पढ़ाई ज्यादा, ज्ञान कम
पिछले तीन महीनों में तीन ऐसी रिपोर्टे आई हैं, जिन्होंने भारतीय स्कूली शिक्षा प्रणाली पर सवालिया निशान लगाए हैं। सबसे ताजा रिपोर्ट एक गैर सरकारी संगठन ‘प्रथम’ ने तैयार की है, जिसे केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्री कपिल सिब्बल ने जारी किया है। प्राथमिक कक्षाओं के लगभग 6,50,000 बच्चे इस सर्वेक्षण में शामिल किए गए थे।
‘प्रथम’ की रपट बताती है कि गुणवत्ता के स्तर पर पहले से खराब स्कूली शिक्षा का स्तर पिछले लगभग एक वर्ष में और ज्यादा गिरा है। इसके मुताबिक, पांचवीं कक्षा के सिर्फ 48.2 प्रतिशत बच्चे दूसरी कक्षा के पाठ ठीक से पढ़ पाए। तीसरी कक्षा के सिर्फ 29.9 प्रतिशत बच्चे हासिल का घटाना कर पाए। शिक्षा के अधिकार के कानून (आरटीई) के लागू होने के पहले ये आंकड़े कुछ बेहतर थे।
आरटीई के लागू होने से स्कूल में भरती होने वाले बच्चों का प्रतिशत तो बढ़ा है, लेकिन उपस्थिति और शिक्षा का स्तर घटा है। इसके पहले दो और सर्वेक्षणों में भारतीय स्कूली शिक्षा की बुरी स्थिति सामने आई। विप्रो और एजुकेशन इनिशिएटिव ने पाया कि नामी स्कूलों का शिक्षा का स्तर भी अच्छा नहीं है, क्योंकि वे भी रटाने पर जोर देते हैं। इसके अलावा एक अंतरराष्ट्रीय संगठन की रिपोर्ट के मुताबिक, 74 देशों में भारत का नंबर आखिर से दूसरा रहा, भारतीय स्कूली छात्रों से सिर्फ किर्गिस्तान के बच्चे पीछे रहे।
अगर हम एक ज्ञान आधारित अर्थव्यवस्था (नॉलेज इकोनॉमी) बनाना चाहते हैं, तो ये दस्तावेज आंखें खोलने के लिए काफी होने चाहिए। यह बात बार-बार कही जा रही है कि मौजूदा ज्ञान और टेक्नोलॉजी के सहारे हमारी अर्थव्यवस्था जितनी आगे जा सकती थी, वह जा चुकी। इसके बाद हमारा विकास ज्ञान के विकास और शोध पर निर्भर करेगा। अगर स्कूली स्तर पर नींव कमजोर पड़ रही है, तो आगे उच्च शिक्षा के स्तर पर उत्कृष्टता कैसे हासिल की जा सकती है।
उच्च शिक्षा के स्तर पर भी भारत की स्थिति बहुत अच्छी नहीं है। कोई भारतीय विश्वविद्यालय दुनिया के श्रेष्ठ विश्वविद्यालयों में नहीं गिना जा सकता। जो भारत के अच्छे संस्थान हैं, वे भी अंतरराष्ट्रीय कसौटी पर खरा नहीं उतरते। जो औसत शिक्षा संस्थान हैं, वे सिर्फ डिग्रियां बांटने के कारखाने बन गए हैं। पिछले लंबे वक्त से हमने शिक्षा की जो उपेक्षा की, उसका फल ही अब हम भुगत रहे हैं।
शिक्षा व्यवस्था में निजी क्षेत्र की दखल बढ़ रही है, लेकिन निजी शिक्षा गुणवत्ता का विकल्प नहीं है। कुछ राज्यों में 60 प्रतिशत तक बच्चे निजी स्कूलों में हैं। जो बच्चे सरकारी स्कूलों में हैं, वे भी निजी ट्यूशन ले रहे हैं, क्योंकि सरकारी स्कूलों में पढ़ाई नहीं होती। जिनकी भी थोड़ी-बहुत हैसियत होती है, वे लोग बच्चों को निजी स्कूलों में भेज रहे हैं। निजी स्कूलों का एकमात्र लक्ष्य अच्छे परीक्षा परिणाम लाना होता है, इसलिए वे बच्चों को किताबों से लादने और रटाने पर जोर देते हैं।
इससे बच्चा अच्छे नंबर लाने और किसी प्रतिष्ठित उच्च शिक्षा संस्थान में भर्ती होने लायक और इसी तरह अच्छी नौकरी पाने के काबिल हो जाता है, लेकिन उसकी वृद्धि और समझ का सर्वागीण विकास नहीं होता। इकहरी समझ और ज्ञान के साथ ये नौजवान नौकरी करने लायक तो हो जाते हैं, लेकिन शोध और कुछ नया करने में कामयाब नहीं होते।
ये सारे सर्वेक्षण बता रहे हैं कि गड़बड़ी स्कूल से ही शुरू होती है और इसे सुधारने के लिए बड़े परिवर्तनों की जरूरत है। बिना गुणवत्ता की शिक्षा से हम ऐसी नौजवान पीढ़ियां तैयार करेंगे, जो आने वाले वक्त की चुनौतियों को झेलने में नाकाबिल होंगी। सरकार को तो पहल करनी ही चाहिए, लेकिन निजी क्षेत्र को भी अपने स्तर पर कोशिशें करनी होंगी, आखिरकार सवाल देश की नई पीढ़ी का है।
कैसी पढ़ाई | |||
जनसत्ता 17 जनवरी, 2012 : इसमें संदेह नहीं कि सूचना तकनीक के क्षेत्र में भारतीय प्रतिभाओं ने दुनिया भर में अपनी क्षमता साबित की है। लेकिन इसके बरक्स शुरुआती पढ़ाई के मामले में हमारा देश दुनिया के तिहत्तर देशों में से बहत्तरवें नंबर पर है तो यह हमारी समूची शिक्षा-व्यवस्था पर एक गंभीर सवालिया निशान है। ओईसीडी यानी आर्थिक सहयोग और विकास संगठन की ओर से पीआईएसए यानी अंतरराष्ट्रीय विद्यार्थी मूल्यांकन कार्यक्रम के तहत आयोजित जांच-परीक्षा में भारत को दुनिया भर में सबसे नीचे से दूसरे पायदान पर जगह मिली है। पंद्रह साल की उम्र तक के इन देशों के बच्चों के पढ़ने, गणित और विज्ञान से जुड़े मूल्यांकन में भारत केवल किर्गिस्तान से आगे रहा। यह स्थिति तब है जब इस आयोजन में शामिल होने वाले विद्यार्थियों का चुनाव सरकार ने तमिलनाडु और हिमाचल प्रदेश से किया था, जहां स्कूली पढ़ाई का स्तर अपेक्षया बेहतर माना जाता है। इसके पीछे उम्मीद शायद यह रही होगी कि चुने गए विद्यार्थी शिक्षा और विकास की चमकदार तस्वीर पेश कर पाएंगे। लेकिन इन नतीजों के बाद अंदाजा लगाया जा सकता है कि इन दोनों राज्यों के अलावा दूसरे इलाकों की हकीकत क्या होगी। दूसरी ओर, इस मूल्यांकन में चीन के विद्यार्थी पढ़ने से लेकर गणित और विज्ञान में अव्वल आए। पिछले पांच-छह सालों में ऐसी कई रपटें आ चुकी हैं जो प्राथमिक शिक्षा में गुणवत्ता के बेहद दयनीय स्तर का बयान करती हैं। लेकिन ऐसी कोई खबर नहीं आई कि सरकार इसमें सुधार के लिए कुछ ठोस करने जा रही है। उलटे यहां सरकारी स्कूलों में पढ़ाई-लिखाई के हालात को देख कर ऐसा लगता है कि गुणवत्ता की कसौटी पर बेहतर शिक्षा मुहैया कराने को लेकर चिंता करना सरकार ने शायद छोड़ दिया है। दूसरी ओर, कथित अच्छी शिक्षा तक केवल अच्छी आर्थिक हैसियत वाले तबकों की पहुंच है। इसमें भी एक नई स्थिति लगातार यह बनती जा रही है कि बड़े शहरों या कस्बों की बात तो दूर, गांवों तक में ज्यादातर निजी स्कूल अंग्रेजी माध्यम वाले हो गए हैं। पर पढ़ाई-लिखाई का स्तर क्या है, यह किसी से छिपा नहीं है। शुरुआती कक्षाओं के लिए खासतौर पर वैसे प्रशिक्षित शिक्षकों की जरूरत होती है, जो बाल-मनोविज्ञान को समझते हुए अपने पढ़ाने के तरीके और बच्चों में सीखने की क्षमता विकसित करने के मामले में प्रयोगधर्मी हों। लेकिन जहां कम से कम वेतन पर शिक्षक रखने वाले निजी स्कूलों में यह तथ्य कोई खास महत्त्व नहीं रखता, वहीं कई राज्य सरकारें खुद प्रशिक्षित शिक्षकों की नियुक्ति के बजाय पैरा-टीचर या शिक्षा-मित्र के नाम से अर्ध-कुशल लोगों की भर्ती को तरजीह देने लगी हैं, ताकि कम पारिश्रमिक में शिक्षक की खानापूर्ति की जा सके। इसके अलावा, बहुत सारे सरकारी स्कूलों में बुनियादी सुविधाओं की कमी है। शिक्षक-विद्यार्थी के अपेक्षित अनुपात का पालन भी बहुत कम जगह दिखाई देगा। ऐसे में शैक्षिक गुणवत्ता की कितनी उम्मीद की जा सकती है! विडंबना यह है कि एक ओर शिक्षा के अधिकार का ढिंढोरा पीटा जा रहा है और दूसरी ओर लगातार शैक्षिक बदहाली की बेहद चिंताजनक रपटें आ रही हैं। इस वैश्विक जांच-परीक्षा के नतीजे हमारे देश के नीति-निर्माताओं के सामने यह तीखा सवाल छोड़ते हैं कि शिक्षा की गुणवत्ता सुनिश्चित किए बगैर क्या देश के बेहतर भविष्य के बारे में आश्वस्त हुआ जा सकता है! |
No comments:
Post a Comment