दुनिया
की सबसे ज्यादा बोली जाने वाली भाषाओं में हिंदी भी शामिल है। हमारे देश में कई
सारे हिस्से जो हिंदी क्षेत्र के अंतर्गत आते हैं, वहां हिंदी ही प्रमुख भाषा के रूप में प्रमुख में लाई जाती है। हिंदी
भारत की कामकाज की भाषा के रूप में मान्य की गई है। यह मान्यता 14 सितंबर 1949 को
मिली थी लेकिन इसे लागू 1950 में संविधान की स्थापना के साथ किया गया। इसलिए 14
सितंबर को ही हिंदी दिवस के रूप में मनाया जाता है।
भाषा
राष्ट्र के लिए क्यों आवश्यक है। भाषा राष्ट्र की एकता, अखंडता तथा विकास में महत्वपूर्ण
भूमिका निभाती है। यदि राष्ट्र को सशक्त बनाना है तो एक भाषा होना चाहिए। इससे
धार्मिक तथा सांस्कृतिक एकता बढ़ती है। यह स्वतंत्र तथा समृद्ध राष्ट्र के लिए
आवश्यक है। इसलिए प्रत्येक विकसित तथा स्वाभिमानी देश की अपनी एक भाषा अवश्य होती
है जिसे राष्ट्रभाषा का गौरव प्राप्त होता है। क्या किसी भी भाषा को राष्ट्रभाषा
बनाया जा सकता है। किसी भी देश की राष्ट्रभाषा उसे ही बनाया जाता है जो उस देश में
व्यापक रूप में फैली होती है। संपूर्ण देश में यह संपर्क भाषा व्यवहार में लाई
जाती है। यह याद रखना जरूरी है कि किसी भी देश की भाषा उसकी संस्कृति और सभ्यता को
दर्शाने का माध्यम भी बनती है।
जन्म
लेने के बाद मानव जो प्रथम भाषा सीखता है उसे उसकी मातृभाषा कहते हैं। मातृभाषा, किसी भी व्यक्ति की सामाजिक एवं भाषाई
पहचान होती है। जिन लोगों की यह मातृ भाषा है, उन्हें
हिंदी इसलिए सीखना चाहिए कि वह उनकी मातृ भाषा है. मातृ भाषा को जानना जरूरी है – केवल इसलिए नहीं कि वह मातृभाषा है.
बल्कि इसलिए भी कि सारे रिश्तेदार उसी भाषा में संपर्क करते हैं. हो सकता है कि
परिवार में पत्राचार आदि भी इसी भाषा में किए जाते हैं.
यदि
आप हिंदी भाषी प्रदेश में रहते हैं तो आप के चारों ओर हिंदी का माहौल होता है.
निश्चित ही वहां की संपर्क भाषा भी हिंदी होगी. इसलिए हिंदी भाषी इलाके में रहने
वाले को हिंदी सीखनी पड़ती है. अन्यथा वह आस - पास के लोगों से ( दोस्तों से भी)
अलग-थलग रह जाएगा. कई सरकारी व इलाके के संस्थानों की सूचनाएं व जानकारी हिंदी में
ही दी जाती होंगी – आप उन्हे समझने जानने से वंचित रह
जाओगे.
हिंदी
का साहित्य बहुत ही धनी है. हिंदी जानने से आप हिंदी साहित्य पढ़ कर उसमें समाहित
जानकारी हासिल कर पाएगे. साहित्य का मतलब हिंदी संबंधी लेख ही नहीं वरना कविता, कहानी नाटक, उपन्यास, कार्टून , सिनेमा, गाने इत्यादि भी है. हिन्दी के कितने उपन्यास कहानियां
कविताएं फिल्म नाटक आज अंतरराष्ट्रीय स्तर पर विभिन्न भाषाओं खासकर अंग्रेजी में
अनूदित हैं और विश्व के पाठकों द्वारा सराहे जा रहे हैं.
उत्तर
भारत में पूरी तरह व दक्षिण भारत में शायद 60-65 प्रतिशत शहरी लोग हिंदी जानते हैं
इसलिए हिंदी जानने से आपको पर्यटन के दौरान संवाद करने में आसानी होगी. अब सवाल
उठता है कि हर कोई पर्यटन क्यों करे ? हाँ बात तो सही है परंतु पर्यटन के भी
कई कारण होते हैं. जैसे बिजिनेस में सामान की बिक्री के लिए, जगह से परिचित होने के लिए व इतिहास के
स्मारकों के दर्शन के लिए ,
प्रकृति का आनंद लेने के लिए, उच्च-उच्चतर पढ़ाई के लिए, नौकरी की खोज में और अन्येतर कारणों से
लोगो को सफर में दूसरी जगहों मे जाना पड़ता है. तब संपर्क भाषा की जरूरत पड़ती है.
इस विधा में हिंदी एक बहुत ही सहायक भाषा है,. खास
तौर पर उत्तर भारत में हिंदी के बिना गुजारा करना भारी पड़ सकता है.
हिंदी
हमारे देश की राज भाषा है. इसलिए भी हम हिंदी सीखते हैं. देश के प्रति अभिमान
जताने करने का यह एक प्रशस्त तरीका लगता है. अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर आप निहारें तो
जान पाएंगे कि विश्व के अक्सर देशवासी अपनी देश की भाषा में संवाद करने में रुचि
रखते हैं , अपनी देश की भाषा को महत्व देते हैं और
इसमें वे अपना गौरव समझते हैं.
जितनी
ज्यादा भाषाएं कोई बोल या समझ सकता है, वह उतनी ही भाषाओं से जुड़ी संस्कृति
को भी समझ सकता है। इसलिए नई भाषाओं को सीखें जरूर लेकिन हिंदी को भी साथ रखें।
ऐसा नहीं है कि आज हिंदी का महत्व कम हो गया है। बोलचाल के अलावा हिंदी की ढेर
सारी पत्रिकाएं हमारे देश में छपती हैं और अब तो इंटरनेट पर भी हिंदी का खासा
बोलबाला है। यही नहीं दुनियाभर से लोग भारत में हिंदी सीखने आते हैं क्योंकि इसके
जरिए वो हमारे देश को और भी करीब से जान सकते हैं। ठीक वैसे ही जैसे हम लोग इंग्लिश,
फ्रेंच, जर्मन
या मैंडरिन सीखते हैं।
भारतीय
होने के नाते यह भी जानिये कि देवनागरी लिपि विश्व की सर्वोत्तम तथा उत्कृष्ट
वैज्ञानिक लिपि है, अतः अपने पूर्वजों पर गर्व कीजिये | संस्कृत, हिन्दी, मराठी और नेपाली भाषाएँ जिस लिपि में
लिखी जातीं हैं, उसे
देवनागरी लिपि कहते हैं. हम भारतीयों के लिए यह बहुत ही गर्व की बात है कि हमारे
पूर्वजों द्वारा हमें दी गई यह लिपि विश्व की सर्वोत्तम तथा उत्कृष्ट वैज्ञानिक
लिपि है.
अब
कुछ और बातें –
दुनियाभर
के देश अपनी भाषा पर बहुत गौर करते हैं. पर हमारा भारत इसमें पिछड़ा है, क्योंकि हमारे पास कहने मात्र के लिए
राजभाषा है. इसमें आज भी कई तरह के विरोध हैं. देश के नेताओं ने तो भाषा को
राजनीति का विषय बना दिया है. दक्षिण भारत में खास तौर पर तमिलनाड़ू में, हिंदी का पुरजोर विरोध है. नेताओं को
चाहिए कि अतर्युद्ध छोड़कर देश की विश्वस्तरीय स्थिति पर भी विचारें और देश में
राजभाषा के स्थान को सुदृढ़करें.
एक
अनुमान के मुताबिक देश में हिन्दी बोलने वाले करीब 50 करोड़ से ज्यादा लोग होंगे. लेकिन ऐसी सघन पैठ के बावजूद हिन्दी
साहित्य में एक किताब को महज 400, 500 या
हजार पाठक ही मिल पाते हैं. हिन्दी भूभाग में एक बड़ा हिस्सा उस शहरी आबादी का भी
है जो मध्यवर्ग और उच्च मध्यवर्ग कहलाती है और जिसके पास तेजी से धन-संपत्ति और
मनोरंजन के साधन आए हैं. नयी विलासिता उन्हें हासिल हुई है. लेकिन वे अपनी भाषा और
साहित्य से भी दूर हुए हैं. हिन्दी दिवस भी एक आयोजन और एक प्रतीक की तरह हर साल
आता जाता है लेकिन कोई हरकत इन तबकों में नहीं होती. आखिर कितने घरों में आज
प्रेमचंद, रेणु, यशपाल, निराला, मुक्तिबोध, नागार्जुन, विनोद कुमार शुक्ल, रघुबीर सहाय जैसे लेखकों की रचनाएं रखी
होंगी. इनके बाद की पीढ़ी के रचनाकारों को तो छोड़ ही दीजिए. क्या ये साहित्य
विमुख जनता है या इसका उलट सही है?
अंग्रेजी
सीखने-बोलने में कतई कोई बुराई नहीं है. लेकिन हमें यह भलीभाँति समझने की जरूरत है
कि अपनी भाषा को दरकिनार करके, किसी परायी भाषा के बूते हमारी स्थायी और सशक्त पहचान कदापि नहीं बनने
वाली और न ही किसी परायी भाषा में हम अपनी मौलिक एवं जातीय अस्मिता तलाश सकते हैं.
हमें अंग्रेजी नहीं जानने-बोलने के कारण नहीं, बल्कि हिंदी या अपनी मातृभाषा नहीं
जानने-बोलने के कारण शर्मिंदा महसूस करने की जरूरत है! यह तर्क बेतुका है कि
अंग्रेजी के बगैर तरक्की नहीं की जा सकती। असल में ऐसा तर्क देने वाले अभी मानसिक
रूप से आजाद नहीं हो पाए हैं। विश्व में ऐसे देशों की कमी नहीं है जिन्होंने
अंग्रेजी का वर्चस्व स्वीकार नहीं किया और विश्व में अपना लोहा मनवाया। इसलिए इस
मानसिकता से उबरना चाहिए कि अंग्रेजी के बगैर तरक्की नहीं हो सकती। फ़्रांस, जर्मनी, रूस, चीन, जापान, साऊथ कोरिया, मलेशिया, वियतनाम, इंडोनेशिया और ना जाने कितने हैं देश
जो अपनी मातृभाषा को गले लगाए हैं ।
हिंदी
बोलने को लेकर कई लोगों के मन में जो डर या झिझक होती है, वह होती ही इसलिए है क्योंकि कोई भी हिंदी
को सरल और सहज तरीके से अपनाने से बचता है। इसलिए सबसे ज्यादा जरूरी है कि हम सब
मिलकर हिंदी को उस तरीके से अपनाएं जैसे हम साधारण रूप में बोलते-चालते हैं। बजाय
इसके कि हिंदी के कठिन शब्दों का प्रयोग हर जगह करें। इससे एक तो हम अपनी भाषा से
जुड़ेंगे, बल्कि ज्यादा से ज्यादा लोगों तक इसे
पहुंचा भी पाएंगे।
अब
आती है बात कि ऐसा क्या किया जा सकता है कि लोग हिंदी के प्रति रुचि लें.
इस
पर मेरे कुछ सुझाव हैं. इसका सर्वप्रथम मुद्दा उजागर करने के लिए मैं एक सवाल करता
हूँ कि हमारे देश की राजभाषा हिंदी होते हुए भी और बहुत सी दक्षिणी भारत व पश्चिमी
भारत की भाषाएँ समृद्ध होते हुए भी, लोग
अंग्रेजी क्यों सीखते हैं. कुछ सोच कर बोलने वाले ज्यादातर लोग यही कहेंगे कि –
• अंग्रेजी के बिना विदेशों में न पढ़ाई हो सकती है और न ही नौकरी.
• अंग्रेजी के बिना IT Sector में काम करना या धंधा करना देश के किसी
व्यक्ति या संस्थान के लिए संभव नहीं होगा.
• ज्ञान का भंडारण जो अँग्रेजी में हो रखा है वह विश्व के (शायद) किसी
भाषा में नहीं है. सो उस ज्ञान के अर्जन के लिए भी अंग्रेजी जानना जरूरी है. इससे
कई शोध कार्यों में सहायता मिलती है. पढ़ाई में सहायक होती है. ज्ञान वृद्धि तो
होती ही है.
इनके
अलावा भी बहुत से मुद्दे उभरेंगे पर वे सभी इन तीनों की अपेक्षाकृत कम महत्व के
होंगे.
यदि
हम इन तीनों उत्तरों को ध्यान में रखकर सोचें, तो
साफ नजर आएगा कि हमें हिंदी को शिखर पर लाने के लिए क्या करना होगा. यदि हम इन
विधाओं को हिंदी में भी अपना लें या हिंदी के लिए भी इन बातों को कहने लायक हो
जाएं तो किसी से कुछ कहने की जरूरत ही नहीं पड़ेगी. लोग अपने आप अपने लिए हिंदी
सीखेंगे. उन्हें ज्ञान और धन चाहिए.
अब
जवाब तो मिला पर उसे कर दिखाना क्या आसान है. हिंदी भाषियों को और वे लोग जो हिंदी
को “देश के ललाट की बिंदी” जैसी सर्वनाम देते हैं या फिर जो देश
की भाषा के प्रति संवेदनशील हैं, या
वे जो देश व विश्व की भाषा के रूप में हिंदी को देखना चाहते हैं - वे सब एकजुट
होकर इस दिशा में कार्य करें और अन्य लोगों को जो साथ दे सकते हैं प्रोत्साहित
करें कि इस दिशा में समग्र कार्य हो तो कुछ वर्षों में हिंदी का स्थान देश में और
विशव में माननीय हो सकता है. आज हिंदी के नाम पर विश्व हिंदी सम्मेलन तो होता है
किंतु सही दिशा में कितना काम हो रहा है यह तो वे ही बता पाएंगे जो इस विश्व सम्मेलन
में भागीदार होते है.
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