6/11/12

Branded and generic medicines


आज बाजार में हरेक दवा अनेक नामों से बिकती है। उपभोक्ता तो यह निर्णय कर सकने की स्थिति में ही नहीं होता है कि विभिन्न नामों से बिकने वाली दवा एक ही है या अलग-अलग। इसी वजह से एक ही दवा के विभिन्न ब्रांडों की कीमत में प्रायः जमीन आसमान का अंतर होता है। वर्तमान में बाजार में दवाओं के 93,000 ब्रांड उपलब्ध हैं। डॉक्टर अक्सर उसी ब्रांड की दवा लिखते हैं, जिसके निर्माता ने उन्हें अनेक प्रकार से लाभान्वित किया है।
सामान्य दवा या जेनेरिक दवा (generic drug) वह दवा है जो बिना किसी पेटेंट के बनायी और वितरित की जाती है। जेनेरिक दवा के फॉर्मुलेशन पर पेटेंट हो सकता है किन्तु उसके सक्रिय घटक (active ingradient) पर पेटेंट नहीं होता।
जेनेरिक दवाएं उत्पादक से सीधे रिटेलर तक पहुंचती हैं। इन दवाओं के प्रचार-प्रसार पर कंपनियों को कुछ खर्च नहीं करना पड़ता। इन पर छपे मूल्य पर स्थानीय कर अतिरिक्त लिखा होता है। एक ही कंपनी की पेटेंट और जेनेरिक दवाओं के मूल्य में काफी अंतर होता है। चूंकि जेनेरिक दवाओं के मूल्य निर्धारण पर सरकारी अंकुश होता है, अत: वे सस्ती होती हैं, जबकि पेटेंट दवाओं की कीमत कंपनियां खुद तय करती हैं, इसलिए वे महंगी होती हैं।
प्रमुख जेनेरिक दवाएं
सीटीजेड, पाईरेस्टेट-100, मेरिसुलाइड, ओमेसेक-20, ओमिप्राजोल, लिगनोकेन, बूपीवेक्सीन, एसीटिल सालिसाइकिल एसिड डिक्लोफेनेक, इबूप्रोफेन, परासीटामोल, क्लोरोक्वीन, एमलोडिपिन, एटीनोलेल, लोजारटन, मेटफोरमिन, प्रोगेस्टीरोन

जैनेरिक दवाईयां के सन्‍दर्भ में जैनेरिक (फार्माकोपियल) शब्‍द का अर्थ दवा के मूल घटक (Active Pharmaceutical Ingredient) से है। दवा निर्माता उनके उत्‍पाद को जैनेरिक या ब्रान्‍ड नाम से बेच सकतें है। ब्रान्‍ड पर निर्माता का एकाधिकार होने के कारण जैनेरिक के बजाय ब्रान्‍डेड दवाईयां कई गुणा अधिक मंहगी बिकती है, परन्‍तु दोनो की गुणवत्‍ता समान होती है।

       अधिकांश दवाईयों की निर्माण लागत बहुत कम होती है, लेकिन वो निम्‍नलिखित कारणों से रोगियों को कम दामों पर उपलब्‍ध नहीं हो पाती है :-
1. चिकित्‍सक किसी दवा कम्‍पनी के ब्रान्‍ड नाम की दवा लिखते है, इससे प्रतिस्‍पर्धा हतोत्‍साहित होती है और बाजार में कृत्रिम एकाधिकार (Artificial Monopoly) की स्थिति बनती है, जिसमें दवा कम्‍पनी द्वारा अधिकतम खुदरा मूल्‍य (MRP) काफी ज्‍यादा रखी जा सकती है।
2. अधिकतर दवाईयां ‘’औषधि मूल्‍य नियंत्रण’’ से मुक्‍त होने के कारण निर्माता ब्रान्‍डेड दवाईयों पर अधिकतम खुदरा मूल्‍य काफी अधिक अंकित करतें है। औषधि विक्रेता मरीज से वही कीमत वसूल करता है जो MRP के रूप में उस पर लिखी होती है।
3. उपभोक्‍ताओं को यह बात मालूम नहीं है कि अधिकांश दवाईयों की उत्‍पादन लागत बहुत कम होती है। इसके अलावा यदि चिकित्‍सक ने किसी ब्रांड विशेष की दवा लिख दी तो फिर मरीज के पास उसे खरीदने के अलावा और कोई विकल्‍प नहीं होता, भले ही बाजार में उसी दवा के Salt के अन्‍य कम कीमत पर उपलब्‍ध हों।
            उदाहरण के लिए ब्‍लड केंसर के मरीज के ईलाज के लिए Imatinib Mesylate (API) आवश्‍यक है, जिसका निर्माण विभिन्‍न दवा कम्‍पनीयों द्वारा अलग-अलग ब्रांड से करके देश में बेचा जा रहा है, जिनकी कीमतों में 16 गुणा तक अन्‍तर है।
       जैनेरिक दवाईयों की उपलब्‍धता आम व्‍यक्ति को स्‍वास्‍थ्‍य सुरक्षा प्रदान करने में बहुत बडा योगदान प्रदान करती है, विश्‍व स्‍वास्‍थ्‍य संगठन के अनुसार जैनरिक दवाईयो के लिखे जाने पर केवल अमीर देशों में चिकित्‍सा व्‍यय पर 70 प्रतिशत तक कमी आती है, तथा गरीब देशों के चिकित्‍सा व्‍यय में यह कमी और भी ज्‍यादा होगी।
       जैनेरिक दवाईयां गुणवत्‍ता मापदण्‍डों (Identity, Purity, Strength and Effectiveness ) में ब्राण्‍डेड दवाईयों के समान होती है तथा ये उतनी ही असरकारक है, जैनेरिक दवाईयों को बाजार में उतारने का लाईसेंस मिलने से पहले गुणवत्‍ता मानको की सभी सख्‍त प्रक्रियाओं से गुजरना होता है।
बाजार में जैनेरिक दवाओं की उपलब्‍धता से निम्‍न फायदे हो सकते है :-
1. उच्‍च गुणवत्‍ता की दवाओं की कम की‍मत पर उपलब्‍धता।
2. एक ही रासायनिक तत्‍व के विभिन्‍न ब्राण्‍ड नामों से भ्रम की स्थिति का समाप्‍त होना।
3. ब्राण्‍ड नामों से प्रचलित दवाओं के प्रचार प्रसार से होने वाले व्‍यय में कटौती।

महंगी दवा, महंगा इलाज
महंगी दवाओं से इलाज और महंगा होता जा रहा है। जेनरिक दवाइयां को पछाड़ कर ब्राडेंड दवाइयां आगे निकल रही हैं और इसमें ऐसे चिकित्सक भी महत्वपूर्ण रोल निभा रहे हैं जो सस्ती जेनरिक दवा को छोड़कर महंगी ब्रांडेड दवा लिखते हैं।
ब्रांडेड दवा की तरह जेनरिक दवा में वही कम्पोजीशन होता है, परंतु डॉक्टर द्वारा नहीं लिखे जाने के कारण इनकी बिक्री काफी कम हो रही है।
क्या है जेनरिक दवा
यह दवा मेनुफेक्चरिंग के बाद सीधे होलसेल एवं वहां से सीधे दुकानों तक पहुंचती है। निर्माता कंपनी उस दवा पर किसी प्रकार के प्रचार प्रसार में रुपए खर्च नहीं करती है और ही कंपनी इसके लिए कोई सेल्समैन नहीं रखती है। इसके कारण यह दवा ब्रांडेड दवा की तुलना में काफी सस्ती मिलती है।
क्या है ब्रांडेड दवा
कंपनी दवा की बिक्री एवं प्रचार प्रसार पर लाखों रुपए खर्च करती है, सेल्समैन एवं कंपनी के रिप्रेजेंटेटिव भ्रमण कर स्वयं इन दवाओं को स्टोर तक पहुंचाते हैं, जिसके कारण दवा की कीमत बढ़ जाती है।
जेनरिक दवा ब्रांडेड दवा
रुमालिन प्लस सूमो
डाइक्लोविन प्लस एसजी पाइरिन
एफसीएम फ्लूकास
डायजेस्ट एरिस्ट्रो जाइम
क्लेवनेट जीएम पेडिडाम
सिप्लाडी वेटाडिन
ब्रांडेड दवाओं के नाम पर लूटे जा रहे मरीज
ब्रांडेड दवाओं में भी प्राइज वार शुरू हो गया है। इसका असर एक ही एलिमेंट की दवाओं की कीमत पर पडऩे लगा है। ज्यादातर चिकित्सक इनमें से अधिक कीमत वाली दवा का ही प्रिस्क्रिप्शन लिख रहे हैं। फिर वह सरकारी अस्पताल के चिकित्सक हो या चाहे निजी अस्पताल के चिकित्सक। खामियाजा भुगतना पड़ रहा है मरीज या उनके परिजन को। जो चाह कर भी कम दाम की दवा नहीं ले पाते क्योंकि प्रिस्क्रिप्शन में साफ लिखा होता है कि केमिस्ट दवा को सब्सट्यिूट करें। चिकित्सक से लेकर दुकानदार इसी बात का फायदा उठा रहे हैं।
अब तक जेनेरिक ब्रांडेड दवाओं की कीमतों में अंतर को लेकर खबरें सामने आती रही हैं। क्योंकि इनके दामों में एक से छह गुना तक अंतर होता है।अब कीमतों की लड़ाई ब्रांडेड कंपनियों के बीच भी होने लगी है। अब बड़ी कंपनियों के दामों में भी जेनेरिक कंपनियों की तरह तीन से पांच गुना का अंतर रहता है। भले ही उनमें कंटेंट एक ही क्यों हो?
एक मेडिकल के संचालक सुरेश रत्नानी के अनुसार ब्रांडेड कंपनियों की दवाओं में भी डाक्टर उन्हीं दवाओं को प्रिस्क्रिप्शन में लिख रहे हैं जिस कंपनी का दवा की कीमत सबसे अधिक होती है।
अधिक प्राइज यानि अधिक कमीशन: सूत्रों के मुताबिक इसके पीछे भी कमीशन का खेल है। जिस कंपनी की दवा की कीमत जितनी अधिक रहेगी। कंपनी चिकित्सक को उस अनुपात में कमीशन देती है। यही वजह है कि कम कीमत की दवा होने पर चिकित्सक उसे प्रिस्क्रिप्शन लिखने में रूचि नहीं दिखाते। इसके लिए हाल ही में एक कंपनी की दवा कीमत का हवाला दिया गया जो मल्टी विटामिन दवा बनाती है। 6 महीने पहले कंपनी 10 टेबलेट 90 रुपए में बेच रही थी। महीने भर पहले उसने दाम बढ़ा कर 125 रुपए कर दिए। क्योंकि प्रॉडक्ट के प्रमोशन के लिए कंपनी के सेल्स अफसरों ने चिकित्सकों से संपर्क करने लगे तो वे कम कीमत का हवाला देकर प्रिस्क्रिप्शन लिखने को लेकर ना-नुकुर करने लगे। लिहाजा मजबूरी में कंपनी को अपने मल्टीविटामिन दवा का दाम बढ़ाने पड़े।
एक्ट की उड़ रही धज्जियां : कंपनियां दवा के दाम मनमानी ढंग से रख सकें इसके लिए शासन ने ड्रग प्राइज एंड कंट्रोल एक्ट 1940 के तहत कई नियम बना रखें हैं। इसमें लाइव सेविंग दवाओं के साथ ही सामान्य बीमारियों से जुड़ी दवाएं भी शामिल है। पर इन बीमारियों से जुड़ी ब्रांडेड कंपनियों के दवाओं की कीमतों को देखने के बाद ऐसा लगा रहा है मानो उन्हें एक्ट से कोई सरोकार नहीं है।

 डॉक्टरों को दवाओं के जेनेरिक नाम लिखना जरूरी?
सरकार सभी डॉक्टरों के लिए इलाज की पर्ची पर दवाओं के जेनेरिक नाम या रासायनिक नाम लिखना अनिवार्य बना सकती है। ऐसा होने से मरीजों के लिए दवाओं पर होने वाले खर्च में आधी से ज्यादा की कमी सकती है।
इस प्रक्रिया को एक उदाहरण से समझें। 
अगर डॉक्टर को इलाज की पर्ची पर मरीज के लिए क्रोसिन लिखना हो तो नए नियम आने के बाद उसे इस ब्रांड का जेनेरिक नाम यानी पैरासिटामॉल लिखना होगा, जो अनब्रांडेड है। इससे इलाज पर होने वाला खर्च ब्रांडेड दवाओं की खरीद के मुकाबले तीन चौथाई कम हो जाएगा।
जेनेरिक नाम लिखने से दवाओं पर होने वाले खर्च में आधी कमी सकती है। यह दवाओं का खर्च घटाने का सबसे अच्छा तरीका हो सकता है। देशभर में हर साल पांच लाख से ज्यादा केमिस्टों के जरिए 48,000 करोड़ रुपए और अस्पतालों और क्लीनिकों के जरिए लगभग 10,000 करोड़ रुपए की दवाएं बिकती हैं।
गौरतलब है कि दूसरी कमोडिटी के उलट उपभोक्ताओं के पास दूसरे ब्रांड की दवाएं चुनने का विकल्प नहीं होता। इसके अलावा दवा कंपनियां डॉक्टरों से अपने ब्रांड की दवा तजवीज कराने पर करोड़ों रुपए खर्च करती हैं। फार्मा कंपनियां अक्सर डॉक्टरों को महंगे तोहफे देती हैं और उनके विदेश जाने का खर्च उठाती हैं। ये काम कारोबारी रूप से अनैतिक हैं और इनसे अंतत: इलाज महंगा हो जाता है।
जेनेरिक दवाएं क्यों नहीं लिखते चिकित्सक
दवा कंपनियां अपने ब्रांड की दवा के प्रचारार्थ डॉक्टरों को महंगी-महंगी वस्तुएं भेंट करती हैं। अतः डॉक्टर अपने मरीजों के लिए उसी कंपनी द्वारा निर्मित दवा लिखते हैं, जिसने उसे अधिक भेंट आदि दी है। इसके अलावा महंगी दवा लिखने से उनका कमीशन भी ज्यादा बनता है। इस प्रक्रिया में दवा बाजार में सबसे महंगी दवाएं ही सबसे अधिक चलती हैं। दवा कंपनियां चिकित्सकों को भारी भरकम पैकेज देकर उनसे मनमानी दवा लिखवाकर मुनाफा कमाने से नहीं चूक रही हैं अनेक दवा कंपनियां तो चिकित्सकों के घर का पूरा खर्च तक उठा रही हैं। चिकित्सक भी जेनरिक दवाओं के बजाए ब्रांडेड दवाएं लिख रहे हैं। एक दवा बाजार में अगर आठ पैसे की है तो वही दवा नामी कंपनी की होकर अस्सी रूपए की हो जाती है। दरअसल देश और प्रदेशों में ज्यादातर इस्तेमाल होने वाली दवाएं एसी हैं जिनकी कीमतों पर सरकारों का कोई नियंत्रण ही नहीं है। इन दवाओं के मूल्यों का निर्धारण दवा कंपनियां स्वयं ही करती हैं यह डीकंट्रोल्ड ड्रग्स की श्रेणी में आता है। इन दवाओं की तादाद पांच सौ से उपर बताई जा रही है। इन दवाओं में कमीशन के खेल का भोगमान अंततः मरीज को ही भुगतना पड़ता है। उधर कंट्रोल्ड दवाओं की श्रेणी में महज सौ से भी कम दवाएं हैं।

इस क्रम में दवा बाजार में कुछ दवाओं के सर्वाधिक बिकने वाली ब्रांड्स की दवा की कीमतें एवं सबसे कम कीमत वाले ब्रांड्स की औसत कीमत के मध्य संबंध देखना दिलचस्प है। बैक्टिरिया के संक्रमण के इलाज में प्रयुक्त होने वाली सेफ्ट्रिजोन के सर्वाधिक बिकने वाले तीन ब्रांड्स की कीमतें सबसे सस्ते तीन ब्रांड्स की कीमत की तुलना में 50 गुना अधिक है।

मधुमेह के इलाज में काम आने वाली दवा ग्लिमेप्राइड के तीन सर्वाधिक बिकने वाले ब्रांड्स की औसत कीमत तीन सबसे सस्ते ब्रांड्स की औसत कीमत की तुलना में 10.8 गुना अधिक है। अन्य अनेक दवाओं के संदर्भ में भी यही स्थिति है। इन सबमें सर्वाधिक बिकने वाले ब्रांड्स की कीमत सबसे सस्ती होकर सबसे महंगी पाई गई है। ऐसा इसलिए हो रहा है कि डॉक्टरों को महंगी भेंटे आदि देने वाली कंपनियां अपनी दवाओं की कीमतें भी काफी अधिक रखते हैं, ताकि केवल प्रदत्त भेटों आदि की लागत वसूल हो जाए, बल्कि उन्हें मुनाफा भी अधिक प्राप्त हो सके। स्पष्ट है कि इस पृष्ठभूमि में आवश्यक 348 दवाओं की कीमत निर्धारण प्रक्रिया अत्यंत विकृत हो गई है और अगर इस प्रक्रिया के आधार पर आवश्यक दवाओं की न्यूनतम कीमत निर्धारित की जाती है, तो वे सस्ती होकर काफी महंगी होगी। सस्ती दवाओं के निर्माता भी कीमतों में वृद्धि के लिए बाध्य हो जाएंगे।
जब तक सरकार द्वारा चिकित्सकों के साथ ही साथ दवा कंपनियों पर अंकुश नहीं लगाया जाता तब तक मरीजों की जेब में डाका डालने का सिलिसिला शायद ही थम पाए। सरकार को अमेरिका जैसा कानून ‘‘सख्ती‘‘से लागू कराना होगा। दवा कंपनियों से यह कहना होगा कि वे किसी चिकित्सक विशेष के बजाए मेडीकल एसोसिएशन या चिकित्सकों की टीम के लिए स्पांसरशिप कर नई दवाओं की जानकारी दे। इसके अलावा एमसीआई को चिकित्सकों और जांच केंद्रों के बीच की सांठगांठ के खिलाफ कठोर पहल करनी होगी।

ब्रांडेड जेनेरिक और गैर ब्रांडेड जेनेरिक दवा
ब्रांडेड दवाएं रिसर्च खर्च के कारण महंगी होना लाजिमी हो सकता है लेकिन ब्रांडेड जेनेरिक और गैर ब्रांडेड जेनेरिक दवाओं की ऊंची कीमत समझ से परे हैं। दो अलग-अलग अध्ययनों में पता चला है कि ब्रांडेड गैर-ब्रांडेड जेनेरिक दवाओं में कंपनियों का मुनाफा 100 से 1,000 फीसदी तक है।
ब्रांडेड दवा महंगी होती है क्योंकि उसमें रिसर्च आदि का खर्चा जोड़ा जाता है। ब्रांडेड दवा के लिए कंपनी को 20 वषों के लिए पेटेंट मिलता है। इस अवधि में अन्य किसी कंपनी को उस दवा का उत्पादन करने का अधिकार नहीं होता है। पेटेंट की अवधि खत्म हेाने के बाद अन्य कंपनियां ब्रांडेड दवा के जेनेरिक संस्करण की दवाएं बना सकती हैं और क्योंकि इन कंपनियों ने रिसर्च पर खर्चा नहीं किया होता है, इसलिए जेनेरिक दवाएं ब्रांडेड की तुलना में सस्ती होती है। जेनेरिक में कुछ दवाएं जेनेरिक ब्रांड के साथ आती है और कुछ का कोई ब्रांड नहीं होती बल्कि केमिकल के नाम से ही जानी जाती हैं। बगैर ब्रांड वाली इन जेनेरिक दवाओं में कंपनियां सबसे अधिक लाभ कमा रही हैं।
गैर-ब्रांडेड जेनेरिक दवाओं पर सरकार के फार्मास्युटिकल एडवायजरी फोरम के अध्ययन के अनुसार गैर ब्रांडेड जेनेरिक दवाओं के मामले में लाभ 92 से 436 फीसदी तक है। फोरम ने कुछ गैर-ब्रांडेड पर कंपनियों का अधिकतम मुनाफा 400 फीसदी रखने का प्रस्ताव किया है। नए प्रस्ताव पर अभी विचार किया जा रहा है। पटेल चेस्ट इंस्टीटयूट की फार्माकोलॉजी विभाग की वैज्ञानिक डा. अनीता कोटवानी द्वारा विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) के लिए ब्रांडेड जेनेरिक दवाओं के मूल्यों के संबंध में एक शोध किया है। इस शोध के अनुसार निजी दवा कंपनियां अपने स्टोरों के जरिये से मरीजों से दवा के बहुत ऊंचे दाम वसूल रही हैं। ये कंपनियां 1000 फीसदी तक मुनाफा कमा रही हैं। डा. कोटवानी का कहना है कि ब्रांडेड दवाओं का रिटेल स्तर पर उनका लाभ 16 से 30 फीसदी है।
डा. कोटवानी के मुताबिक भारत में दवा के दामों के लिए नियामक बनाने के लिए ड्रग प्राइस कंट्रोल आर्डर (डीपीसीओ) लागू है। परंतु कंपनियों ने डीपीसीओ को दरकिनार करने का रास्ता भी ढूंढ लिया है। दवा कंपनियां दुकानदारों को कई दवाओं के लिए स्कीम देती हैं। मसलन चार पैकेट लेने पर एक पैकेट मुफ्त। अध्ययन के मुताबिक सबसे बड़ा फर्क सैफट्रियाजोन इंजेक्शन में देखा गया ,जिसमें दो पैकेट पर एक पैकेट मुफ्त दिया जा रहा है। यह स्कीम डीपीसीओ के नियमों का उल्लंघन ही है।




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