10/30/17

धर्म की परिभाषा

दरअसल "धर्म" संस्कृत भाषा का शब्द हैं  "धृ" धातु से बना हैं जिसका अर्थ होता है " धारण करने वाली " इस तरह हम कह सकते हैं कि "धार्यते इति धर्म:" अर्थात, जो धारण किया जाये वह धर्म हैं। दूसरे शब्दों में लोक परलोक के सुखों की सिद्धि हेतु सार्वजानिक पवित्र गुणों और कर्मों का धारण व सेवन करना ही धर्म हैं।

हम यह भी कह सकते हैं कि मनुष्य जीवन को उच्च व पवित्र बनाने वाली ज्ञानानुकुल जो शुद्ध सार्वजानिक मर्यादा पद्यति हैं वही धर्म हैं। धर्म मनुष्य की उन्नति के लिए आवश्यक हैं और, धर्म के बिना मनुष्य और पशु में कोई अंतर नहीं रह जाएगा ! धर्म आत्मोन्नति का एक मार्ग है फिर भी कुछ लोग धर्म को समाज के उत्थान में बाधक समझाने का प्रयास करते हैं !

धर्म ऐसा होना चाहिए जो उसके भौतिक व सांसारिक तथा आध्यात्मिक व नैतिक जीवन-क्षेत्रों में संतुलन व सामंजस्य के साथ अपनी भूमिका निभा सके।

सनातन धर्म ही "धर्म" की परिभाषा पर खरा उतरता है जो हमें धैर्य, क्षमा, शांती, मन को प्रलोभनों में फँसने से रोकना, चोरी त्याग, इन्द्रिय निग्रह, बुद्धि अथवा ज्ञान, विद्या, सत्य और अक्रोध ... आदि के बारे में बताता है...

संपूर्ण विश्व में पहले वैदिक धर्म ही था। फिर इस धर्म की दुर्गती होने लगी। लोगों और तथाकथित संतों ने मतभिन्नता को जन्म दिया और इस तरह एक ही धर्म के लोग कई जातियों व उप-जातियों में बंट गए। ये जातिवादी लोग ऐसे थे जो जो वेद, वेदांत और परमात्मा में कोई आस्था-विश्वास नहीं रखते थे। इसमें से एक वर्ग स्वयं को वैदिक धर्म का अनुयायी और आर्य कहता था तो दूसरा जादू-टोने में विश्वास रखने वाला और प्रकृति तत्वों की पूजा करने वाला था। दोनों ही वर्ग भ्रम और भटकाव में जी रहे थे क्योंकि असल में उनका वैदिक धर्म से कोई वास्ता नहीं था। श्रीकृष्ण के काल में ऐसे 72 से अधिक अवैदिक समुदाय दुनिया में मौजूद थे। ऐसे में श्रीकृष्ण ने सभी को एक किया और फिर से वैदिक सनातन धर्म की स्थापना की।

* आज हिन्दू धर्म की हालत यह है कि हर संत का अपना एक धर्म और हर जाति का अपना अलग धर्म है। लोग भ्रम और भटकाव में जी रहे हैं। वेदों को छोड़कर संत, ज्योतिष और अन्य लोग दूसरे या मनमाने धर्म के समर्थक बन गए हैं।

* अक्सर यह कहा जाता है कि हिन्दू धर्म का कोई संस्थापक नहीं। इस धर्म की शुरुआत का कुछ अता-पता नहीं। हालांकि धर्म के जानकारों अनुसार वर्तमान में जारी इस धर्म की शुरुआत प्रथम मनु स्वायम्भुव मनु के मन्वन्तर से हुई थी।

धर्म के विषय में आप क्या सोचते हैं

लोंगो ने धर्म को मात्र अपनी स्वार्थपूर्ति का एक माध्यम बना कर रख दिया है कुछ मूर्खलोग अपनी तरह-तरह की अनावश्यक मनोकामनाएं, इच्छाएँ भगवान पर लादने-थोपने के लिए उसके दरबार में जाते हैं। जो देवी देवता जितने लोगों को मनोकामना पूर्ति कर दें वह उतना ही महान है अन्यथा वह बेकार हैं। कुछ चतुर लोग धन कमाने के लिए धर्म का मार्ग अपनाते हैं तरह-तरह के स्वांग रचकर, भेष भरकर जनता के सामने अपने को योगी, सिद्ध पुरुष आत्मज्ञानी-ब्रह्मज्ञानी प्रदर्शित करते हैं। येन केन प्रकारेण जनता से धन वसूलकर उससे अंदर ही अंदर भोग विलासिता अध्याशी का जीवन जीना ही उनका असली धर्म है। प्रति वर्ष ऐसे लोगों की पोल खुलती है परन्तु पांच लोगों की दुकान बंद होती है तो पचास नए लोगों की दुकान खुल जाती है।

कुछ अमीर व अहंकारी लोग अपना नाम-यश पाने के लिए धर्म को एक माध्यम बनाते हैं। वो ऐसी जगह दान देते हैं जहां देने पर उनकी प्रसिद्धि होती है। ऊँच व बडे भाग भव्य मंदिरों की स्थापना, अपने नाम के पत्थर लगवाना, फोटो खिंचवाना, समाचार पत्रों में नाम का देना यही उनका असली धर्म है। कुछ राजनैतिक लोग वोट बैंक बनाने के लिए धर्म की शरण में जाते हैं। जिस संत के जितने अनुयायी उससे उतना बडा वोट बैंक बन सकता है। धर्म को माध्यम बनाकर व्यक्ति अपना-अपना उल्लू सीधा करने की सोचता है। संक्षेप में कहा जा सकता है कि क्या धर्म लोगों की स्वार्थपूर्ति, इच्छापूर्ति का एक माध्यम भर है अथवा इससे उपर की कोर्इ विद्य है?

     वास्तव में धर्म आत्मोन्नति, आत्मकल्याण का एक पवित्र मार्ग है। जो इस मार्ग पर चलना चाहें उन्हें धर्म के सही स्वरूप को खोजना चाहिए। अन्यथा व्यर्थ पाखण्ड़ों को ढोते-ढोते व्यक्ति व समाज अवसाद की स्थिति में डूबता जा रहा है। धर्म आत्मा के उद्वार का, आत्मा के उत्थान की एक सुव्यवस्थित पद्धति है जिसका अनुसरण कर हम एक सुंदर समाज का निर्माण कर सकते हैं।

     बडे दुख की बात है कि स्वार्थ व भोग्यवाद की तेज आंधी में पूरा समाज बहा जा रहा है कितनी दूर व कहां जाकर रूकेगा कुछ पता नहीं। जिनको भगवाने ने थोड़ा सा भी विवेक दिया हो या आत्मबल दिया हो वो तुरन्त सावधान होकर आत्म निरीक्षण करें। अपने पैर दृढ़तापूर्वक धर्म के मार्ग पर बढ़ाने का प्रयास करें अन्यथा मूढ़ मान्यताओं के तेज दरिया में सब कुछ बह जाएगा नष्ट भ्रष्ट हो जाएगा।

धर्म का अर्थ है अपने आपमें रहना। आत्मचिंतन करना, अपने आपको पहचानना। बस यही व्याख्या है धर्म की। आज हर कोई धर्म की बात कर रहा है। धर्म के नाम पर लड़ाई-झगड़े हो रहे हैं। असहिष्णुता का माहौल बना हुआ है। कर्मकांड को धर्म का दर्जा दे दिया गया है, पर वास्तविक धर्म हमारे अंदर ही छुपा हुआ है। जिस दिन हमने इस बात को समझ लिया धर्म का वास्तविक रूप हमारे समक्ष प्रकट हो जाएगा।


सच्चा धर्म न तो नियम-आधारित न ही अनुष्ठान-आधारित होता है। सच्चा धर्म परमेश्वर के साथ एक सम्बन्ध है। 

धर्म के मुख्यतः दो आयाम हैं। एक है संस्कृति, जिसका संबंध बाहर से है। दूसरा है अध्यात्म, जिसका संबंध भीतर से है। धर्म का तत्व भीतर है, मत बाहर है। तत्व और मत दोनों का जोड़ धर्म है। तत्व के आधार पर मत का निर्धारण हो, तो धर्म की सही दिशा होती है। मत के आधार पर तत्व का निर्धारण हो, तो बात कुरूप हो जाती है।

वैज्ञानिक आइंस्टीन ने कहा था कि विज्ञान मनुष्य को अपरिमित शक्ति तो दे सकता है, पर वह उसकी बुद्धि को नियंत्रित करने की साम‌र्थ्य नहीं प्रदान कर सकता है। मनुष्य की बुद्धि को नियंत्रित करने और उसे सही दिशा में प्रयुक्त करने की शक्ति तो धर्म ही दे सकता है।

     जिनको आत्मा की उन्नति करनी हो वह सनातन धर्म की स्थापना के लिए संघबद्ध हों, र्इश्वर की पुकार को सुनें अपनी अन्तरात्मा की आवाज को पहचानें, साहस का अवलम्बन करें और संघबद्ध होकर पूरे विश्व के सामने एक आदर्श प्रस्तुत करें ।


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