5/6/21

दिल्ली का इतिहास

aदुनिया में बहुत कम शहर ऐसे हैं जो दिल्ली की तरह अपने दीर्घकालीन, अविच्छिन्न अस्तित्व के साथ प्रतिष्ठा का दावा कर सकें। दिल्ली के इतिहास का एक सिरा भारतीय महाकाव्य महाभारत के समय तक जाता है, जब पांडवों ने इंद्रप्रस्थ का निर्माण किया था। तब से लेकर अब तक दिल्ली ने अनेक राजाओं और सुल्तानों सहित सम्राटों के समय को बदलते देखा है। तब से लेकर आज तक इस शहर में बदलते नामों का सफर जारी है। पहली दिल्ली लाल कोट (1000), दूसरी दिल्ली सिरी (1303), तीसरी दिल्ली तुगलकाबाद (1321), चौथी दिल्ली जहांपनाह (1327), पांचवी दिल्ली फिरोजाबाद (1354), छठी दिल्ली दीनपनाह (1533), सातवीं दिल्ली शाहजहांनाबाद (1639) और आठवीं दिल्ली नई दिल्ली (1911) थी। ये सात नाम आज भले ही दिल्ली के खंडहर हो चुके भवनों के साथ मिट गए हैं पर लोक-स्मृति में आज भी जिंदा है। देश के इतिहास में शायद ही कोई दूसरा शहर इतनी बार बसा और उजड़ा, जितनी दिल्ली। स्वतंत्र भारत की नई दिल्ली में आज शॉपिंग मॉलों और गगनचुंबी इमारतों के साए में पुराने नाम मिट रहे हैं। आज अँग्रेजी स्लेंग नामों (अँग्रेजी में अर्थहीन तुकबंदी) के फेर में जैसे एमजी रोड महात्मा गांधी का अल्पनाम है या फिर महरौली-गुड़गांव का यहीं साफ नहीं है। ब्रिटिश गुलामी से एक स्वतंत्र राष्ट्र की राजधानी बनी नई दिल्ली के आज तक के सफर में अनेक ऐतिहासिक नाम, स्थान और भवन इतिहास बन चुके हैं यानी अब उनका कोई नामो-निशान तक नहीं है।

12 दिसंबर, 1911 को जॉर्ज पंचम ने देश की राजधानी को कलकत्ता से स्थानांतरित कर दिल्ली करने की घोषणा कर दी थी. अंग्रेजी शासन काल में दिल्ली को भारत के एक आम राज्य से बदलकर भारत की राजधानी बना दिया गया था. सात बार उजड़ने और बसने वाले इस शहर को मजबूत ढर्रे पर लाने और इसके पुनर्निर्माण करने की पूरी जिम्मेदारी एक ब्रिटिश वास्तुशिल्पी एड्विन ल्यूटियंस को सौपीं गई थी. काफी देख-परख और सोच-विचार करने के बाद रायसीना की पहाड़ियों पर एक शहर का निर्माण करने का निर्णय लिया गया. इतिहासकारों की मानें तो इस निर्णय से पहले भी दिल्ली को राजधानी बनाने के विषय में विश्लेषण करने के लिए एक आयोग का गठन किया गया था. लेकिन उस आयोग का यह कहना था कि 50 वर्ष के भीतर ही यह शहर एक रेगिस्तान में परिवर्तित हो जाएगा. लेकिन फिर भी अंग्रेजों ने यहीं से भारत पर शासन करने का निर्णय लिया. उस समय रायसीना की पहाड़ियों पर छोटे-छोटे गांव बसे थे जिनमें मालसा, रायसीना, टोडापुर, अलीगंज आदि प्रमुख थे, इन सभी गांवों में मुख्य आबादी जाट, गुर्जर, मुसलमान और ब्राह्मणों की थी. ये सभी लोग पशुपालन या फिर शाहजहांबाद (वर्तमान पुरानी दिल्ली) के बाजारों में कार्य कर अपना जीवन व्यतीत किया करते थे.

 


ल्यूटियंस ने इन सभी गांवों को एक आधुनिक रूप दिया और आज की दिल्ली इन्हीं गांवों पर बसी हुई है. नई दिल्ली के निर्माण की शुरूआत भले ही रायसीना हिल से की गई थी लेकिन दिल्ली को राजधानी बनाने की घोषणा उत्तर-पश्चिमी दिल्ली के बुराड़ी के पास स्थित कोरोनेशन पार्क में की गई थी. इस पार्क में आज से सौ वर्ष पूर्व एक राज दरबार लगा था जहां जॉर्ज पंचम की दिल्ली के राजा के रूप में ताजपोशी हुई थी. उल्लेखनीय है कि जिस समय दिल्ली को राजधानी बना कर जॉर्ज पंचम की ताजपोशी हो रही थी उसी समय देश को आजाद करवाने की क्रांतिकारी गतिविधियां भी अपने चरम पर थीं. भारतीय स्वतंत्रता सेनानियों ने दिल्ली को अंग्रेजों के शासन से मुक्त करवाने के लिए अपने प्रयत्न तेज कर दिए थे. दिल्ली की चारदीवारी के बाहर कनॉट-प्लेस, इंडिया गेट, वर्तमान राष्ट्रपति भवन और भारतीय संसद का निर्माण हुआ. 1927 में तैयार इस शहर का नाम न्यू-डेल्ही रखा गया जिसका उद्घाटन 13 फरवरी, 1931 को लॉर्ड इरविन ने किया.

  

दिल्ली का प्राचीन इतिहास

 

दिल्ली के योजनाबद्ध निर्माण से पहले यह शहर सात बार उजड़ा और बसा है. दिल्ली का शासन एक वंश से दूसरे वंश को हस्तांतरित होता रहा है. महाभारत के अनुसार दिल्ली को पांडवों ने अपनी राजधानी इंद्रप्रस्थ के नाम से बसाया था. विद्वानों का मत है कि दिल्ली के आसपास रोपड़ (पंजाब) के निकट सिंधु घाटी सभ्यता के चिन्ह प्राप्त हुए हैं और पुराने किले के निचले खंडहरों में प्रारंभिक दिल्ली के अवशेष भी मिले हैं. जानकारों के अनुसार इंद्रप्रस्थ सात कोस के घेरे में बसा एक शहर था. पांडवों की आगामी पीढ़ी ने कब तक इस स्थान को अपनी राजधानी बनाए रखा यह बात पुख्ता तरीके से नहीं कही जा सकती. मौर्य काल में दिल्ली या इंद्रप्रस्थ का कोई विशेष महत्त्व नहीं था क्योंकि राजनैतिक शक्ति का केंद्र उस समय मगध में था. बौद्ध धर्म का जन्म तथा विकास भी उत्तरी भारत के इसी भाग में हुआ. बौद्ध-धर्म की प्रतिष्ठा बढने के साथ ही दिल्ली की पहचान भी बढ़ने लगी. मौर्यकाल के पश्चात लगभग 13 सौ वर्ष तक दिल्ली और उसके आसपास का प्रदेश अपेक्षाकृत अन्य राज्यों की अपेक्षा महत्वहीन रहा. एक चौहान राजपूत विशाल देव द्वारा 1153 में इसे जीतने से पहले लाल कोट पर लगभग एक शताब्दी तक तोमर राजाओं का राज रहा. विशाल देव के पौत्र पृथ्वीराज तृतीय या राय पिथौरा ने 1164 ई. में लाल कोट के चारों ओर विशाल परकोटा बनाकर इसका विस्तार किया. उनका क़िला राय पिथौरा के नाम से जाना गया.

1192 की लड़ाई में मुस्लिम आक्रमणकारी मुहम्मद गौरी ने पृथ्वीराज चौहान को युद्ध में हराकर उसकी हत्या कर दी. गौरी तो यहां से दौलत लूटकर चला गया लेकिन उसने अपने एक गुलाम कुतुबुद्दीन ऐबक को यहां का उपशासक नियुक्त कर दिया. 1206 में गौरी की मृत्यु के बाद कुतुबुद्दीन ऐबक ने स्वयं को भारत का सुल्तान घोषित कर दिया और लालकोट को अपने साम्राज्य की राजधानी बनाया . कुतुबुद्दीन ऐबक ने लालकोट में एक महत्त्वपूर्ण स्मारक कुतुब मीनार का निर्माण किया. 1321 में दिल्ली तुगलकों के हाथों में चली गई. मुहम्मद बिन तुगलक ने एक ऐसी राजधानी की कल्पना की थी, जो साम्राज्य की योजनाओं को प्रतिबिंबित करे. उसकी योजना राज्य विस्तार से ज्यादा निर्माण और सुदृढ़ता की थी. उसने कुतुब दिल्ली, सिरी तथा तुगलकाबाद के चारों ओर एक रक्षा दीवार बनाई और जहांपनाह नामक एक नये शहर का निर्माण करवाया.

तुगलकाबाद किले की विशाल दीवार 1320 ई. में दिल्ली के तख्त पर तुगलक वंश की स्थापना करने वाले गयासुद्दीन तुगलक के इरादों की गवाह हैं. इसे दिल्ली का चौथा शहर कहा जाता है. इस समय तक तुर्कों के भारत आगमन के लगभग सवा सौ साल बीत चुके थे. इसी समय दिल्ली सूफी संतों का केंद्र भी बन रही थी. मशहूर सूफी संत निजामुद्दीन औलिया, इस दौरान ऐसे मशहूर हुए कि सुल्तान की चमक भी फीकी पड़ गई. गयासुद्दीन तुगलक के बाद उसका बेटा मोहम्मद बिन तुगलक सुल्तान बना। उसने सल्तनत की राजधानी को दिल्ली से दौलताबाद ले जाने का अजब फैसला किया. मुहम्मद बिन तुगलक के बाद उसके चाचा सुल्तान फिरोजशाह तुगलक गद्दी पर बैठे थे. फिरोज शाह कोटला एक किला है, जिसे 1360 में फिरोज शाह तुगलक ने बनवाया था, उस समय उन्‍होने दिल्‍ली के पांचवे शहर की स्‍थापना की थी। किले के अवशेषों के साथ - साथ जामा मस्जिद और अशोक स्‍तम्‍भ के बचे अवशेष भी फिरोजाबाद में स्थित हैं। फिरोज शाह कोटला, यमुना नदी के तट पर स्थित है। यह जगह ज्‍यादातर अशोक के स्‍तंभ के कारण प्रसिद्ध है जो तीन मंजिला संरचना है। 1388 में फिरोजशाह की मौत के साथ ही इस शान-शौकत पर बुरी नजर लग गई थी.

1398 में तैमूर लंग ने दिल्ली पर हमला कर दिया था. जाहिर है, इरादा लूटपाट था, जिसे हमेशा की तरह एक धार्मिक जामा पहनाया गया. उसका आरोप था कि दिल्ली का सुल्तान हिंदुओं के साथ उदारता का व्यवहार करता है, जो इस्लाम के खिलाफ है. दिलचस्प बात ये है कि लगभग डेढ़ सौ साल बाद उसके वंशजों यानी मुगलों ने भारत में अपने राज की मजबूती के लिए ठीक यही नीति अपनाई थी.

तैमूर के सैनिकों ने 3 दिन- 3 रात तक लगातार दिल्ली में लूटपाट की. फिरोजशाह के शानदार शहर को खंडहर बना दिया गया था. हजारों लोगों की गर्दनें उड़ा दी गईं. दिल्ली का हर कूचा, हर गली इंसानी खून से लथपथ थी. तैमूर के लौटने के बाद थोड़े समय के लिए सैयद वंश के हाथ में सत्ता रही और फिर लोदियों का वक्त आया. अफगानी नेतृत्व वाले इस पहले शासक परिवार के बहलोल, सिकंदर और इब्राहिम लोदी दिल्ली का गौरव ना लौटा सके. इब्राहिम लोदी पहला सुल्तान था, जो युद्धक्षेत्र में मारा गया था. उसने पानीपत के मैदान में अंतिम सांस ली थी.

इब्राहिम लोदी की हार से बौखलाए अफगान बिहार के फरीद खां उर्फ शेर खां के नेतृत्व में एकजुट हो रहे थे. उसने 1539 में हुमायूं को चौसा के मैदान में बुरी तरह पराजित किया.शेरशाह ने दिल्ली में हुमायूं के दीन पनाह में कुछ तरमीम करके उसे शेरगढ़ बना दिया. इसे दिल्ली का छठा शहर माना गया. आप कह सकते हैं कि मुगल साम्राज्य को सन 1540 में तगड़ा झटका शेरशाह सूरी ने दिया। उसने हुमायूं को युद्ध में परास्त कर दिल्ली पर कब्जा जमाया। शेरशाह सूरी ने यहां एक अन्य शहर को बसाया। उसका नाम दिया शेरगढ़। शेरगढ़ के अवशेष आज भी पुराना किला में मिलते हैं। शेरगढ़ तीन दरवाजों से घिरा था। ये तीनों लाल बलुआ पत्थर से बनवाए गए थे। शेरगढ़ का निर्माण का कार्य 1540 में चालू हुआ था। इधर ही शेरशाह सूरी गेट भी है, जिस पर पिछले कई सालों से भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (एएसआइ) का ताला लगा हुआ है।

शेरशाह बेहद कुशल शासक साबित हुए. उसने बंगाल को पेशावर से जोड़ने वाली ऐसी सड़क बनवाई जो आज भी जीटी रोड के नाम से जानी जाती है. उसका चलाया रुपया आज भी भारत की मुद्रा है. किस्मत ने शेरशाह का भी साथ नहीं दिया. 1545 में एक दुर्घटना में उसकी मौत हो गई. शेरशाह की मौत के दस साल बाद 1555 में हुमायूं को फिर से दिल्ली पर कब्जा करने का मौका मिल गया. शेरगढ़ फिर दीनपनाह हो गया. लेकिन महज सात महीने बाद पुस्तकालय की सीढ़ियों से गिरकर हुमायूं की मौत हो गई थी.

दिल्ली मुगलों को रास नहीं आ रही थी. हुमायूं के बेटे और मुगल वंश के सबसे मशहूर शासक साबित हुए. अकबर ने अपनी राजधानी आगरा बनाई. उसके बेटे जहांगीर और पोते शाहजहां के समय भी आगरा ही शासन का केंद्र रहा था. शाहजहां खासतौर पर शानदार इमारतें बनवाने के लिए मशहूर था. आगरा में ताजमहल जैसी बेमिसाल इमारत की वजह से उनका नाम इतिहास के पन्नों में दर्ज है. शाहजहां ने दिल्ली का रुख किया और यमुना किनारे शाहजहांनाबाद की नींव रखी जो दिल्ली का सातवां शहर कहा जाता है. जिसके बाद उन्होंने लाल किला और जामा मस्जिद का निर्माण करवाया गया.

 

मुगल शासक शाहजहां के चार बेटे थे. उनमें दारा शिकोह उन्हें सबसे प्रिय था. वो बाकी बेटों से उसे ज्यादा प्यार और तवज्जो देते थे. इसी ने भाई-भाई के बीच नफरत के बीज बोए. बाद में सल्तनत पर कब्जे की जंग ने इसे और बढ़ा दिया. औरंगजेब ने सत्ता के लिए पहले अपने ही भाई से युद्ध लड़ा. दारा शिकोह को परास्त कर उसे बंदी बनाया और एक दिन अपने ही गुलाम से उसकी हत्या करवा दी. भारतीय मुगलकालीन इतिहास (Indian Mughal History) में 30 अगस्त 1659 को ही मुगल शासक शाहजहां (Shahjahan) के बेटे दारा शिकोह (Dara Shikoh) की उसके ही भाई ने हत्या करवा दी थी.

सिर्फ 32 साल बाद ईरान के शासक नादिरशाह ने दिल्ली की शान को खून में डुबो दिया. 1739 में बादशाह मुहम्मदशाह के वक्त हुए इस हमले में दिल्ली के 30000 नागरिक मारे गए. नादिर शाह अकूत दौलत के साथ तख्त-ए-ताऊस और कोहिनूर हीरा भी अपने साथ ले गया. दिल्ली की हर आंख में आंसू था और हर गली में खून की चादर बिछी थी. मुगल बादशाह मुहम्मदशाह और नादिरशाह के मध्य करनाल का युद्ध 1739 ई. में लड़ा गया। काबुल पर कब्ज करने के बाद उसने दिल्ली पर आक्रमण किया। करनाल में मुगल राजा मोहम्मद शाह और नादिर की सेना के बीच लड़ाई हुई। इसमें नादिर की सेना मुगलों के मुकाबले छोटी थी पर अपने बारूदी अस्त्रों के कारण फारसी सेना जीत गई। उसने दिल्ली में भयानक खूनखराबा किया और एक दिन में कोई हजारों लोगों को मौत के घाट उतार दिया। इसके अलावा उसने शाह से भारी धनराशि भी लूट ली।

1615 में इंग्लैंड के सम्राट जेम्स प्रथम की ओर से सर टामस रो बतौर राजदूत जहांगीर के दरबार में हाजिर हुआ था. उसने अंग्रेजी कंपनी को सूरत में फैक्ट्री खोलने की इजाजत मांगी थी. तब उस दरबार में किसी ने कल्पना नहीं की थी कि उसके वंशज, एक दिन जहांगीर के वंशजों को ना सिर्फ घुटनों पर झुकाएंगे बल्कि उनका गला भी काटेंगे. दुनिया के कुल व्यापार में भारत का हिस्सा लगभग 30 फीसदी था. अंग्रेज व्यापारी लार्ड क्लाइव के षडयंत्रों और विश्वासघात की नीति ने उन्हें कामयाबी दिलाई. बंगाल के नवाब सिराजुद्दौला ने उन्हें रोकने की कोशिश की लेरिक 1757 में प्लासी के मैदान में अंग्रेजी सेना ने नवाब सिराजुद्दौला को हरा दिया. 1764 की इस लड़ाई ने भारत में अंग्रेजी राज की बुनियाद रख दी, जिसके बाद कलकत्ता (अब कोलकाता) उनके इरादों की राजधानी बनी थी. इसके बाद धीरे-धीरे वे देश के तमाम दूसरे इलाकों में भी दखल करते चले गए.

1803 में अंग्रेजों ने दिल्ली को भी दखल कर लिया. 28 सितंबर 1837 को बादशाह अकबरशाह की मौत के बाद उनके बेटे बहादुर शाह जफर को बादशाह बनाया गया. लेकिन इस बादशाहत का असर लाल किले की दीवारों के अंदर तक ही था. पूरी दिल्ली पर अंग्रेज रेजीडेंट की हुकूमत चलती थी. वहीं दूसरी ओर बादशाह अपने खर्च के लिए कंपनी का मोहताज था. 1857 में पहला स्वतंत्रता संग्राम का बिगुल बज उठा और एक क्रांति आई. जिसके बाद अंग्रेजी राज कांप उठा था. वहीं अंग्रेजों ने बहादुर शाह जफर को हुमायूं के मकबरे से गिरफ्तार कर लिया. उनके दो बेटों का कत्ल कर दिया गया और उनके कटे सिर तोहफे बतौर उन्हें पेश किए गए. उस समय चारों तरफ दिल्ली में सिर्फ जुल्म ही जुल्म थे. मशहूर शायर मिर्जा गालिब, इस कहर के भुक्तभोगी थे. 1857 ने बता दिया कि देश की अवाम के दिल में दिल्ली के बादशाह की क्या जगह है। लिहाजा बहादुरशाह जफर और उनकी बेगम जीनत महल को रंगून भेज दिया गया था.

12 दिसंबर 1911 को दिल्ली को भारत की राजधानी बनाने का ऐलान किया गया था. दिल्ली से पहले कलकत्ता (अब कोलकाता) को भारत की राजधानी बनाया गया था. जिसके बाद 13 फरवरी 1931 को दिल्ली को आधिकारिक तौर पर राजधानी घोषित किया गया था. बता दें, समय के साथ दिल्ली के सात शहरों के नाम से मशहूर 1) लालकोट, 2) महरौली, 3) सीरी, 4) तुगलकाबाद, 5) फिरोजाबाद, 6) दीन पनाह और 7) शाहजहानाबाद आज खंडहर में तब्दील हो चुके हैं, आज उनके अवशेष दिल्ली के बसने और उजड़ने की कहानियां बयां करते हैं.

अंग्रेज इतिहासकार कर्नल गार्डन हेअर्न ने वर्ष 1908 में लिखी किताब द सेवन सीटिज ऑफ डेल्ही’, जिसका दूसरा संस्करण 1928 में छपा था, में सात दिल्ली का विवरण है। जबकि ब्रज कृष्ण चांदीवाला की किताब दिल्ली की खोज’ (वर्ष 1964) में 18 दिल्ली का उल्लेख है। अब आप कभी सात और कभी 18...दिल्ली इसकी ऐसी खोज से अंदाजा लगा सकते हैं कि इस शहर की किस्मत में उजड़ना और फिर बसना बार-बार लगा रहा। आखिर परिवर्तन ही जीवन का मूल तत्व है। एक और रोचक बात है कि यह नगर हर बार उजड़ने के साथ एक अलग स्थान पर ही बसा, नए ढंग से बसा। और इसी उजड़ने बसने की दास्तां में हर शासक इसे अपने अनुकूल नामों से पुकारता रहा। इसके माथे पर अनेक नाम सजते रहे। ज्ञात हो इतिहास में दिल्ली पुराना नाम है और यह आज भी प्रचलित है। ऐसे में, दिल्ली से संबंधित नामों पर अलग-अलग रूप में विचार बनता है।

 

दिल्ली का इतिहास दो भागों में बंटा हुआ है एक नई-दिल्ली जिसे अंग्रेजों ने अपने फायदे के लिए निर्मित किया था और दूसरा पुरानी दिल्ली जो जन सामान्य के रहन-सहन और जीवन यापन के लिए एक उपयुक्त स्थान था.

एक दौर था जब यह शहर सिर्फ पुरानी दिल्ली तक ही सिमटा हुआ था. इसके चारों ओर घना जंगल फैला हुआ था. सिविल लाइंस, कश्मीरी गेट और दरियागंज में तब शहर के कुलीन लोग रहा करते थे. जिस पुरानी दिल्ली में लाल किला स्थित है, उस शहर को बादशाह शाहजहां ने बसाया था, इसलिए इस शहर का नाम शाहजहांनाबाद कहा जाता था. चांदनी चौक क्षेत्र की डिजाइन शाहजहां की बेटी जहांआरा ने तैयार की थी. आखिरी मुगल बादशाह बहादुर शाह जफर के बाद सन् 1857 में दिल्ली पर अंग्रेजी शासन चलने लगा. 1857 में कलकत्ता को ब्रिटिश भारत की राजधानी घोषित कर दिया गया लेकिन 1911 में फिर से दिल्ली को ब्रिटिश भारत की राजधानी बनाया गया. स्वाधीनता के पश्चात आधिकारिक तौर पर दिल्ली को भारत की राजधानी घोषित कर दिया गया.

 

दिल्ली का इतिहास, शहर की तरह की रोचक है। इस शहर के इतिहास का सिरा महाभारत तक जाता है, जिसके अनुसार, पांडवों ने इंद्रप्रस्थ बसाया था। दिल्ली का सफर लालकोट यानी दिल्ली क्षेत्र का पहला निर्मित नगर, किला राय पिथौरा, सिरी, जहांपनाह, तुगलकाबाद, फिरोजाबाद, दीनपनाह, शाहजहांनाबाद से होकर नई दिल्ली तक जारी है। रायसीना की पहाड़ी पर बने राष्ट्रपति भवन के सामने खड़े होकर बारस्ता इंडिया गेट नजर आने वाला पुराना किला, वर्तमान से स्मृति को जोड़ता है।

 

यहां से शहर देखने से दिमाग में कुछ बिंब उभरते हैं जैसे पहला महाकाव्य का शहर, दूसरा सुल्तानों का शहर, तीसरा शाहजहांनाबाद और चौथा नई दिल्ली से आज की दिल्ली तक। इंद्रप्रस्थ की पहचान टीले पर खड़े 16वीं शताब्दी के किले और दीनपनाह से होती है, जिसे अब पुराना किला के नाम से जाना जाता है । दूसरे अदृश्य शहर के अवशेष आज की आधुनिक नई दिल्ली के फास्ट ट्रैक और बीआरटी कारिडोर पर चहूं ओर बिखरे हुए मिलते हैं।

 

महरौली, चिराग, हौजखास, अधचिनी, कोटला मुबारकपुर और खिरकी शहर के बीते हुए दौर की निशानी हैं। तोमर राजपूतों के दौर में ही पहली दिल्ली (12वीं सदी) का लालकोट बनाया गया जबकि पृथ्वीराज चौहान ने शहर को किले से आगे बढ़ाया। जबकि कुतुबद्दीन  ऐबक ने 12वीं सदी में कुतुबमीनार की आधारशिला रखी जो भारत का सबसे ऊंचा बुर्ज (72.5 मीटर) है। अलाउद्दीन खिलजी के सीरी शहर के भग्न अवशेष हौजखास के इलाके में दिखते हैं जबकि गयासुद्दीन तुगलक ने दिल्ली के तीसरे किले बंद नगर तुगलकाबाद का निर्माण किया जो कि एक महानगर के बजाय एक गढ़ के रूप में बनाया गया था। फिरोजशाह टोपरा और मेरठ से अशोक के दो उत्कीर्ण किए गए स्तंभ दिल्ली लाए गए और उसमें से एक को अपनी राजधानी और दूसरे को रिज में लगवाया।

 

सैय्यद और लोदी राजवंशों ने करीब सन् 1433 से करीब एक शताब्दी तक दिल्ली पर राज किया। उन्होंने कोई नया शहर तो नहीं बसाया पर फिर भी उनके समय में बने अनेक मकबरों और मस्जिदों से मौजूदा शहरी परिदृश्य को बदल दिया। आज के प्रसिद्ध लोदी गार्डन में सैय्यद-लोदी कालीन इमारतें इस बात की गवाह हैं। 1540 में शेरशाह सूरी ने हुमायूं को बेदखल करके एक और दिल्ली यानी शेरगढ़ की स्थापना की।

 

आज चिड़ियाघर के नजदीक स्थित पुराना किला में शेरगढ़ के अवशेष दिखते हैं। हुमायूं के दोबारा गद्दी पर बैठने के बाद दिल्ली के छठे शहर, दीनपनाह से शासन किया। निजामुद्दीन औलिया की दरगाह, हुमायूं का मकबरा और खान ए खाना मकबरा, ये सभी इमारतें मुगल-पूर्व दिल्ली की निशानी हैं।

 

शहाजहां ने 1638 में सातवीं दिल्ली शाहजहांनाबाद की आधारशिला रखी। 1639 में बनना शुरू हुआ लालकिला नौ साल में पूरा हुआ। लालकिले की प्राचीर से ही आजादी भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने अपना भाषण दिया था। जब अंग्रेजों ने 1857 की क्रांति कर  दिल्ली पर दोबारा कब्जा किया। उन्होंने पुरानी दिल्ली की इमारतों को नेस्तानाबूद करते हुए सैनिक बैरक बना दीं। इसी तरह, शहर में रेलवे लाइन के आगमन (1867) के साथ पुरानी दिल्ली के बागों पर स्टेशन सहित दूसरी इमारतें खड़ी की गईं और शाहजहांनाबाद का स्थापत्य-रूप एक इतिहास हो गया।

 

1911 में भारत की अंग्रेजी हुकूमत ने दिल्ली को राजधानी बनने का फैसला लिया और उत्तरी दिल्ली में अस्थायी राजधानी बनी। उसी जगह वायसराय लाज, जहां अब दिल्ली विश्वविद्यालय है, के साथ अस्पताल, शैक्षिक संस्थान, स्मारक, अदालत और पुलिस मुख्यालय बनें। एक तरह से, अंग्रेजों की सिविल लाइंस को मौजूदा दिल्ली के भीतर आठवां शहर था।

 

एडवर्ड लुटियंस के नेतृत्व में नई दिल्ली के निर्माण का कार्य 1913 में शुरू हुआ, इसके लिए नई दिल्ली योजना समिति का गठन किया गया। 13 फरवरी 1931 को तत्कालीन वायसराय लार्ड इरविन ने नई दिल्ली का औपचारिक उद्घाटन किया। यह नियोजित राजधानी शाही सरकारी इमारतों, चौड़े-चौड़े रास्तों और आलीशान बंगलों के साथ एक स्मारक की महत्वाकांक्षा के रूप में बनाई गई थी।

 

महाभारत काल हो या फिर किसी मुगल शासक का आधिपत्य, अंग्रेजी हुकूमत हो या आजादी के बाद का नजारा दिल्ली ने बहुत उतार-चढ़ाव देखे हैं. हर काल में दिल्ली ने नए और अलग रूप देखे हैं. बदलते शासनों और साम्राज्यों के बावजूद  दिल्ली की रौनक हमेशा बरकरार रही. दिलवालों की दिल्ली के नाम से प्रचलित इस चमचमाते और भागते-दौड़ते शहर की इमारतें जितनी ऊंची हैं उससे कहीं ज्यादा ऊंचे यहां बसने और पलायन करने वाले लोगों के सपने हैं. आजादी से पूर्व भी दिल्ली राजनैतिक और क्रांतिकारी घटनाओं का केन्द्र थी. स्वतंत्रता संग्राम में क्रांतिकारी गतिविधियां यहीं से निर्देशित की जाती थीं. आजाद हिंद फौज का भी अंतिम उद्देश्य दिल्ली पर आधिपत्य स्थापित कर स्वराज की घोषणा करना था. दिल्ली चलो जैसा नारा आज भी राजनेताओं द्वारा प्रयोग में लाया जाता है जो स्वयं दिल्ली की महत्ता को बयां करता है. यह शहर तमाम राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक और ऐतिहासिक घटनाओं का साक्षी बना है. जहां इस शहर ने आजादी के बाद पहली बार लाल-किले पर तिरंगा लहराते हुए देखा है वहीं 1984 के दंगों का घाव भी इसने सहन किया है.

 

दिल्ली में कितने शहर है?

 

7 शहर हैं दिल्ली में

एक लंबे इतिहास को आंचल में समेटे हुए है राजधानी दिल्ली। कई राजाओं ने दिल्ली को अपनी राजधानी बनाया। अलग-अलग युग के शासकों की प्राथमिकता के आधार पर मौजूदा दिल्ली शहर के भीतर ही उनके प्रशासनिक गतिविधियों के केंद्र और राजधानी के नाम बदलते गए। यही वजह है कि दिल्ली को कहा जाता है 'शहरों का शहर'। इनमें सात ऐसे हैं, जिनका गौरवशाली अतीत रहा है। उन्हें मुगलों और अन्य वंश के शासकों ने अपनी राजधानी भी बनाया। हालांकि अब उनके नाम और स्वरूप पूरी तरह से बदल चुके हैं, जैसे फिरोजाबाद अब फिरोजशाह कोटला के नाम से जाता है, जबकि सिरी कहलाता है सिरी फोर्ट। आइए डालते हैं नजर उन सात शहरों पर

 

इंद्रप्रस्थ

 

यह पांडवों की राजधानी थी, जिसे मयासुर ने बनाया था। कहा जाता है कि पांडवों का महल इतना भव्य था कि दुर्योधन भी आश्चर्यचकित रह गया था। महल में घूमने के दौरान तो वह पानी और शीशे में भी फर्क महसूस नहीं कर सका और एक जलाशय में गिर गया। यह देखकर वहां मौजूद द्रौपदी हंस पड़ी, जिसे दुर्योधन सहन नहीं कर सका। उसी वक्त उसने उस अपमान का बदला लेने की ठान ली। इस तरह महाभारत के युद्ध की पटकथा तैयार हो गई।

 

लाल कोट

 

ऐतिहासिक साक्ष्यों के अनुसार सर्वप्रथम 1020 में तोमर वंश के राजपूत राजा अनंगपाल ने महरौली के नजदीक अपनी राजधानी स्थापित की। बाद में तोमर व उसके उत्तराधिकारियों और चौहान वंश के राजाओं ने इस शहर का विस्तार लाल कोट तक किया। इसके अवशेष इन दिनों साकेत में देखे जा सकते हैं। महरौली में केंद्रित रहकर कई अन्य शासकों ने भी शासन किया। उनकी फेहरिस्त में मुहम्मद गौरी, कुतुबुद्दीन ऐबक और इल्तुतमिश शामिल हैं।

 

सिरी

 

कालांतर में अलाउद्दीन खिलजी ने सिरी को अपनी राजधानी एवं प्रशासनिक गतिविधियों का केन्द्र बनाया। यह लाल कोट (वर्तमान सिरी फोर्ट) से दो मील की दूरी पर स्थित है। वहींउसने मशहूर महल हजार सितून का निर्माण कराया। अलाउद्दीन ने न केवल मंगोलों को हराया, बल्कि राजपूत भी उसके सामने नहीं ठहर सके। उसने दक्षिण भारत के भी विभिन्न राज्यों पर हमला बोला। हौज खास के पास स्थित आलीशान टैंक भी उसी के द्वारा निर्मित है।

 

तुगलकाबाद

 

खिलजी के बाद गयासुद्दीन तुगलक ने दृढ दीवारों से घिरे तुगलकाबाद को राजधानी बनाया। उसने ऐसा मंगोलों के आक्रमण के चलते किया। वह राजधानी महज 15 बरसों तक ही कायम रह सकी, क्योंकि चट्टानी सतह पर बने होने और असहनीय गर्मी के चलते गयासुद्दीन को वह जगह छोड़नी पड़ी। कहा यह भी जाता है कि संत निजामुद्दीन औलिया ने उससे कहा था कि वहां राजधानी बनाए रखने की सूरत में उसे दिल्ली पर व्यापक फतह शायद ही हासिल हो। गयासुद्दीन तुगलक की हत्या के बाद मोहम्मद बिन तुगलक का राज आया। उसके द्वारा बार-बार राजधानी बदलने की कहानी तो सब भली भांति जानते हैं ही, मगर जब वह अंतिम रूप से दिल्ली में बसा तो उसने एक नया शहर 'जहांपनाह' बनाया जो कुतुब मीनार और सिरी के बीच का इलाका था। इब्नबतूता ने यहां स्थित स्थापत्य धरोहरों की खुलकर तारीफ करते हुए कहा था कि बेगमपुरी मस्जिद और शाही महल (अब विजय मंडल के नाम से मशहूर) जैसे स्मारक संसार के सभी तत्कालीन इस्लामी मुल्कों में सबसे बड़े हैं।

 

फिरोजाबाद

 

बिन तुगलक के बाद उसका उत्तराधिकारी फिरोज तुगलक अपनी सैन्य शक्ति बढ़ाने को लेकर बहुत जुनूनी नहीं था, मगर स्थापत्य एवं शिल्प कला के प्रति उसमें गहरी रुचि थी। उसने फिरोजाबाद को दिल्ली सल्तनत की नई राजधानी बनाया। उसके द्वारा स्थापित फिरोजाबाद अब फिरोज शाह कोटला के नाम से मशहूर है। उसने कई आलीशान मस्जिदें बनाई और दो अशोक स्तंभ भी अन्यत्र से लाकर दिल्ली में स्थापित किए।

 

दीनपनाह

 

1526 ईसवी में पानीपत पर जीत हासिल करने के बाद बाबर आगरा की ओर बढ़ा, जो लोदी राजाओं की राजधानी थी, लेकिन वह ज्यादा दिन जीवित नहीं रह सका। उसके बेटे हुमायूं ने दीनपनाह नामक शहर बसाया और उसे अपनी राजधानी बनाया। यह शहर मौजूदा पुराना किला वाली जगह पर थी। बाद में शेरशाह सूरी ने हुमायूं को हराकर इस जगह से शासन किया। उसने इस शहर का विस्तार भी किया। इसके समीप स्थित हुमायूं का मकबरा पहला मुगल स्मारक कहा जाता है। हुमायूं के बेटे अकबर ने ज्यादा दिनों तक यहां राजधानी नहीं रखी। अपने शासन के कुछ साल यहां बिताने के बाद उसने अपनी राजधानी वापस आगरा ही स्थानांतरित की।

 

शाहजहांनाबाद

 

अकबर के पुत्र शाहजहां ने सत्ता संभालते ही एक बड़ा फैसला लिया। उसने चांदनी चौक के पास स्थित शाहजहांनाबाद को राजधानी बनाया। दरअसल आगरा के व्यापारी वहां की सड़कों को चौड़ा करने के लिए राजी नहीं थे। लिहाजा 1638 में शाहजहां ने चांदनी चौक के पास शाहजहांनाबाद को राजधानी बनाने का कदम उठाया। उसने किला-ए-मुबारक यानी लाल किला का निर्माण कराया, जहां से मुगलों ने समूचे उपमहाद्वीप पर राज किया। यह राजधानी बसाने में उसे करीब दस साल लगे। दुनिया भर से लोगों के काफिले शाहजहांनाबाद में आकर रुकते थे। इस तरह यह ज्ञान और संस्कृति का केंद्र बना। उत्तर भारतीय सुगम संगीत, उर्दू व ईरानी कविता, मुगलई पकवान, पोशाक और तहजीब का यहां से विस्तार हुआ। यहीं मयूर सिंहासन पर बैठते हुए शाहजहां ने यह तय किया कि अगर दुनिया में कहीं स्वर्ग है तो उसे यहीं बनना है!

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