लाखों
लोगों को मारकर क्या किसी जमीन के टुकड़े पर राज करना, बुद्धि का सौदा माना जायेगा? लेकिन इस दुनिया में ऐसा कई बार हुआ है और शायद आगे भी होगा. अभी तक
जो विश्व में जो लड़ाइयां लड़ी गयी हैं उनमें से आधे से अधिक तो धर्म और विचारधारा
के कारण हुई हैं. असल में इंसान की तासीर शुरू से ही हिंसक रही है. किसी की चीज जो
हथिया लेना और उस पर कब्जा कर लेना ऐसा इंसान शुरू से करता आ रहा है.
मानव
समाज युद्ध करते हुए अब इस मोड़ पर आकर खड़ा हो गए है कि यदि अब इससे आगे जाता है
तो निश्चित ही उसका अस्तित्व मिटने वाला है। निश्चि ही युद्ध से जीवन का विकास हुआ
है लेकिन अब यही युद्ध जीवन का नाश करने वाला सिद्ध हो रहा है। परमाणु बमों के ढेर
पर बैठा मानव खुद के ही नहीं इस धरती के वजूद को भी मिटाने के लिए तैयार है। यदि
आप धर्म के नाम पर प्रत्यक्ष या प्रत्यक्ष रूप से यह लड़ाई जारी रखते हैं तो आप
सभी को सामूहिक रूप से मरने के लिए तैयार रहना चाहिए। आप इसके लिए बौद्धिक लोगों
की जमात की तरह इसे सांस्कृतिक युद्ध या बाजारवाद के लिए युद्ध कह सकते हैं। इसे
आप पूंजीवाद और साम्यवाद की लड़ाई भी कह सकते हैं, लेकिन मूल में मजहब ही है। प्राचीनकाल से ही कहते आए हैं कि जर, जोरू और जमीन के लिए ही युद्ध होते आए
हैं, और जब धर्म या संप्रदाय के लिए युद्ध
होते हैं तो उसमें भी उक्त तीनों की ही लूट की जाती है। विद्वानों अनुसार
धर्मयुद्ध, क्रूसेड और जिहाद, इन तीनों तरह के शब्दों के अलग-अलग
अर्थ निकाले जाते हैं। वर्तमान में इस तरह के शब्दों के मायने बदल गए हैं। अब इसे
अंग्रेजी में 'होली वार' कहा जाता है अर्थात पवित्र युद्ध। क्या
युद्ध भी पवित्र हो सकता है? सवाल
यह उठता है कि क्या सचमुच ही अपने समाज, संम्प्रदाय
और कथित धर्म के लिए लड़े जाने वाले युद्ध को धर्मयुद्ध कहें? वर्तमान में तथाकथित धर्म के नाम पर
निर्दोष लोगों का खून बहाया जा रहा है। दुनियाभर में धर्म की आड़ लेकर मासूमों की
हत्या करने से लोग नहीं चूक रहे हैं। अपने धर्म का विस्तार करने या भूमि को हड़पने
के लिए दुनियाभर में कथित धार्मिक योद्धा सक्रिय हैं। यह संपूर्ण धरती पर अपने ही
धर्म का परचम लहराना चाहते हैं। जरूरी नहीं है कि यह सभी आतंकवादी ही हों। यह समाज
के हर तबके में रह रूप में सक्रिय रहकर कार्य करते हैं। इनका मकसद दंगा, फसाद, युद्ध, बलवा, अपहरण, तस्करी, दान, प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष सहयोग आदि सभी
तरह के कार्यों के माध्यम से धर्म का विस्तार करना होता है, लेकिन इससे सभी की नस्लें बर्बाद ही
होगी।
धर्म
के लिए युद्ध को धर्मयुद्ध कहा जाता है। अब समझने वाली बात यह है कि धर्म क्या है? बस, यही
समझने वाली बात है। हिन्दू,
मुसलमान, सिख, बौद्ध या ईसाई कोई धर्म नहीं है बल्कि
ये सम्प्रदाय या संगठन है।
कट्टरपंथी मनुष्य किसी भी
धर्मं का हो वास्तव में वह धर्म से कोसों दूर होता है. हिन्दू, इस्लाम, सिख, इसाई या पारसी कोई भी धर्म
नही है यह तो मात्र विचार धाराओं और मतों के नाम है या भाषाई अनुवाद है. हम सभी इस
धरती पर स्त्री के गर्भ से मनुष्य के रूप में पैदा होतें हैं. हम में से कोई भी
किसी भी धर्म में पैदा नही हुआ. हमें हिन्दू, मुस्लिम, इसाई या कुछ और तो हमारे माता पिता, और हमारी पंथ प्रधान शिक्षा व्यवस्था का वातावरण बनाता है, और फिर हम हिन्दू मुस्लिम
बनकर धर्म का चोला पहन कर स्वय को श्रेष्ठ दिखाने की कोसिस मात्र कर रहे हैं. और
अपने भीतर खुद ही खुद को श्रेष्ठ समझ कर प्रसन्न है. वास्तव में “धर्म” सिर्फ विचारों या मतों का
नाम है ठीक उसी प्रकार आप ये बात महसूस करते हैं की प्रत्येक धार्मिक पुस्तक में
लगभग समान विचार लिखे हैं. सभी धार्मिक पुस्तकें सत्यनिष्ठा और नैतिकता का पाठ
पढ़ाती हैं. कोई भी धार्मिक पुस्तक असत्य के मार्ग का चुनाव करना नही सिखाती.
No comments:
Post a Comment