यद्यपि भारतीय समाज में महिलाओं (women) का दर्जा अलग-अलग समय में अलग-अलग तरह का रहा है किन्तु यह भी सत्य है कि अत्यन्त प्राचीन युग से ही भारतवर्ष मेंमहिलाओं (women) का उच्च स्थान रहा है। वे लक्ष्मी, सरस्वती, दुर्गा, काली आदि देवियों के रूप में पूजी जाती रही हैं। पतञ्जलि तथा कात्यायन की कृतियों में स्पष्ट उल्लेख है कि वैदिक युग में शिक्षा के क्षेत्र में महिलाओं का समानाधिकार था। ऋग् वेद की ऋचाएँ बताती हैं कि महिलाओं को अपना वर चयन करने का पूर्ण अधिकार था और उनका विवाह पूर्ण वयस्क अवस्था में हुआ करता था।
किन्तु मध्यकाल महिलाओं की सामाजिक प्रतिष्ठा का पतन काल रहा। बाल विवाह, सती प्रथा, विधवा-विवाह का निषेध आदि कुप्रथाएँ मध्ययुग की ही देन हैं। भारतीय उपमहाद्वीप मेंमुसलमानों का अधिकार हो जाने पर परदा प्रथा और राजपूतों के पराजय ने जौहर प्रथा कोजन्म दिया।
इन सबके बावजूद भी महान महिलाओं का उदय होता ही रहा। रजिया सुल्तान दिल्ली की गद्दीपर बैठकर पूरे हिन्दुस्तान की मलिका बनीं। गोंड महारानी दुर्गावती ने 15 वर्षों तक शासनकिया। चाँद बीबी ने मुगलों के आक्रमण से अहमदनगर की रक्षा की। ऐसे और भी कितने हीउदाहरण मिल जायेंगे।
इन सबके बावजूद भी महान महिलाओं का उदय होता ही रहा। रजिया सुल्तान दिल्ली की गद्दीपर बैठकर पूरे हिन्दुस्तान की मलिका बनीं। गोंड महारानी दुर्गावती ने 15 वर्षों तक शासनकिया। चाँद बीबी ने मुगलों के आक्रमण से अहमदनगर की रक्षा की। ऐसे और भी कितने हीउदाहरण मिल जायेंगे।
ब्रिटिश काल में राजा राममोहन राय, ईश्वर चंद्र विद्यासागर, ज्योतिराव फुले जैसे लोग नारी की स्थिति को पुनः सँवारने के प्रयास में जुट गये। सन् 1829 में राजा राममोहन राय के प्रयास से सती प्रथा का अन्त हुआ। ईश्वर चंद्र विद्यासागर ने विधवाओं की स्थिति में सुधार तथा विधवा विवाह का आरम्भ के लिये जेहाद छेड़ दिया परिणामस्वरूप सन् 1856 में विधवा पुनर्विवाह अधिनियम बना।
स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात् भारतीय महिलाओं की स्थिति में द्रुत गति से सुधार होना आरम्भ हो गया। वे शिक्षा, संस्कृति, विज्ञान, तकनीकी, राजनीति, मीडिया, सर्विस सेक्टर आदि सभी क्षेत्रों में समान रूप से भाग लेने लगीं। औरतों तथा पुरुषों का पूर्ण रूप से समान दर्जा हो गया।
आज तो आधुनिक महिलाएँ सभी क्षेत्रों में पुरुषों से आगे निकल जाने की होड़ में लग गईं हैं।
आज की नारी-मैं मनचली
मैं उधर ही चली जिधर मेरा मन ले जाए। मैं वहीं करूंगी जो मेरा मन करेगा। यह है आज की स्त्री का साहसिक निर्णय। अब उसे किसी के दबाव में रहना मंजूर नहीं।प्यार किया तो डरना क्या? वो खुल के अपने प्रेम का इजहार करती है। अपने मन को मार कर माता पिता की इच्छाओं के आगे अपने प्रेम की बलि च$ढाना उसे मंजूर नहीं। अब वो मीरा का ये भजन ‘मने चाकर राखो जीÓ पति के आगे नहीं गाती बल्कि, बांहों में बांहें डाल जीवन भर साथ निभाने का वादा जरूर करती है और यही उम्मीद वो अपने लाइफ पार्टनर से भी करती है।
सेक्सी पुरूष पसंद हैं :- अपनी पसंद नापसंद को अहमियत देकर उसकी अहमियत जताना और मनवाना भी उसे खूब आता है। उसे मेट्रोसैक्सुअल पुरूष ही ज्यादा पसंद हैं। ऐसे पुरूष जो मेट्रो सिटीज के कलचर से वाकिफ हों, अपनी इमेज को लेकर जो कांशियस हों और जिनके पास खर्चने के लिए ढेर सा पैसा हो, जो ब्रांडेड चीजों का शौक रखते हों और उन्हें अफोर्ड कर सकते हों, जो औरत की साइकॉलोजी को समझने की अक्ल रखते हों। रफ टफ दबंग टाइप होने के साथ ही दूसरे की भावनाओं को भी समझते हों। ये सब क्वालिटीज जिनमें हों, वे ही पुरूष उनकी कसौटी पर खरे उतर सकते हैं।
सेक्सी पुरूष पसंद हैं :- अपनी पसंद नापसंद को अहमियत देकर उसकी अहमियत जताना और मनवाना भी उसे खूब आता है। उसे मेट्रोसैक्सुअल पुरूष ही ज्यादा पसंद हैं। ऐसे पुरूष जो मेट्रो सिटीज के कलचर से वाकिफ हों, अपनी इमेज को लेकर जो कांशियस हों और जिनके पास खर्चने के लिए ढेर सा पैसा हो, जो ब्रांडेड चीजों का शौक रखते हों और उन्हें अफोर्ड कर सकते हों, जो औरत की साइकॉलोजी को समझने की अक्ल रखते हों। रफ टफ दबंग टाइप होने के साथ ही दूसरे की भावनाओं को भी समझते हों। ये सब क्वालिटीज जिनमें हों, वे ही पुरूष उनकी कसौटी पर खरे उतर सकते हैं।
तुम ही देवता हो! नो-नो :- अब वो ऐसा बिल्कुल नहीं सोचती क्योंकि वो बराबरी करती पुरूष के मुकाबले में ख$डी हैं। हर फील्ड, हर जगह उसने अपने को प्रूव करके दिखाया है। वो यह बात अच्छी तरह समझ गई है कि पुरूष के जीवन में उसकी कितनी अहमियत है। ऐसा नहीं कि उसके प्यार में कमी आई है। आज भी वो प्रेम की खातिर जान कुर्बान करने को तैय्यार मिलेगी लेकिन अपनी स्वीट विल से, किसी मजबूरी के दबाव में आकर नहीं।
शिक्षा से आई जागरूकता :- बाहर कदम निकले, एक्सपोजर हुआ, दुनियां वालों से इंटरएक्शन होने लगा तो अच्छे बुरे की समझ विकसित हुई। आर्थिक स्वतंत्रता से उसमें आत्मनिर्भरता आई। पति भी कुछ लिबरल हुए, उसकी टेलेंट की कद्र भी करने लगे और साथ ही देने लगे पूरा सपोर्ट। इस तरह पंखों ने उ$डान भरी। अपने आसपास के वातावरण से लेकर दुनिया जहान के बारे में उसकी सोच को एक नई दिशा मिली। ग्लोबलाइजेशन के दौर में प्रिंट और इलेक्ट्रानिक मीडिया की मदद से उसमें भी जागरूकता आ गई। परम्परा के नाम पर जो भी अतार्किक, ऊलजलूल उसे डिमॉरलाइज करने वाले रिवाज थे, उन्हें उसने सिरे से खारिज कर अपनी जिन्दगी अपनी ही शर्तों पर जीने का मन बना लिया।
गृहकार्यों में अकेले नहीं जूझती :- जागरूकता आने से उसे यह फायदा हुआ कि गृहकार्यों में पति की मदद लेते हुए अब उसे अपराध बोध महसूस नहीं होता। उसे इस बात का अच्छी तरह अहसास है कि वो भी इंसान है। पति उसे गृहकार्यों में मदद कर उस पर कोई अहसान नहीं करते। सामाजिक दबाव आज भी कम नहीं है इस बात को लेकर कि पति का गृहकार्य करना उसके लिए शर्मिंदगी का बायस है। सही गलत की पहचान ने ही उसे उनकी बातों को नजर अंदाज करने का साहस दिया है।
बिस्तर में भी बोल्ड :- अपनी दैहिक जरूरतों को स्वीकारती वो पति के साथ पहल करने में झिझक महसूस नहीं करती। अब वो उतनी ही मुखर है जितना उसका साथी। अब वो अपनी इच्छाओं को मारकर घुटन भरी, डिप्रेस्ड जिन्दगी जीने को तैय्यार नहीं। खुशी मौजमस्ती पर उसका भी उतना ही अधिकार है जितना कि पुरूष का, वो यह मानकर चलने लगी है।
अपने प्रति और अपने रिश्तों को लेकर वो ईमानदार है :- उसके अदम्य साहस ने ही उसे पारदर्शिता बख्शी है जिसके चलते वो एसर्टिव है और साथ ही उतनी ही ईमानदार भी। उसमें आत्मविश्वास है भरपूर। इसी से उसे साथी से सम्मान भी मिलने लगा है।
जब निभाना हो जाए मुश्किल..
ढेरों अरमानों, सजीले सपनों के साथ बनते हैं शादी के रिश्ते। दिलों का यह मिलन बडे साज-समारोह में होता है, लेकिन समय की धूल कई बार इन रिश्तों पर कुछ ऐसी जमती है कि उसका धुंधलापन रिश्तों के अस्तित्व पर भारी पडता है। दो भिन्न पृष्ठभूमि के व्यक्तियों के साथ आने में तकरार की आशंका तो हमेशा रहती है, लेकिन अगर ये तकरार मारपीट और अपशब्दों के प्रयोग तक आ जाए, तो उससे खराब स्थिति की कल्पना नहीं की जा सकती। रिश्तों में कडवाहट की यह हद आज की व्यस्त जीवनशैली में एक आम-सी बात होती जा रही है। रिश्ते बनाते हैं और उन्हें जीते हैं.. नहीं जी पाते तो उन्हें ढोते हैं और ढोने की हद हो गई तो छोड देते हैं। यह चलन-सा हो गया है।
भारतीय इतिहास पर नजर डालें तो स्त्री और पुरुष के रिश्ते में प्यार के साथ सम्मान का भी महत्वपूर्ण स्थान रहा है। स्त्री अपने पति को परमेश्वर मानती थी तो पुरुष भी स्त्री को देवी स्वरूप समझता था। स्त्री और पुरुष के संबंधों का सबसे खूबसूरत उदाहरण है रामायण में। राम और सीता के संबंध में भले ही दरार आई हो, लेकिन एक-दूसरे के प्रति सम्मान में कोई कमी नहीं आई। स्त्रियों के प्रति रवैये में बदलाव मध्यकाल में हुए राजनैतिक-सामाजिक परिवर्तनों के साथ आया। स्त्रियों पर पर्दा करने का दबाव भी भारत में विदेशी आक्रांताओं के साथ आया। लेकिन वे गुजरे जमाने के किस्से थे जब त्रासद रिश्तों को लोग जीवन भर सिर्फयह सोचकर ढोते रहते थे कि अगर रिश्ता टूट गया तो समाज क्या कहेगा, मां-बाप मुंह दिखाने के काबिल नहीं रहेंगे या बच्चों का भविष्य अधर में रहेगा। भावनात्मक और शारीरिक दुर्व्यवहार सहने के बजाय आज की स्त्री ऐसे रिश्तों से खुद को आजाद करना बेहतर समझती है। इसे बदलते समय का नाम दीजिए या आत्मनिर्भरता की रौ, अब लोग ऐसे रिश्तों को जीवन से निकाल फेंकने में नहीं हिचकते जिनमें उन्हें घुटन महसूस हो या किसी किस्म की प्रताडना झेलनी पडे। अच्छी बात ये है कि समाज भी ऐसे रिश्तों में बंधे रहने का विरोध करने लगा है। राहत की बात ये है कि अगर एक लडकी प्रतोडना का विरोध करती है तो अब उसके इस कदम पर छींटाकशी नहीं होती।
भारतीय समाज में इस बदलाव को आने में बरसों लग गए। लडकी के माता-पिता भी अब समाज के डर से उतने ग्रस्त नहीं रहे जितने पहले हुआ करते थे। दिल्ली विश्वविद्यालय में मनोवैज्ञानिक अशुम गुप्ता कहती हैं, अभिभावक भी समझने लगे हैं कि बेटी ने अलग होने का निर्णय इसीलिए लिया क्योंकि रिश्ता जीवन भर ढोया नहीं जा सकता। आज स्त्री केवल आर्थिक नहीं, मानसिक रूप से भी आत्मनिर्भर है। वह बिना किसी सहारे के आगे बढना सीख गई है। यह आत्मनिर्भरता स्त्रियों को असह्य रिश्तों से निजात दिलाने में सहायक हो रही है।
समाजशास्त्री और जयपुर नेशनल यूनिवर्सिटी के वाइस चांसलर के.एल. शर्मा कहते हैं, घरेलू उत्पीडन से समाज के हर तबके की स्त्रियां ग्रस्त हैं। निचले तबके की स्त्रियां मार खाती हैं, लेकिन सामाजिक दबाव के कारण पति के अत्याचार को जीवन भर सहती हैं। मिडिल क्लास स्त्री एक वस्तु की तरह मानी जाती है जो घरेलू कामकाज करने के लिए बनी है और उसे निर्णय के लिए पुरुष का मुंह देखना पडता है। लेकिन आज मिडिल क्लास और अपर मिडिल क्लास की मानसिकता में बदलाव आ गया है। जैसे-जैसे स्त्रियों में आत्मनिर्भर होने का जज्बा आया, वैसे-वैसे इस क्लास में तलाक और अलगाव के मामले बढ गए। के.एल. शर्मा कहते हैं, मिडिल क्लास में बढते तलाक और अलगाव के मामलों की प्रमुख वजह है स्त्रियों की आत्मनिर्भरता। अब उन्हें पुरुषों की सामंती मानसिकता झेलने की जरूरत नहीं। आर्थिक स्वतंत्रता के चलते उनके इस निर्णय का उतना विरोध भी नहीं किया जाता जितना पहले होता था। बात समाज के उच्च तबके की करें तो वहां भी उत्पीडन होता है, लेकिन यह मानसिक उत्पीडन ज्यादा होता है। वहां स्त्रियों के लिए पति का विवाहेत्तर संबंध आम बात होती है। पार्टियों में दूसरी स्त्रियों को किस करना और उनकी कमर में हाथ डालकर डांस करना पुरुषों के लिए कल्चर है, चाहे उनकी पत्नियों को वह पसंद हो या नहीं। अति हो जाने पर इस क्लास की स्त्रियां भी अलग हो जाने से गुरेज नहीं करतीं।
जल्द से जल्द उठाएं कदम
भावनात्मक हो या शारीरिक, हर किस्म के दुर्व्यवहार से निपटना तब तक आसान होता है जब तक यह किसी रिश्ते में स्थापित न हुआ हो और इसके शिकार में उतनी शक्ति हो कि वह खुद इससे निपट सकता हो। अशुम कहती हैं, दुर्व्यवहार करने वाले को यह साफ बता देने से कि आप इस बात को और बर्दाश्त नहीं करेंगी और एक सीरियस वॉर्निग देने से शुरुआती दौर में ही दुर्व्यवहार पर रोक लगाई जा सकती है। स्थिति के नियंत्रण से बाहर चले जाने के बाद दुर्व्यवहार सहने वाले और करने वाले, दोनों के लिए ही प्रोफेशनल काउंसिलिंग जरूरी होती है।
दुर्व्यवहार के खिलाफ बोलने का जिम्मा सिर्फ पीडित का ही नहीं, बल्कि समाज का भी है। जब तक हम यह न सोचें कि कभी यह स्थिति हमारे अपने घरों में भी आ सकती है, तब तक हम यथास्थिति बनाए रखेंगे। बेल बजाओ कैंपेन कुछ इसी तर्ज पर तैयार किया गया था। पडोस के घर में यदि आप घरेलू हिंसा देखें या सुनें तो फौरन डोरबेल बजाकर हिंसा रोकें। इस कैंपेन की शुरुआत करने वाले एनजीओ ब्रेकथ्रू की सोनाली खान कहती हैं, इस कैंपेन के जरिये हम तुरंत सहायता देने का संदेश पहुंचाना चाहते थे। दूसरे के घर का निजी मसला समझकर लोग अकसर आस-पडोस में हो रही घरेलू हिंसा को नजरअंदाज कर देते हैं जो कि गलत है। हिंसा भले दूसरे के घर में हो, लेकिन इसे रोकना सामाजिक जिम्मेदारी है।
कानून की नजर में..
इंडियन पेनल कोड के सेक्शन 498(ए) और द प्रोटेक्शन ऑफ विमेन फ्रॉम डोमेस्टिक वायलेंस एक्ट 2005 दो कानून हैं, जिनके तहत भावनात्मक या शारीरिक दुर्व्यवहार से पीडित स्त्रियां कानून की मदद ले सकती हैं। कानून भावनात्मक दुर्व्यवहार को यूं परिभाषित करता है-अपमान करना, मजाक उडाना, नीचा दिखाना, गाली-गलौज करना खासकर इन बातों को लेकर कि स्त्री संतानहीन है या उसे बेटा नहीं है। भावनात्मक अन्याय के शिकार शख्स को लगातार यह धमकी देना कि उसके अमुक प्रिय व्यक्ति को शारीरिक रूप से सताया जाएगा, ये सभी बातें इसी कानून के तहत आती हैं। सुप्रीम कोर्ट की अधिवक्ता कमलेश जैन कहती हैं, भावनात्मक दुर्व्यवहार की शिकार कोई भी महिला पुलिस में शिकायत कर अपने साथ दुर्व्यवहार करने वाले केखिलाफ कोर्ट से रिस्ट्रेनिंग ऑर्डर लेकर कानून की मदद ले सकती है। या फिर इस दुर्व्यवहार को वजह के तौर पर पेश कर वह जुडिशियल सेपरेशन या डिवोर्स की मांग कर सकती है। 2005 एक्ट में किसी सजा का प्रावधान नहीं है। इसके तहत केवल सुधार की संभावनाओं पर काम किया जाता है जबकि आई पी सी के सेक्शन 498(ए) में सजा का प्रावधान है।
व्यस्त जीवनशैली है बढती घरेलू हिंसा का कारण
शक्तिशाली व्यक्ति हमेशा से कमजोर पर हावी रहा है। यह प्राकृतिक है। घरेलू हिंसा का मूल कारण ही यही है। यंग कपल्स के बीच घरेलू हिंसा बढ रही है, इसका कोई प्रमाण मैंने हाल के दिनों में तो नहीं देखा, लेकिन मैं यह कह सकता हूं कि व्यस्त जीवनशैली के कारण लोगों में एक-दूसरे को बर्दाश्त करने की शक्ति नहीं रही है। दिनोदिन इंसान पर दबाव बढता जा रहा है।
जीवन की गति इतनी ज्यादा है कि लोग बेतरतीब भागते जा रहे हैं, जिसके चलते रिश्तों में संवेदनशीलता विलुप्त होती जा रही है। नई पीढी की रिश्तों की प्रति लापरवाही की यही वजह है कि न तो उनके पास सब्र है, न समय। लोग मानते हैं कि पढाई-लिखाई के साथ सभ्यता आ जाती है, लेकिन मैं इस बात से इत्तेफाक नहीं रखता। मेरी जानकारी में ऐसे कई कपल्स हैं जो पढे-लिखे होने के बावजूद एक-दूसरे पर हाथ उठाने से नहीं चूकते। इस स्थिति को सुधारने का मेरे ख्याल से एक ही तरीका है। अगर लोग प्रकृति के प्रकोप से नहीं डरते तो सरकार को इतना सख्त हो जाना चाहिए कि ऐसा गुनाह करते समय लोगों की डर से रूह कांपे।
हर क्षेत्र में अग्रसर आज की नारी – महिला सशक्तिकरण की ओर
अबला जीवन हाय, तुम्हारी यही कहानी
आंचल में हैं दूध, और आंखों में पानी॥
नारी की स्थिति पर गुप्त जी की लिखी उपरोक्त लाइनें एकदम सटीक और दिल को छू जाने वाली हैं. इन पंक्तियों का सीधा मतलब है नारी का जीवन ही अजीब है, उसके आंचल में तो जिंदगी देने वाला दूध है लेकिन आंखों में तो वही आंसू है. कितना अजीब है नारी का जीवन! लेकिन आज हालात थोड़े ही सही सुधरे जरुर हैं. कल तक घर की चारदिवारी में रहने वाली नारी आज घर के दहलीज के बाहर भी अपने सपने देख सकने के काबिल हुई है. शिक्षा, नई राह और बदलते दृष्टिकोण की वजह से नारी आज एक शक्ति के रुप में उभर रही है.
नारी आज के बदलते परिवेश में जिस तरह पुरुष वर्ग के साथ कंधे से कंधा मिलाकर प्रगति की ओर अग्रसर हो रही है, वह समाज के लिए एक गर्व और सराहना की बात है. आज राजनीति, टेक्नोलोजी, सुरक्षा समेत हर क्षेत्र में जहां जहां महिलाओं ने हाथ आजमाया उसे कामयाबी ही मिली. अब तो ऐसी कोई जगह नहीं है, जहां आज की नारी अपनी उपस्थिति दर्ज न करा रही हो. और इतना सब होने के बाद भी वह एक गृहलक्ष्मी के रूप में भी अपना स्थान बनाए हुए है.
लेकिन सिक्के का दूसरा पहलू भी विचारणीय है जहां आज भी महिलाओं को घर के बाहर न निकलने की हिदायत दी जाती है, रेप या बलात्कार होने पर आत्महत्या पर मजबूरकरने वाला समाज, कन्या भ्रूण हत्या जैसे पाप हमारे समाज के विकास में अवरोध पैदा कर रहे हैं.
अगर हम समय से थोड़ा ही पीछे जाएं तो मालूम होगा कि हालात कितने बदले हैं. 1991 से पहले देश में महिलाओं की स्थिति बेहद कमजोर और दयनीय मानी जा सकती थी. जहां एक तरफ समाज में इंदिरा गांधी जैसी महिलाओं ने नारी सशक्तिकरण की तरफ कदम बढ़ाए वहीं दूसरी तरह अपना देश उन देशों में शामिल था जहां पर लिंगानुपात में भारी अंतर था. लिंगानुपात से मतलब होता है प्रति हजार पुरूषों में महिलाओं की संख्या. 1901 में भारत में लिंगानुपात 972 था जो कि गिरते गिरते 1991 में 927 हो गया. देश के पिछड़े इलाकों में महिलाओं का जीवन बेहद कठिन और पुरुषों के अनुसार चलता था.
लेकिन पहले भी ऐसा नहीं था कि महिलाओं की समाज के आर्थिक क्षेत्र में कोई भागीदारी नहीं थी. पहले भी महिलाएं समाज में आर्थिक क्षेत्र में सहयोग देती थीं लेकिन समाज उनके योगदान को मान्यता नहीं देता था. सरकारी नौकरी हो या प्राइवेट सेक्टर महिलाएं हर जगह कार्यरत थीं लेकिन हमारा पुरुष प्रधान समाज उन्हें उनकी सही मान्यता नहीं देता था.
पर 1991 और इसके आने वाले समय के बाद महिलाओं की स्थिति में बेहतरीन बदलाव आए. चारो तरह शिक्षा क्रांति ने महिलाओं को भी नया जीवन दिया. घर की दहलीज पार करके उन्होंने पुरुषों की बराबरी करने के लिए कंधे से कंधा मिलाकर काम करना शुरु किया.उन्होंने उन क्षेत्रों में भी अपनी छाप छोड़ी है, जहां पहले सिर्फ पुरुषों का ही वर्चस्व था. अब पुरुष भी महिलाओं को उनका स्थान और महत्व देने लगे.
हाल ही में भारत ने महिला सशक्तिकरण की दिशा में अभूतपूर्व कदम उठाते हुए, देश की संसद और राज्य विधानसभाओं में एक तिहाई महिलाओं की भागीदारी सुनिश्चित की. महिला आरक्षण बिल के पास होने से जहां पहले से ही पंचायतों में महिलाओं की हिस्सेदारी 33% से ज्यादा थी अब उम्मीद है कि देश की सरकार में भी उनकी भागीदारी बढ़ेगी. भ्रूण हत्या के मामलों में भी तेजी से वृद्धि हो रही है. इन हालात में निश्चित ही महिला आरक्षण विधेयक से महिलाओं का संख्या बल इस नकारात्मक परिदृश्य को बदलने में सहायक सिद्ध होगा.
हालांकि आज भी महिलाओं को उतना आगे नही आने दिया जा रहा है जितना उनको जरुरत है. और इसकी सबसे बड़ी वजह है हमारे समाज का पुरुष प्रधान होना. हालात ऐसे हैं कि नारी पुरूषों के लिये भोग-विलास की वस्तु है और जनता के मनोरंजन का साधन. पूंजीपतियों की झोली भरने और मतलब के लिये वह विज्ञापनों, फिल्मों आदि क्षेत्र में अश्लील रूप को प्रदर्शित की जा रही है. महिला आरक्षण का भी मात्र वही महिलाएं फायदा उठा सकती हैं जो शिक्षित या योग्य हैं. आज भी जो महिलाएं पर्दे के पीछे रहती हैं उनकी स्थिति वही की वही है. महिला आरक्षण बिल सिर्फ उच्च वर्गीय महिलाओ के लिए ही उपयुक्त होगा.
लेकिन जहां महिलाओं को दबाने में पुरुषों की भागीदारी देखी जा रही है, वहीं महिलाओं का व्यवहार भी उनकी प्रगति के रास्ते आ रहा है. अक्सर ऐसा देखने में आ रहा है कि जो स्त्रियां बाहर निकल कर समाज में कार्य करती हैं वह कामयाबी और आजादी के नशे में अराजक हो जाती हैं. महिलाओं का बिगड़ता फैशन और कम होती मर्यादाएं इस बात का प्रमाण हैं. इसके साथ ही ऐसा देखा जाता है महिलाएं युवावस्था में कैरियर बनाने में वे इतनी व्यस्त हो जाती हैं कि उस समय संतान पैदा करने का अवसर नहीं रहता है. बाद में इस कार्य में रुचि नहीं रह जाती है. उदाहरण के लिए पश्चिमी देशों मैं फैली श्वेत जाति लुप्त होने की ओर अग्रसर है और रूस जैसे देशों को संतानोत्पत्ति के लिए विशेष प्रयास करने पड़ रहे हैं. बदलते समय में नारी में कोई फूलनदेवी, तो कहीं सेक्स सिंबल की तरह देखता है लेकिन उनकी भी कमी नहीं है जो नारी में कल्पना चावला और सुनीता विलियम्स सरीखी नारियों को देखते हैं.
ऐसी महिलाएं भी कम नहीं हैं जो अपने फायदे के लिए या कभी-कभार सिर्फ मनोरंजन के लिए भी गैर मर्दों से रिश्ता बनाने से नहीं चूकती हैं. यही वजह है कि आज भारत में भी लिव-इन रिलेशनशिप की जड़ें मजबूत हो चुकी हैं. विवाहेत्तर संबंधों का चलन बढ़ गया है. इसकी वजह से तलाक के मामलों में भी काफी इजाफा हो रहा है. इस प्रकार की कुछ समस्याएं अभी छोटी हैं, लेकिन इनके आकार के बदलते ही हम और बड़े नैतिक पतन की ओर बढ़ जायेंगे. अब अगर हम इसके लिए पाश्चात्य संस्कृति को दोष दें तो गलत होगा, क्योंकि खुद हम जिम्मेवार हैं इस पतन के लिए. कुल मिलाकर यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगा कि जब तक हम अपनी मानसिकता नहीं बदलेंगे तब तक समाज में महिलाओं को अपनी जगह नहीं मिल सकती.
अगर हम भारत के संदर्भ में बात करें तो पाएंगे कि अब भी हमारे देश को महिलाओं की स्थिति सुधारने की जरुरत है. शिक्षा को निचले स्तर तक पहुंचा कर हम नारियों को सशक्त करने का प्रयास कर सकते हैं. इसके साथ ही महिलाओं को भी अपने अधिकार के साथ समाज की मर्यादा का भी ध्यान रखना चाहिए. एक सही दिशा में ही चलकर महिलाओं का सही विकास संभव है.
नारी आज के बदलते परिवेश में जिस तरह पुरुष वर्ग के साथ कंधे से कंधा मिलाकर प्रगति की ओर अग्रसर हो रही है, वह समाज के लिए एक गर्व और सराहना की बात है. आज राजनीति, टेक्नोलोजी, सुरक्षा समेत हर क्षेत्र में जहां जहां महिलाओं ने हाथ आजमाया उसे कामयाबी ही मिली. अब तो ऐसी कोई जगह नहीं है, जहां आज की नारी अपनी उपस्थिति दर्ज न करा रही हो. और इतना सब होने के बाद भी वह एक गृहलक्ष्मी के रूप में भी अपना स्थान बनाए हुए है.
लेकिन सिक्के का दूसरा पहलू भी विचारणीय है जहां आज भी महिलाओं को घर के बाहर न निकलने की हिदायत दी जाती है, रेप या बलात्कार होने पर आत्महत्या पर मजबूरकरने वाला समाज, कन्या भ्रूण हत्या जैसे पाप हमारे समाज के विकास में अवरोध पैदा कर रहे हैं.
अगर हम समय से थोड़ा ही पीछे जाएं तो मालूम होगा कि हालात कितने बदले हैं. 1991 से पहले देश में महिलाओं की स्थिति बेहद कमजोर और दयनीय मानी जा सकती थी. जहां एक तरफ समाज में इंदिरा गांधी जैसी महिलाओं ने नारी सशक्तिकरण की तरफ कदम बढ़ाए वहीं दूसरी तरह अपना देश उन देशों में शामिल था जहां पर लिंगानुपात में भारी अंतर था. लिंगानुपात से मतलब होता है प्रति हजार पुरूषों में महिलाओं की संख्या. 1901 में भारत में लिंगानुपात 972 था जो कि गिरते गिरते 1991 में 927 हो गया. देश के पिछड़े इलाकों में महिलाओं का जीवन बेहद कठिन और पुरुषों के अनुसार चलता था.
लेकिन पहले भी ऐसा नहीं था कि महिलाओं की समाज के आर्थिक क्षेत्र में कोई भागीदारी नहीं थी. पहले भी महिलाएं समाज में आर्थिक क्षेत्र में सहयोग देती थीं लेकिन समाज उनके योगदान को मान्यता नहीं देता था. सरकारी नौकरी हो या प्राइवेट सेक्टर महिलाएं हर जगह कार्यरत थीं लेकिन हमारा पुरुष प्रधान समाज उन्हें उनकी सही मान्यता नहीं देता था.
पर 1991 और इसके आने वाले समय के बाद महिलाओं की स्थिति में बेहतरीन बदलाव आए. चारो तरह शिक्षा क्रांति ने महिलाओं को भी नया जीवन दिया. घर की दहलीज पार करके उन्होंने पुरुषों की बराबरी करने के लिए कंधे से कंधा मिलाकर काम करना शुरु किया.उन्होंने उन क्षेत्रों में भी अपनी छाप छोड़ी है, जहां पहले सिर्फ पुरुषों का ही वर्चस्व था. अब पुरुष भी महिलाओं को उनका स्थान और महत्व देने लगे.
हाल ही में भारत ने महिला सशक्तिकरण की दिशा में अभूतपूर्व कदम उठाते हुए, देश की संसद और राज्य विधानसभाओं में एक तिहाई महिलाओं की भागीदारी सुनिश्चित की. महिला आरक्षण बिल के पास होने से जहां पहले से ही पंचायतों में महिलाओं की हिस्सेदारी 33% से ज्यादा थी अब उम्मीद है कि देश की सरकार में भी उनकी भागीदारी बढ़ेगी. भ्रूण हत्या के मामलों में भी तेजी से वृद्धि हो रही है. इन हालात में निश्चित ही महिला आरक्षण विधेयक से महिलाओं का संख्या बल इस नकारात्मक परिदृश्य को बदलने में सहायक सिद्ध होगा.
हालांकि आज भी महिलाओं को उतना आगे नही आने दिया जा रहा है जितना उनको जरुरत है. और इसकी सबसे बड़ी वजह है हमारे समाज का पुरुष प्रधान होना. हालात ऐसे हैं कि नारी पुरूषों के लिये भोग-विलास की वस्तु है और जनता के मनोरंजन का साधन. पूंजीपतियों की झोली भरने और मतलब के लिये वह विज्ञापनों, फिल्मों आदि क्षेत्र में अश्लील रूप को प्रदर्शित की जा रही है. महिला आरक्षण का भी मात्र वही महिलाएं फायदा उठा सकती हैं जो शिक्षित या योग्य हैं. आज भी जो महिलाएं पर्दे के पीछे रहती हैं उनकी स्थिति वही की वही है. महिला आरक्षण बिल सिर्फ उच्च वर्गीय महिलाओ के लिए ही उपयुक्त होगा.
लेकिन जहां महिलाओं को दबाने में पुरुषों की भागीदारी देखी जा रही है, वहीं महिलाओं का व्यवहार भी उनकी प्रगति के रास्ते आ रहा है. अक्सर ऐसा देखने में आ रहा है कि जो स्त्रियां बाहर निकल कर समाज में कार्य करती हैं वह कामयाबी और आजादी के नशे में अराजक हो जाती हैं. महिलाओं का बिगड़ता फैशन और कम होती मर्यादाएं इस बात का प्रमाण हैं. इसके साथ ही ऐसा देखा जाता है महिलाएं युवावस्था में कैरियर बनाने में वे इतनी व्यस्त हो जाती हैं कि उस समय संतान पैदा करने का अवसर नहीं रहता है. बाद में इस कार्य में रुचि नहीं रह जाती है. उदाहरण के लिए पश्चिमी देशों मैं फैली श्वेत जाति लुप्त होने की ओर अग्रसर है और रूस जैसे देशों को संतानोत्पत्ति के लिए विशेष प्रयास करने पड़ रहे हैं. बदलते समय में नारी में कोई फूलनदेवी, तो कहीं सेक्स सिंबल की तरह देखता है लेकिन उनकी भी कमी नहीं है जो नारी में कल्पना चावला और सुनीता विलियम्स सरीखी नारियों को देखते हैं.
ऐसी महिलाएं भी कम नहीं हैं जो अपने फायदे के लिए या कभी-कभार सिर्फ मनोरंजन के लिए भी गैर मर्दों से रिश्ता बनाने से नहीं चूकती हैं. यही वजह है कि आज भारत में भी लिव-इन रिलेशनशिप की जड़ें मजबूत हो चुकी हैं. विवाहेत्तर संबंधों का चलन बढ़ गया है. इसकी वजह से तलाक के मामलों में भी काफी इजाफा हो रहा है. इस प्रकार की कुछ समस्याएं अभी छोटी हैं, लेकिन इनके आकार के बदलते ही हम और बड़े नैतिक पतन की ओर बढ़ जायेंगे. अब अगर हम इसके लिए पाश्चात्य संस्कृति को दोष दें तो गलत होगा, क्योंकि खुद हम जिम्मेवार हैं इस पतन के लिए. कुल मिलाकर यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगा कि जब तक हम अपनी मानसिकता नहीं बदलेंगे तब तक समाज में महिलाओं को अपनी जगह नहीं मिल सकती.
अगर हम भारत के संदर्भ में बात करें तो पाएंगे कि अब भी हमारे देश को महिलाओं की स्थिति सुधारने की जरुरत है. शिक्षा को निचले स्तर तक पहुंचा कर हम नारियों को सशक्त करने का प्रयास कर सकते हैं. इसके साथ ही महिलाओं को भी अपने अधिकार के साथ समाज की मर्यादा का भी ध्यान रखना चाहिए. एक सही दिशा में ही चलकर महिलाओं का सही विकास संभव है.
source:-internet
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