को सहन करना, दूसरे की कठिनाई और बीमारी को सहन करना परिवार और समाज की शांति के लिए आवश्यक है। आज सहिष्णुता का अर्थ गलत समझ लिया गया है। सहिष्णुता का अर्थ न कायरता है, न कमजोरी और न दब्बूपन। सहिष्णुता महान शक्ति है। बहुत शक्तिशाली आदमी ही सहिष्णु हो सकता है। कमजोर आदमी कभी सहिष्णु नहीं हो सकता। कमजोर सहन कर ही नहीं सकता। सहन करने का मतलब है विकास, शौर्य और पराक्रम का विकास। अगर घर का मुखिया सहिष्णु नहीं है, तो परिवार बिखर जाएगा। यही स्थिति संस्थाओं, संगठनों, समाज और सरकार के मुखियाओं पर लागू होती है।

साथ में कैसे रहा जाए, यह एक बड़ी कला है, जो इस कला को नहीं जानते, वे साथ रहने का आनंद नहीं ले पाते। जो बहुत कुछ पढ़ जाने पर भी इस कला को नहीं पढ़ता, नहीं सीखता, वह शांति के साथ कभी नहीं जी सकता। शांति और सौहार्दपूर्ण जीवन के लिए सहिष्णुता के साथ विनय और वात्सल्य भी आवश्यक है। विनय भारतीय संस्कृति का प्राणतत्व रहा है।

 

 

क्या रिश्तों को बनाये रखने के लिए बहुत कुछ सहन करना पड़ता है ?

 

रिश्तों को बनाये रखने के लिए बहुत कुछ करना पड़ता है । तभी रिश्ते कायम रह पाते हैं । ना चाहते हुए भी ऐसे कार्य करने पड़ते है । जो स्वयं को भी स्वीकार नहीं होते हैं । परन्तु रिश्तों को बनाये रखने के लिए करना पड़ता है ।

रिश्तों को बनाये रखने के लिए बहुत कुछ सहन करना पड़ता है। जो हानिकारक सिद्ध होता है। चूंकि ताली दोनों हाथों से बजती है। इसलिए जब रिश्तों को सहन करने की नौबत आए तो उन्हें तोड़ देना चाहिए। ताकि ताली की आवाज दोनों हाथों को सुनाई दे और उस पर मंथन किया जाए। जिससे रिश्तों की गरिमा बनी रहे।

सर्वविदित है कि रिश्ते-नाते जीवन को जीने और सुखमय बनाने के लिए होते हैं। उसी सुखद अनुभूति के लिए रिश्ते-नातों के उपरांत मित्रता का रिश्ता भी पवित्रता का प्रतीक माना जाता है। जिसके पक्ष में कई उदाहरण प्रस्तुत किए जाते हैं और कहा जाता है कि मित्र वह जो मुसीबत में काम आए। किन्तु जो मित्र सुखद जीवन में मुसीबत उत्पन्न करें उन्हें क्या दण्ड देना चाहिए के संदर्भ में उपायों का उल्लेख कहीं अंकित नहीं है? जिस पर शोधकर्ताओं का शोध आवश्यक एवं अनिवार्य है। अतः मेरा दृढ़ विश्वास है कि दुर्भाग्यवश यदि जीवन में रिश्ते-नातों की कड़वाहट को "सहन" करने की नौबत आ जाए तो उन्हें पुनः प्राकृतिक सुखद बनाने हेतु त्याग देना चाहिए।

रिश्तों को बनाए रखने के लिए बहुत कुछ सहन करना पड़ता है यह हर पक्ष पर लागू होता है। हर किसी की अपनी अपनी भावनाएं होती हैं, सोच होती है, अपने-अपने विचार होते हैं।  रिश्ता बनाए रखने के लिए हम अपनी सोच को दूसरों पर हावी न बनने दें। हर किसी को सोचने की स्वतन्त्रता है। हम अपने मस्तिष्क को खुला रखें और हृदय को विशाल।  हर समय स्वयं को सामने वाले की स्थिति में रख कर सोचें।  यदि कोई ऐसी नाज़ुक परिस्थिति आती भी है जहां हमें सामने वाले की बातों को सहन करना पड़े ताकि रिश्ते न टूटें तो सहन करना चाहिए पर स्वाभिमान की कीमत पर नहीं।  ऐसी स्थिति में सहन करने से पूर्व पूर्ण आकलन करें और तभी कोई निर्णय लें परन्तु कोई भी निर्णय लेने से पूर्व रिश्ते की संवेदनशीलता और गहराई को ध्यान में रखें।  अतिरेक में लिये गये निर्णय रिश्तों में दरार डाल सकते हैं।  एक अन्य परिप्रेक्ष्य में कहा गया है - जब भी कोई सेठ दुकान की गद्दी पर बैठता है तो वह चप्पल और इज्जत को हटाकर बैठता है ताकि उसका ग्राहक से रिश्ता बना रहे।  वह ग्राहक की किसी बात से आहत होकर उसे बुरा-भला न कह बैठे।  यह एक सिद्ध तथ्य है कि रिश्तों को बनाए रखने के लिए बहुत कुछ सहन करना पड़ता है।

 

रिश्तों को जोड़ना आसान है लेकिन  निभाना बहुत मुश्किल होता है। क्योंकि हर व्यक्ति की सोच-समझ अलग होती है। विचार अलग होते हैं, जो हमारे सोच से नहीं मेल खाते हैं। फिर रिश्ते के धागे कमजोर पड़ने लगते हैं । समझदारी इसी में होती है कि धागों को मजबूती से पकड़ लिया जाए। इसके लिए जो बड़े और समझदार हैं उन्हें बहुत कुछ सहने की शक्ति रखनी पड़ती है। तभी हमारे चारों तरफ का वातावरण रिश्तों से घिरा रह सकता है।

 

रिश्तो को बनाए रखने के लिए बहुत कुछ सहन करना पड़ता है । त्याग बलिदान और समर्पण ही रिश्तो का दूसरा नाम है । विश्वास की नींव  पर खड़े हुए रिश्तो को   प्रेम और त्याग से  पोषित किया जाता है । सच कहें तो रिश्तो की मजबूती ही  सफल जीवन का आधार है । क्योंकि सच्चे रिश्ते हमारी ताकत बनते हैं ।

मनुष्य  एक सामाजिक प्राणी है । घर परिवार में जीवन यापन करता हुआ वह सामाजिक दायित्व भी निभाता है । रिश्ते पारिवारिक भी हो सकते हैं और सामाजिक भी,  रिश्ते खून के  भी  हाे  सकते हैं  और भावात्मक भी , सब में प्रेम , त्याग तथा समर्पण सर्वोपरि है । पारिवारिक रिश्तो को निभाने के लिए हमें बहुत कुछ सहन करना पड़ता है ।   कई बार निंदा और उपेक्षा का सामना करना पड़ता है , पारिवारिक सदस्यों का क्रोध सहना पड़ता है । परिवारिक सामंजस्य बनाए रखने के लिए हमें सहनशीलता का भाव अपनाना पड़ता है । जो नैतिक मूल्यों का महत्व जानते हुए उच्च चरित्र युक्त तथा आदर्श जीवन जीने का  पक्षधर है ।

 

रिश्तो की पहचान करना भी जरूरी है , पर पारिवारिक रिश्तो में यदि संतान अपने मां-बाप के प्रति रिश्तो को कमजोर कर दे उसकी अनदेखी करें  लोभ और लालच ही रिश्तो का अभिप्राय बन जाए , ऐसे रिश्ते सच्चे रिश्ते नहीं कहलाते । संतान का माता पिता के प्रति प्रेम और समर्पण भाव ही  रिश्तो को मजबूती प्रदान करता है । आदर और सम्मान का भाव रिश्तो में भावात्मक स्थिरता पैदा करता है । गलतफहमी और शक के आधार पर रिश्ते बड़े दिन नहीं टिकते । छोटी-छोटी बातों पर उलझना भी रिश्तो को कमजोर बनाता है । किसी भी विवश व्यक्ति की विवशता  ना चाहते हुए भी बहुत कुछ सहन करती है । उसके पीछे आर्थिक समस्या भी हो सकती है। मां बाप अपने बच्चों को पालने, पढ़ाने में अपनी सारी जमा पूंजी लगा देते हैं, यही सोच कर कि उनकी संतान बुढ़ापे में उनका सहारा बनेगी। समय बदलने के साथ साथ जब संतान का मिजाज भी बदल जाता है तो वही मां-बाप वृद्धा आश्रम  का सहारा लेते हैं  । उन्होंने भी रिश्तो को बनाए रखने के लिए बहुत कुछ सहा ,मगर जब पानी सिर से ऊपर चला जाता है तो एक निश्चित स्थान जहां वह चैन से रह सके ढूंढना ही पड़ता है । आर्थिक तौर पर जब कोई व्यक्ति कमजोर होता है तो वह दूसरों की ही दया दृष्टि पर निर्भर होता है । अप्रत्याशित व्यवहार भी उसे झेलना पड़ता है, केवल रिश्तो को बनाए रखने के लिए।

उपन्यास सम्राट मुंशी प्रेमचंद जी ने अपनी एक कहानी में एक वाक्य  स्पष्ट किया था कि दुधारू गाय की  लात भी सहन करनी  पड़ती है। रिश्तो में भी यही सत्य है कि रिश्तो में मजबूती बनाए रखने के लिए बहुत कुछ सहन करना पड़ता है देखा हुआ अनदेखा करना पड़ता है ,रिश्तो में प्रेम भाव उपजाने के लिए झूठी प्रशंसा का भी सहारा लेना पड़ता है ।अपने अहं को भी त्यागना पड़ता है।  क्योंकि रिश्ते कांच की भांति होते हैं टूट गए तो जुड़ेंगे नहीं जोड़ने का प्रयास करेंगे तो वह चुभेंंगे , कष्ट ही देंगे । अतः रिश्तो को बनाए रखने के लिए बहुत कुछ सहन करना पड़ता है ।

 

हां, यह बात बहुत हद तक सच्चाई बयां करती है। सच है कि रिश्तों को बनाए रखने के लिए व्यक्ति को सहन भी बहुत कुछ करना पड़ता है तभी रिश्ता  सही तरीके से नीभ पाता है। उदाहरण स्वरुप पति और पत्नी दोनों दो अलग-अलग परिवार से होते हैं जिनकी सोच,रहन- सहन हर चीज दोनों की अलग होती है फिर भी दोनों हीं अपनी सहनशीलता के दम पर आजीवन यह रिश्ता बड़ी बखूबी निभाते हैं। जब कभी भी रिश्ते में जरा भी तालमेल या सामंजस्य की कमी होती है तो यही रिश्ता टूट जाता है । बहुत बार ऐसा वैचारिक मतभेद पाया जाता है परिवारों में  फिर भी लोग कुछ भूलते हैं कुछ अनदेखा करते हैं और आपसी तारतम्य बैठा इसी सहनशीलता के बलबूते पर रिश्ता निभाएं जातें हैं। जहां या जब कभी भी सहनशीलता कमजोर होती है तो वहां रिश्तों में दरारें पड़नी शुरू हो जाती हैं। रिश्ता निभाना एक बहुत बड़ी कला है जिसमें बहुत कुछ देखा अनदेखा करना पड़ता है। उदाहरण स्वरुप पिता पुत्र के हीं रिश्ते को  देखा जाए तो बहुत बार जेनरेशन गैप के कारण दोनों में कभी कभार तालमेल नहीं बैठती है फिर भी दोनों कुछ ना कुछ एक दूसरे की कमियां, जानते हुए भी सहन कर लेते हैं तो फिर आराम से गुजर बसर हो जाता है। जनरेशन गैप मूल रूप से विभिन्न पीढ़ियों के बीच विचारों, दृष्टिकोणों और विश्वासों का अंतर है। यदि यही सहनशीलता की कमी होती है तो फिर दिक्कतें शुरू हो जाती हैं। अतः हम यह कह सकते हैं कि रिश्तों की बुनियाद हमारी सहनशीलता पर टिकी हुई होती है तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी।

 

अवश्य  सहन करना पड़ता है ! इसमे मां का अपने बच्चे से रिश्ता ! अपने बच्चे  को पाने के लिए सारे दर्द सहन करती है ! तभी तो एक स्त्री नये रिश्ते को जन्म देती है और मां कहलाती है ! रिश्ते सामाजिक संबंध का आधार है और रिश्तों में कड़वाहट मनुष्य में मानसिक अशांति पैदा करती है ! हम अनेक रिश्तों से जुड़े होते हैं और प्रत्येक रिश्ते का अपना महत्व होता है और उसे बनाये रखना सहज नहीं है !

 

रिश्ते की डोर  नाजुक होती है इसे बचाये रखने के लिए हमारे में सहनशीलता, धैर्य तो होना चाहिए साथ ही रिश्तों में वश्वास और समर्पण का भाव होना चाहिए ! स्वार्थी नहीं होना चाहिए ! बहचत सी बातें हमे पसंद नहीं होती किंतु मधुरता लाते हुए हमे रिश्ते बनाए रखना पड़ता है !

रिश्तों में यदि पारदर्शिता हो तो अच्छा रहता है पति पत्नी के संबंध में संयुक्त परिवार में बहुत सी बातें हम निजि तक सीमित रखना चाहते हैं किंतु रिश्तों में खटास न आये अतः बताना  पड़ता है ! रिश्तों में सामंजस्यता होनी चाहिए !संघर्ष के समय आप तकलीफ़ मे हैं फिर भी कंधा बन सहारा दे रिश्ते को बचाना चाहिए! दुनिया का दस्तूर है एक हाथ से दोगे तभी दूसरे हाथ से लोगे ! मै यही कहूंगी रिश्तों को मर्यादा के साथ निभायें तो रिश्ते बहुत ही सुंदर जिंदगी में रस भर देती है !

 

जी बिल्कुल, रिश्तो को बनाए रखने के लिए बहुत कुछ सहन करना पड़ता है। तन मन धन अर्थात  हर तरह से, तभी वे कायम रह पाते हैं। रिश्ते कई तरह के होते हैं  खून के रिश्ते, पारिवारिक ,सामाजिक, काम करने वालों के साथ, कई प्रकार के। रिश्ता कोई भी हो पर उसमें एक निष्ठा और विश्वास होना चाहिए। उदाहरण के लिए नौकर और मालिक का। अगर दोनों के बीच में अच्छी समझ होगी और समन्वय करने की   क्षमता होगी तो वह रिश्ता भी टिकाऊ हो सकता है वरना कुछ ही समय में खत्म हो जाएगा। इसी तरह अन्य रिश्तो में भी तालमेल बिठाना पड़ता है। एक दूसरे को समझ कर, कमियों को अनदेखा कर या आपसी सहमति से साझा करके भी  रिश्ते कायम रखे जा सकते हैं। कई बार तो रिश्ते कायम रखने के लिए एक ही पक्ष को बार-बार झुकना पड़ता है अगला पक्ष उतना लचीला नहीं रहता। घरों में परिवारों में बंटवारा करते समय भी यही होता है किसी को कम किसी को ज्यादा मिल जाता है। यदि दोनों पक्ष एक से हुए तो हमेशा के लिए लड़ाई या बुराई और यदि कोई एक पक्ष झुक गया या मान गया तो  बात वहीं रह जाती है। दोनों पक्षों में समान बटवारा बहुत ही कम देखने को मिलता है। कहने का मतलब यही कि रिश्ते कायम रखने के लिए कहीं ना कहीं सहन तो करना ही पड़ता है, चाहे वह सामाजिक हो या  अन्य किसी तरह के।

 

सहनशीलता वह धागा है जिससे रिश्ते की डोर कभी टूटती नहीं है हर रिश्ते में प्रेम प्यार भरे सहनशीलता उदारता की भावना भरी रहती है अब सहनशीलता को मां और संतान के बीच के रिश्ते के द्वारा ही देखिए संतान चाहे कितना भी नाराज हो लेकिन एक मां जो है पिता जो है उसे हर पल प्यार ही करता रहता है दूसरी बात जब मां गर्भ में संतान को रखती है तो कितना दर्द सकती है शायद इसका अनुमान लगाना और उसको शब्दों में व्यक्त करना बहुत ही मुश्किल है उस बच्चे के लिए इतनी सहनशीलता होती है इतना दर्द होता है सब को बर्दाश्त करने के बाद यह रिश्ते की डोर इतनी मजबूत बन जाती है की तोड़ने से भी नहीं टूटेगी यह तो मां और बच्चों के बीच का रिश्ता है इसी तरह का रिश्ते परिवार के साथ पति के साथ पड़ोसी के साथ भी बनते हैं और सहनशीलता के माध्यम से फलीभूत होते हैं इसलिए रिश्तो में सहनशीलता का होना अति आवश्यक है

 

रिश्ते को बनाए रखने के लिए बहुत कुछ सहन करना पड़ता है। यह बात बिल्कुल सच है। महिलाएं भी अपने घर परिवार चलाने के लिए बहुत कुछ सहन करती हैं।बच्चे और परिवार के अन्य सदस्यों के बीच में तालमेल बनाए रखने के लिए हमें बहुत कुछ सहन करना पड़ता है सबकी पसंद का दिन भर खाना बनाना और दिन भर सबके अच्छे बुरे का ख्याल रखना पड़ता है इसके लिए एक महिला और नारी को बहुत कुछ बर्दाश्त करना पड़ता है उसे कभी-कभी अपने पति और बच्चों के बीच में तालमेल और सामंजस को स्थापित करना पड़ता है। उदाहरण के लिए अगर बच्चे बाहर पढ़ने के लिए जाते हैं तो एक महिला अपने बच्चों के पास भी रहना चाहती है और अपने पति का भी ख्याल रखना चाहती है इसके लिए वह दोनों की डांट भी सुनती है।

एक अच्छी बहू अपने घर परिवार को चलाने के लिए अपने सास-ससुर और बच्चों के बीच भी दोनों पीढ़ी के बीच भी सामंजस को बचाती है और बहुत कुछ बर्दाश्त करती है। इसीलिए महिलाओं को मां का दर्जा और त्याग की मूर्ति भी कहा जाता है।यह हम ऑफिस में भी यदि काम करते हैं तो वहां भी हमें बहुत ही कठिनाई के बाद भी अपनी नौकरी या ऑफिस में आसपास के सहकर्मियों के साथ रिश्ता बचाए रखने के लिए कि कहीं हमारे कारण किसी का नौकरी दांव पर ना लग जाए जो मनुष्य रिश्ते में सहनशीलता को अपनाता है वह जीवन में आगे बढ़ता है यदि कोई उसके साथ गलत भी करता है तो वह अपनी गलती पर खुद ही शर्मिंदा हो जाता है इसीलिए थोड़ा बर्दाश्त और सहनशीलता मनुष्य के अंदर होनी चाहिए सहनशीलता के कारण ही हम कठिन से कठिन परिस्थितियों का डटकर मुकाबला कर सकते हैं।

 

जी बिल्कुल सही रिश्तों को बनाए रखने हेतु बहुत कुछ सहना पड़ता है क्योंकि कहा भी जाता है कि -किसी रिश्ते को अन्त तक निभाने हेतु स्वयं की बलि देनी होती है बलि का मतलब यह नहीं कि मर जाओ बलि का अर्थ अपनी सोच से ऊपर उठकर सोचना। अपने इगो को दरकिनार कर देना आदि से रिश्तों में मिठास लाई जा सकती है‌ रिश्ते वह पूंजी है जो कभी खर्च नहीं होती और दूसरी ओर जितनी खर्च होती है उतनी बढ़ती है अतः रिश्तों में मधुरता बनाए रखने हेतु बहुत बातें ऐसी होती हैं जो हम पसंद ना करते हो परन्तु फिर भी किसी  परिजनों की खुशी के लिए मौन रहना पड़ता है।।

 

रिश्तो को बनाए रखने के लिए मूल्यों में जीना होता है अर्थात भावों के साथ जीना होता है अतः मनुष्य को हर संबंधों के साथ कैसा व्यवहार करना है इस पर ध्यान देने की जरूरत हैं ।भावों के साथ जीना अति आवश्यक है। रिश्तों को बनाए रखने के लिए सहनशीलता जरूरी है ऐसा माने हुए हैं लेकिन ऐसा नहीं होता सहनशीलता मैं भी दुख होता है। जबकि रिश्ते में मूल्यों का निर्वाहन होने से रिश्तो की परस्पर ता में  उभय तृप्ति मिलता  है।  संबंधों या रिश्तो में उभय  तृप्ति के साथ जीने से ही सुख की अनुभूति होती है। मूल्यों के  निर्वहन से ही रिश्तो में संबंध बना रहता है। सहनशीलता में कसक होती है खुशी नहीं होती। भावो के साथ रिश्तो में जीना ही सुख है।

 

 

रिश्ते जीवन का सबसे बड़ा और अनमोल खजाना है।जिस प्रकार हम अमूल्य चीजों को संभालते हैं। उन की सुरक्षा के लिए जोखिम भी उठाते  हैं। बस ऐसा ही एहसास रिश्तों के साथ है।  रिश्ते फूल से कोमल और पर्वत से अड़िग ,धरती की तरह उर्वरक और आसमान की तरह छत्र छाया से हैं।   हर रिश्ते का अपना मूल्य है।इन्हे संभालने के लिए  कभी -कभी तो खुद की  तरक्की, सामाजिक स्थिति को भी दाँव पर लगाना पड़ता है। रिश्तों को संभालने में सब से बड़ा त्याग या सहन करने की सीमा को भी जो पार कर जाते हैं वो है  माता -पिता। यह सहना ऐसा होता है कि अनेक बार तो जिस के लिए आप कर रहे हैं वही शख्स आप के घावों को रोज कुरेदता है । यकिनन रिश्ते प्यार ,सहनशीलता, निर्भरता , कोमलता और अनन्य त्याग माँगता है।

रिश्तों में सहनशीलता न हो तो वो कुछ समय मे ही समाप्त हो जाते है । विश्वास और सहनशीलता से ही रिश्तों की अहमियत होती है । धैर्य से दूसरे की बात सुनना और अपनी कहना ही रिश्ते की गरिमा को बनाए और सँजोए रखना बहुत आवश्यक है । बहुत बार रिश्तों मे उतार चढ़ाव आते रहते है उस समय सहनशीलता ही रिश्तों की मिठास को बनाए रखती है । ज़रा सी असहनशीलता दिखाते ही हम रिश्तों को हमेशा के लिए खो देते है और उसका दंश लम्बे समय तक विचलित करता है

 

रिश्तों को बनाए रखने की पहली ही शर्त है- धैर्य और सहनशीलता । जहाँ  सहनशीलता खत्म हुई संबंध टूटने में एक पल नहीं लगता । सहनशीलता ही है जो शनैः शनैः गलतफहमियों को दूर कर देती है, जिससे गलती करने वाला व्यक्ति शर्मिंदा होकर शुद्ध मन से अपनी गलती स्वीकार कर समर्पित हो जाता है। सहनशील व्यक्ति का मौन मधुर रिश्तों की संभावनाओं को अवसर देता है। पर सहनशीलता की भी एक सीमा होती है । एक समय ऐसा भी आता है, जब यह जवाब दे देती है और स्थिति विस्फोटक हो जाती है। सबसे मुख्य बात यह है कि सहनशील व्यक्ति को कमजोर समझा जाने लगता है और जाने अनजाने उसके साथ अन्याय होने लगता है । रिश्ते कायम रहें इसके लिए दोनों पक्षों का सहनशील होना बहुत जरूरी है क्योंकि हर व्यक्ति का स्वभाव एवं आदतें भिन्न होती हैं , गुण-अवगुण सबमें होते हैं । सहनशील व्यक्ति ही इनसे समझौता कर  रिश्तों की आयु लंबी बना सकता है।

 

आज की चर्चा में जहांँ तक यह प्रश्न है कि क्या रिश्तो को बनाए रखने के लिए बहुत कुछ सहना पड़ता है तो मैं कहना चाहूंगा यह किसी हद तक बहुत सही है दरअसल हम सभी आजकल उस दौर में जी रहे हैं जब स्वार्थ परता  और स्वयं की सुख सुविधाओं का ध्यान रखना प्राथमिकता हो गई है और ऐसे में रिश्तो का बिखरना स्वाभाविक ही है व्यक्ति अपने लाभ के लिए सही और गलत मे फर्क करना भूल गया है या यह कहें कि वह अच्छे बुरे और लालच व परोपकार की परिभाषाएं अपने हिसाब से गढने  में लगा हुआ है या अपने हिसाब से तय करता है तो यह अतिशयोक्ति नहीं है ऐसे में संबंधों को बचाए रखने के लिए रिश्तो को बनाए रखने के लिए बहुत समझदारी और संवेदनशीलता के साथ काम करना आवश्यक है अपने साथ-साथ बल्कि मैं तो कहूंगा कि अपने से अधिक दूसरों का भी ध्यान रखना आवश्यक है और यदि इतना नहीं संभव है तो यह तो जरूर करना चाहिए की हम अनावश्यक रूप से दूसरे की  बुराई से बचें और उसे नुकसान न पहुंचाएं या कोई ऐसा कार्य नहीं करें जिससे उसकी छवि को ठेस पहुंचती हो ऐसा करके न केवल हम अपने सम्मान को बचाए रखेंगे बल्कि किसी हद तक रिश्तो को भी बचाए रखेंगे समय-समय पर एक दूसरे का ध्यान रखना और सुख दुख में एक दूसरे की चिंता करना आवश्यकता होने पर सहायता करना संबंधों में प्रगाढ़ता के लिए बहुत आवश्यक है !

 

भले ही सहोदर क्यों न हों फिर भी स्वभाव, सोच और रुचि समान नहीं होते। तब माता-पिता, अन्य परिजनों ,पड़ोसियों  के स्वभाव और सोच में भिन्नता स्वभाविक ही है। जीवन कभी एकाकी नहीं गुजर सकता। सामाजिक जीवन में हमें हमारी जरूरतों के लिए एक-दूसरे की आवश्यकता पड़ती है। ऐसे में पारस्परिक सद्भाव और सौहार्द्र बहुत आवश्यक है। यह सरल, सहज और सरस तभी सतत रह सकते हैं,जब  हम छोटी-छोटी अप्रिय बातों को अनदेखा करें, सहनशील ,त्यागी और स्नेही बनें। स्पष्टवादी होना भी आवश्यक होता है,परंतु इसके साथ विनम्र भी होना महत्वपूर्ण है। वाकशैली मधुर, मर्यादित और सम्मानजनक रहे, सजग रहने का कौशल होना आना चाहिए। व्यवहारिक जीवन में इन सभी बातों में किंचित कमी और खामी परस्पर संबंधों में कटुता ला सकती हैं। अतः सार यही कि यह कहना कि रिश्तों को बनाए रखने के लिए बहुत कुछ सहन करना पड़ता है, सच्चाई है।

 

जीवन अर्थात सामंजस्य। सामंजस्य स्थापित किए बिना हम कभी भी खुशहाल जीवन नहीं जी सकते। हमें पग पग पर अनेक विचारधारा के लोगों से आमना-सामना होता है। परिवार के सदस्यों के भी अपने निजी विचार होते हैं। सभी के विचारों को मान सम्मान देते हुए तादात्म्य संबंध स्थापित करते हुए हम जीवन के सफर में आगे बढ़ते रहते हैं। कभी इच्छानुसार कभी अनिच्छा पूर्वक भी हामी भरनी पड़ती है, क्योंकि उससे अपनों की खुशी जुड़ी होती है। कोई जरूरी नहीं कि हम हर पल सही हो, यह भाव मन में रखते हुए हमें अपने विचारों में बदलाव कर सामंजस्य स्थापित करना पड़ता है। प्रकृति भी हमें यही शिक्षा देती है --फलों से लदा पेड़ सदा झुका रहता है। लचीली झुकी हुई डाली तेज हवाओं को भी झेल लेती है जबकि अकड़ी हुई डाली हवा के झोंके से टूट जाती है।ठीक इसी तरह हमें भी अपने व्यवहारों में लचीलापन रखते हुए पारिवारिक जीवन में सामंजस्य स्थापित करना पड़ता है तभी रिश्तों में मिठास चिरस्थाई बना रहता है। रिश्तों को बनाए रखने के लिए कभी-कभी कुछ सहना भी पड़ता है क्योंकि उसमें अपनों की खुशी छुपी होती है।

 

यह सच है रिश्तों को बनाए रखने के लिए  कुछ हद तक   बहुत कुछ सहन करना पड़ता है। हमारे जीवन में रिश्तों की जो कीमत है, वह साधारणत्या हम लोग नहीं सम़झ पाते, वास्तव में हमारे रिश्ते ही हमारी ताकत होते हैं, इन्हें कभी नहीं तोड़ना चाहिए। सच कहा है, "कोई टूटे तो उसे सजाना सीखो, कोई रुठे तो उसे मनाना सीखो, रिश्ते मिलते हैं, मुक्दर से बस उन्हें खूबसुरती से निभाना सीखो"। कहने का मतलब रिश्ते को हरगिज भी टुटने मत दो, रिश्तों की डोर ऐसी डोर होती है जिसे वांध कर हम सुरक्षित महसूस करते हैं, यह हमारे वजूद को मजबूती देते हैं। तभी कहा है," रिश्तों की अहमीयत तोल के देख लो,सरे बाजार अपनी कीमत बोल के देख लो, चाहतों की माला में हम क़भी  नहीं थे, जिन्दगी के हर धागे की गांठ को खोल के देख लो"। इन्सान को सोशल एनिमल इसलिए कहा है क्योंकी वह रिशते के  बंधन मेंआजादी महसूस करता है, लेकिन जब रिश्ते बिगड़ते हैं तब वेहद तकलीफ होती है क्योंकी कई बार जिन रिश्तों से हम जुड़ते हैं वोही  दुख का कारण बन जाते हैं,  लेकिन हमें इन चीजों से वचना चाहिए ताकि रिश्तों में दरार न आने पाए क्योंकी किसी भी रि श्ते में हल्की फुल्की नोक झोंक होती रहती है, इसका मतलब यह नहीं हम उसी को गांठ वांध लें और बात हद से ज्यादा बढ़ जाए, इसको पाजिटब  भी ले सकते हैं क्योंकी  झगड़े  ही बताते हैंआपके सबंध जिंदा हैं। फिर भी अगर बात बढ़ जाए तो रिश्तों को सुरक्षित रखा जा सकता है, जब हमआपसी सम्मान वनाए रखें, छोटी छोटी बातें को मुद्दा न वनाएं, बहस से वचें तो होनी को टाला जा सकता है। यही नहीं रिश्तों को मजबूती के लिए दोनों तरफ से एक दुसरे को महत्ब देना चाहिए,क्योंकी आलोचना रिश्तों में नकारात्मकता घोल देती है, इसलिए अगर अपनी गल्ती हो तो उसे स्वीकार करें यही नही़ उसे निखारें भी, यही नही अगर आप इमानदारी, आदर, वफादारी, खुशी, सत्य तथा सुरक्षा के साथ किसी के साथ रिश्ता निभाते हो ऐसा रिश्ता कभी टूट नहीं सकता व वो एक स्बर्ग का प्रतीक लगता है। यह बात सच है, "एक मिन्ट लगता है, रिश्तों को मजाक में उड़ाने में, और सारी उम्र बीत जाती है, एक रिश्ते को बनाने में"। कहने का भाव यह है कि, रिश्ते हमारे जीवन की वो फसलें हैं, जिन्हें जिस तरीके से सींचा जाता है वो उसी के अनुसार फसल देती हैं, इसलिए इन्हें ब्यर्थ न गवांए, सच है," दुश्मनी लाख सही, खत्म न कीजे रिश्ता दिल मिले न मिले हाथ मिलाते रहीए"। कहने का मतलब यह है कि यह एक पाबित्र बंधन है इसे हर हालत मे़ं पाबित्र ही रहनें दें, वेहतर है एक दुसरे की भावनाओं, चाहत और अधिकारों का उचित तरीके से सम्मान करें जिससे दोनों तरफ से रिश्ते मजबुत रहें क्योंकी विश्वास औरआदर रिश्ते को कायम रखता है, कहावत है,"हर रिश्ते में विश्वास रहने दो, जुबान पर हर वक्त मिठास रहने दो, यही तो अन्दाज है, जिन्दगी जीने का, न खुद रहो उदास, न दुसरों को रहने दो" आखिरकार यही कहुंगा, रिश्ते अनमोल रत्न हैं इन्हें ब्यर्थ झगड़ों  में मत खत्म करें, इन्हें महाभारत मत बनने दें किन्तु इन्हें राम बन कर रामायाण  वनाएं  हो सके तो राम जैसी सहन शक्ति  रखें ताकी यह युगों युगों तक कायम रहें।

 

रिश्तों की पूंजी को चिरस्थायी तक बनायें रखना, विशिष्ट महत्व हैं। रिश्ते परिवारजनों, दोस्तों, सामाजिक, राजनैतिक, धार्मिक, समसामयिक और रचनात्मकों  में वृहद स्तर पर देखे जा सकते हैं।  एक बार रिश्तों में बिखराव, गलत शंकाऐं  हो गयी, तो जीवन्त में मध्यस्थता होने में वास्तविक रुप में काफी परेशानियों का सामना करना पड़ता हैं। हमनें 3 घंटे की फिल्म में रिश्तों की झलकियां वास्तविक तथ्यों के परिदृश्यों में देखी हैं, वहीं परिपक्वता जीवित अवस्था में भी 90 प्रतिशत तरह-तरह की घटनाएं घटित हो ही जाती हैं। वहीं 10 प्रतिशत जनों ने संस्कारी रिश्तों को सहन, बनायें रख कर लिया, तो वह अजेय अमर हो गया? आने वाली पीढ़ियों को रिश्तों की मर्यादाओं का पालन करते हुए अपने लक्ष्य की ओर अग्रसर होना चाहिए।

 

रिश्तो में मतभेद होना स्वाभाविक है जैसे किसी भवन में छोटी मोटी दरारे तो पड़ ही जाती हैं  लेकिन हम उस भवन को छोड़ नहीं देते बल्कि उसे ठीक कर देते हैं| जीवन को सफल बनाने के लिए रिश्तो को मजबूत करना बहुत जरूरी है |कुछ लोग ऐसे हैं जो रिश्तो की कीमत  नहीं समझ पाते |लेकिन अगर सच कहा जाए तो हमारे रिश्ते हमारी ताकत है | साथ ही यह आवश्यक है कि हमारे रिश्तो का आधार केवल प्रेम  हो |क्योंकि प्रेम है तो सब कुछ है | प्रेम है तो हम दूसरे की बात को सहन भी कर सकते हैं |लेकिन अगर प्रेम नहीं है तो हमें कोई  बात अगर कड़वी लगती है तो हम उसे अपने भीतर दबा लेते हैं और कुछ नहीं कहते |इससे रिश्ते का सौंदर्य नष्ट हो जाता है |प्रेम एक झरने की तरह है  जिससे सहनशीलता व  त्याग आदि भावनाएं सहजता से बहती हैं|कहने का अभिप्राय यह है कि  फिर  किसी रिश्ते को बचाने के लिए प्रयास नहीं करना पड़ता | लेकिन कुछ लोग ऐसे होते हैं जो हमारी भावनाओं को नहीं समझ पाते | इसके लिए सारा दायित्व खुद पर आ जाता है |हम चाहे तो उनकी खुशी के लिए अपने रिश्ते को बचा सकते हैं |लेकिन यहां स्मरण रखने योग्य बात यह है कि कोई व्यक्ति अगर हमारी भावनाओं को बिल्कुल नहीं समझता तो उस रिश्ते को बचाना भी व्यर्थ है |साथ ही यह बात भी समझनी  भी आवश्यक  है कि रिश्ते को बनाने में वर्षों लग जाते हैं और तोड़ने में कुछ पल | अगर कभी ऐसी स्थिति बनती है कि हमें लगे कि अब रिश्ता समाप्त हो सकता है तो हमें संभल जाना चाहिए  और ऐसे समय को बीत जाने देना चाहिए| इसलिए मेरे विचार में रिश्तो का आधार  केवल प्रेम है | जिस रिश्ते में प्रेम है वह रिश्ता कभी नहीं टूटता | ना ही कुछ सहने की आवश्यकता पड़ती है | लेकिन अगर कभी  भटकाव होता भी है तो हमें  रिश्ते को अवश्य बचाना चाहिए | सहनशीलता प्रेम व त्याग  किसी भी रिश्ते का अनिवार्य गुण है |

 

रिश्तों की अहमियत बेहद होती है।रिश्ता निभाने के लिए बहुत कुछ सहना पड़ता है।जिस रिश्ते मे सच्चाई होती वह मौन अवस्था को भी समझ लेता है।एक रिश्ता बन तो जाता है आसानी से पर निभाया नही जाता और बीच मे ही दम तोड़ देती है।रिश्तों की डोर विश्वास की बंधन से बाँधें जाते है।जीवन की कसौटियों पर खडा उतरने के लिए सहनशीलता होना अति आवश्यक होता है।रिश्तों मे अगर दरार पैदा हो तो फिर नफरतों के बीज अंकुरित होने लगते हैं।और तकलीफों के लिफाफे मे दर्दनाक पहलुओं का समावेश होता होता है।इसलिए रिश्तों की छोर को प्रेम त्याग ,एहसास से बाँध कर रखना चाहिए।रिश्ता बेहद ही नाजुक हालत से गुजरे पर सहनशीलता की गाँठों को विश्वास से बाँध कर जीवनशैली के अनुभवों को जीना चाहिए।तभी इंसान को सफलता प्राप्त होती है।आसूं दुख सुख  रिश्तों की एक पड़ाव है जिन्हें मुस्कुरा कर पार करना ही जीवन की कला है।अगर रिश्तों मे सहने की शक्ति नही तो रिश्ता कायम नही रहता और जल्द ही टुटने लगता है।जिससे मानसिक तनाव उत्पन्न होने लगती है।जिंदगी बेहद खूबसूरत है और रिश्ते फूलों की भातिं खूशबूदार होते है।अगर थोडा़ सहने और संयम से बचाया और निभाया जायेगा तो ताउम्र कभी रिश्तों मे तकलीफ़ नही होगी।बनाये रखने मे उतार चढा़व के परिस्थितियों का सामना करना पडता है।पंरतु वहीं रिश्ते निभते है जो बेहद दर्द सहकर भी वादों को निभाते है।रिश्तों को निभाने के लिए बेहद कुछ सहन करना एक प्रेम का प्रतीक है।

 

अवश्य, रिश्तों को बनाये रखने के लिए बहुत कुछ सहन करना पड़ता है। कभी किसी का गलत व्यवहार तो कभी किसी की गलत मांग इत्यादि को सहन करना पड़ता है। खासकर पति-पत्नी के रिश्ते में तो बहुत कुछ सहन करना पड़ता है।एक बार एक व्यक्ति एक संत से पूछा महात्मन परिवार कैसे चलता है। रिश्ते कैसे निभाये जाते हैं। तो संत ने कहा मेरे घर पर कभी आना बता दूंगा। एक दिन वो व्यक्ति संत के घर गया तो संत ने अपनी पत्नी से कहा -" एक लालटेन जला कर लाओ।" संत की पत्नी लालटेन जला कर लाई। संत ने फिर कहा-" मेहमान आये हैं कुछ खाने को लाओ।" पत्नी केवल एक ग्लास पानी और एक गुड़ का टुकड़ा लेकर आई। वो व्यक्ति कुछ बोला नहीं चला गया। संत दूसरे दिन आश्रम में आने को कहा। उसने पूछा-"महात्मन मैं कल की घटना समझ नहीं पाया। दिन में लालटेन जलाने का क्या मकसद था।" संत बोले-" इसे ही रिश्ता निभाना कहते हैं। पत्नी मुझसे प्रश्न कर सकती थी कि दिन में लालटेन क्यों ? लेकिन वह प्रश्न नहीं कि की हो सकता है दिन में लालटेन जलाना संत का कोई मकसद हो इसलिए उसने बिना प्रश्न किये अपना कार्य पूरा की।" "ठीक उसी तरह मैंने उससे कुछ खाने के लिए लाने को कहा तो वो केवल पानी देकर चली गई। तो मैं समझ गया उस वक़्त घर में कुछ खाने को नहीं था। वहाँ यदि मैं कहता कि तुमसे खाने को मंगा गया और तुम केवल पानी देकर चली गई, तो मेरी गलती होती।" अब वो व्यक्ति संत के चरणों में था । वह समझ गया था कि रिश्तों को निभाने में बहुत कुछ सहन करना पड़ता है। अगर कोई रिश्तेदार आपसे कुछ पैसा लिया है वो नहीं दे रहा है। मांगने पर रिश्ते में दरार आ सकती है तो चुपचाप सहन करना पड़ता है। किसी बात को लेकर कोई मनमुटाव न हो ये भी सहन करना पड़ता है।खानपान कपड़ा लत्ता इत्यादि के बारे में भी सहन करना पड़ता है। बोली बात-विचार ,उसकी कोई कार्य पद्धति अच्छा नहीं लगता फिर भी सहन करना पड़ता है। तो इस तरह हम देखते हैं कि रिश्तों को निभाने में बहुत कुछ सहन करना पड़ता है।

 

रिश्तों को बनाये रखने के लिए बहुत कुछ सहन करना पड़ता है ....ये कथन पूर्णतया सत्य है . मेरा मानना है की रिश्ता बनताहै दो मनुष्यों के मध्य व मैं दावे से कह सकती हूँ की कोई भी मनुष्य पूर्णतः सही नहीं होता .सभी अच्छाइयों के बावजूद कोई न कोई कमी ज़रूर होती है रिश्ता बनाये रखने के लिए एक दूसरे की कमी को नज़र अंदाज़ करना पड़ता है या दूसरे शब्दों मैं सहन करना पड़ता है इंसान गलतियों का पुतला है व यदि हम किसी रिश्ते को कायम रखना चाहते हैं तो हमें एकदूसरे को सहन करना सीखना होगा जहां सहनशीलता समाप्त हो जाती है वहां रिश्ता भी समाप्त हो जाता है

 

रिश्तों की नींव मानव जीवन का आधार होती है। रिश्ते हमारे सुख-दुख के साथी तो होते ही है, हमारे मनोबल और आत्मविश्वास को बनाये रखने में भी सहायक होते हैं। निश्चित रूप से रिश्तों के स्थायित्व के लिए समयानुसार बहुत कुछ सहन करना भी बुद्धिमानी हो सकती है। परन्तु इस 'बहुत कुछ' में यह भी ध्यान रखना चाहिए कि....."कोशिश हो कि हर रिश्ता दूर तक निभाया जाये, रिश्तों की मजबूती में हरसंभव कदम उठाया जाये। पर बात जब आ जाये आत्म-सम्मान की, बेहतर है तब ऐसे रिश्तों से किनारा कर लिया जाये।।" इसमें कोई दो राय नहीं कि रिश्तों को बनाये रखने के लिए मनुष्य को हरसंभव प्रयास करने चाहिए परन्तु कई बार रिश्ते मनुष्य को ऐसे मोड़ पर ला खड़ा करते हैं जब रिश्तों को बनाये रखने में झुकने की सीमा स्वयं की गरिमा को ही प्रभावित करने लगती है। इसलिए मनुष्य को कभी भी अपने आत्मसम्मान के साथ समझौता करके रिश्तों में सहनशीलता नहीं दिखानी चाहिए। इसलिए कहता हूं कि......"क्षमा, स्नेह, विनम्रता, पोषक हैं रिश्तों को जिंदा रखने के, स्वार्थ, कृतघ्नता कारक हैं रिश्तों को शर्मिन्दा करने के। रिश्तों की सीमाओं में सम्मान बचाये रखना आसान नहीं सम्मान हो रिश्तों का, पर कायदे हैं स्वयं के झुकने के।।"

 

यह बात बिल्कुल सही है कि रिशतों को बनाए रखने के लिए बहुत कुछ सहन करना पडता है। कुछ रिश्तों से हमारा संबंध भावनात्मक होता है, कुछ से खून से जुड़ा होता है। कोई भी रिश्ता हो,जिंदगी जीने की राह बतलाता है। रिश्ते सब से बड़ी पूंजी होते हैं। जैसे पूंजी बचाने के लिए हम कई कुछ दांव पर लगा देते हैं उसी प्रकार रिशतों को बचाने के लिए हमें बहुत कुछ सहन करना पडता है। कई बार अपना मन और इच्छाओं को मारना पड़ता है।दोषी ना होते हुए भी  कटघरे में खड़ा होना पड़ता है। रिश्तों को बनाए रखने के लिए सहनशीलता और विश्वास का होना बहुत जरूरी है। अगर घर में बड़े बूढ़े कुछ कहते हैं तो हमें यह विश्वास होना चाहिए कि वह हमारी भलाई चाहते है और कभी भी अनिष्ट नहीं होने देंगे। फिर हम उनके कटुवचन भी बर्दाश्त कर लें गे।रिश्तों को बनाए रखने के लिए रिशतों में प्यार, अहसास, अपनापन,दुख-सुख में साथ और रिशतों की समझ होना बहुत जरूरी है। रिश्ते तो बंद मुट्ठी में रेत की भांति होते हैं। जैसे मुट्ठी खुलते ही रेत गिरने लगेगी , वैसे ही रिशतों पर पकड़ ढीले होते ही रिशते बिखरने लगते हैं। बंद मुट्ठी रखने भाव रिशतों को बचाने के लिए हमें बहुत कुछ सहन करना पड़ता है।

     

यह जिंदगी के रिश्ते हर पल परीक्षा लेती है। धैर्य और विश्वास के साथ आगे निभाना पड़ता है।अगर रिश्ते में नफरत है उसे उसी अंदाज़ मे  जवाब देंगे तो आपका अपने ही आशियाना जलेंगे। इसलिए नफरत के बदले में भी आप सिर्फ प्यार बाटोगे तब क्या पता किसके दिल में कब घर कर जाए। जीवन में हर कोई किसी न किसी रिश्ते पर निर्भर है,क्योंकि रिश्ते ही जीवन की बुनियाद होते हैं। समाज भी रिश्तो पर ही टिका हुआ है। अगर आप नए रिश्ते बनाते हैं तो  झूठ से शुरू नहीं करें, नए रिश्ते हमेशा सच के धरातल पर करनी चाहिए। नए दोस्त से रिश्ता आगे बढ़ाने के लिए पहले उसे अच्छी तरह परख लें। रिश्तो को बनाए रखने के लिए संवाद महत्वपूर्ण है। पति पत्नी का रिश्ता एक आपसी समझौता है ।इस रिश्ते में प्रतिदिन के विचारों का आदान -प्रदान होनी चाहिए।आपस में संवाद जारी रखना बहुत ही आवश्यक है ।जिससे  जिंदगी साथ में बिताना आसान हो जाता है। पति पत्नी का रिश्ता एक कांच जैसा है। वैसे तो परिवार मैं सभी रिश्तो को निभाने की कोशिश करते हुए दुनियादारी निभाते हैं। पति पत्नी का रिश्ता में, अपने पति के परिवार को सम्मान देते हुए साथ गुजारना चाहिए साथ ही साथ पति भी अपने पत्नी के परिवार को उसी दृष्टि से देखें। इस तरह का विचार रखने पर दोनों परिवार में दोनों  सम्मानित किए जाते हैं। लेखक का विचार:-मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। रिश्ते सामाजिक संबंधों का आधार है। रिश्तो में कड़वाहट मनुष्य में मानसिक अशांति पैदा करता है। इसलिए सहनशक्ति एवं उदार बने रहना चाहिए। जीवन में हर कोई किसी न किसी रिश्ते पर निर्भर है क्योंकि रिश्ते ही जीवन का बुनियाद होते हैं।

 

रिश्तों के कई नाम हैं माँ, पिता, भाई,  बहिन, सास, ससुर, देवर आदि l लेकिन इन सब रिश्तों को निभाना हर किसी के बस की बात नहीं, इन्हें निभाने के लिए कभी समझदारी से तो कभी समझौता करना पड़ता है अर्थात काफी कुछ सहना पड़ता है l रिश्तों को बनाये रखने के लिए दोनों तरफ से समझना पड़ता है l जीवन के हर रिश्ते की अपनी एक पहिचान होती है l और हर रिश्ता खास होता है यह बात हम सब को समझनी होगी l रिश्ता तो वह बंधन है जो हमें एक दूसरे से जुदा होने से रोकता है l रिश्ता सिर्फ वो नहीं जो ग़म या ख़ुशी में साथ दे रिश्ता तो वो है जो अपनेपन का अहसास दे हमारे रिश्ते मानव जीवन में हमारी ताकत होते हैं l प्रेम व धागे में ही रिश्ते पिरोइये और त्याग से उसे प्रगाढ़ता देना हमारा लक्ष्य होना चाहिए लेकिन वर्तमान समय में हमारी संकीर्ण मनोवृति के कारण सब कुछ सहना पड़ता है l रिश्तों को बनाये रखने के लिए रिश्ते बनाये रखना उतना ही कठिन है जैसे बहते हुए पानी पर पानी से पानी लिखना l अनजाने में कोई भूल हो गई है तो माफ करने की कोशिश करते हुए रिश्ते को आगे बढ़ाने का मौका देना चाहिए l अपने सब्र का दामन कभी न छोड़े चाहें शिकायत का मुद्दा आपकी सोच से विपरीत क्यों न हो l सुई की नोंक पर टिके है आजकल सारे रिश्ते जरा सी चूक हुई  नहीं कि चुभकर लहूलुहान कर देती है l रिश्तों की उम्र आज हरे, काले, पीले और परसों सूखे जैसी हो गई है l

 

रिश्ते बनाना बहुत आसान है, मगर उन्हें निभाने के लिए आपको पल पल  सामंजस्य स्थापित करना पड़ता है। कोई भी रिश्ता तभी तक टिक पाता है अगर आप उसमें पूरे मनोयोग से निभाने का संकल्प लेते हैं।रिश्तो की कसौटी पर अगर खरा उतरना है तो आपको तालमेल तो बिठाना ही पड़ेगा। हर रिश्ता एक मांग रखता है ।दुनिया का कोई भी रिश्ता निभाने के लिए सामंजस्य तो बिठाना ही पड़ता है चाहे वह माता-पिता से रिश्ता हो या फिर पति-पत्नी, बहन भाई या दोस्ती का।  हर रिश्ते की अपनी एक मर्यादा होती है और उस रिश्ते को निभाने के लिए बहुत कुछ सहन करना पड़ता है। रिश्ते निभाने के लिए देना पड़ता है। लेने का नाम रिश्ता नहीं होता। वह चाहे आप का वक्त हो पैसा हो या फिर भावनात्मक स्तर पर,  रिश्ता निभाने के लिए आपको हर स्तर पर अपने आप को अनुकूल बनाना पड़ता है। तभी एक सच्चा और अच्छा परिपक्व रिश्ता बनता  है। यह जरूरी नहीं कि औरत या लड़की को ही सामंजस्य स्थापित करना होता है या फिर शादीशुदा मर्द अपनी गृहस्थी निभाने के लिए, रिश्ते निभाने के लिए तालमेल बिठाता है। परंतु ऑफिस हो, घर हो, समाज हो कहीं पर भी कोई भी रिश्ता हो उसके लिए आपको उसका मोल देना पड़ता है । इसका अर्थ पैसा नहीं भावनात्मक स्तर पर भी आपका सहयोग होता है यह सहयोग आपका कर्तव्य बन जाता है। कई बार इस कर्तव्य को निभाने के लिए हमें अपने रिश्तो की बुनियाद को मजबूत करते हुए बहुत कुछ सहना पड़ता है। यह सब इस बात पर निर्भर करता है कि आप अपने बच्चों को किस परिवेश से बड़ा करते हैं, उन्हें कैसी शिक्षा हैं, उन्हें कैसे संस्कार देते हैं। सामंजस्य से या तालमेल बिठाना या सहन करना कोई शोषण नहीं होता वह तो रिश्तो की प्रगाढ़ता को बनाता है तभी तो कहा गया है...... कभी खुशियों की धूप, कभी  गम की छांव,... कभी जीत की खुशी कभी हार की निराशा.... बस इतनी सी है रिश्तो की परिभाषा।।                  

 

 

जीवन में रिश्ते कायम रखने के लिए बहुत कुछ सहन करना पड़ता है यह हकीकत है। हमारे जीवन में कई तरह के रिश्ते होते हैं। मित्रों के साथ परिवार के साथ सामाजिक एवं अन्य। रिश्तो में यदि सच्चाई बनी रहे और एक दूसरे पर विश्वास हो तभी रिश्ते सुचारू रूप से चल पाते हैं जैसे कि पति पत्नी के। दो अलग परिवारों से आए हुए व्यक्तियों में अलग तरह की सोच, रुझान व आदतें होती है। अगर दोनों ने एक दूसरे को समझ कर समर्पित भाव से अपनी आदतों एवं व्यवहार में परिवर्तन कर सहयोगी भावना अपना ली तो जीवन सुखमय हो जाता है वरना किट किट लगी रहती है और जीवन दुखमय हो जाता है। वहीं यदि सहनशीलता से काम लिया तो जीवन आसानी से कट जाता है।

 

 

रिश्तों से जूझते परिवार


आख़िर हम लोगों से कतराने क्यों लगे हैं? हम रिश्तों से छूटकर भागना क्यों चाहते हैं? क्या इस तरह अकेले रहकर हमारे परिवार टिक पाएंगे? क्या आज हमारे परिवारों को सबसे बड़ा ख़तरा हमारे रिश्तों (Families dealing with relationships) से ही नहीं है? क्या हमारे परिवार अपने अस्तित्व के लिए रिश्तों से ही जूझ रहे हैं? आइए, इन तमाम सवालों के जवाब ढू़ंढते हैं.

 

कभी आपके साथ ऐसा हुआ है कि आप छुट्टी के दिन आराम के मूड में हैं और अचानक किसी रिश्तेदार का फोन आता है कि वह आपके घर आ रहे हैं. वह रिश्तेदार आपके बहुत क़रीबी हैं, पर फिर भी आपका मूड ख़राब हो जाता है. यदि आप स्त्री हैं, तो आप सोचती हैं कि उ़फ्! फिर से रसोई में जाना पड़ेगा और अगर आप पुरुष हैं, तो आप सोचते हैं कि छुट्टीवाले दिन आराम से सो भी नहीं सकता. यह बदलाव बिना किसी वजह से नहीं है. यह बदलाव काफ़ी समय से समाज में धीरे-धीरे आता जा रहा है. पहले रिश्ते परिवारों की वजह से जुड़ते थे, पर अब रिश्तों की वजह से परिवार ही टूटने लगे हैं.

आईटी कंपनी में काम करनेवाली संगीता बताती हैं, “मैं अपने सभी रिश्तेदारों को पसंद करती हूं और मैं परिवार में भी विश्वाीस रखती हूं, पर हां यह ज़रूर है कि अगर कोई वीकेंड में घर आता है, तो मेरे लिए मैनेज करना मुश्किल हो जाता है. मुझे ऐसा लगता है कि अगर किसी के घर जाने से पहले एक बार उससे फोन पर बात कर ली जाए, तो बेहतर होता है. इसमें कुछ ग़लत नहीं है.चाहे हम अपनी ये शिकायतें ज़ाहिर ना करें, पर अधिकतर लोगों के मन में यह बात होती ज़रूर है और शायद यही छोटी-छोटी शिकायतें रिश्तों को परिवार से दूर ले

जाती हैं.

 

रिश्तों में हो रही है खींच-तान

हमारी सामाजिक, आर्थिक और पारिवारिक संरचना में आए बदलाव इसके लिए काफ़ी हद तक ज़िम्मेदार हैं. परिवार के एक छोर पर वे लोग खड़े हैं, जो परिवार को पुरानी व्यवस्था से चलाना चाहते हैं और दूसरी ओर वे लोग खड़े हैं, जो अपनी व्यस्त जीवनशैली की वजह से परिवार में आधुनिक बदलाव करना चाहते हैं. यहां पर हम उन रिश्तों की बात कर रहे हैं, जिनसे परिवार बनता है, जैसे- सास-ससुर, देवर-देवरानी या जेठ-जेठानी. इस तरह की खींच-तान से ही हमारे संयुक्त परिवार एकल परिवारों में तब्दील हो गए हैं. आइए, उन सभी कारणों को जानने की कोशिश करते हैं, जिनसे रिश्तों से हम जूझ रहे हैं.

 

व्यस्तताः यह कारण तो आपने कई बार सुना होगा कि समय की कमी के कारण हम रिश्तों को उतना समय नहीं दे पाते, जितना शायद हमें देना चाहिए. लेकिन इससे कभी-कभी होता यह है कि हमारे परिवारजन उपेक्षित महसूस करते हैं. आजकल पति-पत्नी दोनों ही कामकाजी होते हैं और अगर नहीं भी हैं, तो पत्नी का सारा समय बच्चे, पति और घर की देखभाल में निकल जाता है. वीक डेज़ में तो ये किसी रिश्ते को तो छोड़िए, एक-दूसरे को भी समय नहीं दे पाते. फिर शनिवार व रविवार या स़िर्फ रविवार के छुट्टीवाले दिन हमें या तो अपने निजी काम करने होते हैं या फिर हम अपनी छुट्टी को अपने हिसाब से बिताना चाहते हैं.

 

स्वतंत्रताः शिक्षा की वजह से या आर्थिक आत्मनिर्भरता की वजह से, पर आज हम सभी स्वतंत्रता चाहते हैं. यह स्वतंत्रता बोलने की, ज़िंदगी जीने की, उन्मुक्त रहने की है. हम चाहते हैं कि हम से कोई सवाल ना करे. हम अपने ़फैसले ख़ुद लें. यदि संक्षिप्त में कहा जाए, तो हम किसी भी तरह का हस्तक्षेप नहीं चाहते.

 

आर्थिक बोझः हम सभी जानते हैं कि आजकल महंगाई कितनी बढ़ गई है. ऐसे में हममें से कई लोग अपने परिवार में कम से कम लोग चाहते हैं, जिससे उनकी आर्थिक ज़िम्मेदारी कम रहे. यह बोझ कभी-कभी रिश्तों के बीच तनाव भी उत्पन्न करता है. अक्सर परिवार में इस बात के लिए मन-मुटाव होते देखा गया है कि आर्थिक ज़िम्मेदारी कौन व कितनी उठाएगा. यदि आप अलग भी रहते हैं, तो भी परिवार तो एक ही रहता है, तो अक्सर माता-पिता के ख़र्चे, किसी पारिवारिक समारोह की ज़िम्मेदारी आदि को लेकर रिश्ते उलझ पड़ते हैं.

 

करियर से बढ़ी दूरियांः पुरानी पारिवारिक व्यवस्था के अनुसार कभी कोई कमाने के लिए या अपने करियर के लिए अपना घर या परिवार नहीं छोड़ता था. लेकिन आज बहुत एक्सपोज़र है. आज हर कोई अपना करियर बनाना चाहता है. इसलिए या तो पढ़ने के लिए या फिर नौकरी के बेहतर विकल्पों के लिए लोग अपने घर-परिवार के बाहर क़दम रखते हैं. और फिर परिवार से दूरी बढ़ती ही जाती है.

 

 

प्राइवसीः यह एक नया जुमला हमारे आधुनिक समाज में प्रचलित हुआ है. हर किसी को अपने निजी जीवन को सबसे छिपा के रखना है. पर अपनी प्राइवसी को संभालने के प्रयत्नों में हम अक्सर अपने रिश्तों को सूली पर चढ़ा देते हैं. अपने जीवन में किसी की भी भागीदारी को हम दख़लअंदाज़ी समझते हैं. हम अपने जीवन को सेल्फी स्टिक पर ही निर्भर करना चाहते हैं. कहने का तात्पर्य यह है कि ख़ुद के अलावा हम किसी और पर निर्भर नहीं रहना चाहते.

 

स्वास्थ्यः यह बहुत ही महत्वपूर्ण कारण है. हम हमेशा कहते हैं कि स्वस्थ शरीर में स्वस्थ मन का निवास होता है और जब हमारा मन अच्छा होगा, तब हम अपने आसपास के लोगों को ख़ुश रख पाएंगे. लेकिन हम आजकल की दिनचर्या को जानते हैं. हममें से ज़्यादातर लोग किसी न किसी बीमारी से जूझ रहे हैं. ऐसे में जो काम या ज़िम्मेदारियां हमारी शारीरिक शक्ति के परे होती हैं, उनसे हम कतराते हैं.

रेड एफएम, पूना की आरजे सोनिया बताती हैं, “यह चिंता का विषय है. हम रिश्तों और परिवारों से दूर भाग रहे हैं, क्योंकि हम में धैर्य की कमी आई है. हम हमेशा असुरक्षा से ग्रस्त हैं. रिश्तों व लोगों को लेकर जजमेंटल होते जा रहे हैं. परिस्थिति के अनुसार ख़ुद को ढालते नहीं हैं. धीरे-धीरे हमें एकांत अच्छा लगने लगता है. आधुनिक बनने के नाम पर हम अपने परिवार व रिश्तों को ही छोड़ने लगे हैं. मैं यूएस गई थी, तब मैंने देखा कि वहां के लोग हमें हमारे कल्चर से पहचानते हैं. वे लोग हमारे पारिवारिक व सामाजिक व्यवस्था का आदर करते हैं, तो हमें यह सोचना होगा कि क्या हम अपनी पहचान को ही छोड़ना चाहते हैं. हम अपने परिवारों से दूर होकर ख़ुुश नहीं रह सकते. मेरे हिसाब से परिवार तो रोज़ मनाए जानेवाले उत्सव का नाम है. इस उत्सव में ख़ुशी-हंसी है, तो मतभेद और नोक-झोंक भी है, पर हर इमोशन का अपना अलग मज़ा है.


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