टीवी पर आ रहे भ्रामक प्रचार से बचें -
टी.वी. पर आजकल कुछ लोकलुभावन मनभावन विज्ञापन जैसे
संधि-सुधा, शुभ-धन-वर्षा, लक्ष्मी
कुबेर धन वर्षा यंत्र, शिव हनुमान महायोग यंत्र, मसल बिल्डर, मास गेनर, पीने की
चाय, गोरे करने की क्रीम एवं ऐसे ही अन्य अनेको लगाने की या
खाने की वस्तुओ के विज्ञापनों का भ्रामक एवं झूठा प्रचार किया जा रहा है।
विभिन्न कंपनिया अपने उत्पादों की बिक्री बढा़ने के
लिये विज्ञापनों में आष्चर्यजनक दावे करती हैं जैसे कि बच्चों के दिमाग को चंद
दिनो में तेज करने, उनकी लंबार्इ बढ़ाने, सप्ताह भर में युवतियों का मोटापा कम करने और शरीर को सुडौल बनाने,
गोरा बनाने, बिना किसी व्यायाम के युवाओं की
मसल्स बनाने, गंजापन दूर करने, अंदरूनी
ताकत बढ़ाने आदि आदि। किन्तु इन सबके दुष्परिणामों पर कभी भी प्रकाश नही डाला जाता
है।
इन विझापनों में दिखार्इ गयी भीड़ में आगे कुछ
पुराने अभिनेता, अभिनेत्री एवं अन्य एक्स्ट्रा कलाकार रहते हैं
और पीछे एनिमेषन एवं कम्प्यूटर रचित भारी भीड़ बतार्इ जाती है। इन उत्पादनों के
बड़े-बड़े दावे किये जाते हैं और इन्हें दर्शकों को खरीदने के लिये काफी प्रसिद्ध
कलाकारों द्वारा अपने भावभीने शब्दों से प्रेरित किया जाता है। कर्इ प्रकरणों में
तो इन प्रोडक्ट की बेचनें की कीमत निर्माण राशि से 3000
प्रतिशत और अधिक रखी जाती है। इस वस्तुओं की कोर्इ मेडिकल हिस्ट्री, ड्रग टेस्टींग, जांच आदि नहीं बतार्इ जाती है। जिन
वस्तुओं को लगाये या खाये के निर्देश दिये जाते हैं, उनमें
से कर्इ में देश एवं विदेषों में प्रतिबंधित स्टेराइडस एवं अन्य दवार्इयों एवं
पदार्थों का भी मिश्रण हो सकता है। इन्हे बिना किसी नुकसान या सावधानियो को बताये
चमत्कारिक गुणो को बताते हुए उपयोग करने की प्रेरणा दी जा रही है।
यहा यह बताना उचित होगा कि इन्हे लम्बे समय तक
उपयोग करने से शरीर पर बहुत से दुष्परिणाम होने की संभावना हो सकती है, जो कि घातक भी हो सकते हैं। शरीर के साथ मन पर भी इनका बहुत बुरा असर होता
है। इस तरह सामान्य व सीधे सादे देशवासियो की जोर-षोर से प्रचार के बल पर ठगी की
जा रही है। बहुत से चैनल अपने फायदे के लिये ये विज्ञापन दिखाते हैं और एक तरह से
उपभोक्ताओं को लूट ही नहीं रहे हैं अपितु उनके स्चास्थ्य के साथ खिलवाड़ भी कर रहे
हैं। इस तरह के प्रयोग से कर्इ गम्भीर बीमारियाँ जैसे किडनी खराब होना, लीवर सिरोसिस, हृदय रोग, दमा,
हार्इ ब्लड प्रेषर, डायबटीज, पेपिटक अल्सर, एलर्जी, कमजोर
इम्यूनिटी सिस्टम आदि होने का खतरा बन जाता है। यह बहुत ही आष्चर्यजनक है कि इन
सभी बातों को जानते हुए भी सभी टी.वी. चैनल इन वस्तुओं का विज्ञापन दिखा रहे हैं।
टेलीविजन पर भ्रामक एवं झूठे और मन-लुभावन विज्ञापन
देकर सीधे-सादे, भोले-भाले उपभोक्ताओं को मूर्ख बनाना IPC
की धारा 420 के अन्तर्गत लोगों को ठगने एवं
धोखाद्यड़ी की श्रेणी में आता है। गौरतलब है कि भ्रामक विज्ञापनों से उपभोक्ताओं
को बचाने के लिए औषधि एवं प्रसाधन अधिनियम 1940, औषधि एवं
चमत्कारिक उपचार अधिनियम 1955, खाद्य सुरक्षा और मानक
अधिनियम 2006 आदि कानून बनाए जा चुके हैं, किंतु इनका पालन नहीं हो रहा है। सरकार को भी चाहिये कि भ्रामक और झूठे
विज्ञापन दिए जाने पर न सिर्फ इन धोखेबाज कंपनियों का रजिस्ट्रेशन रदद करे बलिक
उनके खिलाफ धोखाधड़ी का आपराधिक मुकदमा भी सरकार को चलाना चाहिये।
इस तरह के गलत, भ्रामक और झूठे
प्रचार के कारण सीधे-सादे निरीह नागरिक इनके चंगुल में फंस जाते हैं और फिर होने
वाली परेशानी से व्याकुल हो अपनी बहुत ही मेहनत से कमार्इ धनराशि इन उत्पादों को
खरीदने में लगा देते हैं।
कर्इ लोग तो ऐसे भी होते हैं जो बीमारी और मुसीबत
से इतने घबड़ाये हुए होते हैं कि अपना घर, सामान तक गिरवी
रख कर, ऋण लेकर इन उत्पादों को खरीदते हैं। इस तरह न केवल वे
ठगे जाते हैं, अपितु उनका पूरा परिवार ही संकट में पड़ जाता
है जो कि एक बहुत गंभीर बात है।
एक विचारणीय बात यह है कि जब आप किसी दूसरे मनुष्य
से मिलते हैं और अगर आप उसकी मदद प्यार, स्नेह, आदि से करने का सोचते हो तो आपके अन्दर विज्ञान के न्यूटन के तृतीय नियम
के अनुसार आपके द्वारा की गयी हरेक क्रिया से वैसी ही विपरीत क्रिया का उत्पादन
पाजिटिव एनर्जी के रूप में म्यूचुअल इंडक्शन के सिद्धांत के अनुसार होता है,
जिससे आपको सुख, समृद्धि और शान्ति के साथ
कर्इ तरह की बीमारी से भी आपका बचाव होता है, किन्तु जब आप
किसी के प्रति द्वेष, घृणा, मारने आदि
का भाव लाते हो तो आपके अंदर उस तरह की नेगेटिव एनर्जी का उत्पादन होता है,
जिससे आपके अंदर कर्इ तरह की बीमारियाँ पैदा होती हैं। हमारे इन
वस्तुओं के उत्पादनकर्ताओ को भी सोचना चाहिये कि वे आज जो कर रहे हैं उसका
दुष्परिणाम उन्हे एवं उनके परिवार को भी भुगतना पड़ेगा।
टेलीविजन आजकल प्रचार का एक बहुत बड़ा साधन बन गया
है। देश की करोड़ो जनता अपने मनोरंजन के लिये टी.वी. देखती है। अत: टी.वी. पर इन
उत्पादों का झूठा, भ्रामक प्रचार एक मनभावन शैली में
करना अत्यंत निंदनीय है। अत: सरकार से अनुरोध है कि शीघ्रातिशीघ्र टेलीविजन पर इन
विज्ञापनों को रोकने की सुचारू व्यवस्था करें एवं जब तक कोर्इ कम्पनी अपना
प्राडक्ट पूरी तरह सरकार द्वारा नियुक्त निष्पक्ष ऐजेन्सी से जांच कर यह प्रमाणित
न करवा देवे कि ये उपयोग में पूरी तरह सुरक्षित हैं और कम्पनी द्वारा दर्षाये गये
सभी दावों पर खरे उतरते हैं; तभी इन विज्ञापनो को टी.वी. पर
दिखाने की अनुमति दी जानी चाहिये।
जाल बिछाते-जाल मे फसाते-आकर्षक विज्ञापन
बचकर रहे-सभलकर चले
विज्ञापनों के जाल-तेल-शेम्पू से बालों को काला,घना,लंबा बनाये-सफ़ेद होने झड़ने से बचाए,टूथपेस्ट- दाँतो को मजबूत, मोती सा चमकीला बनाये
मसूडो को स्वस्थ बनाये,मात्र एक माह मे 5 किलो वज़न घटाए छरहरा ज़ीरो फिगर पाये, क्रीम से गोरा
चिट्टा निखरा रंग 4 हफ़्तों मे पाये ऐसे न जाने कितने
विज्ञापन प्रिंट- इलेक्ट्रोनिक-सोशल मीडिया ने
घर की चारदीवारी मे ही नही लोगों के दिमांगो मे भरने के ज़ाल बिछाये हुये
है.सावधानी हटी-दुर्घटना घटी ऐसे विज्ञापनों से सावधानी अत्यंत आवश्यक है.जेबों को
खाली कराने के लिए ऐसे ज़ाल बिछाये जाते है.मैंने बजन घटाने का दावा करती-मोटी रकम
वसूलती संस्था का विज्ञापन पड़ा एक पक्ति हास्यास्पद-“पैदल
चलने-घास-फूस खाने से यदि वज़न घटता तो भैस-गाय-घोड़े स्लिम-ट्रिम हो गए होते”अभिप्राय यह समझाना टहलने-हरी सब्जियों के खाने मात्र से वज़न नही
घटता-जैसी की आम प्रचलित धारणा है-एक हास्यास्पद तर्क मुझे भी सूझा मिठाई-चीनी-गुड़
खुले मे रख देते है बहुत सारी चीटियाँ कुछ मिन्टो मे इर्द-गिर्द चिपक जाएगी हम
कहेगे मीठा खाने से मुटापा नही बड़ता यदि बड़ता तो चीटियाँ पतली नही होती-मीठा खा
खाकर हिप्पोपुटोमस हो गई होती-समझने वाली बात यह है आर्थिक लाभ हेतु ग्रीड़ी-लालची
ज़ाल बिछाने की ही चेष्टा नही करते ज़ाल मे फसाने के लिए अनाधिकार कुचेष्टये भी करते
है-फ़साने के उपरान्त हेकड़ी दिखाते है-भयाक्रांत करते है.ऐसे भ्रामक जालों मे फ़सने
से बचे.यह समझे हर व्यक्ति की स्वाभाविक सरंचना है चीटीं की अलग है गाय-भैस-घोड़े
की अलग है-सरंच्नाए निज दायरों मे परिष्क्रत-परिमार्जित की ज़ाती है-वाह-वाह,बल्ले-बल्ले करते चालबाजो की चाले मुझे समझ आ गई है -इसलिए नो वाह-वाह,नो बल्ले-बल्ले-सुधर ले “नि “बिगड़े-भटके
जहाँ तक प्रश्न आज के समय के विज्ञापनों की सत्यता
तथा गुणवत्ता का है, तो हम सभी इससे वाकिफ हैं |
कितना बेहतर हो यदि ये विज्ञापन व्यक्ति के आचरण तथा चरित्र में
सकारात्मक परिवर्तन लाने में सहायक हों, एक-दूसरे की सहायता
करने को प्रेरित कर सकें; किन्तु हालात इसके ठीक बिपरीत ही
हैं | आखिर इसका कारण क्या है ? क्या
हम इतने विवेकशून्य हो चुके हैं कि हमें कुछ भी समझ नहीं आता ? सत्य शायद यही है कि आज हम स्वयं ही इस व्यवस्था का एक हिस्सा बन चुके हैं
|
बात सिर्फ विज्ञापनों तक ही सीमित नहीं है, जीवन के सभी स्तरों पर हम ऐसे ही छलावों से घिरे हुए हैं | प्रश्न यह है कि आखिर क्यों हम सब इतने विवश बने हुए है, हम बार बार आखिर उनका साथ क्यों देतें हैं जो मानवता के नाम पर, धर्म के नाम पर, बेहतर व्यवस्था के नाम पर अपने
स्वार्थ सिद्ध करतें हैं | आखिर हम कब तक ऐसे ही विवेकशून्य
बनें रहेंगे?
नैतिकता का अवमूल्यन
एक विज्ञापन को देखा तो पहले पहल तो चौंका फिर
हैरानी हुई, और फिर बहुत देर तक सोचने के लिए मजबूर हुआ था।
एक व्यक्ति समय से पूर्व अपने घर अचानक वापस आता है तो पति को देख गृहिणी घबरा
जाती है। भूले हुए सामान को लेने के लिए वही व्यक्ति जब अपनी अलमारी खोलता है तो
अंदर किसी अनजान युवा को छिपा हुआ पाता है। पीछे गृहिणी भयभीत है और गलती पकड़े
जाने का डर चेहरे पर साफ-साफ दिखाई पड़ रहा है। उस व्यक्ति का एक मिनट के लिए
भौचक्का हो जाना स्वाभाविक है। इसी बीच वह छिपा हुआ युवा उपभोग के किसी सामान की
विशेषता के बारे में बताना शुरू करता है। और उसकी खूबियों को दिखाते-समझाते वह यह
बताना नहीं भूलता कि मैं उस महिला के सामने अलमारी में छिपकर यही सिद्ध कर रहा था।
और इस तरह बातों ही बातों में वह अपने सामान की दूसरी विशेषता बताते हुए उस घर के
स्वामी को अपनी ओर आकर्षित कर लेता है और फिर धीरे से वहां से रफूचक्कर हो जाता
है। घर का स्वामी अंत में उसकी बातों से पूरी तरह से सहमत होते हुए दिखाया गया है
और यही नहीं उस सामान को खरीदने के लिए प्रेरित भी हो चुका है। उधर, गृहिणी का चेहरा अब सामान्य हो चुका है तो घर में घुस आया युवा जाते-जाते
अपनी चतुराई साबित करने में सफल दिखाया गया है। एक और विज्ञापन आजकल बहुत प्रसारित
किया जा रहा है जिसमें युवतियों को अपने प्रेम-प्रसंगों के बारे में चर्चा करते
हुए फोन पर सुना जाता है। एक स्थान पर वह अपने प्रेमी को घर आने के लिए आमंत्रित
कर रही है तो दूसरे दृश्य में वह अपने किसी वरिष्ठ के अनैतिक संबंधों के बारे में
किसी के साथ बातचीत में व्यस्त है। इस दौरान पास में बैठा एक अति उत्साही युवक
उसकी बातों को सुनने के लिए प्रयासरत दिखाया गया है। आजकल एक चित्र विभिन्न
नेटवर्किंग साइटों और मीडिया में भिन्न-भिन्न रूप में आम दिखाया जाता है। जिसमें
एक युवा जोड़े को गले मिलते हुए दिखाया गया है मगर वहीं युवती का हाथ युवक के पीछे
खड़े एक और व्यक्ति के हाथ में है। इसी मानसिकता के कई और भी विज्ञापन मिल जायेंगे।
यही नहीं, फिल्मी नायक-नायिकाओं के बीच विभिन्न स्तर के
नैतिक-अनैतिक संबंधों को लेकर पहले मीडिया में उत्सुकता पैदा की जाती है और फिर
उत्तेजना की हद तक उसे फैलाया जाता है। यह आज प्रचार-प्रसार का प्रमुख
अस्त्र-शस्त्र बनता जा रहा है। और तो और, हास्य और व्यंग्य
के अनगिनत कार्यक्रमों में भी हंसाने के लिए अब सिर्फ अनैतिक संबंधों, भौंडापन और अश्लील व निम्न स्तर की बातों का खुलकर प्रयोग होने लगा है।
यहां सवाल उठता है कि विज्ञापनों का प्रभाव क्या
सिर्फ सामान या सेवा बेचने तक ही सीमित होता है? उपरोक्त
बातों का उद्देश्य क्या सिर्फ मनोरंजन है? शायद नहीं। और अगर
हो भी तो क्या उसे इतना स्तरहीन होना चाहिए? नहीं। चूंकि
यहां हमें यह मानना होगा कि उपभोग के सामान बेचने के लिए भी एक कहानी बुनी जाती
है। जिमसें से एक संदेश निकलता है। जिसको अच्छी-बुरी दृष्टि से पढ़ा-समझा जा सकता
है। शब्दार्थ से लेकर भावार्थ तक विचारों की लंबी श्रृंखला होती है। यकीनन यह पाठक
और दर्शक पर अपनी-अपनी तरह से असर डालते हैं। यह बनाने वाले की मानसिकता को तो
दर्शाता ही है उसकी सोच को भी प्रदर्शित करता है। मगर जाने-अनजाने ही समाज की
प्रवृत्तियों को भी बता जाता है। और उसे बढ़ावा भी देता है। ठीक उसी तरह से जिस तरह
से, विज्ञापन से समाज में खरीदारी की आदतें पड़ती हैं या फिर
आम जनता की जरूरतों के हिसाब से विज्ञापन बनाये जाते हैं? यह
एक तरह से प्रश्नों का कुचक्र है। जिसका सीधे-सीधे जवाब तो नहीं दिया जा सकता,
मगर यह एक-दूसरे से पूरी तरह जुड़े हुए हैं, और
एक-दूसरे के लिए प्रेरक का काम करते हैं, सीधे-सीधे तौर पर
कहा जा सकता है।
बाजार में विज्ञापन एक आवश्यक माध्यम है लेकिन क्या
सफलता के लिए इसका उपयोग किसी भी हद तक किया जाना चाहिए? फिल्मों को सफल बनाने के लिए क्या किसी भी स्तर तक खबरों में गिर जाना
चाहिए? सवाल उठता है कि हंसने के लिए किसी का मजाक उड़ाना,
नीचा दिखाना क्या आवश्यक है? अब तो कई
नायक-नायिका सुर्खियों में रहने के लिए अपने संबंधों को खुद हवा देते हैं। इसे
बीमार मानसिकता का नाम दिया जाना चाहिए। क्या यह एक किस्म का भौंडापन नहीं है?
यहां सीधे-सीधे अनैतिकता है। ऐसा नहीं कि अच्छा रचनात्मक एवं
सकारात्मक सृजन नहीं हो रहा मगर उपरोक्त किस्म की रचनाओं में अचानक वृद्धि हुई है।
पहले भी इस तरह की निम्नता होती थी। मगर इस हद तक खुलकर नहीं। मनुष्य के अवगुण सदा
साथ रहे हैं। मगर कभी समाज ने उसे सार्वजनिक स्तर पर स्वीकार नहीं किया था। कम से
कम इसे प्रचारित नहीं किया जाता था। प्रेम का मनुष्य के जीवन में जन्म-जन्मांतर से
संबंध है। हमारे शास्त्र इसके बारे में विस्तार से चर्चा करते हैं और कामशास्त्र
की अपनी एक महत्ता रही है। मगर यही सेक्स जब विकृत और विचारहीन हो जाता है तो समाज
को रोगग्रस्त करता है। यूं तो अनैतिक संबंध पहले भी हुआ करते थे मगर तब उसे समाज
में छिपाया जाता था। उसकी सामाजिक स्वीकृति नहीं हुआ करती थी। बल्कि ऐसी
प्रवृत्तियों को हतोत्साहित किया जाता था। घटिया और हल्का साहित्य पहले भी उपलब्ध होता
था। लेकिन इसे छिपकर पढ़ा जाता था। मगर आज तो इसे विज्ञापित किया जा रहा है।
स्त्री-पुरुष संबंध तो प्राकृतिक रूप से सर्वत्र एक समान ही है मगर प्रदर्शन के
तरीके उसे अच्छे और बुरे में परिवर्तित कर देते हैं। नारी का सौंदर्य और प्रेम-रस
पूर्व में भी था। उसके श्रृंगार का विस्तार से जितना वर्णन हिंदी साहित्य में हुआ
है ऐसा कहीं और दिखाई नहीं देता। मगर जब इसे नग्नता में परिवर्तित कर दिया जाता है
तो उसका प्रभाव प्रदूषित करता है। कला में अश्लीलता आते ही समय के पैमाने पर यह
अस्तित्वहीन हो जाता है।
असल में मनुष्य तो मूल रूप से जानवर ही है। उसकी
सदा इच्छा करती है कि वह हर दूसरी नारी के साथ शारीरिक संबंध स्थापित करे। उसकी
चाहतों का कोई अंत नहीं। उसके वहशीपन की कोई सीमा नहीं। मगर इसके अपने दुष्परिणाम
हैं। समाज की स्थापना के मूल में मनुष्य के इन अवगुणों को नियंत्रित करना ही
प्रमुख था। उसकी इच्छाओं और भावनाओं को नियमित एवं सीमित करना आवश्यक था। यहां
अच्छे और बुरे को परिभाषित किया गया। समाज की स्थापना ही इसलिए हुई कि सब कुछ सबके
लिए समान व व्यवस्थित किया जाये। ऐसे में फिर व्यवस्था के लिए नियम-कायदे-कानून तो
होंगे ही। वे हर क्षेत्र में बनाये गये। चाहे वो फिर सामाजिक हों, राजनीतिक हो, निजी हों। ध्यान से देखें तो हर एक के
पीछे कोई न कोई कारण साफ-साफ दिखाई देते हैं। यकीनन मनुष्य में अंदर की पशुता को
रोकने एवं प्रबंधित करने के लिए ही नैतिकता की बात सामने आई होगी। सवाल उठता है कि
क्या हम इस नैतिकता को पुनर्स्थापित और नये ढंग से परिभाषित करना चाहते हैं?
अगर हां तो फिर समाज को उसके परिणामों के लिए भी तैयार रहना होगा।
परिवार का विघटन, तलाक, हत्याएं,
बलात्कार ऐसे कुछ उदाहरण यहां दिये जा सकते हैं जिसे हमें स्वीकार
करना होगा। मगर सत्य तो यह है कि असमाजिकता व अराजकता के बढ़ते ग्राफ से हम सब
चिंतित हैं।
मेरे मन में पश्चिमी संस्कृति के खुलेपन को लेकर एक
जिज्ञासा जाग्रत हुई थी। जैसा हमारे यहां बतलाया जाता है, क्या यह सच है? जानने की इच्छा हुई थी। वहां पर रहने
वाले मित्रों से पूछने पर पता चला कि वे भी अपने व्यक्तिगत रिश्तों के मामले में
उतने ही सजग, सतर्क और संवेदनशील हैं। गहराई से पूछने पर पता
चला कि विवाह पूर्व चाहे जितने संबंध रहे हों, जिस भी स्तर
के हो, मगर विवाह में बंधने के बाद वे पूरी तरह से समर्पित
जीवन साथी की अपेक्षा करते हैं। यही नहीं, ऐसा न होने पर
तुरंत तलाक भी देने को तैयार हो जाते हैं। वे इस बिंदु पर अत्यंत क्रियाशील हैं।
और धोखे को किसी भी रूप में स्वीकार नहीं करते। इन तथ्यों ने मुझे चौंकाया था और
भारतीय समाज में पश्चिमी सभ्यता के अंधानुकरण ने मुझे चिंतित किया था। असल में हम
मानवीय मूल गुणों से भटक रहे हैं। रिश्तों में विश्वास दोनों पक्ष को चाहिए। यह
दीगर बात है कि आदमी ही नहीं औरतों में भी बराबर से कमजोरी रही है। लेकिन सवाल
उठता है कि हम उसी कमजोरी को दिखाकर क्या प्रदर्शित करना चाहते हैं? क्या उपरोक्त विज्ञापन इस बात के प्रमाण हैं कि हम उसमें निहित अर्थ को
स्वीकार कर रहे हैं? या फिर, क्या हम
यह कहना चाहते हैं कि ऐसा हमारे समाज में अब आम हो गया है? और
कुछ हो न हो इस तरह के विज्ञापन आधुनिक महिला की गलत छवि को प्रदर्शित करते हैं।
यहां चतुर-चालाक बदमाश व्यक्ति का आराम से खुशी-खुशी निकल जाना और घर के स्वामी को
बेवकूफ बनते हुए दिखाकर हम पता नहीं क्या संदेश देना चाहते हैं? क्या हम अपने समाज का यही चरित्र प्रस्तुत करना चाहते हैं?
विज्ञापनों के छलावों से जितना बचें उतना अच्छा
हाल ही में जंक फूड के स्वास्थ्य पर पडऩे वाले असर के बारे में आए एक आलेख ने मुझे सोचने पर विवश कर दिया। क्या वाकई पैकेट बंद जंक फूड भारतीय उपभोक्ताओं के लिए खतरा हैं? कोला, बर्गर और पैकेट बंद चिप्स की देश में कितनी पहुँच है? इनकी प्रति व्यक्ति खपत कितनी है? क्या हमारे यहाँ भी इनका स्तर उतना ही है जितना कि पश्चिम में? खासतौर पर अमेरिका में? क्या हमारे खानपान में दूसरी ऐसी चीजें शामिल हैं जो दिल के लिए नुकसानदेह साबित हो सकती हैं?
औसत भारतीय विक्रेता के लिए बाजार में ब्रांडेड उत्पादों की गहरी पहुँच सुनिश्चित करना अभी भी बड़ी चुनौती बनी हुई है। एक ओर जहाँ साबुन, टूथपेस्ट और डिटर्जेंट जैसे कुछ उत्पादों की पहुँच 60-70 फीसदी आबादी तक हो चुकी है वहीं अनेक अन्य उत्पाद अभी 30 फीसदी लोगों तक ही पहुँच सके हैं। दरअसल उत्पादों की पहुँच संबंधी कुछ आंकड़े भ्रामक भी हो सकते हैं क्योंकि उन्हें ऐसे जवाबों के आधार पर तैयार किया गया होता है कि ग्राहक ने किसी वस्तु का उपभोग पिछले एक महीने में किया है या नहीं अथवा उसने कभी भी उसका सेवन किया है या नहीं? इन आंकड़ों में यदाकदा होने वाले उपभोग को भी निरंतर पहुँच के रूप में देखा जाता है।
देश की बाजार व्यवस्था उदारीकरण के बाद तीसरे दशक में प्रवेश कर रही है और इस बीच उत्पादों की कई श्रेणियों के लिए बाजार में अपनी पहुँच सुनिश्चित करना एक बड़ी चुनौती बना हुआ है। इन श्रेणियों में ब्रांडेड चाय और बिस्किट (इन उत्पादों के बाजार में ब्रांडों की हिस्सेदारी 30 फीसदी है)से लेकर बीमा और म्युचुअल फंड जैसे वित्तीय उत्पाद और वाहन क्षेत्र भी शामिल हैं। किसी भी श्रेणी में नये प्रयोग करने वाले इसलिए शामिल होते हैं क्योंकि उनको नया प्रयोग करना होता है और यही कामना उन्हें उस खास श्रेणी से जोड़ती है। वहीं किसी नये उत्पाद को जल्द अपनाने वाले लोग ऐसा इसलिए करते हैं क्योंकि वे उनसे जुड़े फायदों को महसूस कर पाते हैं। किसी भी उत्पाद को अधिसंख्य लोगों तक पहुँचाने की कोशिश में यह अहम है कि शुरू में उसका इस्तेमाल करने वाले लोगों के बीच उसका प्रचार प्रसार बढ़ाया जाए। ऐसे में उन नीतियों पर विचार करना उचित होगा जिनके जरिये विभिन्न ब्रांडों ने शुरुआती लोगों के बीच अपना आधार तैयार करने की कोशिश की।
कीमत में कमी करना- इससे पहली बार खरीदने वालों की श्रेणी में प्रवेश का जोखिम कम होता है और कम आय वाले लोग भी इस श्रेणी के उत्पाद तक पहुँच बना सकते हैं। चाय और शैंपू जैसे उत्पादों की पहुँच बढ़ाने में सैशे की बड़ी भूमिका रही है। इतना ही नहीं सस्ती कीमत वाले ब्रांडों के आगमन से डिटर्जेंट बाजार भी आसान हुआ और बाजार के मूल स्वरूप में बदलाव आया। मोबाइल टेलीफोन के बढ़ते बाजार में भी कम कीमत ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है।
मौजूदा उत्पादों पर सवाल उठाना और अपने उत्पाद को अलग और बेहतर बताना- घरों की बाहरी दीवारों पर इमल्शन के इस्तेमाल को बढ़ावा देने के लिए सीमेंट पेंट की कमियों को निशाना बनाया गया। कहा गया कि सीमेंट पेंट धुंधला हो जाता है, उसमें फंगस लग जाते हैं आदि आदि। इस तरह एक दशक के भीतर ही इमल्शन घरों की बाहरी दीवारों पर रंगाई-पुताई के माध्यम के रूप में जगह बनाने में कामयाब हो गया।
मौजूदा उत्पाद से श्रेष्ठ दिखने की भावना- 90 के दशक में ब्रांडेड नमक को विज्ञापित करने के लिए यह बात चर्चा में लाई गई कि ब्रांडेड नमक में साधारण नमक के मुकाबले कहीं अधिक आयोडीन होता है। इस तरह नमक जैसी साधारण चीज के लिए लोगों को अधिक पैसे चुकता करने के लिए तैयार किया गया। एक साबुन ने ग्रामीण बाजार में पैठ बनाने के लिए यह प्रचारित किया कि वह सफाई के क्रम में विभिन्न कीटों को मार डालता है और इस तरह वह लोगों को पेचिश की बीमारी से बचाता है। पेचिश देश के ग्रामीण इलाकों में बच्चों को होने वाली आम परेशानी है इसलिए इस विज्ञापन ने लोगों को अपील किया।
सामाजिक रुझान या चिंताओं को समझना - दो दशक पहले भला किसने सोचा होगा कि हमारे देश में पानी के लिए भी लोग पैसे देंगे? लेकिन साधारण पानी से जुड़ी स्वास्थ्य संबंधी चिंताओं के बीच पैकेटबंद पानी का कारोबार खूब फला फूला। चिकित्सकों द्वारा अशुद्घ पेयजल से जुड़ी बीमारियों का लगातार जिक्र किए जाने के बाद यहाँ वहाँ लोगों को हाथ में पानी की बोतल लेकर जाते देखा जा सकता है।
खपत का माहौल तैयार करना- लगातार कोशिशों के बाद अब नूडल्स देश के घरों में खानपान का अहम हिस्सा बन गया है। इसे बच्चों के लिए दोनों समय के भोजन के बीच शाम के नाश्ते के रूप में प्रचारित किया गया। वेफर वाली चॉकलेट के साथ भी यही हुआ और उसे युवाओं और किशोरों के लिए हल्की भूख मिटाने वाले उत्पाद के रूप् में पेश किया गया।
मौजूदा सांस्कृतिक कार्यक्रमों के साथ खुद को जोडऩा- पिछले एक दशक के दौरान चॉकलेट के विज्ञापनों को त्योहारों तथा खुशियों के मौकों से बखूबी जोड़ा गया है।
सामीप्य का लाभ- किसी दूसरी श्रेणी की मदद से अपनी श्रेणी का विकास भी अच्छा तरीका है। सीमेंट के विभिन्न ब्रांड बढ़ते अचल संपत्ति कारोबार से लाभान्वित हो रहे हैं और महंगे डिजिटल टीवी बाजार के चलते डिजिटल डीटीएच के कारोबार में तेजी आ रही है।
बच्चों का इस्तेमाल- बच्चे बाजार में प्रवेश के लिहाज से मायने रखते हैं क्योंकि माँ-बाप उनकी इच्छा का बहुत खयाल रखते हैं। बीमा कंपनियों ने बच्चों पर आधारित योजनाओं का इस्तेमाल किया जबकि मूल रूप से उनका काम जीवन सुरक्षा योजनाएं देना है। कंप्यूटरों ने भी शिक्षा का माध्यम होने को विज्ञापित करके घरों में पहुँच बनाई है।
युवाओं की पहचान बनें- कोला आधारित पेय पदार्थ और मोबाइल फोन युवाओं को लक्षित करते हैं। आप देखें तो कोला पेय पदार्थ न तो देखने में आकर्षित करने वाले होते हैं और न ही उनका कोई फायदा नजर आता है लेकिन इसके बावजूद युवा उसकी ओर आकर्षित होते हैं।
बाहर के अनुभव को भीतर लाना- यह पहुँच बनाने का एक नया तरीका है। चूंकि उपभोक्ता घर के बाहर अधिकाधिक वक्त बिताता है इसलिए उत्पाद निर्माताओं के पास अवसर होता है कि वे उसे बाहर ऐसे अनुभव प्रदान करें जिनको वे घर पर आजमा सके। मसलन, होटलों और रेस्तरां आदि में दीवारों के रंग अब घरों में जगह बनाने लगे हैं।
आखिर में जब शुरुआती स्तर पर उत्पाद की स्वीकार्यता बढ़ जाती है तो शेष लोग भी उसे अपना लेते हैं। कभी भी उत्पाद की पहुँच बढ़ाने के क्रम में इन बातों को ध्यान में रखा जाना चाहिए। भारत में एक अर्थव्यवस्था के अंदर दो अर्थव्यवस्थाएं हैं- विकसित और विकासशील। ऐसे में बढ़ते मध्य वर्ग वाली विकासशील अर्थव्यवस्था तक पहुँच बनाना हमेशा आसान होता है। हमने ऐसी 10 बातों का जिक्र किया जबकि ऐसे अनेक अन्य तरीके हो सकते हैं।
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