भौतिक विकास के
साथ मानसिक विकास भी जरूरी
चारों
तरफ विकास का इस तरह शोर मचा हुआ है की यह पता ही नहीं लग रहा कि उसका वास्तविक रूप
क्या है? क्या भौतिक साधनों के प्रचुर मात्रा में उपलब्धता को ही विकास
माना जाय या भी देखना चाहिये कि उसका उपयोग क्या हो रहा है? इस बात
पर कोई भी स्पष्ट राय नहीं रखा पा रहा है
आध्यात्मिक
ज्ञान के बिना विकास अधूरा
देश
को विकास की ओर ले जाने की बात सभी करते है और करना चाहिऐ, पर आज तक कोई भी स्पष्ट
नहीं का सका कि उसका स्वरूप क्या? क्या भौतिक साधनों के उपलब्धि ही विकास है? क्या
आदमी के मानसिक विकास को कोई मतलब नही है?
अगर
हम विकास का अर्थ केवल भौतिक विकास से करते हैं तो वह स्वाभाविक रुप से आता ही है,
और साथ में विनाश भी होता है। जो आज है उसका स्वरूप भी बदलेगा-इसी बदलाव को हम विकास
कहते हैं और फिर एक दिन उसका विनाश भी होता है। इतने सारे भौतिक साधन होते हुए भी पूरे
विश्व में अमन चैन नहीं है। एक तरफ सरकारें विकास का ढिंढोरा पीटती हैं दूसरी तरफ आतंकवादी
उन्हीं साधनों का इस्तेमाल गलत उद्देश्यों के लिए करते है उनके पास धन और अन्य साधन
प्रचुर मात्रा में उपलब्ध हैं और जैसे जैसे संचार के क्षेत्र में नये नए साधन आ रहे
आम आदमी के पास इस्तेमाल के लिए बाद में पहुंचते है आतंकवादी उसे शुरू कर चुके होते
हैं। इसका सीधा आशय यही है उनके पास धन और साधनों की उपलब्धता है पर विचार शक्ति नहीं
है। यह विचार शक्ति तभी आदमी में आती है जब वह अपने अध्यात्म को पहचानता है। आजकल आदमी को भौतिक शिक्षा तो दीं जाती है पर अध्यात्म
का ज्ञान नहीं दिया जाता और वह दूसरों के लिए उपयोग की वस्तु बनकर रह जाता है।
हमारा
देश विश्व में अध्यात्म गुरू की छबि रखता है और यहां के अध्यात्म आदमी में सर्वांगीण
विकास कि प्रवृति उत्पन्न करता है। हमारे महर्षियों और संतों ने अपनी तपस्या और तेज
से यहाँ ऐसे बीज बो दिए हैं जो आज तक हमारे देश की छबि उज्जवल है पर अपने धर्म ग्रंथो
को असांसारिक और भक्ति से ओतप्रोत मानकर उन्हें नियमित शिक्षा से दूर कर दिया गया है,
यही कारण है हमारे देश के प्रतिभाशाली लोग भौतिक शिक्षा ग्रहण कर विदेश में तो ख़ूब
नाम कमा रहे हैं पर देश को उसका लाभ नहीं मिल पाया वजह हर जगह अज्ञान का बोलबाला है।
वह विदेशों में नाम कमा रहे हैं और यहाँ हम खुश होते हैं पर कभी यह सोचा है कि हमारे
देश में रहकर वह लोग कम क्यों नहीं कर पाये?
केवल
भौतिक शिक्षा से सुख-समृद्धि तो आ सकती है पर शांति का केवल एक ही जरिया है और वह है
अध्यात्म का विकास। इसका आशय यह है कि आदमी समय के अनुसार बड़ा होता है और अपने प्रयासों
से भौतिक साधनों का निर्माण और संचय स्वाभाविक रुप से करेगा ही पर वह तब तक अध्यात्मिक
विकास नहीं कर सकते जब तक उसे कोई गुरू नहीं मिलेगा। अगर हम विश्व में फैले आतंकवाद
को देखें तो अधिकतर आतंकवादी भौतिक शिक्षा से परिपूर्ण है वह हवाई जहाज उड़ाने, कंप्युटर
चलाने और बम बनने में भी माहिर है और कुछ तो चिकित्सा और विज्ञान में ऊंची उपाधिया
प्राप्त हैं, इसके बावजूद आतंकवाद की तरफ अग्रसर हो जाते हैं उसमें उनका दोष यही होता
है कि धन और धर्म के नाम पर भ्रम में डालकर उन्हें इस रास्ते पर आने को बाध्य कर दिया
जाता है ।
इस तरह यह जाहिर होता है कि भौतिक साधनों के विकास के साथ अध्यात्म का विकास भी जरूरी है।
इस तरह यह जाहिर होता है कि भौतिक साधनों के विकास के साथ अध्यात्म का विकास भी जरूरी है।
क्या
सुखी जीवन के लिए सरलता, निष्कपटता, स्पष्टवादिता तथा ईमानदारी का होना जरूरी है? समाज
में यह धारणा भी है कि भौतिक विकास के लिए व्यक्ति को चालबाज, बेईमान, धोखेबाज होना
चाहिए।
चालबाज, तिकड़मी, बेईमान, धोखेबाज, कुटिल, कपटी, छली, प्रपंची व्यक्ति को व्यावहारिक चालाक, पटु माना जाता है। यह माना जाता है कि ऎसा व्यक्ति जीवन में आगे बढ़ जाता है, धनी हो जाता है, संपन्न हो जाता है। उसके पास सारी सुख सुविधाएं हो जाती हैं। छल और कपट को तात्कालिक स्वार्थसिद्धि के कौशल के रूप में परिभाषित किया जाता है। इसका दुष्परिणाम यह हो रहा है कि जीवन में परस्पर अविश्वास, अपवित्रता एवं कुटिलता बढ़ती जा रही है। कोई किसी पर विश्वास नहीं करता तथा उसके प्रत्येक क्रियाकलाप को संदेह की दृष्टि से देखता है। चूंकि भोगवादी विचारधारा इंद्रियों की तृप्ति में ही सुख मानती है। इस कारण कपटता को सुखी जीवन का आधार मान लिया जाता है। क्या इच्छाओं का कोई अंत है।
कामनाएं तो आकाश के समान अनंत हैं। क्या संपन्नता सुखी जीवन का आधार है? क्या यह सत्य है कि जो जितना संपन्न है, वह उतना ही सुखी है। यदि ऎसा नहीं है, तो यह विचारणीय है कि व्यक्तिगत, पारिवारिक एवं सामाजिक जीवन की वास्तविक सुख शांति का क्या आधार है? छल एवं कपट का जिस व्यक्ति के जीवन में जितना है, उसके चेतन एवं अचेतन मन की भावना का अंतर उतना अधिक होता है। ऎसे व्यक्ति की स्मरण-शक्ति, कल्पना, चित्त की एकाग्रता एवं इच्छाशक्ति दुर्बल होती जाती है।
चालबाज, तिकड़मी, बेईमान, धोखेबाज, कुटिल, कपटी, छली, प्रपंची व्यक्ति को व्यावहारिक चालाक, पटु माना जाता है। यह माना जाता है कि ऎसा व्यक्ति जीवन में आगे बढ़ जाता है, धनी हो जाता है, संपन्न हो जाता है। उसके पास सारी सुख सुविधाएं हो जाती हैं। छल और कपट को तात्कालिक स्वार्थसिद्धि के कौशल के रूप में परिभाषित किया जाता है। इसका दुष्परिणाम यह हो रहा है कि जीवन में परस्पर अविश्वास, अपवित्रता एवं कुटिलता बढ़ती जा रही है। कोई किसी पर विश्वास नहीं करता तथा उसके प्रत्येक क्रियाकलाप को संदेह की दृष्टि से देखता है। चूंकि भोगवादी विचारधारा इंद्रियों की तृप्ति में ही सुख मानती है। इस कारण कपटता को सुखी जीवन का आधार मान लिया जाता है। क्या इच्छाओं का कोई अंत है।
कामनाएं तो आकाश के समान अनंत हैं। क्या संपन्नता सुखी जीवन का आधार है? क्या यह सत्य है कि जो जितना संपन्न है, वह उतना ही सुखी है। यदि ऎसा नहीं है, तो यह विचारणीय है कि व्यक्तिगत, पारिवारिक एवं सामाजिक जीवन की वास्तविक सुख शांति का क्या आधार है? छल एवं कपट का जिस व्यक्ति के जीवन में जितना है, उसके चेतन एवं अचेतन मन की भावना का अंतर उतना अधिक होता है। ऎसे व्यक्ति की स्मरण-शक्ति, कल्पना, चित्त की एकाग्रता एवं इच्छाशक्ति दुर्बल होती जाती है।
आज का भौतिक विकास
क्या वास्तव में हम विकसित हो रहें है, या हकीकत में विनाश के गर्त में डूबते जा रहे है ?
इस विषय पे खूब माथा-पच्ची की है, किसी एक बात पे मन ठहर ने को राजी नहीं हो पाता. लेकिन जब एक कहानी पढ़ी तो दिमाग की बत्ती जल उठी और एक झटके से दिमाग ने निर्णय सुना दिया की हम गर्त में जा रहे है. उसी टाइम मेरे मित्र प्रतुल जी ने भी ठीक इसी तरह के सवाल मेल से पूछ लिए. तो सोच क्यों ना आप से भी बाँट लूँ ये मन की बात .
आप खुद विचार करें पहले व्यक्ति की आवश्यकता कितनी सी थी रोटी कपडा और मकान. आज के हिसाब से तो ये बिलकुल बाबा आदम के ज़माने की जीवन शैली है, लेकिन क्या हम दावा कर सकते है की उनकी तुलना में हम ज्यादा सुखि है. सिर्फ आज की चकाचौंध ही असल विकास है या संतोषी जीवनशैली में सुख से जीवन यापन करना . क्या हर चकाचौंध के पीछे गहरा अन्धकार नहीं है, क्या पा लिया है हमने साइंस के विकास से जबकि हमारी शांति ही खो गयी है.
एक किसान था वह अपनी छोटे से खेत में खेती करता और अपना गुजरा चैन से करता था. एक दिन वह अपने खेत में बनी झोपडी के बाहर अपने बीवी बचों के साथ आराम से बैठा हंसी-मजाक कर रहा था. उसी टाइम वहाँ से उसका एक दोस्त निकला जो अब एक सफल बिजनेसमैन बन गया था . दोनों में राम-राम हुई आपस में हाल-चाल पूछा .
दोस्त ने किसान से पूछा गुजारा कैसा चल रहा है.
किसान बोला बरसात होती है तो खेती करता हूँ.साल भर का अनाज पैदा हो जाता है और मौज करते है बस और क्या .
अरे.....! इसमें पूरी जिन्दगी...! थोडा और काम करो . थोड़ी सिंचाई करो, थोडा अंग्रेजी खाद डालो ऐसा करो वैसा करो ....
किसान----- फिर क्या होगा ?
दोस्त -------साल में तुम दस -पंद्रह हजार अलग कमा लोगे . दो-चार बीघा जमीन और ले लेना.
किसान ----- फिर ??
दोस्त ------- फिर ज्यादा खेती होगी ज्यादा पैसा बचेगा, फिर थोडा पैसा किसी धंधे में लगा देना .
किसान------- अच्छा फिर.........!!!!
दोस्त--------- फिर पक्का मकान बना लेना, एक स्कूटर ले लेना.
किसान ------- फिर!!!!!!!!!!
दोस्त ---------- फिर धंदे को और फैलाना,काफी इनकम होगी अच्छा घर बनाना, अच्छी गाडी में घूमना.
किसान -------- फिर!!!!!!!!!!!!!!!!
दोस्त ---------- फिर क्या फिर तो काफी पैसे वाले हो जाओगे बैठकर आराम से मज़े करना बीवी बच्चों के साथ .
किसान बोला राम तेरा भला करे अभी क्या कर रहा हूँ ??? , जो इतना चैन बर्बाद करके फिर चैन की तलाश में मारा-मारा फिरूँ ??????
क्या हमारी हालत बिलकुल उस दोस्त के बताये अनुसार नहीं हो रही है.
अरबों- खरबों के मालिक क्या एक दिन भी चैन की बंशी बजा पाते है आप और हम तो क्या अंदाजा लगायें वे भापडे खुद ही ज्यादा जानते होंगे .
क्या आपको नहीं लगता की आज हम गर्त में जा रहे है. क्या पुरानी जीवन शैली से जीने वाले हमारे बडगे इतनी बिमारियों से जूझते थे, क्या उनकी जीवन शैली से ग्लोबल वार्मिंग फैलती थी , क्या उनकी जीवन शैली से धरती का संतुलन बिगड़ पाया था.
अगर नहीं तो क्या हमें यह नहीं मानना चहिये की हमारे पुरखे ज्यादा विकसित थे,ज्यादा उन्नत थे, अपने जीवन में.
और हम इस धरती-बिगाड़, मनख-मार जीवन शैली को विकास समझ अंधे हुए इसके पीछे भागे जा रहे है.
ठीक है की आज सिर्फ रोटी,कपडा और मकान से ही काम नहीं चलता . लेकिन ललित मोदी बनकर भी क्या हासिल हो जाता है.
इस विषय पे खूब माथा-पच्ची की है, किसी एक बात पे मन ठहर ने को राजी नहीं हो पाता. लेकिन जब एक कहानी पढ़ी तो दिमाग की बत्ती जल उठी और एक झटके से दिमाग ने निर्णय सुना दिया की हम गर्त में जा रहे है. उसी टाइम मेरे मित्र प्रतुल जी ने भी ठीक इसी तरह के सवाल मेल से पूछ लिए. तो सोच क्यों ना आप से भी बाँट लूँ ये मन की बात .
आप खुद विचार करें पहले व्यक्ति की आवश्यकता कितनी सी थी रोटी कपडा और मकान. आज के हिसाब से तो ये बिलकुल बाबा आदम के ज़माने की जीवन शैली है, लेकिन क्या हम दावा कर सकते है की उनकी तुलना में हम ज्यादा सुखि है. सिर्फ आज की चकाचौंध ही असल विकास है या संतोषी जीवनशैली में सुख से जीवन यापन करना . क्या हर चकाचौंध के पीछे गहरा अन्धकार नहीं है, क्या पा लिया है हमने साइंस के विकास से जबकि हमारी शांति ही खो गयी है.
एक किसान था वह अपनी छोटे से खेत में खेती करता और अपना गुजरा चैन से करता था. एक दिन वह अपने खेत में बनी झोपडी के बाहर अपने बीवी बचों के साथ आराम से बैठा हंसी-मजाक कर रहा था. उसी टाइम वहाँ से उसका एक दोस्त निकला जो अब एक सफल बिजनेसमैन बन गया था . दोनों में राम-राम हुई आपस में हाल-चाल पूछा .
दोस्त ने किसान से पूछा गुजारा कैसा चल रहा है.
किसान बोला बरसात होती है तो खेती करता हूँ.साल भर का अनाज पैदा हो जाता है और मौज करते है बस और क्या .
अरे.....! इसमें पूरी जिन्दगी...! थोडा और काम करो . थोड़ी सिंचाई करो, थोडा अंग्रेजी खाद डालो ऐसा करो वैसा करो ....
किसान----- फिर क्या होगा ?
दोस्त -------साल में तुम दस -पंद्रह हजार अलग कमा लोगे . दो-चार बीघा जमीन और ले लेना.
किसान ----- फिर ??
दोस्त ------- फिर ज्यादा खेती होगी ज्यादा पैसा बचेगा, फिर थोडा पैसा किसी धंधे में लगा देना .
किसान------- अच्छा फिर.........!!!!
दोस्त--------- फिर पक्का मकान बना लेना, एक स्कूटर ले लेना.
किसान ------- फिर!!!!!!!!!!
दोस्त ---------- फिर धंदे को और फैलाना,काफी इनकम होगी अच्छा घर बनाना, अच्छी गाडी में घूमना.
किसान -------- फिर!!!!!!!!!!!!!!!!
दोस्त ---------- फिर क्या फिर तो काफी पैसे वाले हो जाओगे बैठकर आराम से मज़े करना बीवी बच्चों के साथ .
किसान बोला राम तेरा भला करे अभी क्या कर रहा हूँ ??? , जो इतना चैन बर्बाद करके फिर चैन की तलाश में मारा-मारा फिरूँ ??????
क्या हमारी हालत बिलकुल उस दोस्त के बताये अनुसार नहीं हो रही है.
अरबों- खरबों के मालिक क्या एक दिन भी चैन की बंशी बजा पाते है आप और हम तो क्या अंदाजा लगायें वे भापडे खुद ही ज्यादा जानते होंगे .
क्या आपको नहीं लगता की आज हम गर्त में जा रहे है. क्या पुरानी जीवन शैली से जीने वाले हमारे बडगे इतनी बिमारियों से जूझते थे, क्या उनकी जीवन शैली से ग्लोबल वार्मिंग फैलती थी , क्या उनकी जीवन शैली से धरती का संतुलन बिगड़ पाया था.
अगर नहीं तो क्या हमें यह नहीं मानना चहिये की हमारे पुरखे ज्यादा विकसित थे,ज्यादा उन्नत थे, अपने जीवन में.
और हम इस धरती-बिगाड़, मनख-मार जीवन शैली को विकास समझ अंधे हुए इसके पीछे भागे जा रहे है.
ठीक है की आज सिर्फ रोटी,कपडा और मकान से ही काम नहीं चलता . लेकिन ललित मोदी बनकर भी क्या हासिल हो जाता है.
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