4/17/12

negative influence of movies or television on people in hindi

कहते हैं कि सिनेमा समाज पर सबसे अधिक प्रभाव डालता है। बच्चों से लेकर बूढ़े तक, पुरूष से लेकर महिला तक हर कोई इसके प्रभाव से प्रभावित दिखता है। फिल्मों का समाज पर प्रभाव, बहस का एक पुराना विषय है। समाज वालों की तरफ से आरोप लगते हैं कि फिल्में पीढियां बिगाड़ रही हैं, जबकि फिल्म वाले अपना बचाव यह कहकर करते हैं कि वे वही दिखा रहे हैं जो समाज में घटित हो रहा है या जिसे समाज पसंद करता है। इस बहस का कभी कोई नतीजा नहीं निकला, क्योंकि दोनों के अपने-अपने तर्क हैं। हां, बात प्रभाव की करें तो वह बहुत चिंताजनक स्तर तक पहुंच गया है। उन्होने कई परिवारो को तोडदिया है और उनका सुखचैन छीनकर उनके जीवन मे आग लगा दी है ।अनेको र्निदोा युवाओ को अपराध के गर्त मे धकेल दिया है ।
आजके सभी प्रमुख टीवी चैनलो के धारावहिको मे विशोा कर पारिवारिक धरावाहिको मे परिवारो मे भयंकर भाडयंत्रकारिता चलते हुए दिखाई जा रही है।भाई भाई,सास बहू,देवरानी जेठानी,पितापु़त्र,पतिपत्नी के बीच भारी भाडकारिता चल रही है।पांच सितारा उच्चस्तरीय रहनसहन, जीवनशौली को,मध्यमवर्ग की अति आवश्यक अतिसामान्य जीवनशौली दिखाकर उसकी अनिवार्यता को उसके मानस में बैठाने का प्रयास किया जा रहा है,अवैध और विवाहेतर संबंधो कोप्रगतिशीलता की राह में सहज स्वीकार्य दिखाया जा रहा है,तमाम उच्छश्र्र्रृंखलता और हिंसा दिखाई जा रही है।अर्थात जितना भी बुरे से बुरा,गलत से गलत परोस सकते है जमकर परोस रहे है,ओर उसमे भी, उनमे प्रतिस्पर्ध्रा चल रही है कि कौन कितना नये तरीके से बुरा और अनुचित परोस सकता है,दिखा सकता है।मकसद केवल टीआरपी की दर उपर उठानी है, ताकि अधिक से अधिक और मंहगे से मंहगे विज्ञापन मिल सके ।अधिक से अधिक धन कमाया जा सके । परन्तु क्या उन्हे इस बात का जरा भी एहसास नही है कि वे समाज का और देश का कितना बडा नुकसान कर रहे है? क्या समाज और देश के प्रति उनकी कोई जिम्मेदारी नहीं है? 
सिनेमा
सिनेमा की जहां ढेर सारी अच्छी बाते हैं, वहीं कुछ ऐसी बातें भी हैं जिन्हें सकारात्मक नहीं कहा जा सकता।  कई ऐसे उदाहरण हैं जहां सिनेमा ने सामाजिक अभिरुचि को परिष्कृत करने की बजाय उसे विकृत करने का काम किया है। पश्चिम के अंधानुकरण की प्रवृत्ति को सिनेमा से भी बल मिला है। हालीवुड को अपना आदर्श मानने के कारण यह गलती जाने-अनजाने हमारे फिल्मकारों से हुई है। यद्यपि सिनेमा का मूल उद्देश्य मनोरंजन है, परंतु उससे यह भी अपेक्षा की जाती है कि वह समाज को एक स्वस्थ दिशा भी दिखाए।  इस मानदंड पर हमारी फिल्में, खासकर वर्तमान समय की फिल्में बहुत सफल नहीं कही जा सकतीं। उन्होंने मौजूदा व्यवस्थाओं के प्रति असंतोष तो उत्पन्न किया, परंतु कोई ठोस विकल्प नहीं सुझा पाईं। इससे एक प्रकार की अराजकता या नैराश्य का भाव व्याप्त हुआ है।
           सिनेमा को अगर हम समग्र रूप से देखें तो यह समाज के लिए एक दवा के समान है जिसके कुछ खतरनाक साइड इफैक्ट भी हैं। हमें पत्र-पत्रिकाओं एवं अन्य माध्यमों से जनता को यह बताना होगा कि सिनेमा रूपी इस दवा के साइडइफेक्ट क्या हैं। इसके बाद जनता खुद ही उनसे अपना बचाव कर लेगी।
फिल्मों और टीवी पर सेक्स और हिंसा

फिल्मों और टीवी पर सेक्स और हिंसा के प्रदर्शन के मिलेजुले असर अब बहुत चिंताजनक बनते जा रहे हैं। हाल में प्रकाशित कुछ समाचारों के मुताबिक एक फिल्म से प्रेरित होकर कुछ लड़कों ने एक लड़की का अपहरण किया, उसे जबरन शराब पिलाई और फिर उसके शरीर पर कुछ चित्र बनाए। इस खतरे को हमारे युवक स्वयं भी पहचान रहे हैं। ऐसा दिल्ली विश्वविद्यालय के विद्यार्थियों के एक सर्वेक्षण से जाहिर होता है, जिसमें 69 प्रतिशत विद्यार्थियों ने कहा कि युवा पीढ़ी में हिंसा में वृद्धि के लिए फिल्मों में सेक्स और हिंसा का अधिक प्रदर्शन जिम्मेदार है।
हिंसा के बीज बोता छोटा पर्दा
आज के बच्चे और किशोर जिस माहौल में बड़े हो रहे हैं, उसमें टीवी का उनकी जिंदगी में बहुत दखल हो गया है। टीवी के असर के बारे में बात करते हुए हमें कई बार टीवी/सिनेमा के मिले-जुले प्रभाव के बारे में बात करनी पड़ती है। इसका प्रमुख कारण ऐसी फिल्मों का प्राय: टीवी पर दिखाई देना होता है। टीवी के असर के बारे में दूसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि इस तरह के प्रभाव में बच्चे कितने समय तक रहते हैं। सवाल केवल इस बात का नहीं है कि बच्चे टीवी में क्या देख रहे हैं, बल्कि यह भी है कि वे क्या चीजें बार-बार देख रहे हैं और उनका कितना समय टीवी पर यह सब देखने में बीत रहा है। कुछ चीजें ऐसी हैं जो अपवाद के रूप में कभी-कभी देख लेने से अधिक नुकसान नहीं होता है पर बार-बार देखने से वे दर्शक में विकृति पैदा कर सकती हैं विशेषकर जब दर्शक अबोध बच्चे हों। हिंसा एक ऐसी ही चीज है। एक ही दिन में कोई बच्चा टीवी पर अनेक हत्याएं, बलात्कार और हिंसा की घटनाएं देखता है। अमेरिकन टीवी के एक अध्ययन से तो पता चला है कि वहां हर अठारह मिनट में एक हिंसक घटना दिखाई जा रही थी। टीवी पर हिंसा रोज-रोज देखने से बच्चों और किशोरों के व्यवहार में आक्रामकता आती है। विशेषकर यह बात ध्यान में रखने योग्य है कि टीवी पर बहुत सी हिंसा की कार्यवाही आकर्षक और अच्छे लगने वाले पात्रों के हाथ से होती है, इसलिए बच्चों, किशोरों और युवकों में उनके जैसी शैली अपनाने की प्रवृत्ति और भी अधिक होती है। आसपास की जिंदगी में इतने खतरनाक खलनायक तो नजर आते नहीं हैं जितने टीवी पर होते हैं। इसलिए कई बार बिना वजह विरोध प्रगट कर, झगड़ा करके या ऊंचा बोलकर टीवी के ये दर्शक अपने अंदर उमड़ रही हिंसक प्रवृत्ति को बाहर निकालते हैं। टीवी पर हिंसा दिखाने का जो सबसे बुरा असर होता है वह दीर्घकालीन होता है, जो शायद ही स्पष्ट नजर आता है।
निरंतर हिंसा, हत्या, उत्पीड़न आदि घटनाओं को देखने से मनुष्य के मन में जो कोमल भावनाएं हैं और हिंसा के प्रति जो स्वाभाविक वितृष्णा है, वह धीरे-धीरे नष्ट हो जाती है। वह हिंसा को दैनिक जीवन के एक ऐसे हिस्से के रूप में समझ लेता है, जिसके लिए संवेदनशीलता की कोई खास आवश्यकता नहीं होती है। जब बहुत से लोग ऐसा सोचने लगते हैं तो समाज में हिंसक शक्तियों और प्रवृत्तियों के हावी होने के लिए अनुकूल मौके पैदा होते हैं। बहुत तेजी से या लापरवाही से वाहन चलाना, भीड़ भरी सड़कों पर या अन्य खतरनाक रास्तों पर तरह-तरह के जोखिम लेना जैसी बातों को प्राय: टीवी पर इतने आकर्षक ढंग से पेश किया जाता है कि कई किशोर भी ऐसे ही जोखिम बिना किसी वजह के उठाना शुरू कर देते हैं, जिसका खामियाजा खुद उन्हें या दूसरों को उठाना पड़ता है।इमारतों से छलांग लगाने, खेल-खेल में साथी को चोट पहुंचाने से आगे बढ़कर किशोर अपराध करना सीख गए हैं। फिल्में उनकी प्रेरणा बन रही हैं, जिनसे वे अपराध करने के तरीके सीखते हैं। इसका उदाहरण हाल ही में इंदौर में सामने आया, जिसमें किशोरों ने फिल्में देख-देखकर गैंग बना डाली और कई वारदात अंजाम दीं। हालांकि वे सलाखोंके पीछे पहुंच गए हैं, लेकिन समाज के सामने सैकड़ों सवाल और चिंताएं खड़ी कर गए हैं।
फिल्मों और टीवी धारावाहिक में नारी
सिनेमा और टीवी की एक बड़ी समस्या यह है कि प्राय: महिलाओं को सेक्स प्रतीक के रूप में चित्रित किया जाता है। महिलाओं की समाज में बहुपक्षीय सार्थक भूमिका को सही ढंग से दिखाने वाली कुछ फिल्में भी बनी हैं, पर अधिकतर व्यावसायिक मसाला फिल्मों में महिलाओं को सेक्स प्रतीक के रूप में ही उभारा जाता है। उनके तरह-तरह के हाव-भाव, वेश-भूषा, अंग-प्रदर्शन पर फिल्म निर्माताओं या निर्देशकों का ध्यान केंद्रित रहता है। इसी तरह फिल्म, फिल्मी गीत व अन्य कार्यक्रम टीवी पर दिखाई देते हैं। केबल टीवी आने पर यह चलन और बढ़ गया है और इस सबमें अ‌र्द्धनग्नता व अश्लीलता की प्रवृत्ति तो और भी बढ़ गई है। केबल टीवी के कुछ कार्यक्रमों में दर्शकों और उसके साथ विज्ञापन को अधिकाधिक आकर्षित करने के लिए सेक्स का अधिक खुला प्रदर्शन और उसकी खुली चर्चा आम बात हो गई है।
                 महिलाओं को एक के बाद अनेक फिल्मों व कार्यक्रमों में सेक्स प्रतीक के रूप में देखने का बुरा असर यह होता है कि उनके प्रति स्वस्थ मित्रता का भाव विकसित होने के बजाय नई पीढ़ी में गंदे भाव उत्पन्न होते हैं। इसकी अभिव्यक्ति छेड़छाड़ और तरह-तरह की अश्लील हरकतों के रूप में देखने को मिलती है। कई बार देखा गया है कि छेड़छाड़ की जो शैली किसी हिट फिल्म में देखी गई, वही सड़कों व गलियों में भी दोहराई जाती है। यही नहीं, कई फिल्मों व कार्यक्रमों में महिलाओं को इस रूप में भी दिखाया जाता है, जिससे लगे कि वे तो चाहती ही हैं कि उनसे कोई छेड़छाड़ या अश्लील हरकतें करे। इस तरह की छवि दिखाना बहुत घातक रहा है। बीते दिनों एक कार्यक्रम में ऐसी लगभग दस घटनाओं के उदाहरण दिए गए, जिसमें 10 से 20 वर्ष की लड़कियों से पहले लड़कों ने छेड़छाड़ की और मनोनुकूल उत्तर न मिलने पर उनकी हत्या कर दी या उनके साथ हिंसक वारदातें कीं।
           फिल्मों और शो बिजनेस के बारे में यदि सोचा जाये, तो वहां भी नारी चरित्र की स्थिति दुर्भाग्यपूर्ण ही है। छोटा परदा हो, या बड़ा परदा, नारी के शरीर पर कम से कम होते जा रहे हैं। अपने आपको आकर्षक दिखाने के लिए सलवार सूट, दुपट्टा या साड़ी पहनने की जगह वह टाटट जींस या स्कर्ट पहनकर आधुनिक होने का प्रदर्शन करती है। ऐसे अनेक कारण हैं, जिससे हम आज परिवार के साथ बैठकर फिल्म देखने में संकोच करते हैं।कैमरे के सामने कम कपड़े पहनने वाली लड़कियों को मीडिया कहता है कि वो ‘बोल्ड’ है, पर मै कहता हूं कि ‘बेशर्म’ है। करोड़ों दर्शकों के सामने कपड़े उतारने के लिए ‘बोल्डनेस’ या हिम्मत की नहीं ‘निर्लज्जता’ की आवश्कता होती है। वह उनमें कूट-कूट कर भरी होती है।
            आजकल हर टीवी धारावाहिक में नारी की गरिमा, नारी की आस्मिता को ताक पर रखा जाता है। एक स्त्री का अनेक पुरूषों से संबंध, एक से अधिक विवाह, इसके बिना तो आजकल धारावाहिक बनते ही नहीं। भारतीय संस्कृति में नारी की सोच क्या यही है? नारी तो ममता की मूर्ति होती है। भारतीय स्त्री एक मकान को घर बनाती है। घरों को तोड़ती नहीं है, लेकिन आज भारतीय नारी की पहचान अलग बनाने वाले धारावाहिकों का निर्माण हो रहा है और वह देखकर हमारे बच्चों की मानसिकता वैसी ही बन रही है।नारी की गरिमा को ताक पर रखकर उसे बिकाऊ बनाने वाले, उनके बूते प्रसिद्धी पाने वालों को यदि नियंत्रित नही किया गया, तो हमारे समाज का भविष्य बहुत अंधकारमय होगा।

टीवी पर दिखाए जाने वाले विज्ञापन
टीवी और फिल्मों का मिला-जुला असर एक अन्य तरह से भी व्यापक स्तर पर कुंठा पैदा कर रहा है और इसमें विशेषकर टीवी पर दिखाए जाने वाले विज्ञापनों की विशेष भूमिका है। ऐसे कार्यक्रमों में और विशेषकर इनके साथ दिखाए जाने वाले विज्ञापनों से तरह-तरह की आकर्षक उपभोक्ता वस्तुओं की एक लुभावनी दुनिया अमीर और गरीब दर्शकों के सामने नए-नए अंदाज में पेश की जाती है। जिनके पास पैसा है, उनमें नित नए उत्पाद खरीदने के उपभोगवाद को जबरदस्त बढ़ावा मिलता है। जिसके पास इतना पैसा नहीं है, उनमें ये विज्ञापन कुंठा पैदा करते हैं। बहुत से लोगों में गलत ढंग से पैसा कमाने की प्रवृत्ति को इस सबसे बढ़ावा मिलता है
विज्ञापन में नारी
वैश्वीकरण की देन है उपभोक्तावाद, जिसका सीधा असर पड़ा है हमारे दर्शकों और विज्ञापन जगत पर। एक आम धारणा बन गयी है कि जो भी बिकता है, बेचो। इसी धारणा के चलते विज्ञापन कम्पनियां सब कुछ बेचने को तैयार हैं, चाहे वह नारी देह हो या हमारी भावनाएं।
भारतीय समाज में लज्जा को नारी का आभूषण कहा जाता है, किन्तु जब से हमारे समाज पर पश्चिमी सभ्यता का प्रभाव पड़ा और नारी स्वावलम्बी एवं आत्मनिर्भर बनने के लिए घर की चारदीवारी से बाहर आई, तब से उसके विचार, रहन-सहन एवं दृष्टिकोण में भारी परिवर्तन आया है। इसी का परिणाम है कि आज शत-प्रतिशत विज्ञापनों में नारी महज एक सेक्सी गुड़िया बनी हुई है।
नारी देह का उपयोग कामुकता जगाने के लिए भी किया जाता है। इस पुरुष प्रधान समाज में ध्यान आकर्षित करने के लिए भला नारी देह से अधिक उपयुक्त साधन और क्या हो सकता है! इस मानसिकता का नतीजा ये है कि चाहे पुरूषों के अंतःवस्त्र हों या सूटिंग-शर्टिंग, आफ्टर शेव हो या जूते, गाड़ी हो या एयर लाइन हर जगह, हर विज्ञापन में एक अर्धनग्न जवान लड़की होती है। विज्ञापन देकर ये समझना मुश्किल हो जाता है कि कम्पनी आखिर क्या बेच रही है!
       रिऐलिटी पर हावी होती वर्चुअल रिऐलिटी
हमारी आज की पीढ़ी जो कुछ ग्रहण कर रही है, चीजें जिस तरह और जिस रूप में उस तक पहुंच रही हैं, वह उसके मूल और स्वाभाविक रूप से अलग है। इसमें टीवी का अपना योगदान है। उस पर दिखाई जानेवाली चीजों के पीछे कैमरे का कमाल होता है। कैमरे का अपना ऐंगल है। टीवी और इंटरनेट ने हमारे दिलो-दिमाग पर क्या असर किया है, इसे इस उदाहरण से समझते हैं।
क्रिकेट आज जितना पॉपुलर है, उसके पीछे टीवी का काफी योगदान है। लेकिन मैदान के क्रिकेट और टीवी के क्रिकेट के बीच का फर्क समझना भी जरूरी है। क्रिकेट के मामले में सच तो वह है, जो मैदान पर खेला जा रहा है। टीवी पर दिखाया जानेवाला रिप्ले सच नहीं है। आम लोग इस फर्क को समझ नहीं पाते। एक छोटा बच्चा क्रिकेट खेल रहा था। उसने शॉट मारा और उसके फौरन बाद दोबारा वैसा ही शॉट मारा, लेकिन आहिस्ता-आहिस्ता, धीरे-धीरे बिल्कुल ऐक्शन रिप्ले की तरह कॉपी कर रहा है क्योंकि उसे नहीं लगता कि उसके बिना उसका शॉट पूरा होगा। इसके लिए वह ऐक्शन रिप्ले को जरूरी मानता है। वह टीवी पर दिखाए जाने वाले क्रिकेट को ही पूरा क्रिकेट मानता है।

क्रिकेट ही क्यों, और भी बहुत-सी चीजों पर यह बात सच बैठती है। हमारे एक यंग फिल्म मेकर हैं। उन्होंने कभी असल में किसान नहीं देखा। किसान की वही छवि उनके मन में है, जो उन्होंने फिल्मों में देखी है। उनके लिए प्रोजेक्टिड सच ही असलियत बन गया। जाहिर है, अपनी फिल्म में वह जब भी किसान दिखाएंगे, वह वैसा ही होगा जो उन्होंने फिल्मों में देखा होगा।

इसी तरह डिस्कवरी, ऐनिमल प्लेनेट जैसे चैनलों पर कई बार जानवरों को बड़े ही मनोरंजक तरीके से दिखाया जाता है। कई बार कार्यक्रम को कहानी की तरह दिखाया जाता है। उनमें मानवीय संवेदनाएं डाली जाती हैं, जो कि सच नहीं हैं। आपके मन में उस जानवर की वही छवि होगी, जो आपने टीवी पर देखी होगी। आपको लगेगा कि शायद ये जानवर ऐसे ही करते होंगे, जैसे टीवी पर दिख रहे हैं।

खबरों में भी नाट्य रूपांतर हावी हो गया है। खबर का न्यूट्रल टच गायब हो गया है। उसे रोचक और मसालेदार बनाया जा रहा है। सच की अपनी ऊर्जा खत्म हो रही है। सच कितना बड़ा था, यह कोई नहीं जानता। छोटी-सी खबर को मिर्च-मसाला लगाकर ऐसे दिखाया जाता है कि लोग उसकी तरफ खिंचे चले आते हैं। लोग उसे ज्यादा शिद्दत से देखते हैं। इसके बाद उस घटना के प्रति जो आपकी प्रक्रिया होती है, वह स्वाभाविक नहीं होती।
हम जब किसी अवॉर्ड शो में जाते हैं तो वहां का सीन ही अलग होता है। कुर्सियां बिछ रही होती हैं, तारें फैली होती हैं, लोग यहां से वहां दौड़ रहे होते हैं। बाद में जब वह अवॉर्ड फंक्शन टीवी पर टेलिकास्ट होता है तो इतना चमकीला और भड़कीला नजर आता है कि आंखें चौंधिया जाती हैं। लोग उस फंक्शन के पीछे की सचाई जान ही नहीं पाते कि वहां असल में हो क्या रहा था? वे उसी सच को देखेंगे और जानेंगे, जो परदे पर नजर आया। उसके पीछे का सच तो छुपा ही रह जाता है। कई बार इस तरह की वर्चुअल रिऐलिटी से लोगों को छद्म सुख भी मिलने लगता है। हालांकि यहां यह नहीं कहा जा सकता कि यह सही है या गलत? बात सिर्फ रिऐलिटी और वर्चुअल रिऐलिटी के फर्क को समझने की है।
               
                 सभी समाजशास्त्री और मनोवैज्ञानिक इस बात से सहमत है कि फिल्मो और टीवी मे दिखाई जाने वाली नकारात्मक बातो का समाज पर गहन और व्यापक नकारात्मक प्रभाव पडता है। ऐसा अनैको अपराधियो ने भी बताया है कि उन्हे इस अपराध को करने की प्ररेणा फंला फिल्म या टीवी के दृश्य से मिली है।किसी विद्वान ने तो यहॉ तक कहा है कि हर अपराध के किसी न किसी कोण में यह प्रेरणा अवश्य अपना रोल जरूर निभा रही है । जबकि दूसरी और एक उदाहरण ऋिको मुखर्जी का भी है ,उन्होने ॔बावर्ची’ नामक एक अत्यंत ही सकारात्मक फिल्म बनायी थी, जिसमे एक पविर में फेले विद्वो कटुता को फिल्म का नायक मिटाकर परिवार मे पुनःप्रेम और स्नेह का संचार जाग्रत कर देता है।फिल्म में निर्देशक ने कुछ भी ऐसा नाटकीय या अविश्वसनीय घटनाक्रम भी नही रचा था,या न किसी से कोई झूठ बोला गया था। बस सकारात्मक विचारधारा का सहज चमत्कारी परिणाम दिखाया गया था।परन्तु उस सकारात्मक विचारधारा का रुपयो के लालच की वजह से आगे अनुसरण नही किया गया ।और अब नकारात्मक फिल्मो व धारावाहिको का दौर चला है जो परिवारो मे वि घोलने का कार्य कर रहा है। अब अगर वर्तमान फिल्म और धारावाहिक निर्माता अपना सामाजिक दायित्व का निर्वाह नही कर रहे है तो उन इसे उनकी मर्जी पर बिल्कुल नही छोडा जाना चाहिए ।रूपया वे अपने लिए कमा रहे है,परन्तु जहर समाज को पिला रहे है।इसकी उन्हे कतई इजाजत नही होनी चाहिए।उन्हे सख्ती से कानून बनाकर रोका जाना चाहिए । सभी सामाजिक सरोकार के वियो व कार्यो को केवल व्यवसायिक हितो के भरोसे छोडकर मनमानी करने की अनुमति कदापि नही दी जानी चाहिए ।अन्यथा यह समाज व देश के लिए बेहद घातक सिद्ध होगा।

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